For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

ओबीओ ’चित्र से काव्य तक’ छंदोत्सव" अंक- 69 की समस्त रचनाएँ चिह्नित

सु्धीजनो !

दिनांक 21 जनवरी 2017 को सम्पन्न हुए "ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" अंक - 69 की समस्त प्रविष्टियाँ 
संकलित कर ली गयी हैं.

अपरिहार्य कारणों से संकलन के प्रस्तुतीकरण में हुए विलम्ब के लिए इस विशिष्ट मंच से सादर क्षमाप्रार्थी हूँ.


इस बार प्रस्तुतियों के लिए दो छन्दों का चयन किया गया था, वे थे उल्लाला छन्द और रोला छन्द.


वैधानिक रूप से अशुद्ध पदों को लाल रंग से तथा अक्षरी (हिज्जे) अथवा व्याकरण के अनुसार अशुद्ध पद को हरे रंग से चिह्नित किया गया है.

यथासम्भव ध्यान रखा गया है कि इस आयोजन के सभी प्रतिभागियों की समस्त रचनाएँ प्रस्तुत हो सकें. फिर भी भूलवश किन्हीं प्रतिभागी की कोई रचना संकलित होने से रह गयी हो, वह अवश्य सूचित करे.

सादर
सौरभ पाण्डेय
संचालक - ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव, ओबीओ

**********************************************

१. आदरणीय मिथिलेश वामनकर जी
उल्लाला छंद आधारित गीत

पंछी बन के आज तो, उड़ जाऊँ आकाश मैं

करती भी क्या आस जब दुनिया पुरुष-प्रधान है?
वितरण भी सम्मान का, नित होता असमान है।
त्याग तपस्या वेदना, युगों मिला संघर्ष है।
भ्रम ये देवी रूप का, उफ़! कैसा निष्कर्ष है?
सबके जीवन ग्रीष्म की, कब तक बनूँ पलाश मैं?

आवश्यक था कर चुकी, दीप प्रकाशित ज्ञान का।
शिक्षा ही पथ मुक्ति का, अक्षर पथ उत्थान का।
उत्पीड़न से नार का, यह सीधा प्रतिकार है।
आज समझ पाई सखी, क्या जीवन का सार है।
कहती हूँ अब गर्व से, सृष्टि नियति नक्काश मैं।

ईश्वर से सम्वेदना, सहनशीलता प्राप्त है।
कुशल प्रबंधन का मिला सद्गुण भी पर्याप्त है।
गुण पाए, सेवा, सरल, सहज, समर्पण सम्पदा।
अंतर तम को भेदकर, करे प्रकाशित जो सदा,
अरुणोदय की आस का ऐसा शुद्ध प्रकाश मैं।

जितना सक्षम है पुरुष, उतनी सक्षम नार मैं।
अपनी कुंठा सिन्धु से, निश्चित ही अब पार मैं।
ना मैं आज अशक्त हूँ, ना मैं कोई यंत्र हूँ।
ना देवी का रूप मैं, केवल मनुज स्वतंत्र हूँ।
आखिर पूरी कर चुकी, ख़ुद की आज तलाश मैं।

द्वितीय प्रस्तुति
रोला छंद आधारित गीत

संसृति का उपहार, प्रेम की अनुयायी हूँ
किन्तु स्वप्न के पंख, पहन खुशियाँ लायी हूँ

जाने कितने रूप, धरे हैं इक जीवन में
बदला है घर-द्वार, सदा सुन्दर मधुवन में
निशदिन करती कार्य, वही जो सुखकारी है
पाते सब आनंद, न कोई आभारी है
दायित्वों से चैन लिया, कब सुस्तायी हूँ?

जननी बनकर दूध, पिलाया, पाला मैंने
पा व्यंग्यों के दंश, उन्हें भी टाला मैंने
बस जीवन से पीर, सभी के, छाँटी मैंने
उसके बदले सिर्फ, सुधा ही बाँटी मैंने
यद्यपि कैसा भाग्य? सदा से विषपायी हूँ

सोचो तो आकाश, नापने क्यों आती हूँ?
स्वप्न सलोने देख, सदा क्यों पछताती हूँ?
सीता सा आदर्श, नार में चाहा लेकिन
बिना आपके राम, बने ये कैसे मुमकिन?
कब आओगे राम कि फिर मैं पथरायी हूँ?

वृन्दगान या कोरस

सकल जगत के कष्ट, नहीं उत्तरदायी हूँ
दण्ड करूँ स्वीकार भला क्यों? सुखदायी हूँ
पुरुष स्वयं में झाँक, सदा अंतरशायी हूँ
मत हो सखा निराश, युक्तियाँ भी लायी हूँ
आशाओं के दीप, जलाने तो आयी हूँ
**********************
२. आदरणीय समर कबीर जी

हिम्मत पुख़्ता हो अगर ,मंज़िल कब दुश्वार है ।
इस लड़की को देखिये,उड़ने को तैयार है ।।

सागर को ये लाँघ के ,घूमेगी हर लोक में ।
शायद जाना चाहती ,जीते जी परलोक में ।।

चली हवा के दोश पर,छू लेगी ये आसमाँ ।
इसके कर्तब देख के,हैरत में सारा जहाँ ।।

लड़की है या है परी,कहता सारा गाँव ये ।
धरती पर रखती नहीं,यारो अपने पाँव ये ।।

ताक़त से इंसान की ,पहले थे अंजान से ।
इसका जज़्बा देख के, पंछी सब हैरान से ।।

धरती या आकाश हो ,तुम इसको भेजो कहीं ।
लड़की मेरे देश की ,पीछे रह सकती नहीं ।।

सूरज भी है डूबता , देखो होती शाम ये ।
अपनी धुन में है मगन ,करती अपना काम ये ।।

उल्लाला छन्द -द्वितीय प्रस्तुति

लड़की बड़ी कमाल है,जीवन माया जाल है ।
इसकी प्रतिभा देखिये, फिर आगे की सोचिये ।।

नभ में देखो डोलती, ये मुँह से कब बोलती ।
जो देखे क़ुर्बान है, ये भारत की शान है ।।

हर ग़म से अंजान है, होटों पर मुस्कान है ।
पग नीचे धरती नहीं ,मरने से डरती नहीं ।।

पंछी बन उड़ती सदा ,सब देखें इसकी अदा ।
हर फ़न इसको याद है, ये लड़की उस्ताद है ।।

ताक़त को पहचानती, ऐसे कर्तब जानती ।
सबकी इस पर है नज़र,ये दुनिया से बेख़बर ।।
*******************
३. आदरणीय सतविन्द्र कुमार जी
नवगीत
========
तमस चीर
उत्थान हो
ऐसी एक
उड़ान हो

सीमाओं को तोड़
खोल दें आज भुजाएँ
आशाओं के दीप
हृदय में खूब जलाएँ

दिनकर सम विश्वास
तमस पर होता भारी
रखकर उसको साथ
रहे लड़ना भी जारी

बढ़ना ही
जब ध्येय है
निश्चय में भी
जान हो।

बदली-सा सब दुःख
कभी रहता था छाया
छँट जाता वह देख
समय अच्छा जब आया

कष्टों पर पा पार
उन्हें दिल से बिसराओ
फिर सुख की हो भोर
कर्म यूँ करते जाओ।

कड़वे-मीठे
गीत पर
सही सुरीली
तान हो।

विहग विश्व पर आज 

उड़े बस पर फैला कर 

माप चले आकाश
भूमि से ऊपर जाकर

जग के बंधन भूल
बनें साहस की मूरत
सही पकड़ लें राह
बदल दें जग की सूरत

ऐसा मन में
ठान लें
ऊँची अपनी
शान हो।

द्वितीय प्रस्तुति
गीत(रोला छ्न्द)

बहुत घुटन में काट,लिया है जीवन सारा
छू लेंगी आकाश,यही संकल्प हमारा।

मानस रूपी बीज,धरा जो भी पाता है
उसी भूमि से रक्त,दिया तन को जाता है
ममता की दे छाँव,धूप से रखे बचाकर
सहकर सारा भार, मही हर सुख दे लाकर
 
पर तरुवर से मान,सदा धरती का हारा
छू लेंगी आकाश,यही संकल्प हमारा।

विश्व सरोवर आज ,शांत सा यूँ दिखता है
संजों सभी संताप,हृदय ये ज्यों टिकता है
उठना है तूफ़ान,शान्ति अब तो भागेगी
भरकर अब हुंकार,नार हर इक जागेगी।

सभी दुखों से देख,करें हम आज किनारा
छू लेंगी आकाश ,यही संकल्प हमारा।

मन के पंछी खूब,उड़ेंगे पर फैलाकर
आसमान को माप,चलेंगे ऊपर जाकर
अपनी धरती और,हुआ ये अम्बर अपना
कर लेंगी साकार,रहा जो अपना सपना

दम से देंगी मोड़,रही बहती जो धारा
छू लेंगी आकाश,यही संकल्प हमारा।

अब होती है भोर,रात काली ये छँटती
हुआ सूर्य भी दीप्त,लालिमा आकर डटती
दिन की ये शुरुआत,घटा को दूर भगाए
स्वच्छंद हुई जो राह, वही हमको दिखलाए

चुनतीं अपना आज,सफर हमको जो प्यारा
छू लेंगी आकाश ,यही संकल्प हमारा।
******************
४. आदरणीय गिरिराज भंडारी जी

कब तक खेलूँ बोल, घिरे घर के आंगन में
सागर झरना ताल , बसे मेरे भी मन में
चलो जला लूँ आग, बुझी सी है जो मन में
तब लूँ एक उछाल , उड़ूँ मैं नील गगन में

कब तक मन को हार, रहूँ मै निश्चल ऐसे
सीखूँ मै भी आज , परिंदे उड़ते कैसे
सुनें हवा मुँह ज़ोर , बात मेरे चिंतन की
सारे बंधन तोड़ , करूँगी अब मैं मन की

ले कर यह अनुभूति, कि मुझमे कमी नहीं है
सीलन कह दे आज , कि मुझमे नमी नहीं है
रहे धूप या छाँव, मान, मै नहीं रुकुंगी
छोड़ो कल की बात , आज मै नहीं झुकुंगी

जितने बने विधान, कभी वे सफल हुये क्या ?
मेरे दुख में नेत्र ,किसी के सजल हुये क्या ?
पाँव, देहरी आज , लांघने निकल चुके हैं
कहो वक़्त से आज, इरादे बदल चुके हैं
**********************************
५. आदरणीय सत्यनारायण सिंह जी

नन्ही चिड़िया कह रही, उड़ छूती आकाश को
आँधी या तूफान हो, जारी रखें तलाश को॥

हुआ उदित नव सूर्य, रश्मि स्वर्णिम नभ छायी 
आस और विश्वास, लिए नव ऊषा आयी
उड़ते नभ खग वृन्द, करें यह इंगित जन को 
उड़ छूने की व्योम, तीव्र हो चाहत मन को 

नन्ही चिड़िया कह रही, उड़ छूती आकाश को

आँधी या तूफान हो, जारी रखें तलाश को॥

झिलमिल झिलमिल रूप, भोर का मन को मोहे 
प्राची के शुभ भाल, मेघ भस्मीले सोहे 
चीर लला नभ लाल, रंग रंगे जल थल को
जोश उड़ाता होश, लला का है इक पल को 

नन्ही चिड़िया कह रही, उड़ छूती आकाश को 
आँधी या तूफान हो, जारी रखें तलाश को॥

साहस औ विश्वास, पंख का लिए सहारा 
मन पंछी ने आज, गगन की ओर निहारा 
झाँके अम्बर नील, हटा मतवारे घन को 
आँक रहा सामर्थ्य, लला के अविचल मन को

नन्ही चिड़िया कह रही, उड़ छूती आकाश को 
आँधी या तूफान हो, जारी रखें तलाश को॥

(संशोधित)

***************
६. आदरणीय सुरेश कुमार 'कल्याण' जी

रोला छंद

दिखी गगन में आज,घनन घन घोर घटा ज्यों।
सोचूँ मैं चुपचाप,हृदय में चोर डटा क्यों?

अनपढ़ थी जब नार,घरों में घुट-घुट मरतीं।
फटे पुराने हाल,सभी थी घूँघट करतीं।
बचपन कर क़ुरबान,ब्याह कर पर घर जातीं।
विधवा अबला कूद,चिता में जल मर जातीं।
दुर्बल औरत जान,मात का मान घटा क्यों?
सोचूँ मैं.........................?

नभ पर देखो आज,पेंग ये रास रसीली।
पीताम्बर परिधान,घटा रतनार हठीली।
देख घटा मदहोश,नशा है मन पर छाया।
निकला दिनकर आज,वेग से उड़ती काया।
बीत गई वह रैन,गया तम कपट हटा ज्यों।
सोचूँ मैं..........................?

परी चली आकाश,जमीं का जोर नहीं है।
चंचल पंछी साथ,रात या भोर कहीं है।
हृदय खिला जलजात,गगन में उड़ती जाऊँ।
बरसन वाले मेघ,खोज मैं भारत लाऊँ।
मानव मन से भेद,अभी तक नहीं घटा क्यों?
सोचूँ मैं..........................?

बदल गया है दौर,नहीं अब अबला नारी।
मेरा लोहा मान, झुकी यह दुनिया सारी।
ऊँच-नीच को छोड़,अमन की जोत जगाती।
हार-जीत को भूल,खुशी को गले लगाती।
नई नवेली नार,चाँद से मेघ हटा ज्यों।
सोचूँ मैं........................?
(संशोधित)

 
उल्लाला छंद (द्वितीय प्रस्तुति)

हार मानकर छोड़ती,धूप धरा के छोर को।
सबका मुखड़ा मोड़ती, देखो इस चितचोर को।।

उड़ती बाला देखकर,आज गगन शरमा गया।
चील बाज भी कह रहे,नया दौर यह आ गया।।

जर्रे-जर्रे में यहां,आज खुशी का भाव है।
नारी नभ में नाचती, परिवर्तन का चाव है।।

क्रीड़ा स्थल है नील नभ, करते हम अठखेलियाँ।

उच्च हृदय की सोच हो, खुलती सभी पहेलियाँ !! ... ..  (संशोधित) 


सात रंग की रोशनी,देती यह पैगाम है।
पंछी अपने घर चले,देखो आई शाम है।।
***************
७. आदरणीय बासुदेव अग्रवाल 'नमन' जी

रोला छंद

रवि को छिपता देख, शाम ने ली अँगड़ाई।
रक्ताम्बर को धार, गगन में सजधज आई।।
नृत्य करे उन्मुक्त, तपन को देत विदाई।
गा कर स्वागत गीत, करे रजनी अगुवाई।।

सांध्य-जलद हो लाल, नृत्य की ताल मिलाए।
उमड़-घुमड़ के मेघ, छटा में चाँद खिलाए।।
पक्षी दे संगीत, मधुर गीतों को गा कर।
मोहक भरे उड़ान, पंख पूरे फैला कर।।

मुखरित किये दिगन्त, शाम ने नभ में छा कर।
भर दी नई उमंग, सभी में खुशी जगा कर।।
विहग वृन्द ले साथ, करे सन्ध्या ये नर्तन।
अद्भुत शोभा देख, पुलक से भरता तन मन।।
*******************
८. आदरणीय तस्दीक अहमद खान जी

(1). रोला छन्द (प्रथम प्रस्तुति)

निकल गया है शम्स, हुआ है सुन्दर मंज़र
देखो उड़े परिंद, चले छूने को अंबर
लड़की भरे उड़ान, नहीं हैं उड़ने को पर
हिम्मत के क़ुरबान, गगन आएगी छू कर

आसमान है दूर, नहीं नज़दीक मनाज़िल
कब है यह आसान, काम है बेहद मुश्किल
देख परिंदे देख, हुए हैं कितने शामिल
हिम्मत है गर साथ, जीत भी होगी हासिल

देख शम्स की सिम्त, करे है यही इशारा
छोडो डाल परिंद, गगन ने उठो पुकारा
पास नहीं हैं पंख, हौसला बना सहारा
लड़की है नादान, ढूँढने चली किनारा

अंबर कब है पास, न सच यह कोई जाने
उड़ते हैं बिन दास, परिंदे हैं दीवाने
लड़की कहाँ उदास, उड़े है मंज़िल पाने
लिए जीत की आस, किसी की बात न माने

(2). उल्लाला छन्द (दूसरी प्रस्तुति)
सूरज का पैगाम है, होने को अब शाम है
यही परिंदों काम है, घर करना आराम है

हर पंछी अंजान है, काम न यह आसान है
आसमान पर ध्यान है, छूने का अरमान है

पंछी कब लाचार है, उड़ने को तैयार है
जो मंज़िल दरकार है, वो नभ के उस पार है

लड़की का जो रंग है, जिसने देखा दंग है
उड़े हवा के संग है, जैसे एक पतंग है

क़ब्ल जीत के मात है, नभ छूने की बात है
हिम्मत जिसके साथ है, मंज़िल उसके हाथ है

सबका यही ख़याल है, सूरज अंबर लाल है
लड़की भी खुश हाल है, उड़ कर करे कमाल है
**********************
९. आदरणीय कालीपद प्रसाद मण्डल जी

गोधूली का है समय, लाली जल नभ व्याप्त है
काले बादल ज्वार है, शांत सिन्धु का मौज है |

है बादल बिखरा पडा, गगन भरा पक्षी उड़ा
बिखर गई है लालिमा, चमक रहा है आसमा |

साँझ बेला है, शेष दिन, चिड़िया लौटी नीड में
दिनमान है थका हुआ, बालिका उडी जोश में |

अस्त हुआ सूरज अभी, रक्तिम आभा शेष है
भरना उड़ान पंख बिन, अदम्य साहस शौर्य है |

मानव का अभियान था, परिणाम वायुयान है
हिम्मत प्रताप हौसला, प्रकृति विजय का राज है |
*************************
१०. आदरणीया प्रतिभा पाण्डे जी

गीत [उल्लाला छंद ]

आस नई है रोप ली
भूल गई मन की थकन
संशय भय से दूर हूँ
छूना है मुझको गगन

हर साँस पर हदें यहाँ
रहे सदा ही थोपते
रस्मों रिवाज नाम पर
सुखों की धूप रोकते

नहीं पाँव में बेड़ियाँ
पंछी हैं कितने मगन
छूना है मुझको गगन

बादल कितने पास हैं
मन को अद्भुत पर मिले
जादू कुछ ऐसा जगा
छू मंतर डर के किले

नहीं रुकेंगे पंख अब
कर लो कितने भी जतन
छूना है मुझको गगन

सुनते हैं इक गाँव है
दूर कहीं नभ में वहाँ
थकन मिटाने पंख की
पंछी जाते हैं जहाँ

लगन लगी उस गाँव की
साथ मुझे ले चल पवन
छूना है मुझको गगन

द्वितीय प्रस्तुति
रोला छंद

पंछी जाते नीड़, साँझ ने अम्बर घेरा
मुझको रहा पुकार, बावला मन फिर मेरा
आज हदों से दूर, गगन को चाहे पाना
तोड़ चला है बाँध, कठिन इसको समझाना

होती घर का मान, रूप सीता का नारी
कर देते हैरान, मुझे ये जुमले भारी
उड़ जाऊँ उस ओर, जहाँ मै ,मै रह पाऊँ
खुलकर कह दूँ दर्द, सतत ना जाँची जाऊँ
*********************
११. आदरणीय अशोक रक्ताळे जी

रोला छंद

उडती नार पतंग , बनी सागर पर ऐसे |
चकराया मन देख, गगन पर आयी कैसे,
जाती सागर पार , कहाँ ये उड़कर नारी,
जाने किसपर गाज, गिरेगी इतनी भारी ||१||

देख खगों को छोड़ , भागते नील गगन को |
कवि पढ़ पाया आज, विवाहित हर नर मन को,
आयी नभ पर पंख, बिना यह सुन्दर नारी ,
नर हारा हर बार , खगों की है अब बारी ||२||

झूम रही है मस्त , नहीं हैं पैर धरा पर |
तोड़ दिए सब बन्ध, नार ने शिक्षा पाकर,
नर के मन का शेर, गिद्ध सा चक्कर काटे,
कभी लूटता लाज, कभी वह तलवे चाटे ||३||

हुआ अजब है हाल, लाज से बगलें झाँके |
जो नर रहा गँवार, पडा चरणों में माँ के,
उसे न भाता आज, बदलता युग यह भाई ,
जाकर सागर पार, बेटियाँ करें कमाई ||४||
***********************
१२. आदरणीया राजेश कुमारी जी

शिक्षा ज्ञान विज्ञान,शक्तियाँ लेकर न्यारी
बिन पंखों के आज ,उड़े अम्बर में नारी

निर्भरता के ज्ञान से, खोल कफस की खिड़कियाँ
पाखी सी नभ में उड़ें ,पंख पसारे लड़कियाँ
शिक्षा की तलवार से ,काट दमन के पाश को,
जागरूक परवाज़ से , छूती हैं आकाश को

टूटा झूटा दंभ ,पुरुष की सत्ता हारी
बिन पंखों के आज ,उड़े अम्बर में नारी

धरा गगन में गूँजती, लिए परिंदों सी चहक
खुशबू जग को बांटती, फूलों सी लेकर महक
शक्ति आत्मविश्वास से , दिक् दिक् मैं है व्यापती,
ज्ञान विज्ञान जहाज से ,सात समन्दर मापती

फैली नई सुगंध ,नई महकी फुलवारी
बिन पंखों के आज ,उड़े अम्बर में नारी

रूढ़िवादी परम्परा ,कर कुरीतियों का दमन
आगे बढती नारियाँ ,मुट्ठी में लेकर गगन
साक्षरता के भानु से ,जागी इक आशा नई
नारी ने संघर्ष से ,लिख दी परिभाषा नई

रहे सबल अस्तित्व ,लड़ाई है ये ज़ारी
बिन पंखों के आज ,उड़े अम्बर में नारी
******************
१३. आदरणीय अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव जी
उल्लाला छंद

क्या करना जाना कहाँ, मर्दों का ही राज है।
कहते परदे में रहो, स्त्री का गहना लाज है॥

मूक नहीं अब नारियाँ, करें सदा प्रतिकार है।
खुली हवा में साँस लें, ये सब का अधिकार है॥

इतनी हलकी हो गई, मानो एक पतंग मैं।
मुक्त उड़ी आकाश में, देख स्वयं हूँ दंग मैं॥

सूर्य देव की लालिमा, बादल रंग बिरंग हैं।
नहीं अकेली आज मैं, पंछी मेरे संग हैं॥

रोला छंद

बेला है गोधूलि, लहर सी उठती मन में।
सपने देखूँ रोज, लगे हैं पंख बदन में॥
जोश और उत्साह, उड़ी मैं आसमान में।
पहुँची पंछी संग, सितारों के जहान में॥

सूर्योदय के साथ, मिटा जग का अँधियारा।
बादल रंग बिरंग, दिशाओं में उजियारा॥
वेणु बजा जब श्याम, पुकारे रुक ना पाऊँ।
फैलाकर दो बाँह, परी बन मैं उड़ जाऊँ॥
*******************
१४. आदरणीय लक्ष्मण रामानुज लडीवाला जी

गीत – भारत वही उड़ान है
मंजिल को छूतें वही, जिनके मन अरमान है
रखे हृदय में होंसला, भरता वही उड़ान है |

मन में रख विश्वास, मनोरथ दीप जलाते
मिले न चाहे छाँव, सतत बढ़ते ही जाते |
भरे आत्म विश्वास, हृदय में लाये दृडता
करता रहे प्रयास, वही तो आगे बढ़ता |
दृड़ता से सब कुछ सधे, इसके बहुत प्रमाण है
रखे ह्रदय में होंसला, - - - - - - - -|

नाचे मन का मौर, प्यार की कलियाँ खिलती
एक मधुर अहसास, सदा सपनों में घुलती |
तन-मन रहे प्रसन्न, जिन्दगी सरस बनाता
ह्रदय रहे जब स्वच्छ, मधुर वह तान सुनाता |
हरी भरी हो वसुँधरा, खग भी गाते गान है
रखे ह्रदय में - - - - -

निखरे मन का रूप, पुलकता मन का माली
कानों में रस घोल, कूकती कोयल काली |
विपुल रहे मन जोश, उसीका उदित सवेरा
सपने हो साकार, उसीका का छटें अन्धेरा |
पत्थर में भी संचारित, हो जाते जब प्राण है
रखे ह्रदय में होंसला, - - - - - -
************************
१५. आदरणीया सीमा मिश्रा जी

उल्लाला छंद आधारित गीत

 

सागर जैसी प्यास है, चातक जैसी आस है

यही रात दिन सोचना, जीवन का क्या खेल है
उतराना फिर डूबना, यह प्रियतम से मेल है?
मन ही मन में चल रहा, ये कैसा परिहास है?

लहराना बनकर लहर, तिरना बनके नाव ज्यों
कितनी लम्बी है डगर, दूर स्वप्न का गाँव क्यों
विरहा में जो कट रहा, ये कैसा मधुमास है?

आसमान में तैरती भीतर की इक आँच सी
अंतर्मन से तप रही, काया कच्चे काँच सी
तृष्णा पल-पल बालती, एक-एक उच्छ्वास है|

मन की इच्छा है प्रबल, निर्झरणी की धार सी
मन पंखों की कामना, नील-गगन विस्तार सी
अन्धकार में मुक्ति पथ, बस पाने की आस है|
******************
१६. आदरणीया अलका ललित जी
रोला छंद

पावक गगन समीर , नीर है औ मैं माटी 
पंचतत्व सादृश्य, कई रंगों की घाटी 
इक छलांग भर सिंधु, चली छूने को अम्बर
मैं जननी तम छोड़ , तजे सारे आडम्बर .............. (संशोधित)


तोड़ू हर प्रतिबन्ध , न हद हो अरमानो की
उड़ूं धरा को छोड़, झड़ी हो फरमानों की
बाँधूँ दामन संग ,हदें इस नील गगन की 

सागर लांघूँ आज , चाह है मेरे मन की   ....  .......   (संशोधित)

 

मैं नाही विद्धान, न चाहूँ पूजन मेरा
पाखी जैसी शान, न हो बन्दिश का घेरा
घुलती मेरी देह , छुअन है मेरी ऐसी
माटी जल का नेह , हवा में खुशबू जैसी
*********************
१७. आदरणीय सुशील सरना जी

उड़ान

बंधन मुक्त उड़ान हो
उन्मुक्त आसमान हो
इस धरा पर औरत की
अपनी ही पहचान हो

नभ छूने की राह में
हर बेड़ी को तोड़ दूँ
स्वाभिमान की राह की
हर बाधा को मोड़ दूँ

अपने कल की देह को
मैं आज का अरमान दूँ
मन विहग को जीवन का
सतरंगी आसमान दूँ
*********************
१८. आदरणीय अरुण कुमार निगम जी

रोला छंद

ऐसी भरूँ उड़ान, गगन को छूकर आऊँ
मिले मुझे यदि पंख, स्वर्ग धरती पर लाऊँ
पिंजरे में हूँ कैद, मुक्त तुम देखो करके
तन के तुम बलवान, सदा रहते हो डरके ||

दिल पर रखकर हाथ, स्वयं से पूछो थोड़ा
मुझे समय के साथ, बताओ किसने जोड़ा
काट दिए झट केश, धर्म का रौब दिखाया
पति के जाते धाम, चिता पर मुझे बिठाया ||

कभी समझ सामान, किया मेरा बँटवारा
खेल जुए का खेल, सभा में मुझको हारा
कभी खींच कर चीर, तोड़ डाली मर्यादा
सदियाँ बीती किन्तु, कहाँ है नेक इरादा ||

सदियों का इतिहास, लिखूँ तो जीवन कम है
क्या बाँचोगे शब्द, तुम्हारे मन में तम है
सुन पाओगे सत्य, अगर मैं तुम्हें सुनाऊँ ?
पाषाणों के मध्य, गीत क्यों भला सुनाऊँ ?
**********************
१९. आदरणीय डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव जी

रोला

सोनपरी सा रूप, कनक-किरण से हूँ बनी I
मैंने भरी उड़ान, मन में आशायें घनी II
अम्बर को लूं जीत, प्राण समीरण से भरूं I
लूं दिग्गज को बाँध, सागर को बौना करूं II

उल्लाला (13,13) विषम-सम चरण तुकान्तता

स्वर्ण-रूप अपरूप है ! शोभा दिव्य अनूप है !
खिली-खिली सी धूप है ! कामायनि प्रतिरूप है !I

है बसंत के डाल सी I लहरों में मधुमाल सी I
रति रानी की चाल सी I वातायन सी जाल सी II

लहरानिल में बहूँ मैं I अन्तरिक्ष में रहूँ मैं I
नीलाम्बर को गहूँ मैं I मन की बातें कहूँ मैं II

मैं मदभरी उमंग में I उडती फिरूं विहंग में I
चपला मेरे अंग में I रागायित हूँ रंग में II

मेरा मर्मर सुना क्या ? मैंने सपना बुना क्या ?
अंतर्मन में गुना क्या ? बूझो मैंने चुना क्या ?

उल्लाला (13,13) सम चरण तुकान्तता

है उड़ान मैंने भरी रक्ताम्बर पहने हुए
उपादान सब सृष्टि के मेरे प्रिय गहने हुए

चन्द्र क्षितिज पर हँस रहा स्वर्ण ज्योति छाई हुयी
पंख लगे हैं पांव को एक परी आयी हुयी

उल्लाला (15,13)
हे बादल ! तुम ठहरो ज़रा, मैं आती हूँ वहाँ पर I
यह धरती मैंने छोड़ दी, समझो मुझको गगनचर II

सब प्यारे पक्षी साथ हैं, मुझे उड़ाता है अनिल I
अभि-अंतर का संवेग भी मेरी गति में गया मिल II

जन जो यायावर की तरह दसों दिशा में घूमते I
वे निज साहस के पंख पर अम्बर तक को चूमते II

यह गति उड़ान सबको यहाँ, माया सी लगती अभी I
पर कर दे अब विज्ञान ही, इसे सत्य शायद कभी II
**************************

Views: 3734

Replies to This Discussion

श्रद्धेय सौरभ सर सादर वन्दन,छंदोत्सव के सफल संचालन के लिए हार्दिक बधाई एवं संकलन प्रस्तुति के लिए सादर आभार!
सर क्रमांक तीन पर मेरी पहली प्रस्तुति में पँख शब्द की जगह *पर* शब्द करने की कृपा करें

दूसरी प्रस्तुति में मुखड़े की प्रथम पंक्ति को /बहुत लिया है काट,घुटन में जीवन सारा/ और स्वछंद हुई जो राह को /अब खुली सही जो राह/ से प्रतिस्थापित कर कृतार्थ करें!सादर

पहली प्रस्तुति के संबंध में यथा निवेदन सुधार हो गया है. 

दूसरी प्रस्तुति के संबंध में आपने जो कुछ कहा मुझे कुछ समझ में नहीं आया. 

सादर

खुली सही जो राह

आदरणीया सीमा जी, नाव और गाँव की तुक सही नहीं है. अनुनासिक शब्दों की अपनी सत्ता हुआ करती है. उसका मान होना ही चाहिए. इस तथ्य के प्रति शैल्पिकता के प्रति संवेदनशील रचनाकारों को सचेत रहना चाहिए. 

इस मंच पर आयोजनों के माध्यम से विभिन्न विधाओं के लिए कार्यशाला चलायी जाती है, जिसका उद्येश्य यही होता है कि रचनाकार अन्यथा की ’वाहवाहियों’ से परे गहन अभ्यास के लिए पवृत हों

.

वैसे मैं बताता चलूँ, कि मैं आपकी प्रस्तुति से अत्यंत प्रभावित हुआ हूँ. इस आयोजन के माध्यम से आपकी कोई पहली रचना मेरे सामने आयी थी, जो इस आयोजन की उपलब्धियों में से रही. आयोजन में प्रस्तुत हुई आपकी रचना से यह अवश्य भान होता है कि आपके कथ्य और आपके शिल्प में एक गठन है. किन्तु, रचनाकर्म के क्रम में रचनाकारों को शिल्प की मूलभूत बातों की ओर सजग रहना आवश्यक है. शैल्पिक नियम ही भाव के अनुसार शब्द साधने के लिए साधन उपलब्ध कराते हैं. अतः इनके सापेक्ष स्पष्ट रहना हर जागरुक और गहन सोच वाले रचनाकार का दायित्व है.  

शुभेच्छाएँ 

आदरणीया सीमा जी, संकलित हुई रचना की पंक्ति या पंक्तियों में सुधार हेतु आयोजन की चर्चा का संदर्भ न दे कर सुधरी हुई पंक्ति या पंक्तियों को प्रस्तुत कर दें ताकि उन्हें दोषयुक्त पंक्ति के स्थान पर स्थापित की जा सके.

सादर

जनाब सौरभ पाण्डेय जी आदाब,'चित्र से काव्य तक छंदोत्सव'अंक 69 के सफ़ल संचालन और संकलन के लिये बधाई स्वीकार करें ।

सादर प्रणाम आदरणीय समर साहब. संकलन में हुए अपरिहार्य विलम्ब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ. 

शुभ-शुभ

आदरणीय सौरभ सर, इतनी व्यस्तताओं के बावजूद आपने संकलन तैयार कर लिया. लाल हरा करना वास्तव में बड़ा श्रमसाध्य कार्य है इस हेतु हार्दिक आभार. सादर 

आदरणीय मिथिलेश भाई, आप विश्वास नहीं करेंगे. मैं इस बार रचनाओं के संकलन को तीन किश्तों में पूरा कर पाया हूँ.

मैं अकसर आयोजन के दौरान ही रचनाओं का संकलन प्रारम्भ कर देता हूँ. किन्तु इस बार ऐसा कई कारणों से नहीं कर पाया. आपने देखा होगा, मैं आपकी दूसरी प्रस्तुति पर अपने विचार रख ही नहीं पाया. फिर इसके आगे कई रचनाएँ मुझसे छूट गयीं

इस बार के आयोजन के दौरान ’आँधी की तरह जाना और तूफ़ान की तरह आना’ वाला मुहावरा मुझ पर सटीक बैठा था. वैसे इटारसी से तो आप मेरे साथ थे ही. नागपुर से मेरा इटारसी पहुँचना किसी ’फ़ास्ट ऐण्ड फ्यूरी’ सिरीज़ की मुवी से कम रोचक नहीं था.

इसके बाद जब भी मैं संकलन कार्य हेतु बैठता, कोई न कोई व्यवधान आ जाता. चलिए, शुभ-शुभ कार्य सम्पन्न हुआ.

:-))

आदरणीय सुरेश जी, आप तो कई आयोजनों में हिस्सा ले चुके हैं. निवेदन है, कृपया संकलन में संशोधन हेतु परिपाटी का अनुकरण करें. आप सुधरी हुई पंक्ति को लिख कर उसका स्थान बता दें. ताकि सही ढंग से आपकी सुधरी हुई पंक्ति को प्रतिस्थापित किया जा सके. 

एक बात और, बहन त्रिकल तो है लेकिन उसका उच्चारण ब+हन होता है. अतः इसका मात्रा-भार २ १ नहीं हो सकता.

सादर धन्यवाद 

हृदय शब्द का उच्चारण आप हृद+य करते हैं क्या ? या, हृ+दय की तरह इस शब्द का उच्चारण किया जाता है ?

अवश्य ही हृ+दय की तरह हृदय शब्द का उच्चारण होता है. तो फिर आपकी पंक्ति उल्लाला छन्द् की वैधानिकता को कहाँ संतुष्ट कर पा रही है ? है न ?

शुभेच्छाएँ 

मुहतरम जनाब सौरभ साहिब , ओ बी ओ चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव अंक -69
के त्वरित संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमाएँ ---

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"इस प्रयास की सराहना हेतु दिल से आभारी हूँ आदरणीय लक्ष्मण जी। बहुत शुक्रिया।"
4 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"बहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय दिनेश जी। आभारी हूँ।"
4 hours ago
Zaif replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"212 1222 212 1222 रूह को मचलने में देर कितनी लगती है जिस्म से निकलने में देर कितनी लगती है पल में…"
4 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"सादर नमस्कार आ. ऋचा जी। उत्साहवर्धन हेतु दिल से आभारी हूँ। बहुत-बहुत शुक्रिया।"
4 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमीरुद्दीन जी, सादर अभिवादन। इस प्रयास की सराहना हेतु आपका हृदय से आभारी हूँ।  1.…"
4 hours ago
Mahendra Kumar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमित जी, सादर अभिवादन! आपकी विस्तृत टिप्पणी और सुझावों के लिए हृदय से आभारी हूँ। इस सन्दर्भ…"
4 hours ago
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय लक्ष्मण जी नमस्कार ख़ूब ग़ज़ल कही आपने बधाई स्वीकार कीजिये गुणीजनों की इस्लाह क़ाबिले ग़ौर…"
5 hours ago
Richa Yadav replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय अमीर जी बहुत शुक्रिया आपका संज्ञान हेतु और हौसला अफ़ज़ाई के लिए  सादर"
5 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
शिज्जु "शकूर" replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"मोहतरम बागपतवी साहिब, गौर फरमाएँ ले के घर से जो निकलते थे जुनूँ की मशअल इस ज़माने में वो…"
6 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय दिनेश कुमार विश्वकर्मा जी आदाब, तरही मिसरे पर अच्छी ग़ज़ल कही है आपने मुबारकबाद पेश करता…"
6 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"मुहतरमा ऋचा यादव जी आदाब, तरही मिसरे पर ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, आ० अमित जी…"
6 hours ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय लक्ष्मण धामी भाई मुसाफ़िर जी आदाब ग़ज़ल का अच्छा प्रयास हुआ है बधाई स्वीकार करें, आदरणीय…"
8 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service