For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-80 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन

"ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-80 में प्रस्तुत रचनाओं का संकलन

विषय - "कलम/लेखनी"

आयोजन की अवधि- 9 जून 2017, दिन शुक्रवार से 10 जून 2017, दिन शनिवार की समाप्ति तक

 

पूरा प्रयास किया गया है, कि रचनाकारों की स्वीकृत रचनाएँ सम्मिलित हो जायँ. इसके बावज़ूद किन्हीं की स्वीकृत रचना प्रस्तुत होने से रह गयी हो तो वे अवश्य सूचित करेंगे.

सादर

मिथिलेश वामनकर

मंच संचालक

(सदस्य कार्यकारिणी)

---------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------

 

गीत- सतीश मापतपुरी

 

 

सदियों से ही हर युग में,

तेरा होता रहा जयकार ।

कलम तेरी कैसी तीखी धार ।

 

वेद पुराण शास्त्र उपनिषद, तेरा ही यह श्रम है ।

तेरी महिमा क्या बतलायें, जो भी कहें वो कम है ।

देकर के इतिहास, जगत पर, तुमने किया उपकार ।

कलम तेरी कैसी तीखी धार ।

 

जंगे आजादी में तुमने, राष्ट्रप्रेम का नाद किया ।

भारत माता की पीड़ा का,  गीतों में अनुवाद किया ।

जब - जब देश पे हुआ आक्रमण, कलम बनी तलवार ।

कलम तेरी कैसी तीखी धार ।

 

आज मगर क्या हो गया तुमको, क्यों तेरी धार ये कुंद हो रही।

किस संक्रमण का वार हुआ जो, क्यों नहीं धार बुलन्द हो रही।

क्यों नहीं आग उगल देते फिर, मच जाये हाहाकार ।

कलम तेरी कैसी तीखी धार ।

 

ग़ज़ल- तस्दीक अहमद खान

 

अपनी खसलत से कब बाज़ आए क़लम |

बेज़ुबाँ हो के भी सर उठाए क़लम |

 

जो पढ़ा कम है अक्सर ये देखा गया

जेब में वो बशर ही लगाए क़लम |

 

जब भी खोले खिलाफे सितम्गर ज़ुबाँ

हुक्मरानी में बदलाव लाए क़लम |

 

खूब सूरत ग़ज़ल नज़्म दुनिया को दे

जब सुखनवर के हाथों में जाए क़लम |

 

राज इसका जहाँ में रहेगा सदा

ख़ौफ़ तलवार बम से न खाए क़लम |

 

वक़्त का कौन उसको सुखनवर कहे

खुद अमीरों को जो बेच आए क़लम |

 

एसा वैसा न तस्दीक़ समझो इसे

एक ज़र्रे को तारा बनाए क़लम |

 

हाइकू- कल्पना भट्ट

 

 

 

 

 

1

उठी कलम

आज़ादी की ख़ातिर

तलवार सी ।

 

2

पहचान है

कलम लेखक की

लेखनी बोले ।

 

3

तलवार थी

कलम मानी जाती

आज तो नहीं ।

 

4

पैसा बोलता

कलम की जगह

ख़बर भले ।

 

5

लेखनी बोले

लेखक जो सोचता

दोनों अलग ।

 

6

गवाह बने

लेखनी संस्कॄति

सजग रहो

 

7

सो गयी है क्या

आत्मा लेखकों की

लेखनी पूछे ।

 

 

8

कलम लिखे

लेखक की लेखनी

पढ़े पाठक ।

 

9

लेखनी बोले

पाठक की पसन्द

तभी सार्थक ।

 

10

लेखक बोले

चलती है कलम

पाठक मन ।

 

11

मुड़ी हूँ वहीँ

जहाँ मोड़ा मुझको

कलम बन ।

 

12

पहचान थी

कभी सत्य वचन की

कलम कभी

 

13

भाषा भी हूँ

संस्कॄति जगत की

लेखनी सच्ची ।

 

14

क्यों बोल रही

असत्य अब पूछे

कलम कभी ।

 

15

लेखनी में हो

आत्मा का लेखन

सच्चा वही है ।

लेखनी (अतुकांत)- डॉ. टी.आर. शुक्ल

 

 

 

देती हो तुम,

आकार ।

मन की गहराई से उत्सर्जित

भावों को, भावनाओं को ।

सुखद अलौकिक तरंगों को,

दुखद लौकिक वेदनाओं को।

 

 

तुमने गढ़ी है,

मूक भाषा प्रणय की ।

विपन्न, शोषित,

तिरस्कृतों की

हृदयरेखा भी पढ़ी है।

यह भी सबकुछ जानती हो तुम,

कि विजय के स्तम्भ पर

क्यों हार की शोभा बढ़ी है !

 

 

नाचते ,

जीवन मरण बस

एक कम्पन से तुम्हारे ,

देवत्व और अमरत्व की दुनिया बसी

तेरे सहारे,

ए लेखनी !

तू चल रही अनिरुद्ध

अपनी सुध विसारे।

 

 

पग पखारे

सृजन क्षमता,

तुम्हारे।

कुछ नहीं से सभी कुछ

रच लेती कैसे?

ए विचित्रा !

ध्वंस भी तुमसे

डरे, न चैन पाए।

ताटंक छंद - अखिलेश कृष्ण श्रीवास्तव

 

रूप बदलता गया कलम का, सबको हम अपनाते थे।

बने लिखावट कैसे सुंदर, गुरुजी हमें सिखाते थे॥

स्लेट पट्टिका ले हाथों में, क ख मैंने पहले सीखा।

जान गया अक्षर मात्रा फिर, नाम सभी मैंने लिक्खा॥

 

रबर साथ में पेंसिल कॉपी, देखा तो मन हर्षाया।

अक्षर जब तक दिखे न सुंदर, चैन नहीं मुझको आया॥

ऊँची कक्षा में जब पहुँचे, ढंग नया हमने पाया।

डुबो डुबो होल्डर स्याही में, लिखना फिर हमको भाया॥

 

पढ़ो लिखो बातें भी कर लो, युग स्मार्ट फोन का आया।

काम हुआ सब जल्दी पर मैं, हृदय से न अपना पाया॥

जब भी देखूँ पत्र पुराना, खुशबू सी भर जाती है।

फुर्सत में जब भी पढ़ता हूँ, याद पुरानी आती है॥

 

डॉट पेन ने किया कबाड़ा, बिगड़ गये सबके अक्षर।

डाक्टर सी हो गई लिखावट, अनपढ़ जैसे हस्ताक्षर॥

 

धार नहीं अब किसी कलम में, लेखक दिल से व्यापारी।

पैसों में सब बिक जाते हैं, करें देश से गद्दारी॥

लेखकों में जोश था जादा, हाव भाव भी मर्दाना।

अब नाचते हैं इशारों पर, सूरत भी लगे जनाना॥

अतुकांत-  डॉ संगीता गांधी

 

 

सैलाब के सीने पे जो चली ,

वो कश्ती हैं हम ।

फिर भी तुम कहते हो कि ,

हमारा वजूद क्या है ?

एक चींटी तोड़ देती है ,

हाथी का गरूर ,

ओर तुम कहते हो कि ,

तेरी ताक़त क्या है ?

न तीर न तलवार ,

न गोली ,बन्दूक ,

है पास मेरे कलम !

गीत मेरे धधकतें हैं,

बहुत कुछ बदल देने को,

मचलते हैं ।

रहना संभल के ,

अब कलम से मेरी ,

मात्र प्रेम -रस के बोल नहीं ,

विरह वेदना के कल्लोल नहीं ,

व्यवस्था के भृष्ट अर्थ प्रकटाने वाले ,

शब्द भी उबलते हैं ।

 

मुक्तक- बासुदेव अग्रवाल 'नमन'

 

कलम की ताकत कम न आंको, बड़ों बड़ों को नचाती है।

मानव मन के उद्गारों को, जन जन तक पहुँचाती है।

कलम से सत्ताएं पलटे, और राजतन्त्र थर्राते हैं।

परिवर्तन बड़े बड़े करती, उथल पुथल मचाती है।।

 

कलम की ताकत से तख्ते पलट जाते हैं।

क्रांति आ जाती है समाज बदल जाते हैं।

किसी के लिए स्याही बिखेरने का खिलौना।

व किसी का पढ़ें तो आँसू छलक जाते हैं।

 

कलम कुछ ऐसा लिख लोग याद करते रहें।

पढ़ सुन कर के लोग भावना में बहते रहें।

सलीके से बरतो इस कीमती स्याही को।

पढ़ कर के सब लोग वाह वाह करते रहें।

 

 

कवि हृदय के भाव कलम से जब निकले।

जग में कवि को तब सच्ची पहचान मिले।

चमड़ी के चेहरे बदलते रहते हर पल।

कलमों के चेहरे कभी न हृदय से हिले।

 

 

मुक्तक- आलोक रावत 'आहत लखनवी'

 

मेरे सोज़े निहाँ को जानता है देखना था

कोई कितना मुझे पहचानता है देखना था

मैं अपने ग़म को सीने में छुपाये इसलिए था

कोई दरिया को कैसे छानता है देखना था

 

कनवास मेरी मिन्नतें करता है बार बार

कि शक्ल तेरी हूबहू उसपे उतार दूँ

मुद्दत से जो तस्वीर मेरे दिल में बसी है

कैसे मैं किसी और के दिल में उतार दूँ

 

 

अतुकांत- नयना(आरती)कानिटकर

 

कलम से

कभी  नहीं लिखना चाहती

बदहाली, भूखा पेट, 

अभाव ग्रस्त नंगा बदन

पुरुषोचित  बलात्कार, नारी कुंठा

राजनीतिक बिसात, भ्रष्ट आचरण

या कोई

नकारात्मक शब्द

गीत- लक्ष्मण रामानुज लडीवाला

 

 

जहां बुराई चले लेखनी, माँ का मान बढ़ाना रे

संकट का है यही एक हल, साथी हाथ बढ़ाना रे |

 

स्वस्थ रहे परिवार हामारा, फ़ैल न पायें रोग,

करें लेखनी सजग सभी को,कैसे रहे निरोग |

करें सफाई घर बाहर की, नहीं गंदगी रखना रे,

संकट का है यही एक हल, साथी हाथ बढ़ाना रे |

 

कभी न रोने से कुछ मिलता,फिर क्यों करना रोष,

आत्म विश्वास भरे लेखनी, तन-मन रख निर्दोष |

रहे ह्रदय भी स्वच्छ हमारा, मन के भेद मिटाना रे,

संकट का है यही एक हल,साथी हाथ बढ़ाना रे |

 

क्षण भंगुर ये जीवन अपना, गीता में ये ज्ञान,

कर्म करे से सधता सपना, इसका हो संज्ञान |

कभी न रोने से कुछ मिलता,इस पर कलम चलाना रे

संकट का है यही एक हल, साथी हाथ बढ़ाना रे |

बाँट जोह रही हूँ

कि/ लिख सकूँ उत्साह से

कल कल बहते झरने

मंद बहती ठंडी-ठंडी बयार

खिलखिलाता बचपन

चिड़ियों की चहचहाहट

नया सूरज, नई सुबह

नया इतिहास , ख़ुशियों के गीत

नई उम्मीदों से

हँसता मेरा हिंदुस्तान

 

मनहर घनाक्षरी- सतविन्द्र कुमार

 

बाल की निकाले खाल,करती है ये कमाल,

       कभी शर कभी ढाल,बनती है लेखनी

झूठ पर सीना तान,सच का करे बखान,

       करती कर्म महान,चलती है लेखनी

स्याही के बनाए शब्द,स्याह की मिटाए हद,

       इतनी विशाल जद, रखती है लेखनी

भय को भी भयभीत,कर के ले उसे जीत,

       पोषित केवल प्रीत,करती है लेखनी

 

सरसी छंद - सुनन्दा झा

 

 

मेरे हाथ लगा है जबसे ,इक नन्हा हथियार ।

सत्य शिला पर घस के इसकी ,चमकाई है धार ।

 

माँ की करुणा इसके अंदर ,है ममता की खान ।

वीरों की गाथाओं की भी ,करता खूब बखान ।

 

आँसू की स्याही भर लिखता ,सबके मन का दर्द ।

सारे राज़ बताती इसको ,है सच्चा हमदर्द ।

 

नन्हा सा दिखता है इसमें ,भरा बहुत है जोश ।

इसकी ताकत बड़ों बड़ों के ,गुम कर देती होश ।

 

भावों की रेखा को देता ,मनचाहा आकार ।

आसमान में विचरण करता ,नन्हें पंख पसार ।

 

मन के कोरे कागज पर जो बनते चित्र अपार ।

शब्दों के रंगों से करता ,नित उनका श्रृंगार ।

 

बोल नहीं पाता पर करता ,सबसे नित तक़रार ।

नन्हा वीर सिपाही मेरा ,प्यारा सा हथियार ।

 

गीत- ब्रजेन्द्र नाथ मिश्र

 

इसी कलम से शब्दों के जाल बुन रहा हूँ।

 

इसी कलम से कभी श्रृंगार सजाता हूँ।

इसी कलम से कभी मल्हार गाता हूँ।।

इसी कलम से शब्दों के सुर ताल सुन रहा हूँ।

इसी कलम से शब्दों के जाल बुन रहा हूँ।

 

इसी कलम से शब्दों को अंगार बनाता हूँ।

इसी कलम से रणचंडी का त्यौहार मनाता हूँ।

इसी कलम से शब्दों के शैवाल चुन रहा हूँ।

इसी कलम से शब्दों के जाल बुन रहा हूँ।

 

इसी कलम से जमा करता हूँ मसान की राख,

इसी कलम से चुनता  हूँ हड्डियों की शाख।

इसी कलम से जीवन का वैराग्य गुन रहा हूँ।

इसी कलम से शब्दों के जाल बुन रहा हूँ।

 

इसी कलम से खोजता हूँ ठहरी एक छाँव,

इसी कलम से जाता हूँ, अपना छूट गया गांव।

इसी कलम से महुआ का धमाल सुन रहा हूँ।

इसी कलम से शब्दों के जाल बुन रहा हूँ।

 

अमर कलम (अतुकांत)- सुशील सरना

 

चलो आओ

अब सो जाएँ

अश्रु के सीमित कणों में

खो जाएँ

घन सी

वेदना के तिमिर को

कोई आस किरण

न भेद पाएगी

पाषाणों से संवेदहीन सृष्टि

भला कैसे जी पाएगी

 

अनादि काल से

तुमने अपना

सर्वस्व लुटाया है

तुम मूक हो

पर वो बोलती हो

जो मानवीय पथ का

श्रेष्ठ निर्धारण करे

तुम तो भाव की

अनुगामिनी हो

 

तुम संज्ञाहीन होते हुए भी

असीमित व्योम का

प्रतिनिधित्व करती हो

उँगलियों में कसमसाती

अंतर्मन की वेदनाओं को

चित्रित करती हो

 

मैं

भाव हूँ

परिस्थिति के अनुरूप

ढलने का प्रयास करता हूँ

स्वार्थ के आगे

बदल भी सकता हूँ

 

मगर

तुम

निष्पक्ष हो

मेरी अनुगामी होते हुए भी

सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ कृति

नारी समान

सहनशीलता की मूरत हो

तुम बस

देती हो

मानव जाति के हित में

अपना उत्कृष्ट सृजन

तुम

आदि काल से

न थकी हो , न थकोगी

 

कोरे कागज़ पर

अनादिकाल तक

शब्दों की गठरी में

भावों की गांठें लगाए

काली स्याही से

उजालों की गाथा

रचती रहोगी

 

क्योंकि

तुम

सृजन हेतु

सृजनकर्ता की

श्वासों में बसी

अमर कलम हो

 

 

 

मनहरण घनाक्षरी सतविन्द्र कुमार

 

 

बाल की निकालें खाल, करते कैसे कमाल

सुर कहीँ कहीं ताल, बेच डालें लेखनी

उनकी खोटी नीयत,सच की हो फज़ीहत,

शब्दों की खाएँ कीमत, जो सम्भालें लेखनी

नहीं बातों में हो धार,कर नहीं पाती वार

फिर होती है बेकार, जो यूँ पा लें लेखनी

झूठ से ये नहीं डरे,सच की खातिर चले

काम सारे करे भले,ऐसी ढालें लेखनी।

 

 

 

गजल- लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

 

 

सभी अपनों को गैरों को मुहब्बत प्यार लिखती है

मगर जब हो जरूरत तो कलम अंगार लिखती है।1।

 

मिलन का सुख विरह की पीर के असआर लिखती है

जवाँ दिल को वो सपनों का अजब संसार लिखती है।2।

 

कभी पत्थर को शीशे की बनी दीवार लिखती है

कभी शबनम की बूँदों को भरो हुंकार लिखती है।3।

 

जो अनपढ़ रह गया उसको हमेशा भार लिखती है

कलम को साथ रखता जो उसे विस्तार लिखती है।4।

 

वचन पर जो खरा उतरे उसे दमदार लिखती है

भटक जाए कोई रस्ता तो वो इकदार लिखती है।5।   

 

दगा जो देश  से  करता  उसे गद्दार लिखती है

वतन पर मिटने वालों का कलम उपकार लिखती है।6।

 

दिशा देती है शिक्षक बन हमारी पीढ़ियों को नित

कहीं बनकर चिकित्सक वो नए उपचार लिखती है।7।

 

किसी को धूप की बाते किसी को छाँव का आँचल

कभी खट्टे कभी मीठे  ये मन उद्गार लिखती है।8।

 

सुघड़ हाथों से पीड़ा जुल्म दहशत न्याय की बातें

मगर भाटों के हाथों से महज जयकार लिखती है।9।

 

 

ग़ज़ल - राजेश कुमारी

 

नफ़रत हो या प्रीत कलम तू लिख देना

मत होना भयभीत कलम तू लिख देना

 

जीवन की हो  राह अगन या फूलों की

हार मिले या जीत कलम तू लिख देना

 

धीमी नदियों की कलकल क्यूँ मौन हुए

झरनों के संगीत कलम तू लिख देना

 

रुख्सत होते वक़्त हथेली रिक्त रहे

जीवन की है रीत कलम तू लिख देना

 

दिल से दिल तक किसने बाँध बनाए हैं

किसने हद की भीत कलम तू लिख देना

 

अपना बनकर  किसने घोंपा खंजर है

कौन बना मनमीत कलम तू लिख देना

 

रिमझिम बूँदें बरसे किसके सावन में

किसका गुलशन पीत कलम तू लिख देना

 

 एक खड़ा खेतों में दूजा सरहद पर

 गर्मी हो या शीत कलम तू लिख देना

 

भाव सरोवर से चुनकर लाऊँ आखर

छंद  ग़ज़ल नवगीत कलम तू लिख देना

 

सत्ता की कलम(अतुकांत)- महेंद्र कुमार

 

तलवार अच्छे से जानती थी

कि कलम

उससे ज़्यादा ताकतवर है

वह यह भी जानती थी

कि उसके रहते

वह कभी भी सत्ता पर

बैठ नहीं पाएगी

और अगर बैठ गयी

तो ज़्यादा दिन टिकेगी नहीं

इसलिए

ख़रीद लिया उसने कलम को

और साथ ही उन हाथों को भी

जो इसे चलाना जानते थे।

अब कलम ने वही लिखा

जो तलवार चाहती थी

भलों को बुरा

द्रोहियों को देशभक्त

बाग़ों को मक़्तल

श्मशानों को तीर्थस्थल

दरिया को सहरा

पतझड़ को सावन

कवियों को भीरु

लुटेरों को संत।

उसने संसद भवन के सामने

दम तोड़ते हुए जनतंत्र को देखकर

अपनी स्याही को झटका

और आगे लिखा

हम दुनिया में लोकतंत्र की स्थापना

करना चाहते हैं

इसके लिए हमें युद्ध करना होगा

जो कि हम कर रहे हैं

और करते रहेंगे

उन सभी दुष्ट शक्तियों से

जो अमन की दुश्मन हैं।

उसने यह भी लिखा

कि क़ानून सबके लिए समान है

बेरोज़गारी ख़त्म हो चुकी है

भ्रष्टाचार रसातल में है

किसान ख़ुशी से झूम रहे हैं

औरतें गा रही हैं

मज़दूर नाच रहे हैं

और तलवार...

तलवार संहारक नहीं

बल्कि जन-उद्धारक है।

इस तरह सत्ता की कलम ने

धीरे-धीरे जनतंत्र को

मूर्खतंत्र में तब्दील कर दिया।

मगर जनता ख़ुश थी

वह नहीं जानती थी

कि सत्ता की कलम में स्याही नहीं

बल्कि उनका लहू भरा था।

वह इस बात से भी अनजान थी

कि कलम को सत्तापक्ष में नहीं

बल्कि विपक्ष में होना चाहिए...

हमेशा।

और इसका मूल काम

सत्ता से प्रश्न पूछना है

न कि सत्ता के लिए

जवाब तैयार करना।

 

ग़ज़ल- मोहम्मद आरिफ

 

सबका अपना-अपना लेखन

देखो, बदला-बदला लेखन ।

 

कागज़ पे ये जब उतरे तो

सबकी पुकार जैसा लेखन ।

 

सारा देश मान दे जिसको

हो अब उतना अच्छा लेखन ।

 

जो धमकी, लालच , पैसा दे

उसके क़दमों गिरता लेखन ।

 

लगता है बहकावे में है

थोड़ा-थोड़ा भटका लेखन ।

 

ढूँढे आँसू, सिसकी, मौतें

नये दौर का कैसा लेखन ।

 

 

Views: 906

Reply to This

Replies to This Discussion

मुहतरम जनाब मिथिलेश साहिब ,ओ बी ओ लाइव महाउत्सव अंक 80 के संकलन और कामयाब संचालन के लिए मुबारकबाद क़ुबूल फरमायें

हार्दिक आभार आपका.......

RSS

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Blogs

Latest Activity

Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"    शिकस्त-ए-नारवा     ------------------ रिवाज के विरुद्ध काम, शायरी का एक ऐब…"
26 minutes ago
Euphonic Amit replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय Dayaram Methani जी आदाब ग़ज़ल के प्रयास पर बधाई स्वीकार करें  ग़ज़ल — 212 1222…"
30 minutes ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय ज़ैफ़ जी आदाब, उम्दा ग़ज़ल हुई है मुबारकबाद पेश करता हूँ।"
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय ज़ैफ़ जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"जनाब आज़ी तमाम साहिब आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया। भाई-चारा का…"
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय संजय शुक्ला जी आदाब, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।"
1 hour ago
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"जी, ऐसा करना मुनासिब होगा। "
1 hour ago
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"अच्छी ग़ज़ल हुई आ बधाई स्वीकार करें"
1 hour ago
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"अच्छी ग़ज़ल हुई आ इस्लाह भी ख़ूब हुई आ अमित जी की"
1 hour ago
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"जी आ रिचा अच्छी ग़ज़ल हुई है इस्लाह के साथ अच्छा सुधार किया आपने"
1 hour ago
DINESH KUMAR VISHWAKARMA replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आदरणीय संजय जी सादर नमस्कार। ग़ज़ल के अच्छे प्रयास हेतु हार्दिक बधाई आपको ।"
1 hour ago
Zaif replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-165
"आ Sanjay Shukla जी, बहुत आभार आपका। ज़र्रा-नवाज़ी का शुक्रिया।"
2 hours ago

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service