“ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी” अंक-41 में शामिल सभी लघुकथाएँ - Open Books Online2024-03-29T07:42:24Zhttp://openbooksonline.com/forum/topics/41-4?commentId=5170231%3AComment%3A948444&xg_source=activity&feed=yes&xn_auth=noशानदार समीक्षा और सार्थक पहल…tag:openbooksonline.com,2018-09-30:5170231:Comment:9512012018-09-30T10:51:42.422ZMahendra Kumarhttp://openbooksonline.com/profile/Mahendra
<p>शानदार समीक्षा और सार्थक पहल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी. आपके परिश्रम को नमन. सादर.</p>
<p>शानदार समीक्षा और सार्थक पहल के लिए हार्दिक बधाई स्वीकार कीजिए आदरणीय वीरेन्द्र वीर मेहता जी. आपके परिश्रम को नमन. सादर.</p> आ. भाई जी लघुकथा गोष्ठी अंक…tag:openbooksonline.com,2018-09-27:5170231:Comment:9505582018-09-27T14:36:59.257Zनयना(आरती)कानिटकरhttp://openbooksonline.com/profile/NayanaAratiKanitkar
<p> आ. भाई जी लघुकथा गोष्ठी अंक ४१ के आयोजन हेतु बधाई. मैं जानती हूँ मैं बडी देर से आपको बधाई दे रही पर....<br></br><span>मेरा नम्र निवेदन है कि मुझे मेरी लघुकथा “सहवास” जो कि शीर्षक क्रमाँक- २२ पर स्थापित है, उसे संशोधन के साथ निम्न रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान करें ।<br></br><br></br></span></p>
<p>"सहवास"</p>
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<p>दो हफ़्ते से ज्यादा हो गये हैं उन्हें आय.सी.यू. में भर्ती हुए। बुढापा, डॉयबिटिज, ब्लडप्रेशर सबने एक साथ जोर मार दिया है। वेंटिलेटर पर सारे शरीर में नलियाँ ही नलियाँ। सिर्फ दस…</p>
<p> आ. भाई जी लघुकथा गोष्ठी अंक ४१ के आयोजन हेतु बधाई. मैं जानती हूँ मैं बडी देर से आपको बधाई दे रही पर....<br/><span>मेरा नम्र निवेदन है कि मुझे मेरी लघुकथा “सहवास” जो कि शीर्षक क्रमाँक- २२ पर स्थापित है, उसे संशोधन के साथ निम्न रूप में प्रस्तुत करने की अनुमति प्रदान करें ।<br/><br/></span></p>
<p>"सहवास"</p>
<p> </p>
<p>दो हफ़्ते से ज्यादा हो गये हैं उन्हें आय.सी.यू. में भर्ती हुए। बुढापा, डॉयबिटिज, ब्लडप्रेशर सबने एक साथ जोर मार दिया है। वेंटिलेटर पर सारे शरीर में नलियाँ ही नलियाँ। सिर्फ दस मिनट बैठने देती है सिस्टर। मैं भी तो बुढा गई हूँ। थक जाती हूँ काम करते-करते। पचास साल का साथ है उनका।अकेले कैसे छोड दूँ! आज बेटा-बेटी भी आ गये हैं, सहारे के लिए। उनकी भी भाग-दौड चल रही है। ये एक्सपर्ट वो एक्सपर्ट....</p>
<p> </p>
<p>अकेलेपन की कल्पना से मैं भी भयभित हो जाती हूँ कभी-कभी। कई दिनों से ठीक से खा भी नहीं पा रही हूँ।</p>
<p> </p>
<p>वे भी ये जानते हैं कि मैं उनके बगैर कभी अकेले कुछ नहीं खाती। हमेशा नाराज होते रहते थे, "राधा, तुम सुनती क्यों नहीं! मेरा काम ही ऐसा है। देर-सबेर हो ही जाती है। तुम वक्त पर खा लिया करो। वर्ना बाद में बिमारियाँ घेर लेंगी तुम्हें।" </p>
<p> पर मैं जानती थी कि मैंने खाना खा लिया तो वे खुद के साथ लापरवाह हो जाएँगे......।" फिर साथ ही खाना हमारे जीवन का हिस्सा बन गया था।</p>
<p> </p>
<p>मैं अपने विचारों में मगन थी। बेटा-बेटी और डॉक्टर साहब कब आकर मेरे समीप खडे हो गए, पता ही नहीं चला।</p>
<p> </p>
<p>वे तीनों अंग्रेजी में आपस में कुछ बातें कर रहे थे पर मेरा ध्यान उस ओर नहीं था। लेकिन "अब वेंटिलेटर हटा देते हैं...." जैसे कुछ शब्द जरुर मेरे कानों तक पहूँच गये थे।</p>
<p> </p>
<p>"माताजी ! अब आप घर जाईए। पिछले कई दिनों से आप यहाँ हैं। बच्चें हैं अब यहाँ पर। आप थोडा आराम कर किजिए और हाँ! लौकी का सूप बनाकर भेजिए पेशेंट के लिए।" डॉक्टर साहब कहते हुए बाहर निकल गये।</p>
<p> </p>
<p>"चलो माँ ! चलते हैं.....भैया है यहाँ पर।" शिनू मेरा हाथ पकडकर उठाते हुए बोली।</p>
<p> </p>
<p>मैं अनमनी-सी उठकर चल दी पर मेरा मन वहीं छूट गया।</p>
<p> </p>
<p>घर आकर नहाया, खाना खाया, थोडा और सूप बनाकर बेटी से जिद करने लगी, "अब चलो भी फिर से अस्पताल। तुम्हारे पापा इतने सालो में कभी.....दो घन्टे गुजर गए हैं हमें घर आए।</p>
<p> </p>
<p>"मम्मा! आप थोडा आराम कर लेती तो... मैं ड्रायवर के साथ सूप....." शिनू ने कहा।</p>
<p> </p>
<p>"तो तु रहने दे। तू आराम कर ले। मैं अपने से ही निकल जाऊँगी।" मैनें उससे कहा और बाहर निकलने लगी तभी....</p>
<p> </p>
<p>"मम्मा! मम्मा! रुको तो। भैया का फोन....." मगर मैं कहा सुनने वाली थी।</p>
<p> </p>
<p>"तुमने मुझे जबरन खिला दिया। पापा वहाँ भूखे बैठे है।" थर्मस उठाकर मैं बाहर निकलने को हुई।</p>
<p> </p>
<p>गेट पर पडौसी शर्मा जी और... को देखते ही धडकन बढ गई।</p>
<p> </p>
<p>"शिनू! शिनू! मैं ना कहती थी वो मेरे बिना न खा पाएंगे....नहीं---नहीं ...."</p>
<p> </p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
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<p><span><br/></span></p> शुक्रिया। कोशिश करूंगा। आदरणी…tag:openbooksonline.com,2018-09-13:5170231:Comment:9483642018-09-13T11:08:41.649ZSheikh Shahzad Usmanihttp://openbooksonline.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>शुक्रिया। कोशिश करूंगा। आदरणीय सर जी।</p>
<p>शुक्रिया। कोशिश करूंगा। आदरणीय सर जी।</p> तहे दिल से आभार आदरणीय भाई जी…tag:openbooksonline.com,2018-09-13:5170231:Comment:9485282018-09-13T09:05:22.405ZVIRENDER VEER MEHTAhttp://openbooksonline.com/profile/VIRENDERMEHTAVEERMEHTA
<p>तहे दिल से आभार आदरणीय भाई जी, सादर प्रणाम स्वीकार करें.... सादर </p>
<p></p>
<p>तहे दिल से आभार आदरणीय भाई जी, सादर प्रणाम स्वीकार करें.... सादर </p>
<p></p> हार्दिक आभार भाई शेख शहजाद उस…tag:openbooksonline.com,2018-09-13:5170231:Comment:9484442018-09-13T09:04:45.982ZVIRENDER VEER MEHTAhttp://openbooksonline.com/profile/VIRENDERMEHTAVEERMEHTA
<p>हार्दिक आभार भाई शेख शहजाद उस्मानी जी, आपके स्नेहिल शब्दों के लिए... सादर </p>
<p></p>
<p>हार्दिक आभार भाई शेख शहजाद उस्मानी जी, आपके स्नेहिल शब्दों के लिए... सादर </p>
<p></p> वाह वाह वाह! आनंद आ गया भाई व…tag:openbooksonline.com,2018-09-12:5170231:Comment:9484402018-09-12T17:00:17.173Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>वाह वाह वाह! आनंद आ गया भाई वीर मेहता जी . कमाल की समीक्षा की है. </p>
<p>वाह वाह वाह! आनंद आ गया भाई वीर मेहता जी . कमाल की समीक्षा की है. </p> बेहतरीन पहल, बेहतरीन विश्लेषण…tag:openbooksonline.com,2018-09-08:5170231:Comment:9481692018-09-08T13:55:49.180ZSheikh Shahzad Usmanihttp://openbooksonline.com/profile/SheikhShahzadUsmani
<p>बेहतरीन पहल, बेहतरीन विश्लेषण। हार्दिक आभार मुहतरम जनाब <strong>वीरेंद्र वीर मेहता</strong> साहिब।</p>
<p>बेहतरीन पहल, बेहतरीन विश्लेषण। हार्दिक आभार मुहतरम जनाब <strong>वीरेंद्र वीर मेहता</strong> साहिब।</p> वेब साईट ओ.…tag:openbooksonline.com,2018-09-08:5170231:Comment:9480782018-09-08T11:44:09.642ZVIRENDER VEER MEHTAhttp://openbooksonline.com/profile/VIRENDERMEHTAVEERMEHTA
<p><span style="font-size: 12pt;"> वेब साईट ओ.बी.ओ. अर्थात 'ओपन बुक्स ऑनलाइन' साहित्य के क्षेत्र में किसी परिचय की मोहताज नहीं है। अन्य सभी साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त ओ.बी.ओ. के प्रधान संपादक (आदरणीय योगराज प्रभाकर जी) के संचालन में विशेष तौर पर यहाँ लघुकथा के प्रोत्साहन के लिए महीने के अंतिम दो दिन एक लघुकथा का लाइव आयोजन किया जाता है जिसमें किसी एक विषय को देकर उस पर एक लघुकथा लिखने का आह्वान किया जाता है। ये आयोजन तीन वर्ष पूर्व ३०/०४/२०१५ से शुभारम्भ होने के बाद से…</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;"> वेब साईट ओ.बी.ओ. अर्थात 'ओपन बुक्स ऑनलाइन' साहित्य के क्षेत्र में किसी परिचय की मोहताज नहीं है। अन्य सभी साहित्यिक गतिविधियों के अतिरिक्त ओ.बी.ओ. के प्रधान संपादक (आदरणीय योगराज प्रभाकर जी) के संचालन में विशेष तौर पर यहाँ लघुकथा के प्रोत्साहन के लिए महीने के अंतिम दो दिन एक लघुकथा का लाइव आयोजन किया जाता है जिसमें किसी एक विषय को देकर उस पर एक लघुकथा लिखने का आह्वान किया जाता है। ये आयोजन तीन वर्ष पूर्व ३०/०४/२०१५ से शुभारम्भ होने के बाद से निरंतर पिछले ४० आयोजनों के साथ अपनी सफल उपस्थिति दर्ज करवा रहा है। लघुकथा विधा पर हिंदी साहित्य जगत में इस तरह के होने वाले आयोजनों में यह आयोजन अपनी तरह का अकेला आयोजन है जो लघुकथाकारों को प्रोत्साहित करने के अपने लक्ष्य में निरंतर लगा हुया है और निस्संदेह लघुकथा विधा के क्षेत्र में एक मील का पत्थर भी साबित हुआ है। इस बार अगस्त की बीती ३० और ३१ तारीख को ४१ वें आयोजन का विषय रखा गया था "आस्था"। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">आस्था एक ऐसा विषय है जिसे किसी सीमित भाव में नहीं बांटा जा सकता, आयोजन में आई लघुकथाएं भी आस्था के इन्हीं अलग-अलग भावों को व्यक्त करने का प्रयास कर रही है। बेशक इस आयोजन में आई सभी लघुकथाएं पूरी तरह से साहित्यिक अथवा लघुकथा मानको पर सम्पूर्ण सफलता दर्ज करने का दावा नहीं कर सकती लेकिन निराश भी नहीं करती है।बरहाल इस बार की सभी २२ रचनाओं का परिचय यदि एक-दो पंक्तियों में दिया जाए तो वह मेरे विचार में कुछ इस तरह ही होगा। </span><br/></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१. आयोजन की पहली कथा "तपस्या" (अजय गुप्ता) आपसी संबंधो में शक और अविश्वास के संदर्भ में आस्था का रंग दिखाती है. पत्नी के सम्मान को कठघरे में खड़ा करना फिर उससे सब कुछ सामान्य ढंग से लेने की आशा करना क्या उचित है, इसी रचना को प्रभावी ढंग से दिखाने का प्रयास करती है लघुकथा तपस्या।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;"> २. आपसी सद्भावना के लिए बच्चों द्वारा आगे आने के परिद्रश्य को दिखा रही रचना "विश्वास" (मोहम्मद आरिफ) सहज ही आस्था के सुंदर पक्ष को सामने रखती है। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;"> ३. आस्था के संदर्भ में सर्वशक्तिमान के प्रति सच्ची श्रद्धा और पूजा क्या होती है? क्या परमात्मा की अदालत में भी उसका निर्णय हमारी सोच के अनुसार होता है। इसी विचारधारा को 'पास्कल के सिद्धांत' से जोडकर कथ्य में ढली रचना "पास्कल का दांव" (महेंद्र कुमार) इस आयोजन की बेहतरीन रचनाओं में एक है। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">४. वर्तमान में घटित हो रहे नित नए 'बाबाओं' की खबरों से जुड़ी घटनाओं पर आधारित, आस्था के अंध-आस्था रूप को सामने रखने का प्रयास करती है लघुकथा "अंध विश्वास" (तस्दीक अहमद खान)।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">५. अपनी परम्पराओं और अपने प्रियजनों (विशेषकर जीवन साथी ) के प्रति व्यक्ति कितना अधिक मोह और आस्था रखता है, इस बिंदु को दिखाने का प्रयास करती है रचना 'समर्पयामि' (कनक हरलालका)। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">६. कितनी विचित्र मानसिकता है मनुष्य की, कि वह आस्था और अंधविश्वास के वशीभूत होकर तो अपना धन दुसरों को देने के लिए तैयार हो जाता है लेकिन एक जरुरतमन्द और मेहनती व्यक्ति को उसकी पूरी कीमत देने में कई बार सोचता है। इसी भाव को दिखाती है लघुकथा "त्रिकूट कालसर्प दोष" (टी आर शुक्ल)।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;"> ७. प्रदत विषय को बड़ी मुखरता से उजागर करती है लघुकथा "आस्था" (विनय अंजु कुमार)। आस्था के नाम पर हो रही शरारतें, महिलयों के साथ छेड़खानी और वर्तमान में नारी से अधिक एक पशु के सम्मान में लगे, मानव की मानसिकता की सुंदर बानगी है ये रचना।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">८. लघुकथा "नुमाइश" (प्रतिभा पाण्डेय) में आस्था के नाम पर होती दिखावेबाज़ी और आडंबर रचने वाली मानसिकता पर अच्छा प्रहार किया गया है।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">९. वर्तमान राजनीति परिदृश्य के संदर्भ में रची गयी रचना "काठ की हाँडी" (तेजवीर सिंह) चुनी गई सरकार पर विश्वास-अविश्वास के प्रश्न को सहज ही सामने रखना चाह रही है। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१०. आस्था के साथ-साथ पूरा विश्वास भी हो तो दुआएँ जरुर कुबूल होती हैं, इस बात को कहने का एक प्रयत्न है लघुकथा "सार्थक हुई दुआ" (बबिता गुप्ता)। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">११. जब हम किसी के प्रति आस्था रखते हैं तो क्या वह सम्पूर्ण होती है या केवल एक औपचारिकता निभाने की बात होती है। विश्वास या आस्था शब्द की व्याख्या करने का प्रयास करती है लघुकथा "आस्था की संपूर्णता" (विरेंदर वीर मेहता) </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१२. घर अलग, दर अलग, भाषा अलग, क्षेत्र अलग फिर भी जीवन मूल्यों के प्रति आस्था एक जैसी! इस बात को मुखरता से दिखाती है रचना "आस्था से भीगा मन" (आशिष श्रीवास्तव)। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१३. नर में ही नारायण बसते हैं, इस आस्था का सुंदर उधाह्र्ण सामने रखती है लघुकथा "इंसानियत" (बरखा शुक्ल)।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१४. ये तो सभी जानते है कि समय अपनी गति से सारे कार्य करता है लेकिन फिर भी मानव सर्वशक्तिमान ईश्वर पर, (चाहे वह किसी भी नाम से पुकारा जाए) अवश्य भरोसा करता है, या यूँ कहे कि परेशान-हताश व्यक्ति को सहज ही अपनी आस्थाओं पर विश्वास होने लगता है। 'कालखंड' पर ध्यान न दे तो, मनुष्य की इसी आस्था को दिखाने का अच्छा प्रयास, लघुकथा "विश्वास" (मुजफ्फ़र इक़बाल सिद्दीकी)।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१५. वर्तमान राजनैतिक माहौल को केंद्र बिन्दु बनाती और विभिन्न पक्षों के बीच जनता के विश्वास और सोच की विवेचना करने का प्रयास कर रही है रचना "भोलापन या बड़बोलापन"(शेख शहजाद उस्मानी)।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१६. जब कोई व्याक्ति एक जिम्मेदार नागरिक होने का दायित्व निभाने का प्रयास करता है तो क्या उसे सकारत्मक सहयोग मिल पाता है? इस प्रश्न को उठाने का प्रयास करती है लघुकथा "विश्वास की विवशता" (अर्चना त्रिपाठी)।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१७. धार्मिक यात्रायें हमेशा से आस्था और अंधविश्वास के बीच खड़ी नजर आती रही है समाज में, इसी कथ्य पर बुनी गयी है कथा "आस्था" (डॉ विजय शंकर) कथा सुंदर ढंग से इस बात को दिखाने का प्रयास करती है। </span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">१८. कभी-कभी आस्था भी दवाई का कार्य कर देती है क्या....? इसी बात को रचना "स्वास्थ्य" (ओमप्रकाश क्षत्रिय) में दिखाने की कोशिश की गयी है। शायद कहा जा सकता है कि आस्था भी किसी दवाई से कम नहीं होती यदि इसे अंधविश्वास की परिधि से दूर रखा जाए।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;"> १९. हमारे समाज में एक बहुत बड़ी विसंगति ये है कि हम अपने पक्ष को सदैव सही समझते है और दुसरे के पक्ष को उसकी दृष्टि से कभी देखना ही नहीं चाहते। इसी बात को बेहतरीन तरीके से रखने का सुंदर प्रयास हुआ है लघुकथा "आस्था के चक्रव्यूह" (सीमा सिंह) में। प्रदत्त विषय आस्था को एकदम नए तरीके से परिभाषित किया गया है इस लघुकथा में।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">२० . आतंकवाद बनाम जिहाद, जैसे ज्वलंत मुद्दे पर प्रस्तुत लघुकथा "दोराहे के मोड़ पर" (योगराज प्रभाकर) संवाद शैली में बेहतरीन ढंग से कथित जेहाद, आपसी नफरत, और दहशत की राजनीति का वास्तविक रूप सामने रखती नजर आती है। लघुकथा का अंतिम पंक्ति //.....तो कम-से-कम इतनी तसल्ली तो रहेगी कि अपने वतन में जाकर मरे हैं।"// आस्था के बहुत उम्दा रंग को हमारे सामने रखती है।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">२१. राजनीतिक इतिहास में एक वोट पर गिरी सरकार के घटे घटनाक्रम को आधार बना कर लिखी गयी रचना "आस्था" (मनन कुमार ) सहज ही आस्था को एक और रंग दिखाने का प्रयास करती है।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">२२. आयोजन की अंतिम रचना 'सहवास' (नयना(आरती)कानिटकर) में पति-पत्नी के आपसी रिश्तों के जुड़ाव में आस्था कितनी गहरी हो जाती है, इस कथ्य को बहुत ही प्रभावी ढंग से दिखाने का प्रयास किया गया है।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;"> उपरोक्त पंक्तियाँ न तो आयोजन में शामिल रचनाओं की समीक्षा है और न ही इन रचनाओं के गुण या दोषों के बारें में कुछ कहा गया है, यहाँ केवल 'आस्था' विषय पर आयोजन में शामिल रचनाओं का एक परिचय देने का प्रयास किया गया है। अत: अनंथ्या न लें........ सादर धन्यवाद। </span></p> हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्…tag:openbooksonline.com,2018-09-07:5170231:Comment:9481422018-09-07T04:21:57.147ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।</p>
<p>हार्दिक आभार आदरणीय योगराज प्रभाकर भाई जी।</p> यथा निवेदित, तथा प्रस्थापित।tag:openbooksonline.com,2018-09-07:5170231:Comment:9480462018-09-07T03:58:34.300Zयोगराज प्रभाकरhttp://openbooksonline.com/profile/YograjPrabhakar
<p>यथा निवेदित, तथा प्रस्थापित।</p>
<p>यथा निवेदित, तथा प्रस्थापित।</p>