दिनांक 18 नवम्बर 2017, ओपन बुक्स ऑन लाइन (ओ बी ओ) के प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर का जन्म दिवस. इसी घोषणा के साथ SHEROES HANG-OUT लखनऊ में ओबीओ लखनऊ-चैप्टर की साहित्य-संध्या माह नवंबर 2017 सुरभित हुई-
ओबीओ की सभा शुभ सजायेंगे हम
पूर्व से और उत्तम बनायेंगे हम
जन्मदिन योग के राज का प्रिय सखे !
आज उनके लिए गीत गायेंगे हम (14-14 वर्ण )
कार्यक्रम का सञ्चालन किया उदीयमान कवयित्री आभा खरे ने. उन्होंने सबसे पहले काव्य-पाठ के लिए कवयित्री सुश्री आभा चंद्रा का आह्वान किया. आभा चंद्रा ने अपने गीत में एक सपनीली दुनिया का तसव्वुर किया और कुंठा तथा निराशा से भरे जीवन में आशावाद का दामन मजबूती से थामते हुए कहा -
लम्हा लम्हा
हम बुन लेंगे
सपनों की इक चादर
दूसरे कवि थे ओपन बुक्स ऑन लाइन (ओ बी ओ) लखनऊ चैप्टर के संयोजक डॉ० शरदिंदु मुकर्जी. उन्होंने ‘कवि’, ‘दीवार’ और ‘अनुभूति’ शीर्षक से तीन कविताएं सुनाईं. ‘कवि’ कविता में एक जीवन दर्शन है. जो तृप्त हैं, जिनके पेट भरे हुए हैं, उनकी कविता कुछ और है, इसके विपरीत जो अभावों में पल रहे हैं, जिन्हें भरपेट भोजन नहीं मिलत़ा, उनका भी अपना एक जीवन है जहाँ वे स्वप्न देखते हैं, मगर उनकी कविता अलग है. उतनी ही सजीली उतनी ही रंगीली या शायद उससे भी अधिक जो एक तृप्त व्यक्ति की कविता है –
कौन कहता है / मैं कवि हूँ और वह नहीं / मैं पेट भर खाने के बाद / बरामदे की गुनगुनी धूप में बैठा हूँ / प्रकृति दर्शन के लिए / वह भूखे पेट एक कटी पतंग की डोर थामने / आसमान की ओर बेतहाशा भागा जा रहा है.
‘अनुभूति’ कविता में प्रकृति के उपादानों को लेकर भावों की अभिव्यक्ति का प्रयास हुआ है. कवि प्रकृति में ही ईश्वरत्व का आभास पाता हुआ प्रकृति के उपादानों के बीच स्वयं को समर्पित अनुभव करता है-
जब पीड़ा आनंद बने
हो व्याप्त भुवन में हँस-हँस कर -
हे नाथ समाधित होता है तब
तुममें यह मन तुममें यह तन
उदीयमान शायरा भावना मौर्य ने अपनी संगीतमय आवाज-अंदाज में कुछ सुन्दर रवायती ग़ज़लें पढ़ीं. एक बानगी यहाँ प्रस्तुत है –
\ज़िन्दगी की राह में जब वो मुकद्दर होगा
ख्वाब सारे जीतकर मन भी सिकंदर होगा
मनोज कुमार शुक्ल ‘ मनुज’ के स्वरों का विद्रोही तेवर अधिकाधिक उग्र होता जा रहा है. अब वे भगवान तक को बख्शने के मूड में नहीं हैं. वे नियंता से दो-दो हाथ करने को तैयार दिखते हैं –
है अगर लगता तुम्हे होकर नियंता
कर रहे हम पर बड़ा अहसान हो तुम
हुक्म देने के लिए ही तुम बने हो
इसलिए निर्द्वंद्व हो भगवान हो तुम
ग़ज़लकार भूपेद्र सिंह ‘शून्य‘ ने पहले मसनवी शैली में एक मजाहिया शृंगार रचना सुनायी फिर ग़ज़ल की ओर रुख किया. उनकी ग़ज़ल का एक नमूना पेश किया जा रहा है –
बेरुखी मुमकिन है चाहत का नया आगाज़ हो
हो नहीं सकता मेरी उल्फत नजर-अंदाज हो
संचालिका आभा खरे ने सांसारिक व्यवहार पर कुछ चुनिन्दा दोहे सुनाये-
सूरत रखते संत की, सीरत छल व्यापार
बातें मिसरी की डली दिल में द्वेष अपार
जले रात के आंगना, नींदों के नव द्वीप
सपनों के मोती सजे नैन बन गए सीप
डॉ० अशोक कुमार शर्मा ने बहुत ही मार्मिक और जीवन यथार्थ पर आधारित अपना गीत कुछ इस प्रकार पढ़ा –
आज तक मैं तुझ को रखकर किनारे ही जिया हूँ .
किन्तु फिर भी चाहता हूँ हाथ मेरा
थामकर रखो सदा तुम
अंत में डॉ. गोपाल नारायण श्रीवास्तव ने दो छंद-मुक्त रचनाएं ‘अनुभव’ और ‘रचना धर्मिता क्यों ?’ का पाठ किया. जीवन की वास्तविकता यह है कि हर युग में नयी पीढ़ी पुराने लोगों के अनुभव से स्वयं को जोड़ नहीं पाती और वे अपना अनुभव स्वयं प्राप्त करते हैं जबकि पुरानी पीढ़ी अपने अनुभव के दंभ पर नयी पीढ़ी को अनुशासित करना चाहती है. जनरेशन-गैप की इस विडम्बना को इस कविता के माध्यम से रूपायित करने का प्रयास हुआ है. कविता का एक अंश उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत है
सच तो यह है हमने / अनुभव को बना रखा है ढाल / जिससे बचाते हैं नयी पीढी के वार / क्योंकि हमें बर्दाश्त नहीं होता / उनका अल्हड़पन / उनकी बिंदास अदाएं, उनका नयापन
दूसरी कविता में काव्य-प्रयोजन को नये सन्दर्भ में प्रस्तुत करने का प्रयास हुआ है -
लो सुनो तुम / तौलते हैं हम / समय की धार और करते हैं सदा / आक्रांत दुर्वह काल क्षण को / बदलते हैं लोक मानस की / समूची सोच वैचारिक प्रलय से / हम समय की धार को भी मोड़ते हैं / क्रान्ति से करते युगांतर को उपस्थित
SHEROES HANG-OUT के snacks बड़े ही स्वादिष्ट थे. अगले दिन ओपन बुक्स ऑन लाइन (ओ बी ओ) लखनऊ चैप्टर एवं अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान के संयुक्त तत्वावधान में जानी-मानी कवयित्री श्रीमती संध्या सिंह के काव्य संकलन “मौन की झनकार” का लोकार्पण होना था. अतः वहीं पुनः मिलने का संकल्प लेकर सभी ने आतुर पखेरू की भाँति अपनी नीड़ की और प्रस्थान किया,
अनुभूति और भाव से समृद्ध हुए हम
अवसाद के प्रभावसे विवृद्ध हुए हम-
जब कभी आवाज दी है वक्त ने हमें
अर्गलायें तोड़कर प्रतिबद्ध हुए हम (सद्य रचित)
(मौलिक/अप्रकाशित)
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