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ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – माह नवम्बर 2016 – एक प्रतिवेदन

ओबीओ लखनऊ चैप्टर की साहित्य संध्या – माह नवम्बर 2016 – एक प्रतिवेदन                                              - डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव

 

ताज होटल, लखनऊ के समीप एवं लखनऊ मेट्रो मुख्यालय के पार्श्व में स्थित SHEROES HANGOUT के सुदर्शन परिसर में अगहनी बयार की खुनक भरी ठण्ड का आलंबन लेकर रविवार 20 नवंबर 2016  को सायं 4 बजे ओ बी ओ, लखनऊ चैप्टर की साहित्य-संध्या का आगाज संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ की वाणी वंदना से हुआ. माँ के स्मरण के तुरंत बाद हास्य कवि आदित्य चतुर्वेदी को काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किया गया .

आदित्य चतुर्वेदी ने हास्य को दोहा छंद के माध्यम से प्रस्तुत किया उन्होंने भारतीय करेंसी के बदलाव पर हुए सामाजिक परिवर्तन पर तंज कसते हुए बताया कि लोग मंदिर मस्जिद का विवाद छोड़कर किस तरह करेंसी परिवर्तन की फ़िक्र में भाग रहे हैं और भक्ति भावना कहीं पीछे छूट गयी है. 

मंदिर मस्जिद छोड़कर लाइन के सरताज

रुपया भारी पड़ गया भक्ति हुयी मुहताज

 

केवल प्रसाद ‘सत्यम’ ने अनेक भावप्रद दोहे सुनाये. उन्होंने ‘बहरे रमल मुसद्दस महज़ूफ़’ में एक एक ग़ज़ल भी सुनायी  जिसके चंद  अशआर इस प्रकार हैं -

आपसे मिलकर मझे अच्छा लगा

कुम्भ का सागर मुझे अच्छा लगा 

है अजब मस्जिद गजब  मंदिर यहाँ

नीव का पत्थर मुझे अच्छा लगा 

 

युवा ग़ज़लकार आलोक रावत उर्फ़ आहत लखनवी ने चंद ग़ज़लें सुनाकर अपने गले के जादू से महफ़िल में सम्मोहन सा तारी कर दिया.

 

दर्द मेरा हमकदम और हमसफ़र हो जाए तो

क्या करूं माँ की दुआ भी बेअसर हो जाये तो

क्या गिले शिकवे करूँ  तुझसे मेरे मालिक बता 

बस ज़रा मुझ पर तेरी बस इक नज़र हो जाए तो

इश्क की परछाई से भी  भागता हूँ दूर मैं

इश्क इसके बाद भी मुझको अगर हो जाए तो 

 

डॉ0 सुभाष चन्द्र गुरुदेव ने स्वस्थ रहने और दोस्ती के मायने को  कुछ इस तरह सर परिभाषित किया –

स्वस्थ रहने का मैं पहले मौसम समझता हूँ

उठते दुआ के हाथ को मरहम समझता हूँ

दोस्तों के साथ जो पल गुजर रहे मेरे 

उन धरोहरों की खूबियाँ हरदम समझता हूँ . 

 

कवयित्री कुंती मुकर्जी ने आदम और हौवा की मिथकीय कथा को आधुनिक सन्दर्भ से जोड़ते हुए कहा-

आदम और हौव्वा ---!

चुका रहे हैं आज भी----!

शैतानी सेब की कीमत ----!

और ---!

शैतान ढूंढ़ रहा है ----!

दूसरे ग्रहों पर ---!

एक और हौव्वा ----!

 

संचालक मनोज कुमार शुक्ल ‘मनुज’ ने पहले एक भावपूर्ण रूमानी गीत सुनाया  फिर देश के किसानों और मजदूरों की पीड़ा को कुछ इस प्रकार व्यक्त किया –

 

जो लिखता है मुकद्दर फावड़ों से या कुदालों से

उसे शिकवा नहीं होता कभी हाथों के छालों से

 

ओ बी ओ लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ0 शरदिंदु मुकर्जी ने सबसे पहले बांग्ला साहित्य के सशक्त कवि सुकांत भट्टाचार्य जो लगभग 21 वर्ष की आयु में भूख और दैन्य से मरे, की भावपूर्ण कविता ‘चारागाछ’ का स्वरचित भावानुवाद ‘अंकुर’ प्रस्तुत किया. इस भावानुवाद का सम्प्रेष्ण इतना सशक्त है कि यह कहीं से भी अनूदित रचना जान नहीं पड़ती. जो साहित्य रसिक बांग्ला नहीं जानते उन्हें यह भावानुवाद उस यूटोपिया पर ले जाने में समर्थ है जहां तक स्वयम् मूल कविता

की पहुँच है, इस निकष पर निम्नांकित पंक्तियों के आधार पर इस दावे को परखा जा सकता है -

मैं देखता हूँ / एक जराग्रस्त महीरुह / जिसकी जड़ें / प्राचीन महल के शरीर को / चीर रही हैं / छोटे छोटे कोंपल / चुपचाप हवा में झूमते हुये / सुनते हैं / हर ईंट के पीछे / छुपी हुयी कहानी / खून–पसीना-आंसू की कहानी / और मैं अवाक हो / देखता हूँ / पीपल के इन कोंपलों में / गुप्त विद्रोह का जमा होना

डॉ० मुकर्जी की दूसरी कविता उनकी मौलिक रचना थी जिसमें वह जीवन की निरंतरता के संदर्भ में विभिन्न बिम्बों से गुजरते हुए अपनी यात्रा को चित्रित करते हैं इस प्रच्छन्न संदेश के साथ कि क्षितिज की सीमा एक भ्रम मात्र है -

 जब अँधेरे के स्पर्श से / हृदय की ज्योति / क्षीण होने लगती है / तब / ढूंढ़ ही लेता हूँ / अपना आकाश / और अपनी जमीं / वे क्षितिज तो बनाते हैं / पर मुझे रोकते नहीं / उन्हें छूने की अभिलाषा लिए / चलता चला जा रहा हूँ / अपनी ही धुन में / अनादि से अनंत की ओर

शहर के जाने-माने ग़ज़लकार कुंवर कुसुमेश को गले में शिकायत थी. उन्होंने अपनी इस शिकायत को चार मिसरों में बड़े पुरलुत्फ अंदाज से पेश किया-

मेरे दिल में जगा के हसरतें परवाज़ बैठी है

मेरा हमदर्द बैठा है मेरी हमराज़ बैठी है

सुना देता तरन्नुम में यकीनन मैं कई ग़ज़लें

मगर मैं क्या करूं यारों मेरी आवाज़ बैठी है

 

उन्होंने आगे अपनी एक ग़ज़ल में न्यूटन के सिद्धांत - Every Action has an Equal and Opposite Reaction - का निरूपण इस प्रकार किया :

 

जिस तरफ देखिये न्यूटन का नियम लागू है

प्यार के वार में हर वक्त पलटवार भी है 

 

डॉ0 गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने  ‘नमक का विधाता‘ शीर्षक अतुकांत कविता के माध्यम से नीमसारों में काम कर रहे नमक के अगडिया मजदूरों की करुण कथा इन शब्दों में व्यक्त की -

झुके हुए हैं

अनगिनत पुरुष मजदूर भी

अपने चीखते पहियों की रगड़ खाकर 

अड़ियल घोड़े की भांति

आगे बढ़ने से कतराते  

हथठेलों पर

कसमसाते हुये या फिर निश्चेष्ट

किसी शोक संदेश की तरह

किसी अज्ञात सत्ता के समक्ष

        जब मन कहीं रमा होता है, जब हम आत्ममुग्ध से ठगे हुए किसी सम्मोहन में होते हैं तो समय का चक्र कितनी अव्याहत गति से भागता है, इसका आभास जादू के टूटने पर होता है. हम सब इसी आत्मानुभव से गुजर रहे थे. काश ये जादू न टूटता.

 कोई इस तरह न मेरा दिल लूटे

        साथ ऐसा हो जो न फिर छूटे

       रंग जादू का चढ़े गर तो ऐसे 

       सात जन्मों तक न ये जादू टूटे ---सद्म्-रचित

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