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दिल्ली के गुलाबी मौसम में सम्मिलन सह काव्य-गोष्ठी

ओपेन बुक्स ऑनलाइन (ओबीओ) के प्रबन्धन द्वारा इसके प्रादुर्भाव काल से ही इसके उद्येश्यों के मुख्य विन्दुओं को सदा से मुखर रखा गया है. साहित्य की विधाओं पर सटीक चर्चा, साहित्यिक विषयों और विधाओं की चर्चा के दौरान सदस्यों से गंभीर भागीदारियों की अपेक्षा सदा से मुख्य विन्दु रहे हैं. सदस्यों से सदा से आग्रह रहा है कि इस तरह के वातावरण का निर्माण हो जहाँ सीखने-सिखाने की एक ऐसी परिपाटी बने ताकि नव-हस्ताक्षर स्थापित रचनाकारों के साथ एक सकारात्मक माहौल को जी सकें.  इस क्रम में कहना न होगा कि इस निराली ई-पत्रिका/मंच  के संस्थापक सदस्य भाई गणेश जी ’बाग़ी’ तथा प्रधान सम्पादक श्री योगराज प्रभाकर जी की स्पष्ट सोच ने समय-समय पर कई-कई तरह की निर्मूल शंकाओं और दुविधाओं को नकारते हुए सकारात्मकता की पुरजोर लकीर खींची है. इस सद्-प्रयास के क्रम में यह विन्दु भी उभर कर आया कि यह अवश्य हो कि आभासी दुनिया की रचनाकर्मी संज्ञाएँ भौतिक रूप से भी क्रियाशील हों.

 

इस वर्ष के माह नवम्बर में हुई वाराणसी की गोष्ठी और सम्मिलन, जिसके पीछे भाई अभिनव जी का उल्लेखनीय योगदान रहा है, की सकारात्मक प्रतिक्रिया ने  इस बात पर एक तरह से मुहर सी लगा दी कि भौतिक सम्मिलन के पश्चात निर्गत सकारात्मक ऊर्जा रचनाधर्मिता के नये-नये आयाम सामने लाती है. साथ ही, सभी सदस्य अनुभव तथा आत्मविश्वास के लिहाज से कुछ और धनी होते जाते हैं.  फिर तो उसी माह के आखिरी दिनों में प्रयाग की पवित्र धरती पर हुआ सम्मिलन समारोह और हुई सफल काव्य-गोष्ठी ने इस बात को सबके सामने बखूबी उजागर किया कि अपना हेतु केवल और केवल साहित्य था और है,  न कि साहित्य के नाम पर चलायी जा रही निरंकुश मठाधीशी. 

 

यह भी एक विचित्र सा संयोग रहा था कि इन पंक्तियों का लेखक प्रबन्धन और कार्यकारिणी समितियों के कई-कई सदस्यों से अभी तक साक्षात नहीं मिल पाया था. माह दिसम्बर में एक सुखद संयोग बन रहा था जब गणेशजी बाग़ी और मेरा दिल्ली में एक साथ होना संभव हो पारहा था. इस सुखद संयोग को सदस्य-सम्मिलन और काव्य-गोष्ठी में परिणत करने के उद्येश्य से पटियाला से प्रधान संपादक का अनुमोदन मिल चुका था.  ओबीओ कार्यकारिणी के ऊर्जावान सदस्य श्री धर्मेन्द्र शर्माजी, अपने धरम भाई, गुड़गाँव की गलियों से निकल इस हेतु दिल्ली के राजपथ पर आना अपना सौभाग्य कह चुके थे.  फिर तो परस्पर संपर्क साधने का काम भाई गणेश बाग़ी जी ने अपने जिम्मे ले लिया.

 

तय हुआ दिनांक 18 दिसम्बर 2011 का दिन.  यह वह मुबारक दिन होना था जब मैं धरम भाई को छोड़ लगभग सभी सदस्यों से पहली बार साक्षात मिलने जा रहा था. सम्मिलन और काव्य-गोष्ठी के लिये स्थान तय हुआ नयी-दिल्ली के राजीव चौक का सेण्ट्रल पार्क जिसके परिसर में पहुँचना सभी के लिये सुलभ था.  श्री योगराज भाईजी पटियाला की गहन धुँध और प्रचण्ड कुहरे के सघन आवरण को चीरते हुए समय पर पहुँच गये. धरम भाई, गणेश लोहानी जी, श्रीमती नीलम उपाध्याय जी, मोनिका जैन, वीके उपाध्यायजी, मनीष खन्नाजी भी धीरे-धीरे जुट आये. पटना से चले गणेशभाई जी बारह घण्टे विलम्ब से दिल्ली पहुँच पाये थे.  घने कुहरे के रौद्र रूप से सहमी-सिहरी उनकी ट्रेन मंथर-मंथर दिल्ली पहुँच पायी थी. परन्तु गोष्ठी में गणेश भाई समय पर थे.  सही है, उत्साह के अपने अलग ही मायने हुआ करते हैं.

 

साहित्य चर्चा के दौरान ओबीओ के आयोजनों की दशा तथा सदस्यों के साहित्याचरण पर खुल कर बातें हुईं. इस चर्चा में एक बात उभर कर यह भी आयी कि सभी उपस्थित सदस्य एक दिशा और एक भाव में सोचते हैं. और, सभी के लिये साहित्य-साधना ही हेतु है. गोष्ठी के प्रारम्भ में ही सदारत हेतु आदरणीय भाई योगराज जी के नाम का प्रस्ताव मैंने रखा जिसका सभी ने एक स्वर में अनुमोदन कर दिया. गोष्ठी के हर तरह के संचालन का जिम्मा धरम भाई जी के कंधों पर डाल हम सभी संतुष्ट थे. जिस धर्म का आपने गंभीरता से निर्वहन किया. 

 

काव्य-गोष्ठी का प्रारम्भ वैदिक ध्यान से हुआ, ताकि सभी सदस्य कालस्थ व स्वस्थ हो लें.  संचालक भाई धरम जी के आग्रही आदेश पर गणेश बाग़ीजी द्वारा रचना-पाठ प्रारम्भ हुआ. बाग़ी जी ने भोजपुरी छंदों और ग़ज़ल के माध्यम से समसामयिक कुरीतियों पर जिस तरीके हमला बोला कि हम सभी आपकी वैचारिक परिपक्वता के कायल हो गये. पारंपरिक कर्म के नाम पर होता हुआ असमय  का विवाह हो या कन्याओं के जीवन पर लगा प्रश्न-चिह्न. सब कुछ को समेटे हुए आपने क्या ही स्वर दिया था.  भोजपुरी भाषा की मिठास लिये आप अपने विचारोत्तेजक भावों और सस्वर पाठ के कारण सभी की एकाग्रता का कारण बने थे -

जनम लेवे से पहिले, मार दिहलs बिटियन के |
अब पतोहू ना मिले, तs मन बघुआईल काहे ||

 

कह-मुकरियों में से बानगी -

चोरी छुपे मोहे ताकत बाड़न,
टुकुर-टुकुर निहारत बाड़न,
कहेलन रानी खालs पिज्जा,
ऐ सखी दुलहा, ना रे जीजा !

गणेश भाई द्वारा मुकरियों में  ’ना रे !’  कहना ने तो जैसे हमारा मन मोह लिया. सर्वोपरि, विधा में शिल्प के लिहाज से यह एक अभिनव तथा सफल प्रयोग भी था जिसकी सभी ने दिल खोल कर प्रशंसा की.

 

गणेशजी के हिन्दी कवित्त से बानगी के तौर उद्धृत पंक्तियों से बहरियाते दर्द से भला कौन श्रोता भावयुक्त न हो लेगा - 

टीस अब देने लगे, दिल को संबंध कई,  जल्द ऐसे संबंधों को, भुलाना मैं चाहता,
दूसरों की खातिर तो, जीता रहा हर पल, खुद के लिए दो पल, चुराना मैं चाहता,

 

 

श्रीमती नीलम जी के सरस कंठ से बहती सुरीली अविरल धार ने हम सभी को आनन्द के उस लोक में जा पहुँचा दिया था जहाँ शब्द अक्षर का प्रारूप धारे परमसत्ता की ओर का मार्ग प्रशस्त करते हैं.  महाप्राण निराला के कालजयी आह्वान पर आपके सधे स्वर ने मानों जादू-सा कर दिया था  -- प्रिय स्वतंत्र रव अमृत मंत्र नव भारत में भर दे.. वर दे !

 

 

धरम भाई जी की भाव-प्रवण रचनाओं को इस काव्य-गोष्ठी का सत्त कहा जाय तो तनिक अतिशयोक्ति नहीं होगी.  आपकी रचनाओं में विडंबनाओं को लगातार पराजित करती मानवीय जिजीविषा मुखर थी -

क्यों रूठ के बैठी है तितली, बरगदों की शाख पर
है बे-मुरव्वत जिंदगी, उसने खीझ के तनक़ीद की

इन पंक्तियों की गहराई पर हम चकित थे. 

या फिर,
उन सरहदों के पार जाकर, उम्मीद कोई छोड़ी नहीं,
रौशनी तो अपनी सोच से है, इतनी सी ताकीद की



संचालक महोदय द्वारा मुझे मिला आदेश मेरे लिये मेरी काव्य प्रक्रिया का अनुमोदन था. अपनी अतुकांत शैली की रचनाओं और नव-गीतों के यथासम्भव प्रयास से मैंने अपनी बात कही.  जो बन पड़ा समर्पित किया लेकिन, कहना न होगा कि,  उपस्थित सभी विद्वद्जनों द्वारा मिली भूरि-भूरि प्रशंसा ने मेरे उत्साह को बहुगुणित कर दिया था.

फिर तो जो क्षण तारी हुए थे वहाँ मेरे लिये बस इतना भर ही अहसास था -

न द्वंद्व है
न चाह है
न दर्द है
न आह है
कर्म के उद्वेग में शून्य की उठान है
नहीं कहीं है चाहना, नहीं अभी है कामना 
बस होश, जोश की बिना पे ताव है...   बस आन है !

मेरी रचना  ’ना..  तुम कभी नहीं समझोगे..’ की पंक्ति-दर-पंक्ति मिली स्वीकृति ने मुझे अभिभूत कर दिया. इस रचना की भाव-दशा को मिला समवेत सकारात्मक प्रतिसाद मेरे लिये पवित्र प्रसाद सदृश था.

 

देसज बोल के एक नवगीत की कुछ पंक्तियाँ -

झूम-झूम कर
खूब बजाया
बेतुकी विकास-पिपिहिरी
पीट नगाड़ा
मचा ढिंढोरा
उन्नति फिरभी रही टिटिहिरी
संसदवालों के हम मुहरे
पाँसा-गोटी झेल..  भइया, देखो अपना खेल...

द्वारे बंदनवार प्रगति का पिछवाड़े धुरखेल ..

 

अनगढ़ उन्नति के लिये टिटहरी का बिम्ब गोष्ठी के अध्यक्ष योगराज भाईजी को बहुत भाया और आपने इसकी विशेष तौर पर सराहना की.

 

मोनिकाजी, जो रचनाकारों से मिले भाव-शब्दों को विन्दु-विन्दु पीती हुई अपनी वाह-वाहियों से उत्साहवर्द्धन करती जा रही थीं, क्या ही संवेदनापूरित रचना द्वारा सभी को मुग्ध कर दिया. शब्द मानों दृग-कोरों की नमी से प्राण पा दुर्निवार छलके आ रहे हों.

क्या कोई भी ऐसा न रहा....

...
आँखों की भाषा पढ़ लेता
और मेरे ठहरे अश्कों को
अपने हाथों में ले कर के
मोती सा रूप उन्हें देता
आज फिर मेरी आँख की कोर पर आंसू ठहरा
रचना कब, कैसे समाप्त हुई पता ही न चला.
 

 

 

समय अपनी प्रवृति के अनुसार सरपट भागा जा रहा था.  आखीर में, गोष्ठी अध्यक्ष आदरणीय योगराज जी आये और आप क्या आये ! लुप्तप्राय छंद विधा ’छन्न-पकैया’ को न केवल पुनर्जीवन मिल रहा था बल्कि आपके एक-एक छंद आपकी गहन संवेदना, उच्च विवेचना और भाषायी प्रौढ़ता की बखान आप कर रहा था.  क्या अंदाज़, क्या तेवर और क्या प्रवाह. संध्या भर-भर उठी थी.

छन्न-पकैया छन्न-पकैया, छन्न के ऊपर बिंदी

भाषाओं में पटरानी है मेरी माता हिन्दी !!

छन्न-पकैया छन्न-पकैया, बात नहीं है छोटी

भरे देश के जो भण्डारे, उसको दुर्लभ रोटी !!


या फिर,

छन्न-पकैया छन्न-पकैया, छन्न पकेगी हंडिया

भारत ज़िंदा अगर रहा जो तभी बचेगा इंडिया !!


धनातिरेक के कुबेरी विलास को जीती आत्ममुग्ध दिल्ली की गोद में साधिकार बैठ कर इंडिया   की औकात को ललकारते हुए योगराज भाईजी को सुनना रोमांचित कर गया था.  कहना न होगा, योगराज भाईजी ने इन द्विपदियों में क्या कुछ नहीं समेटा था ! कितने रूप हैं भाव संप्रेषण के !

 

 

क्या कहूँ उस दिन के संसार की ! आदरणीय योगराज भाई से अपना मिलन, वाह ! दिल्ली के आसमान का गला भर आया था.  लोचन जल रहि लोचन कोना,  न बहते बने, न सहते बने.  गणेश भाई को जितना जाना था, जितना सुना था, उससे भी कहीं  अधिक भावप्रधान मिले.  अनुज भाव का साक्षात प्रारूप ! उनका मेरे प्रति ’भइया’ का विमुग्धकारी सम्बोधन आज मेरे हृदय-उद्गार का अभिन्न हिस्सा बन मेरी धमनियों में बह रहा है.  नीलम जी की पवित्र आत्मीयता हो,  मोनिका जैन की सनाढ्य किन्तु भावुक खिलखिलाहट हो, खन्ना साहब के भाव-प्रवण शब्द हों, लगातार अभिभूत हुए जारहे गणेश लोहानी जी का आग्रही समर्पण हो,  चाहे धरम भाईजी का जादुई किन्तु उत्तरदायी व्यक्तित्व हो, सबकुछ, सबकुछ मेरे जीवन के अपने-अपने से पन्ने पर अमिट चित्र बन अंकित हो चुके हैं.  आपसी वाचिक आदान-प्रदान ने और फिर स्वादभरे रस-रसायन पूर्ण उपाहार ने सभी को एक-दूसरे के कब कितना निकट ला दिया था पता ही नहीं चला.  कोई अजनबी था क्या ? कत्तई नहीं.

 

मिलन अपने साथ बिछोह की घड़ियाँ लिये क्यों आता है ? पार्क के परिसर से बाहर निकल कर बार-बार हो रहा परस्पर नमस्कार, बार-बार एक-दूसरे का हाथ पकड़ कर भाव जताना, परस्पर हाथ मिलाना.. !  आह !

 

बस में नहीं होता न, वर्ना जमा कर उन क्षणों को ’एनकैप्सुलेट’ कर लेता, गले में पड़े ताबीज के लिये, जिसका हृदय-प्रदेश से बार-बार का सारोकार बना रहता है.

*****************************

--सौरभ

*****************************

 

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क्या दिल से रिपोर्ट लिखी है आदरणीय सौरभ भाई जी ने, एक एक पल आँखों के सामने घूम गया और उस अविस्मरणीय मिलन की सकारात्मक ऊर्जा पुनः नस-नस में दौड़ गई. एक बहुत ही कमाल की बात जो मैं कभी नहीं भूल पाऊँगा वो ये  कि निशिस्त खत्म होने के बाद हर कोई अपने अपने ढंग से एक दूसरे से विदा तो ले रहा था, मगर वहां से हिलने का नाम कोई भी नहीं ले रहा था.
 
बागी भाई के साथ वो हमारी वर्तमान ओर भूतपूर्व युवा वाली चुहलबाजी, धरम भाई का वो खुला अंदाज़, मोनिका जैन जी का हर रचना पर दिल खोल के दाद देना, भाई मनीष खन्ना जी ओर उनके बेटे का वो श्रद्धा सेवा भाव एवं तन्मयता से शिरकत करना, धीर गंभीर सी दिखने वाली नीलम उपाध्याय जी की वो निर्मल सी मुस्कान, भाई गणेश लोहानी जी का वो संजीदा अंदाज़, ओर उन सब से ऊपर खुद आपकी मौजूदगी ओर बाकमाल  रचनायें - किस किस चीज़ का ज़िक्र करूँ?
 
कहना ना होगा कि इस मिलन से न केवल आपके धागे और मज़बूत हुए वहीं ओबीओ परिवार और भी कहीं अधिक समृद्ध हुआ है. इस यादगारी निशिस्त की यादगारी रिपोर्ट के लिए आपको हृदय से साधुवाद आदरणीय सौरभ भाई जी. 

उन अविस्मरणीय क्षणों को पुनः जी पाने की अदम्य लालसा ही इस विस्तृत रिपोर्ट का कारण बनी है, आदरणीय योगराज भाईजी.  उस पर से आपकी सदाशय उपस्थिति से उस अभिभूतकारी माहौल में भावनाओं की अल्पना रच गयी थी.

सादर.

 

आहा ! इस रपट का इन्तजार कई दिनों से कर रहा था, पुनः एक-एक मंजर आँखों के सामने, राजीव चौक का विशाल सेण्ट्रल पार्क, जाड़े की वह गुनगुनी धूप से सराबोर मैदान, युवा महोत्सव का उत्साह और इसी उत्प्रेरक माहौल में ओ बी ओ के भूतपूर्व और वर्तमान युवाओं का मिलन :-) ... वाह वाह वाह, एक बार फिर किसी फ़िल्म की तरह मन मानस पर तैर गया, कई सदस्यों से पहली बार मिलना और सुखद आश्चर्य यह कि एक पल को भी नहीं लगा कि पहली बार मिल रहा हूँ , बड़े भाई सौरभ पाण्डेय जी, आदरणीय गुरुदेव योगराज प्रभाकर जी का स्नेह, बड़ी बहन नीलम उपाध्याय का अपनापन, धरम भाई, मनीष खन्ना जी, वी के उपाध्याय जी, गणेश लोहानी जी, मोनिका जैन जी का प्रेम, कभी ऐसा नहीं लगा कि  हम लोग आभासी दुनिया से जुड़ने के बाद यहाँ मिल रहे है |

काव्य सरिता में गोते लगाते उतराते कब संध्या हो गई पता ही नहीं चला , मुझे याद है कि सभा समापन के बाद कैसे सभी लोग हाथ मिलाकर, यथोचित अभिवादन के बाद विदाई मांग रहे थे और विदा दे रहे थे किन्तु इन सब के पश्चात् सुखद पहलू यह कि कोई जाने का नाम नहीं ले रहा था |

मैं विशेष नाम लेना चाहता हूँ श्री मनीष खन्ना जी और उनके बेटे जी का जिन्होंने पुरे समय बड़े ही तन्मयता से सभी लोगो का ख्याल रखे हुए थे | 

इस बेहतरीन आखों देखा हाल प्रस्तुत करने के लिए सौरभ भइया को बहुत-बहुत बधाई, इस उम्मीद के साथ कि पुनः जल्द मिलेंगे |

इस रिपोर्ट पर आपकी आत्मीय प्रतिक्रिया से मैं अभिभूत हूँ, गणेश भाईजी.  यह आपने एकदम से सही कहा है कि मनीष खन्ना जी के सुपुत्र की अथक कोशिशों का ही नतीजा है कि हम सभी उन क्षणों को बार-बार देख पा रहे हैं और आपस में साझा कर पा रहे हैं. दूसरे मनीष जी स्वयं हर तरह के इंतजाम में धरम भाई जी का हाथ बँटा रहे थे. उनकी ही कोशिशों का नतीजा था कि हम सभी पेट की समयबद्ध मांग को भूल मस्तिष्क रंजन क्रिया में रत थे.  आपकी बात सच हो कि हम सभी शीघ्र मिलें.

मै सोच रहा हूँ वहाँ होना कितना सुखद रहा होगा | रपट पढ़कर  मै तो सचमुच वहीँ पहुच  गया| मै सोचता हूँ कि वो हसीं पल मेरी भी जिंदगी में आये औ मै भी आप लोगों का सानिध्य पा सकूँ |

जिस खूबसूरती एवं ओजस्वी उर्जा के साथ यह रपट लिखी गयी है मै बखान नहीं कर पा रहा हूँ| मै सोचता हूँ कि ऐसी ही  कोई व्यवस्था लखनऊ में भी हो और मै भी आप लोगो का सानिध्य पा सकूँ | मै कितना खुश हूँ यह जानकर कि इतना खुबसूरत आयोजन हुआ था| 
जय ओ बी ओ 

सही कहा आपने आशीष जी, गोष्ठी में वहाँ होना बहुत सुखद था.  बहुत अच्छा लगा कि आपने इसतरह के माहौल में होने की बात की है, कि, वो हसीं पल मेरी भी जिंदगी में आये औ मै भी आप लोगों का सानिध्य पा सकूँ |

मैं तो कहूँ कि आप ही क्यो न लखनऊ की परिसीमा में रह रहे सदस्यों को जोड़ कर काव्य-संध्या का आयोजन करें. वस्तुतः ओबीओ एक विचार भी है न, जिसके जरिये हम एक-दूसरे से कुछ न साझा कर अपना मनस-उत्थान करते हैं.

Aha ! ye rapat padhkar ham sab bhi delhi ke Sahityik Maha Kumbh me gote laga liye. Ayojan ko Adrniy Saurabh ji ne bakhubi Sakshat karwa diya. Cp Park ki jutaan me shamil hue sabhi ko Hardik Mubarakvaad.Wakai yah OBO ki Rajdhani me Zordar Dastak hai. Karwan badhta rahe.Bagi ji Yograj ji Dharam ji sarikhe Sabhi Sarathiyon ko Naman !
(comment in roman b'coz via mobile)

भाई अभिनवजी, आप द्वारा हुआ वाराणसी में काव्य-संध्या हेतु प्रयास किस उत्साह का कारण बना है ! कदम सदा से छोटे ही उठा करते हैं किन्तु दूरियाँ बड़ी-बड़ी तय होती हैं.  इस तरह के मिलन समारोह आपसी सम्बन्धों को प्रगाढ़ तो बनाते ही हैं, मनस-उत्थान का कारण भी होते हैं. 

 

दिल्ली के उक्त सम्मिलन-सह-काव्य-समारोह में कई और विभूतियों ने शिरकत करने की इच्छा जतायी थी, परन्तु, व्यक्तिगत कारणों से वे उपस्थित न हो सकीं. इसका मलाल हमें भी है.  हाँ,  दिल्ली की गोद में सम्पन्न भले यह पहली बैठक थी लेकिन आश्वस्ति यही है कि यह अंतिम नहीं है.. .

 

सौरभ जी, इस कविता गोष्ठी के बारे में अपने भावों को शेयर करने के लिये आपका बहुत धन्यबाद. आपकी कलम से उकेरे शब्दों से उन क्षणों का कुछ रसास्वादन मैं भी कर पा रही हूँ. रपट को बहुत सुंदर तरीके से प्रस्तुत किया है. भविष्य के लिये भी अनेक शुभकामनायें.

शन्नोजी, आपने इस रिपोर्ट के जरिये उक्त गोष्ठी में होना महसूस किया यह मेरे लिखे को आपका अनुमोदन है. इस में कोई संदेह नहीं कि हम सभी उपस्थित सदस्य उस सम्मिलन के बाद परस्पर भावभरे थे.  उन आत्मीय क्षणों को साझा करने के उद्येश्य से ही मैं ने उन पलों के कुछ मुख्य विन्दुओं को सामने रखा है. हाँ, यह अवश्य है कि लगातार यात्राओं के कारण रिपोर्ट के पोस्टिंग में हफ़्ते भर का समय लग गया.  इस हेतु मुझे खेद भी है.

 

आपको विवरण की शैली रुची यह मेरे लिये भी कम संतोष की बात नहीं है, वन्दनाजी.  अगली बार देखिये दिल्ली में कैसे और कब मिलना होता है. आप उस दफ़े अवश्य निशिश्त में शिरकत करेंगीं, इस आशा के साथ आपका स्वागत है.

 

वाह वाह वाह

सौरभ जी,
फोटो तो फेसबुक पर देख लिए थे
पोस्ट कल पढ़ने को मिली
तीन दिन से नेट कनेक्शन खराब था और जैसे ही मोबाइल पर ई मेल से पोस्ट की सूचना प्राप्त हुई रहा नहीं गया और मोबाइल पर ही पोस्ट बांच डाली

आप की रिपोर्टिंग अदभुद होती है
आज फिर से पोस्ट पढ़ी कल और आज दोनों दिन इलाहाबाद की गोष्ठी की याद ताज़ा हो गई

एक बार फिर से आपकी शब्द संवेदना ने रोमांचित किया
इतनी सुन्दर रिपोर्टिंग के लिए धन्यवाद, आभार और बधाई स्वीकारें

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