Open Books Online2024-03-29T11:51:58ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991289565?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/group/dharmiksahitya/forum/topic/listForContributor?user=2719pwr3e2pi8&feed=yes&xn_auth=noपुरुषोत्तम श्री रामtag:openbooksonline.com,2024-01-24:5170231:Topic:11159422024-01-24T06:18:47.677ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p></p>
<p>श्री राम के जैसा चरित्र न मिलता</p>
<p>चाहे ढूँढ लो इस जहान में</p>
<p>मर्यादा की जो साक्षात मूर्ति, <span>न उनसे बड़ा कोई ज्ञान में।।</span></p>
<p> </p>
<p>शिव का क्रोध और दुर्गा-सी शक्ति</p>
<p>हनुमान सी भक्ति राम में</p>
<p>आकर्षण जिनका श्री कृष्ण के जैसा, <span>सत्य-धर्म सी सरलता राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>बुद्ध, <span>महावीर-सी दया-करुणा</span></p>
<p>शौर्यता भी होती राम में</p>
<p>त्याग, <span>प्रेम भावना यीशु जैसी</span>, <span>परशुराम-सी योग्यता राम…</span></p>
<p></p>
<p>श्री राम के जैसा चरित्र न मिलता</p>
<p>चाहे ढूँढ लो इस जहान में</p>
<p>मर्यादा की जो साक्षात मूर्ति, <span>न उनसे बड़ा कोई ज्ञान में।।</span></p>
<p> </p>
<p>शिव का क्रोध और दुर्गा-सी शक्ति</p>
<p>हनुमान सी भक्ति राम में</p>
<p>आकर्षण जिनका श्री कृष्ण के जैसा, <span>सत्य-धर्म सी सरलता राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>बुद्ध, <span>महावीर-सी दया-करुणा</span></p>
<p>शौर्यता भी होती राम में</p>
<p>त्याग, <span>प्रेम भावना यीशु जैसी</span>, <span>परशुराम-सी योग्यता राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>पुत्र, <span>स्वामी हर सुख-दुख के साथी</span></p>
<p>समानता की भावना राम में</p>
<p>सूर्य जैसा तेज है जिनका, <span>चंद्रमा-सी शीतलता राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>वही बिगाड़े वही संवारे</p>
<p>विधना, <span>विधाता की नीति राम में</span></p>
<p>कालसमय को वही चलाते, <span>सब अवतार का रूप है राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>श्री राम के हृदय शिव-शंकर रहते</p>
<p>शिव खोए है राम में</p>
<p>ये ईश्वर के दो स्वरूप कहलाते, <span>भक्त भेद न करते शिव-राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>राममयी आज दुनियाँ सारी</p>
<p>ऐसा आकर्षण है प्रभु राम में</p>
<p>दो अक्षरों का ये नाम है सुंदर, <span>सारा जग समाया राम में।।</span></p>
<p> </p>
<p>कण-कण में श्री राम ही बसते</p>
<p>सब जीव समाते राम में</p>
<p>राम आत्मा राम परमात्मा, <span>सब ध्यान लगाते राम में।।</span></p>
<p></p>
<p>स्व्रचित व मौलिक रचना </p>
<p>फूल सिंह, दिल्ली </p>
<p></p> राम मंदिरtag:openbooksonline.com,2024-01-23:5170231:Topic:11157752024-01-23T09:22:43.476ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p> </p>
<p>राम मंदिर</p>
<p> </p>
<p>राम व्यापक राम विश्वात्मा</p>
<p>हर जीव में है राम बसा</p>
<p>जन्मभूमि श्री राम कहलाती, <span>भव्य मंदिर एक वहाँ बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>देश की आत्मा देश की आस्था</p>
<p>दिग्दर्शन का स्वरूप बना</p>
<p>चेतना, <span>चिंतन</span>, <span>प्रतिष्ठा का</span>, <span>जो राम प्रताप का आधार बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>दैवीय शक्तियों का जहाँ पे पहरा</p>
<p>अवध में मंदिर एक बना</p>
<p>श्रेष्ठ आदर्शों का संदेश सुनाता, <span>श्री राम कथा का गीत…</span></p>
<p> </p>
<p>राम मंदिर</p>
<p> </p>
<p>राम व्यापक राम विश्वात्मा</p>
<p>हर जीव में है राम बसा</p>
<p>जन्मभूमि श्री राम कहलाती, <span>भव्य मंदिर एक वहाँ बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>देश की आत्मा देश की आस्था</p>
<p>दिग्दर्शन का स्वरूप बना</p>
<p>चेतना, <span>चिंतन</span>, <span>प्रतिष्ठा का</span>, <span>जो राम प्रताप का आधार बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>दैवीय शक्तियों का जहाँ पे पहरा</p>
<p>अवध में मंदिर एक बना</p>
<p>श्रेष्ठ आदर्शों का संदेश सुनाता, <span>श्री राम कथा का गीत बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>समर्थ, <span>सक्षम</span>, <span>दिव्य-भव्य मंदिर</span></p>
<p>हिंदमानस का सम्मान बना</p>
<p>सदियों से जिसकी राह देखते, <span>उस संघर्षकाल का विश्राम बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>भक्ति-सेवा का आधार कहलाता</p>
<p>त्याग-समर्पण का प्रतीक बना</p>
<p>राष्ट्र चेतना का जो विस्तार कराता, <span>विशाल मन्दिर वो ऐसा बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>देश-विदेश से आएं अथिति</p>
<p>मिशाल; <span>भव्य आयोजन की खास बना</span></p>
<p>प्राण-प्रतिष्ठा की विशालता देखो, <span>देश-विदेश में जिसका शोर सुना।।</span></p>
<p> </p>
<p>अमीर-गरीब का फ़र्क मिटाता</p>
<p>जिसमें न जाति-धर्म ही विघ्न बना</p>
<p>समानता की रखता आधारशिला जो, <span>विपक्षियों पर पक्ष की जीत बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>निराशा को मन से दूर भगाता</p>
<p>आशा का स्वरुप बना</p>
<p>सात्विकता का मार्ग दिखाता, <span>जो प्रेम-अहिंसा</span>, <span>सत्य धर्म की नींव बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>राम ही सत्य राम ही सुन्दर</p>
<p>हर जीव में राम बसा</p>
<p>उत्साह, <span>उमंग</span>, <span>उल्लास में भरे सब</span>, <span>श्री राम का जब आवास बना।।</span></p>
<p> </p>
<p>सनातन धर्म की धरोहर कहलाया</p>
<p>संस्कृति का शान बना</p>
<p>नए भारत की को झलक दिखलाता, <span>न्याय की अनूठी जीत बना।।</span></p> सदियों का वनवास अंत करtag:openbooksonline.com,2024-01-22:5170231:Topic:11154462024-01-22T03:53:32.872ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p>गीत</p>
<p></p>
<p>पुलकित तन से पुलकित मन से, नाच रहे है जन जन सारे।<br></br>सदियों का वनवास अंत कर, सकल राष्ट्र में राम पधारे।<br></br>**<br></br>राजनीति ने करवट ली तो, हर सोया विश्वास जगा है।<br></br>सच है राजा रंक सभी के, मन में बस उल्लास दिखा है।।<br></br>घटघट वासी राम भले हों, घटघट उन में आज बसा है।<br></br>होकर एकाकार सनातन, अद्भुत यह इतिहास रचा है।।<br></br>**<br></br>सिर्फ न देशी लोग विदेशी, दर्शन को निष्काम पधारे।<br></br>सदियों का वनवास अंत कर, सकल राष्ट्र में राम पधारे।।<br></br>**<br></br>सुख हो, दुख हो, या…</p>
<p>गीत</p>
<p></p>
<p>पुलकित तन से पुलकित मन से, नाच रहे है जन जन सारे।<br/>सदियों का वनवास अंत कर, सकल राष्ट्र में राम पधारे।<br/>**<br/>राजनीति ने करवट ली तो, हर सोया विश्वास जगा है।<br/>सच है राजा रंक सभी के, मन में बस उल्लास दिखा है।।<br/>घटघट वासी राम भले हों, घटघट उन में आज बसा है।<br/>होकर एकाकार सनातन, अद्भुत यह इतिहास रचा है।।<br/>**<br/>सिर्फ न देशी लोग विदेशी, दर्शन को निष्काम पधारे।<br/>सदियों का वनवास अंत कर, सकल राष्ट्र में राम पधारे।।<br/>**<br/>सुख हो, दुख हो, या दुविधा हो, ज्यों मर्यादा में राम रहे।<br/>त्यों मर्यादित जीवन जीना, जन जन वाणी आज कहे।।<br/>पराधीन थे पुरखे जब तक, नित सदियों चाहे कष्ट सहे।<br/>रामराज्य सी चहुँदिश अब तो, हर मर्यादित हवा बहे।।<br/>***<br/>महज नहीं अब मूर्ति रूप में, आत्मरूप हर धाम पधारे।<br/>सदियों का वनवास अंत कर, सकल राष्ट्र में राम पधारे।।<br/>***<br/>मौलिक/अप्रकाशित<br/>लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'</p> वैंकुंठधाम आगमनtag:openbooksonline.com,2024-01-18:5170231:Topic:11151332024-01-18T10:23:10.757ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p></p>
<p>काल का नियम कठोर है होता</p>
<p>सभी को इसको वरना हो</p>
<p>श्री राम अछूते रह सके न, <span>क्या मानव जीवन का वर्णन हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>आते साधू रूप में काल देवता</p>
<p>श्री राम से वचन एक लेना हो</p>
<p>गुप्त बात कोई सुन सके न, <span>इस बात की पुष्टि प्रथम हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>मृत्यु दंड का भागी होगा</p>
<p>विघ्न वार्तालाप में डाले जो </p>
<p>लक्ष्मण को द्वारपाल बनाया, <span>हनुमान न उपस्थित उस क्षण हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>पूरा हुआ अब समय आपका </p>
<p>वैंकुंठ धाम…</p>
<p></p>
<p>काल का नियम कठोर है होता</p>
<p>सभी को इसको वरना हो</p>
<p>श्री राम अछूते रह सके न, <span>क्या मानव जीवन का वर्णन हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>आते साधू रूप में काल देवता</p>
<p>श्री राम से वचन एक लेना हो</p>
<p>गुप्त बात कोई सुन सके न, <span>इस बात की पुष्टि प्रथम हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>मृत्यु दंड का भागी होगा</p>
<p>विघ्न वार्तालाप में डाले जो </p>
<p>लक्ष्मण को द्वारपाल बनाया, <span>हनुमान न उपस्थित उस क्षण हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>पूरा हुआ अब समय आपका </p>
<p>वैंकुंठ धाम अब चलना हो</p>
<p>कर्म सभी तो हो चुके हैं, <span>अवतरण जिनकी खातिर हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>दुर्वासा ऋषि आ तब पहुँचते </p>
<p>माया प्रभु की अद्भुत हो</p>
<p>दुनियाँ जानती उनके क्रोध को, <span>वर-श्राप भी उनके कम न हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>दुविधा में रहते लक्ष्मण जी है</p>
<p>कोई मार्ग के उनके सम्मुख हो</p>
<p>मृत्युदंड अब उन्हे मिलेगा, <span>अन्यथा श्री राम श्राप के भागी हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>मृत्युदंड है मुझको चुनना </p>
<p>शायद धरा छोड़ अब चलना हो</p>
<p>उपस्थिति बताते दुर्वासा जी की, <span>मिलना जरूरी जिनका हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>तर्क-वितर्ककर मिला देश निकाला</p>
<p>पर समाधि को स्वीकारे वो</p>
<p>लक्ष्मण अपने परम धाम पधारे, <span>जहाँ भव्य स्वागत उनका हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>विलाप में रोते श्री राम जी</p>
<p>ये विचित्र डरावनी घटना हो</p>
<p>अजेय यौद्धा कहलाते है जो, <span>स्वयं काल से इस बार हारे वो</span>||</p>
<p> </p>
<p>विधि की लेखनी टल नहीं सकती</p>
<p>सीख बड़ी दे जाते वो</p>
<p>दशानन को मारने वाले, <span>आज गहन सोच में डूबे हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>भ्रात प्रेम भी बड़ा अनोखा</p>
<p>भाई की शक्ति कहलाता जो</p>
<p>एक बाजू बन साथ निभाता, <span>असहाय दूजे को करता जो</span>||</p>
<p> </p>
<p>जीकर भी अब क्या करूँ</p>
<p>जब लक्ष्मण मेरे साथ न हो</p>
<p>कदम-कदम पर जो साथ निभाया, <span>जग उसके बिना अब सुना हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>सोचते सोचते दिन गुजरते</p>
<p>इस निर्णय पर पहुंचे वो</p>
<p>सरयू नदी में प्राण गँवाना, <span>दृढ़ निश्चय मन में लाएँ वो</span>||</p>
<p> </p>
<p>विचार-विमर्श कर सभासदों से</p>
<p>काम का वितरण करते वो </p>
<p>सगे-संबंधी संग चले त्रिदश किनारे, <span>निश्चित सरयू में उनका उतरना हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>नारायण रूप में हुए समाहित</p>
<p>विष्णु रूप अवतारे जो </p>
<p>वैंकुंठ धाम में प्रभु पहुंचे, <span>जो युगों-युगो से अब तक सुना हो</span>||</p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना </p> क्या युद्ध निश्चित था?tag:openbooksonline.com,2024-01-15:5170231:Topic:11151172024-01-15T04:45:39.551ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p></p>
<p>क्यूँ रोकते द्रौपदी को</p>
<p>जब कर्ण लक्ष्य भेद में माहिर था</p>
<p>अपमान कराते द्रौपदी से उसका, जानते थे वो ज्येष्ठ पुत्र है कुंती का||</p>
<p> </p>
<p>युद्ध से पहले क्यूँ न बताते</p>
<p>रंगमच के बाद ही क्यूँ न बताते</p>
<p>सुतपुत्र नहीं तू ज्येष्ठ पुत्र है, मेरी बुआ तू कुंती का||<br></br> </p>
<p>क्या सच है कृष्णा</p>
<p>शान्ति दूत बन आएं थे</p>
<p>युद्ध नहीं वो शान्ति चाहते, क्या ये सब उनके भाव बतलाएँ थे।।</p>
<p> </p>
<p>जहर घुलता जब बहती हवा में</p>
<p>विष जुबा में घुलता…</p>
<p></p>
<p>क्यूँ रोकते द्रौपदी को</p>
<p>जब कर्ण लक्ष्य भेद में माहिर था</p>
<p>अपमान कराते द्रौपदी से उसका, जानते थे वो ज्येष्ठ पुत्र है कुंती का||</p>
<p> </p>
<p>युद्ध से पहले क्यूँ न बताते</p>
<p>रंगमच के बाद ही क्यूँ न बताते</p>
<p>सुतपुत्र नहीं तू ज्येष्ठ पुत्र है, मेरी बुआ तू कुंती का||<br/> </p>
<p>क्या सच है कृष्णा</p>
<p>शान्ति दूत बन आएं थे</p>
<p>युद्ध नहीं वो शान्ति चाहते, क्या ये सब उनके भाव बतलाएँ थे।।</p>
<p> </p>
<p>जहर घुलता जब बहती हवा में</p>
<p>विष जुबा में घुलता है</p>
<p>अच्छे-अच्छे कड़वे होते, वाणी में मधु-सुधा न कहीं मिलता है।।</p>
<p> </p>
<p>दोहरी भूमिका न ज्यादा चलती</p>
<p>क्यूँ छवि न अपनी बदल सके</p>
<p>युद्ध तो पहले निश्चित था ये, भरी सभा में बस शब्दों के थे वार चले।।</p>
<p> </p>
<p>मिले पाँच गाँव नहीं तो क्या</p>
<p>जा पांडवों को समझाएँ थे</p>
<p>वापस चलो अज्ञातवास में, न वापस फिर लौट कर आयेंगे।।</p>
<p> </p>
<p>नहीं लेंगे अधिकार भी अपना</p>
<p>पांडव वन को फिर जायेंगे</p>
<p>अधिकार मांगने जीवन का, न वापस कभी फिर आयेंगे।।</p>
<p> </p>
<p>क्यूँ न कहा था केशव ने भी</p>
<p>मैं युद्ध नही होने दूँगा</p>
<p>शान्ति हेतु आया हूँ मैं, बिन लिए हक के वापस जाऊँगा।।</p>
<p> </p>
<p>क्या दे नही सकते पांडव बलिदान ये</p>
<p>छोड़ कुरुक्षेत्र न जा सके</p>
<p>लाखों की जान की ख़ातिर, पाँच जान न गँवा सके।।</p>
<p> </p>
<p>क्या विश्व शान्ति की ख़ातिर</p>
<p>बिन राज के रह सके</p>
<p>इतना दु:ख तो सह चुके थे, पांडव क्यूँ थोड़ा और न सके।।</p>
<p> </p>
<p>खुश रहो तुम सारा राज्य पाकर</p>
<p>दु:ख आजीवन वो पायेंगे</p>
<p>विश्व में शान्ति रखने को, वो सब कुछ सहते जायेंगे।।</p>
<p> </p>
<p>दिल में बसेंगे हर जन के वो</p>
<p>बस सम्राट नहीं कहलायेंगे</p>
<p>काल ग्रंथ के पन्नों पर, एक दिन वो श्रेष्ठ पद को पायेंगे।।</p>
<p> </p>
<p>युगपुरुष बन क्यूँ वो समाज के</p>
<p>मिलकर थे न कहे सके</p>
<p>लाखों के जीवन की रक्षा हेतु, प्राप्त पांडव बिन राज्य के मर जायेंगे।।</p>
<p> </p>
<p>सभी यौद्धा चाहते शायद </p>
<p>संग्राम में बाहुबल आजमाएंगे</p>
<p>पांडव कौरव तो एक बहाना, धर्म-अधर्म समर में मिलकर साथ निभायेंगे।।</p>
<p> </p>
<p>ईश्वर होकर भी दु:ख हरे न</p>
<p>पांडवों को जिनसे गहरा रिश्ता था</p>
<p>चमत्कार भी न कोई करते, जग जिनको ईश्वर कहता था||</p>
<p> </p>
<p>कर्म का मोल था सबको सिखाना</p>
<p>कृष्ण का मकसद इतना था</p>
<p>नई पीढ़ी को नई शिक्षा देना, धर्म रक्षा का पाठ सिखाना था||</p>
<p> </p>
<p>मर नहीं सकते जो वीर थे</p>
<p>उनको छल से मरना था</p>
<p>धरणी का था भार हरना, जिसमे कर्म सभी को करना था||</p>
<p> </p>
<p>भूमि पर अवतार धरे जो</p>
<p>शायद नियति उनको रोका था</p>
<p>निर्धारित था ये युद्ध पहले से, सबको इसमे मोहरा बनना था||</p>
<p> </p>
<p>भूमिका निभाना सभी को अपनी</p>
<p>नियति सबकी बन गया था</p>
<p>सूत्रधार बने कृष्ण तो केवल, वीर-महावीरों को इसमें मरना था||</p>
<p></p>
<p>स्व्रचित व मौलिक रचना </p> कर्ण का विवाहtag:openbooksonline.com,2024-01-08:5170231:Topic:11146332024-01-08T07:06:15.841ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p>प्रथम रुषाली कर्ण की पत्नी</p>
<p>जिसे पितृ इच्छा से पाता</p>
<p>दूसरी कहलाती सुप्रिया, खास भानुमती से जिसका नाता||</p>
<p> </p>
<p>अंसावरी को वही बचाता</p>
<p>था आतंकवादियों ने जिसको घेरा </p>
<p>प्रेम करती उससे पहले, फिर सुतपुत्र कह धुत्कारा||</p>
<p> </p>
<p>स्वयंवर जीता अंसावरी का</p>
<p>प्रेम था उससे करता</p>
<p>धुत्कार जिससे सह चुका था, अब स्वीकार न उसको करता||</p>
<p> </p>
<p>दासी पद्मावती उससे प्रेम थी करती</p>
<p>विनती राजा से उसकी करता</p>
<p>अटूट रिश्ता सदा उससे रहता, सच्ची संगनी…</p>
<p>प्रथम रुषाली कर्ण की पत्नी</p>
<p>जिसे पितृ इच्छा से पाता</p>
<p>दूसरी कहलाती सुप्रिया, खास भानुमती से जिसका नाता||</p>
<p> </p>
<p>अंसावरी को वही बचाता</p>
<p>था आतंकवादियों ने जिसको घेरा </p>
<p>प्रेम करती उससे पहले, फिर सुतपुत्र कह धुत्कारा||</p>
<p> </p>
<p>स्वयंवर जीता अंसावरी का</p>
<p>प्रेम था उससे करता</p>
<p>धुत्कार जिससे सह चुका था, अब स्वीकार न उसको करता||</p>
<p> </p>
<p>दासी पद्मावती उससे प्रेम थी करती</p>
<p>विनती राजा से उसकी करता</p>
<p>अटूट रिश्ता सदा उससे रहता, सच्ची संगनी जग पद्मावती को उसकी कहता||</p>
<p> </p>
<p>द्रौपदी स्वयंवर में आया कर्ण</p>
<p>दुर्योधन का सहायक बनता</p>
<p>पहली नजर में दिल हारता, जब द्रौपदी के सम्मुख पड़ता||</p>
<p> </p>
<p>स्वीकार न करती अपमानित करती </p>
<p>वक़्त उसको फिर से छलता</p>
<p>अजीब स्थिति से उलझता हरदम, भावुक हृदय सूतपुत्र था||</p>
<p> </p>
<p>दासियों ने ही स्वीकारा जिसको</p>
<p>जो महान धनुर्धर अपने वक़्त का</p>
<p>छलती आयी नियति हमेशा, पर वो सदा अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ता||</p>
<p> </p>
<p>उसके होने न होने से फर्क न पड़ता</p>
<p>अजीब जीवन का किस्सा</p>
<p>दुर्योधन और कृष्ण समझते, मर्म उसके तड़पते मन का||</p>
<p> </p>
<p>उनसे हमेशा धुत्कार है खाता</p>
<p>जिनसे प्रेम सच्चा करता</p>
<p>सूतपुत्र होने का बड़ा मोल चुकाता, खुद को फिर भी जिंदा रखता||</p>
<p> </p>
<p>रुषाली-सुप्रिया बनी कई पुत्रों की माता</p>
<p>सुत युद्ध की बलि में चढ़ता</p>
<p>महाकाल का तांडव जिसमे, जिंदा वृषकेतु ही बचता||</p>
<p> </p>
<p>इन्द्रप्रस्थ का राजा उसे बनाकर</p>
<p>युधिष्ठिर गज़ब का निर्णय सुनाता</p>
<p>अनूठा रिश्ता उससे निभाकर, अपने धर्म के पक्ष को रखता||</p>
<p> </p>
<p>धर्म की स्थापना कर सभी ने</p>
<p>धर्म को जिंदा रखा</p>
<p>अपने-अपने कर्तव्य में निपुण रहे सब, सबका सुख-सुविधा में जीवन कटता||</p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना </p> भीष्म पितामह और केशवtag:openbooksonline.com,2024-01-05:5170231:Topic:11145022024-01-05T11:23:53.668ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p></p>
<p>ईश्वर कहती तुमकों केशव</p>
<p>सृष्टि का तुम आधार बनो</p>
<p>शंका में मैं पड़ा हूँ गहरी, <span>हो सके तो इसका समाधान करों।।</span></p>
<p> </p>
<p>पोता हूँ मैं आपका पितामह</p>
<p>मुझसे यूं न मखौल करो</p>
<p>आपकी आज्ञा में जीता आया, <span>सात्विकता में सदा आप जियो।।</span></p>
<p> </p>
<p>कौरवों के कृत्यों की मैं बात न करता</p>
<p>क्यूँ पांडवों को छल में लिप्त करो </p>
<p>कर्ण, <span>द्रोण</span>, <span>जयद्रथ के वध को</span>, <span>क्यूँ-कैसे तुम धर्म…</span></p>
<p></p>
<p>ईश्वर कहती तुमकों केशव</p>
<p>सृष्टि का तुम आधार बनो</p>
<p>शंका में मैं पड़ा हूँ गहरी, <span>हो सके तो इसका समाधान करों।।</span></p>
<p> </p>
<p>पोता हूँ मैं आपका पितामह</p>
<p>मुझसे यूं न मखौल करो</p>
<p>आपकी आज्ञा में जीता आया, <span>सात्विकता में सदा आप जियो।।</span></p>
<p> </p>
<p>कौरवों के कृत्यों की मैं बात न करता</p>
<p>क्यूँ पांडवों को छल में लिप्त करो </p>
<p>कर्ण, <span>द्रोण</span>, <span>जयद्रथ के वध को</span>, <span>क्यूँ-कैसे तुम धर्म कहो।।</span></p>
<p> </p>
<p>निहत्थे द्रोण का वध सही पर</p>
<p>क्यूँ दुर्योधन की जंघा पर प्रहार यूँ हो</p>
<p>जयद्रथ वध क्यूँ छल से हुआ यूँ, <span>कर्ण के प्राण निशस्त्र हरो</span>||</p>
<p> </p>
<p>पितामह इन प्रश्नों का उत्तर उनसे माँगो</p>
<p>उत्तरदायित्व इसका जिन पर हो</p>
<p>द्रोण, <span>सुशासन के वध उत्तर भीम से मांगे</span>, <span>जयद्रथ</span>, <span>कर्ण का दोषी अर्जुन हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>मैं तो ठहरा एक सारथी</p>
<p>भला मुझसे प्रश्न ऐसे क्यूँ करो </p>
<p>रथ चलाना मेरा कर्तव्य, <span>रथी की आज्ञा मेरा धर्म कहो</span>||</p>
<p> </p>
<p>छोड़ दो छलना अब दो केशव</p>
<p>इस युद्ध के कर्ता-धर्ता सदा आप रहो</p>
<p>आप ही दोगे मेरे प्रश्नों के उत्तर, <span>चाहे एक अज्ञानी की तुम इसे जिद्द कहो।।</span></p>
<p> </p>
<p>नियति विधि सब तेरे हाथ है</p>
<p>धर्म रक्षा में अवतार धरो</p>
<p>गलत को गलत ही कहना पड़ता, <span>तुम न भगवान होकर पक्षपात करों।।</span></p>
<p> </p>
<p>क्षमा करना पितामह मुझको</p>
<p>युद्ध में कहीं भी अधर्म न हो</p>
<p>निश्चित होता सब कुछ पहले, <span>बस तुम तो इसके कर्ता रहो</span>||</p>
<p> </p>
<p>कुछ बुरा नहीं हुआ इस युद्ध में</p>
<p>अनैतिक कुछ भी इसमे हो</p>
<p>वही हुआ जो होना चाहिए, <span>न इस युद्ध का कोई दोषी हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>वर्तमान स्थिति-परिस्थिति सब निर्धारित करती </p>
<p>कर्ता पर न इसका दोष मढ़ो</p>
<p>काल की सदा परिवर्तित होती, <span>उसका धर्म की रक्षा मकसद हो।।</span></p>
<p> </p>
<p>इतिहास से वर्तमान सदा सीख है लेता</p>
<p>अनुभव को उसका आधार सुनो </p>
<p>समस्या का उन्मूलन कैसे होता, <span>समाधान का अंकुर वही से चुनो</span>||</p>
<p> </p>
<p>त्रेता के नायक श्री राम कहलाते </p>
<p>खलनायक रावण जैसा शिवभक्त भी हो</p>
<p>मंदोदरी, <span>विभीषण जैसे धर्मात्मा रहते</span>, <span>सज्जन तारा-अंगद से संग में कहो।।</span></p>
<p> </p>
<p>धर्म का ज्ञानी सभी कहलाते</p>
<p>कहाँ छल की आवश्यकता वहाँ मिलो </p>
<p>पापी, <span>कामी-क्रोधी रहे मेरे युग में</span>, <span>छल ही जिनकी नियति कहो</span>||</p>
<p> </p>
<p>नकारात्मकता न इतनी ज्यादा फैली</p>
<p>द्वापर में जितनी आप कहो</p>
<p>पापी, <span>कामी</span>, <span>लोभी मिले उससे ज्यादा</span>, <span>त्रेता में न पापी इतने सुनो</span>||</p>
<p> </p>
<p>आशीष-श्राप संग वर से सुशोभित</p>
<p>अहंकार के न जिनकी अथाह कहो</p>
<p>एक से बढ़कर वीर-महावीर सब, <span>छाया-माया</span>, <span>बल में असीमित जिनको कहों</span>||</p>
<p> </p>
<p>देव-दानव जिन्हे हरा न सकते</p>
<p>अधर्म रक्षक उनको कहो</p>
<p>धर्म कैसे फिर रक्षित होता, <span>जब मृत्यु का विजेता उनको कहो</span>||</p>
<p> </p>
<p>धर्म-अधर्म एक चक्र के पहिए</p>
<p>आवश्यक संतुलन होना हो</p>
<p>एक का पलड़ा जो भारी होगा, <span>प्रकृति का रथ भी डगमग हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>छल न होता उनका वध भी कैसे</p>
<p>भीष्म, <span>द्रोणा</span>, <span>कर्ण अजेय योद्धा जो</span></p>
<p>अधर्म में रक्षा में सारे खड़े जब, <span>धर्म की रक्षा फिर कैसे हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>दूत बना मैं शांति की खातिर</p>
<p>मेरा शारथी के रूप में चुनाव भी हो</p>
<p>गीता ज्ञान भी देना पड़ा, <span>पर सुनने को कोई तैयार तो हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>मार्ग न बचा जब मेरे सम्मुख</p>
<p>विकल्प युद्ध शेष कहो </p>
<p>चुनाव सभी को करना पड़ता, <span>काल भी उसके सहायक हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>भार धरा बढ़ चुका इतना</p>
<p>असहनीय वसुंधरा की पीड़ा हो</p>
<p>विधर्मियों का विनाश मुझे करना पड़ता, <span>मेरा अवतार इसी के कारण हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>बड़ा कठोर कहती है मुझको जनता</p>
<p>पर कलयुग बहुत ही भयंकर हो</p>
<p>नर ही देव, <span>दानव सब राक्षस होंगे</span>, <span>छल-बल मोह-माया सब उसमे समाहित हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>उत्तर उसी भाषा में देना पड़ता</p>
<p>जिस परिस्थिति में वर्तमान हो</p>
<p> विष को विष से काटना पड़ता, <span>जब कोई शेष मार्ग न बचता हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>हर युग में एक नायक होता</p>
<p>मूल्यांकन वक़्त की हर दशा करो </p>
<p>स्थिति-परिस्थिति ही निर्धारित, <span>नायक क्यूँकर उनका कैसा हो</span>||<span> </span></p>
<p> </p>
<p>अर्थहीन हो जाती नैतिकता</p>
<p>जब सत्य-धर्म का समूल नाश जो हो</p>
<p>कठोर निर्णय भी लेने पड़ते, <span>क्रूर शक्तियाँ जब आतंकित हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>धर्म की विजय ही महत्तवपूर्ण होती</p>
<p>चाहे बलिदान ही उसका मूल्य हो</p>
<p>भविष्य का आधार वर्तमान है, <span>धर्म को बचाना आवश्यक हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>छोड़ नहीं सकते सब भाग्य भरोसे</p>
<p>कर्म तो सभी को करने हो</p>
<p>निर्धारित करते कर्म ही भविष्य, <span>भाग्य के मूल में कर्म ही हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>भाग्य के भरोसे जो छोड़ के बैठो</p>
<p>इससे बड़ी क्या मूर्खता हो</p>
<p>परिणाम को ध्यान करते कर्म जो, <span>कर्म न अर्थपूर्ण कहलाते वो</span>||</p>
<p> </p>
<p>एक बात और पूछनी माधव</p>
<p>आपकी यदि मुझे आज्ञा हो</p>
<p>कई जन्म मुझे याद है केशव, <span>कोई अपराध न जिनमे मेरे हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>मिली क्यूँ मुझको ये शर-शैय्या यहाँ</p>
<p>जो पाप न मेरे पास में हो</p>
<p>आश्चर्यचकित मैं भ्रम में कृष्णा, <span>शंका का मेरी समाधान करो</span>||</p>
<p> </p>
<p>सच है पितामह आप अपराधी नहीं</p>
<p>आप अपराध में शामिल न कई जन्म में हो</p>
<p>सारे जन्म आपको याद नहीं है, <span>मैं समझाता गूढ तथ्य को</span>||</p>
<p> </p>
<p>शिकार करके लौटे रहे जब </p>
<p>कर्केटा पक्षी रथ से आपके घायल हो</p>
<p>बाण से उठाकर उसे फैक दिया, <span>तब झाड़ियाँ में जाकर फ़सता वो</span>||</p>
<p> </p>
<p>बहुत दिनों तक फसा रहा वो</p>
<p>आपको श्राप तभी दे जाता वो </p>
<p>जीतने दिन तक मैं तड़पा यहाँ पर, <span>कभी ऐसी दुर्गति तेरी हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>वही श्राप यहाँ फलित हुआ है</p>
<p>आप आश्चर्यचकित न अचंभित हो</p>
<p>कर्मभूमि ये धर्मभूमि है, <span>सभी का यहाँ पर निर्णय हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>सुनकर पितामह कुछ शांत हो</p>
<p>मोक्ष की उनकी इच्छा हो</p>
<p>अब प्राण त्यागने की इच्छा रखते, <span>पर कृष्ण उनके सम्मुख हो</span>||</p>
<p> </p>
<p>उत्तरायण का समय हो आया</p>
<p>सम्मुख कृष्णा हो</p>
<p>माघ का महीना पवित्र कहलाता, <span>अष्टमी तिथि को भीष्म को मोक्ष की प्राप्ति हो</span>|| <span> </span></p>
<p> </p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना</p> महावीर कर्ण और द्रौपदीtag:openbooksonline.com,2024-01-05:5170231:Topic:11144002024-01-05T06:21:43.557ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p></p>
<p>सशक्त जो बड़ी सुंदर प्यारी</p>
<p>स्वयंवर की जिसके शोभा निराली</p>
<p>मोहित करती हर नृप को, <span>क्यूँ नियति के आगे सदा ही हारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>सौंदर्य की प्रतिमूर्ति</p>
<p>खान गुण-ज्ञान की दुनियाँ जानी</p>
<p>हर वीर की वो अभिलाषा, <span>ऐसी अतुलनीय वो सुंदर नारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>मृगी के जैसे नयन है जिसके</p>
<p>कोयल जैसी उसकी वाणी</p>
<p>मोरनी के जैसी चाल थी जिसकी, <span>द्रुपद की ऐसी राजदुलारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>अर्जुन-कर्ण से प्रतिभागी</p>
<p>शौर्यता जिनकी…</p>
<p></p>
<p>सशक्त जो बड़ी सुंदर प्यारी</p>
<p>स्वयंवर की जिसके शोभा निराली</p>
<p>मोहित करती हर नृप को, <span>क्यूँ नियति के आगे सदा ही हारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>सौंदर्य की प्रतिमूर्ति</p>
<p>खान गुण-ज्ञान की दुनियाँ जानी</p>
<p>हर वीर की वो अभिलाषा, <span>ऐसी अतुलनीय वो सुंदर नारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>मृगी के जैसे नयन है जिसके</p>
<p>कोयल जैसी उसकी वाणी</p>
<p>मोरनी के जैसी चाल थी जिसकी, <span>द्रुपद की ऐसी राजदुलारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>अर्जुन-कर्ण से प्रतिभागी</p>
<p>शौर्यता जिनकी जग ने जानी</p>
<p>देव-मानव भी जिनसे हारे, <span>अजय थी जिनके धनु की वाणी</span>||</p>
<p> </p>
<p>उज्ज्वल कीर्ति जिसका निर्मल चरित्र था</p>
<p>क्यूँ न राधेय वो स्वीकारी</p>
<p>सूतपुत्र होना क्या मेरा गुनाह था, <span>कर्म से होती पहचान हमारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>प्रतिभागी वो शक्तिशाली</p>
<p>फिर भी सावित्र में कमी थी भारी</p>
<p>ठुकराती उसे सूतपुत्र कहकर, <span>जो पति रूप में पार्थ को पानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>बड़े-बड़े योद्धा बड़े बलशाली</p>
<p>अतुल्य पराक्रम थे अभिमानी</p>
<p>छोड़ सभी को फिर क्यूँ उसने, <span>बंधित दासता थी स्वीकारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>शब्द कर्म से ज्यादा श्रेष्ठ है</p>
<p>सुन चांपेश को हुई हैरानी</p>
<p>अपमानित करती भरी सभा में, <span>छलनी अंतस तक कर डाली।।</span></p>
<p> </p>
<p>लज्जित करती क्यूँ भरी सभा में</p>
<p>जिसकी परिकल्पना न किसी ने जानी</p>
<p>हतप्रभ मैं आश्चर्यचकित था, <span>सोच क्यूँ-कैसी उसके मन में आनी।।</span></p>
<p> </p>
<p>व्यथित बड़ा मैं वेदनापूर्ण था </p>
<p>पूछता हूँ मैं सब नर-नारी</p>
<p>क्यूँ रोक सकी न अपने पिता को, <span>जिसने गुरुओं को बोले अपशब्द भारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>स्वयंवर में गया मैं सहायक बनकर</p>
<p>करने मीत की वो रखवाली</p>
<p>पक्षपात हुआ क्यूँ प्रतिस्पर्धा में, <span>क्यूँ धनुर्धरों का वहाँ पलड़ा भारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>खड़ग-<span>तलवार न गदायुद्ध की</span></p>
<p>न मल्ल की थी वहाँ तैयारी </p>
<p>वीरों का अपमान हुआ क्यूँ, <span>पूछता हूँ बन एक सवाली।।</span></p>
<p> </p>
<p>गांडीवधर के मोह में फँसी क्यूँ </p>
<p>सही-गलत न क्यूँ विचारी </p>
<p>आकर्षण उसका रविनंदन पहला, <span>फिर छोड़ गई क्यूँ हो मतवाली।।</span></p>
<p> </p>
<p>पाँच पतियों की पत्नी बनी क्यूँ </p>
<p>दोष नियति का यही था भारी</p>
<p>पाँच पुत्रों में बाँट दिया उसको, <span>मति माता की क्यूँ भ्रम में डाली।।</span></p>
<p> </p>
<p>उल्लघंन न करती राजमाता का</p>
<p>क्यूँ आज्ञा मानी बन बेचारी</p>
<p>संपूर्ण कहलाती जो हमेशा, <span>जिंदगी अबला</span>, <span>कैदी-सी क्यूँ स्वीकारी</span>||</p>
<p> </p>
<p>दासता की बेड़ियाँ स्वीकार क्यूँ करती</p>
<p>घर की चौखट से बंधकर रहती </p>
<p>गुलामों की तरह से जिंदगी जीती, <span>थी इंद्रप्रस्थ की जो महारानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>यज्ञसैनी वो आग से जन्मी</p>
<p>क्यूँ भस्म न उनको थी कर डाली </p>
<p>क्यूँ झूठ-मूठ के रिश्तों में बंधती, <span>जैसे मीन तड़पती बिन बहता पानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>स्वीकार करी क्यूँ इस निर्णय को</p>
<p>ज्ञान, <span>सोच-विचार क्या शर्म भी त्यागी</span></p>
<p>दुनियाँवाले तो बात करेगें, <span>जब धारणा बदलती कुरु महारानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>पुरुष प्रधान इस पूरे देश में</p>
<p>कोई न ऐसी देखी नारी</p>
<p>एक पति संग बिहाई गई जो, <span>फिर पाँच पतियों को थी स्वीकारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>आमंत्रण दे इंद्रप्रस्थ बुलाती</p>
<p>उपहास उड़ाती हो मतवाली</p>
<p>शब्दों का होता परिणाम भयंकर, <span>क्यूँ भूल जाती है ये पांचाली।।</span></p>
<p> </p>
<p>पासे के खेल का मिला न्यौता </p>
<p>पांडवों के क्यूँ संग में आनी</p>
<p>जानती थी ये कर्म घिनौना, <span>क्यूँ विश्राम न करती इन्द्रप्रस्थ महारानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>वस्तु की तरह से तौली जाती </p>
<p>चौसर खेल की बात निराली</p>
<p>दांव लगाते धर्मराज उस पर, <span>क्यूँ रिश्तों के दांवपेंच में फँसी बेचारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>अपमानित होना न उसका नसीब था</p>
<p>रच नियति क्या खेल थी डाली</p>
<p>मामा शकुनि को मित्र खिलाएं, <span>क्यूँ न केशव ने तब कमान संभाली।।</span></p>
<p> </p>
<p>कठपुतली बन रह गई कैसे </p>
<p>झूठे रिश्तों में क्यूँ बिसरानी </p>
<p>षडयंत्र था चौसर का खेल तो, <span>शिकार हो गई जिसकी नारी।।</span></p>
<p> </p>
<p>हार चुके थे पांडव खुद को</p>
<p>फिर स्वतंत्र स्त्री क्यूँ दांव लगानी </p>
<p>सही ठहराते कैसे इस दांव को देखों, <span>वहाँ बैठे सब सम्मानित ज्ञानी-ध्यानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>पराजित मनुज कैसे दांव खेलता</p>
<p>नियम-अधिकार क्यूँ सब शर्त भुलानी</p>
<p>वंश की इज्जत जो कहलाती, <span>पड़ी निवस्त्र थी क्यूँ उसे करानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>हार गए खेल छोड़ते नहीं क्यूँ</p>
<p>ज़ोर-जबरदस्ती की न बात थी आनी </p>
<p>लालच बड़ा था युधिष्ठिर का, <span>तब बुद्धि उसकी थी चकरानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>घर की इज्जत बच जाती</p>
<p>शायद युद्ध की स्थिति न तब फिर आनी</p>
<p>दु:ख के दिवस कुछ बढ़ जाते, <span>पर महाभारत की न बात थी आनी</span>||</p>
<p> </p>
<p>सैरंध्री को झुकाना युद्ध का मकसद </p>
<p>खंडित करते कुल-परंपरा सारी </p>
<p>बालों से घसीटकर भोजाई को लाता, <span>कुरुवंशी राक्षस दु</span>;<span>शासन हो अभिमानी</span>||</p>
<p> </p>
<p> रिश्तों की मान-मर्यादा को धूल मिलाता</p>
<p>बुद्धि उसकी क्यूँ बौरानी</p>
<p>आगे पीछे की नहीं सोचता, <span>न भाभी माँ था उसको जानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>प्रार्थना करती वो विनती करती</p>
<p>पैरों तलक भी गिर जाती</p>
<p>नारी नहीं जैसे कोई वस्तु, <span>जिंदगी उसकी क्यूँ मज़ाक बनानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>क्या स्त्रियों की कोई मर्यादा न होती </p>
<p>क्यूँ अग्नि परीक्षा उसे पड़ती देनी </p>
<p>नियति उसको हर बार क्यूँ छलती, <span>क्यूँ अहमियत उसकी न किसी ने जानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>हाँ मेरी गलती मानता हूँ मैं</p>
<p>थी अपशब्द संग मेरी गंदी वाणी </p>
<p>मेरे किए का पछतावा मुझको, <span>अब कर्मफल की बारी आनी।।</span></p>
<p> </p>
<p>हाँ अपराधी मैं, <span>मेरा मित्र है</span></p>
<p>क्यूँ अपराध नहीं वो अपना पहचानी </p>
<p>जलते दिए को क्यूँ ज्वाला बनाती, <span>कहती कड़वी बात करती शैतानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>वस्त्र जो खींचा सजा वो पायेगा</p>
<p>बात जहन में मेरे आनी</p>
<p>उनको कैसे छोड़ दिया उसने, <span>जिसने बेचने की थी उसको ठानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>स्वीकार न करती दूसरे पति को</p>
<p>सती स्त्रियों में मान्यता भारी </p>
<p>गरीब का घर तक बसा वो देती, <span>पर सौतन कभी न सती स्वीकारी</span>||</p>
<p> </p>
<p>कुछ दंतकथाओ में मान चलो तो</p>
<p>सम्मुख ऐसी बात भी आनी</p>
<p>वर्णन करता आपको ऐसे, <span>सुनकर हो हैरानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>अपना पक्ष रखती द्रौपदी ऐसे</p>
<p>जो प्रेम था उससे करता</p>
<p>बातचीत का अंश उसकी सखी से, <span>द्रौपदी मुख से वर्णन यहाँ मैं करता</span>||</p>
<p> </p>
<p>इंकार किया मैंने उस महावीर को</p>
<p>क्यूँ कर्ण नहीं स्वीकारा</p>
<p>आधार बताती मैं पिता प्रतिज्ञा, <span>इसलिए पड़ा ठुकराना</span>||</p>
<p> </p>
<p>पांचाल देश का राजा द्रुपद</p>
<p>मित्र जिसका द्रोणा</p>
<p>ले सर्वश्रेष्ठ जाति को मतभेद बढ़ा तो, <span>घूँट द्रोण को अपमान का पड़ा था पीना</span>||</p>
<p> </p>
<p>पांडवों को वो शिक्षित करते</p>
<p>मकसद बंदी बनाना</p>
<p>राज्य छिनते से उनकी मदद से, <span>मित्रता में उन्हे आधा पड़ा लौटाना</span>||</p>
<p> </p>
<p>ब्राह्मणों की मदद ले यज्ञ है करते</p>
<p>लक्ष्य पुत्र प्राप्ति जिसका होना</p>
<p>गुरु द्रोण का वध है करना, <span>मन में पिता द्रुपद ने ठाना</span>||</p>
<p> </p>
<p>प्रेम करती थी मैं कर्ण से</p>
<p>जो मन को मेरे हरता</p>
<p>दूर-दूर तक चर्चे जिसके, <span>हर महारथी जिससे डरता</span>||</p>
<p> </p>
<p>मेरी सुंदरता, <span>बुद्धि</span>, <span>विवेक सब</span></p>
<p>कर्ण का मोहित करता</p>
<p>मेरी निडरता उसके मन को भाती, <span>हृदय मुझे दे बैठा</span>||</p>
<p> </p>
<p>लक्ष्य भेदता आँख में देखकर</p>
<p>ऐसा धनुर्धर योद्धा</p>
<p>बड़े-बड़े योद्धा भी पानी न माँगे, <span>ऐसा महावीर कर्ण था</span>||</p>
<p> </p>
<p>मजबूर खड़ी थी वक़्त के आगे</p>
<p>जो स्वयंवर तिरस्कारा</p>
<p>कारण बताती उसका तुमकों, <span>जो अक्षम्य मेरा कर्म था</span>||</p>
<p> </p>
<p>सोचती थी एक तरफा है प्रेम मेरा ये</p>
<p>कर्ण मुझे प्रेम न करता</p>
<p>भ्रम-शंका रही उलझती, <span>कर्ण भी न इज़हार प्रेम का करता</span>||</p>
<p> </p>
<p>दादा भीष्म को जब बताता</p>
<p>पता इस बात का मुझे जब चलता</p>
<p>जिससे मैं सदा प्रेम थी करती, <span>प्रेम वो भी मुझसे करता</span>||</p>
<p> </p>
<p>किया गलत मैं भी मानती</p>
<p>हृदय आत्मग्लानि में सदा ही भरता</p>
<p>इसके भी कुछ तथ्य लेकिन, <span>जिसे हर कोई नहीं समझ सकता</span>||</p>
<p> </p>
<p>पूर्व जन्म में मुझे वरदान मिला</p>
<p>प्रभाव था मेरे तप का</p>
<p>भिन्न गुणों में जिन्हे महारत हासिल, <span>ऐसे पतियों का मुझको वर था</span>||</p>
<p> </p>
<p>युधिष्ठिर को कहते धर्म का ज्ञाता</p>
<p>भीमसेन गदाधर कहलाता</p>
<p>अर्जुन धनुर्धर, <span>सहदेव कहलाता अश्व चिकित्सक</span>, <span>नकुल होता भविष्यज्ञाता</span>||</p>
<p> </p>
<p>सूत पुत्र होना बना दूसरा कारण</p>
<p>समाज में जाति-धर्म का भेद बड़ा था</p>
<p>निभाना ऊँच-नीच का फ़र्क भी था, <span>जो कारण मेरे अपयश का बनता</span>||</p>
<p> </p>
<p>दासी बनकर रहती सदा ही</p>
<p>मेरा कर्ण पति जो होता</p>
<p>कठपुतली कहलाता दुर्योधन का, <span>कभी वो स्वतंत्र राजा नहीं बन सकता</span>||</p>
<p> </p>
<p>दुर्योधन के मित्र होने से</p>
<p>भेद मन में होता</p>
<p>बदला पूरा होता कैसे पिता का, <span>जो गुरु द्रोण न मरता</span>||</p>
<p> </p>
<p>मना करते स्वयं कृष्ण भी मुझको</p>
<p>महायुद्ध में काल का ग्रास कर्ण बनता</p>
<p>विधवा होकर मुझे जीना पड़ता, <span>नहीं तो सती हो जाना पड़ता</span>||</p>
<p> </p>
<p>उम्मीद उसी से रखती थी मैं</p>
<p>जब चीर हरण मेरा होता</p>
<p>कारण आत्मग्लानि के मदद न माँगती, <span>क्यूँ प्रतिरोध वो खुद न करता</span>||</p>
<p> </p>
<p>मित्र के संग में अपमान है करता</p>
<p>जो हृदय में मुझको रखता</p>
<p>कैसे स्वीकार करती इस अपराध को, <span>जो भूल वश वो करता</span>||</p>
<p> </p>
<p>हो सकते बस यही कारण सब</p>
<p>कर्ण द्रौपदी नहीं वर सकता</p>
<p>सर्वप्रथम प्रेम जो उसका, <span>न दिया परिस्थितियों ने भी मौका</span>||</p>
<p> </p>
<p>कोई न जाना इस भेद को</p>
<p>तो तुझको आज बताया</p>
<p>प्रेम जिगर में कर्ण की ख़ातिर, <span>पर पतिरूप में न उसको पाया</span>||</p>
<p> </p>
<p>चहेरा बनी जो नए समाज की</p>
<p>वचन-कुप्रथाओ को क्यूँ सदा ही मानी </p>
<p>क्यूँ स्वीकार करती सब रीति-रिवाज, <span>ये बात समझ न किसी को आनी।।</span></p>
<p> </p>
<p>जानें कितने आधार बनाते</p>
<p>जाने कितनों की आदर्श नारी </p>
<p>इज्जत, <span>आबरू लुटते नारी की</span>, <span>क्यूँ सदियों से नारी की यही कहानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>तिरिया चरित्र पर उँगली उठाते</p>
<p>सदा निर्मलता का चाहें चरित्र निभानी </p>
<p>रिश्तों की गले में डाल बेड़ियाँ, <span>शिकार नारी है क्यूँ बन जानी।।</span></p>
<p> </p>
<p>कभी कौरव से शोषित होती</p>
<p>क्यूँ दासता पांडव की वो स्वीकारी</p>
<p>कभी वक्त की मार को सहती, <span>आज भी बिखरे टुकड़ों में कहीं मिल जानी।।</span></p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना </p> भगवान परशुराम और कर्णtag:openbooksonline.com,2024-01-04:5170231:Topic:11145412024-01-04T07:18:44.920ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p></p>
<p>हवन की अग्नि बुझ चुकी थी</p>
<p>अब कहाँ से आगे की शिक्षा पानी</p>
<p>गुरू द्रोण ने इंकार किया तो, <span>बात गुरु परशुराम की आनी॥</span></p>
<p> </p>
<p>ढूँढता जाता खोजता फिरता</p>
<p>शिकन माथे पर आनी</p>
<p>कैसे मिलेंगे परशुराम जी, <span>थी राह महेंद्र पर्वत की अपनानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>फूलों से बगिया महकी सारी</p>
<p>नीड़ों में खैरभैर भी जारी</p>
<p>ज्ञान की जिज्ञासा मन में भड़की, <span>जिसकी खोज पूरी कर जानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>द्वार तृण-कुटी पर परशु भारी</p>
<p>जो भारी…</p>
<p></p>
<p>हवन की अग्नि बुझ चुकी थी</p>
<p>अब कहाँ से आगे की शिक्षा पानी</p>
<p>गुरू द्रोण ने इंकार किया तो, <span>बात गुरु परशुराम की आनी॥</span></p>
<p> </p>
<p>ढूँढता जाता खोजता फिरता</p>
<p>शिकन माथे पर आनी</p>
<p>कैसे मिलेंगे परशुराम जी, <span>थी राह महेंद्र पर्वत की अपनानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>फूलों से बगिया महकी सारी</p>
<p>नीड़ों में खैरभैर भी जारी</p>
<p>ज्ञान की जिज्ञासा मन में भड़की, <span>जिसकी खोज पूरी कर जानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>द्वार तृण-कुटी पर परशु भारी</p>
<p>जो भारी भरकम भीषण-आभाशाली</p>
<p>धनुष-बाण एक ओर टंगे थे, <span>पालाश-कमंडलू एक पड़ा लौह-दंड अर्ध अंशुमाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>अचरज की थी बात निराली</p>
<p>आज वीरता तपोवन में किसने पाली</p>
<p>धनुष-कुठार संग हवन-कुंड क्यूँ, <span>सन्यास-साधना में शमशीर किसने टाँगी॥</span></p>
<p> </p>
<p>श्रृंगार वीरों के तप और परशु</p>
<p>तप का अभ्यास जाता न कभी भी खाली</p>
<p>तलवार का सम्बंध होता समर से, <span>क्यूँ इस योगी ने इसे संभाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>अचंभित था कर्ण सोच-सोचकर</p>
<p>श्रृद्धा अजिन दर्भ पर बढ़ती जानी</p>
<p>परशु देख थोड़ा मन घबराता, <span>देख युद्ध-तपोभूमि ने उलझन डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>सोच-विचार थोड़ी बुद्धि लगाई</p>
<p>तपोनिष्ठ-यज्ञाग्नि ज्ञान की जगानी</p>
<p>महासूर्य सम तेज था जिसका, <span>कुटिल काल-सी क्रोधाग्नि थी पहचानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>वेद-तरकस संग कुठार विमल</p>
<p>श्राप-शर थे सम्बल भारी</p>
<p>पार न पाया जिस व्रती-वीर-प्रणपाली नर का, <span>परम पुनीत जो भृगु वंशधारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>राम सामने पड़े तो परिचय पूछा</p>
<p>कर्ण हूँ मैं ब्राह्मण जाति</p>
<p>शिक्षा पाने का हूँ अभिलाषी, <span>शिष्य स्वीकार करो मुझे हे विष्णु के अवतारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>आश्चर्य चकित हो देखते उसको</p>
<p>भुजदंड जिसके भारी</p>
<p>शिष्य के सारे गुण है इसमें, <span>उसकी परीक्षा लेने की कुछ ठानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्वीकार करूँ तुझे शिष्य कैसे</p>
<p>क्या पहचान तुम्हारी</p>
<p>सह पायेगा क्या कठोरता मेरी, <span>क्या पहले प्रसिद्धि मेरी जानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्षत्रिय विहीन की धरा भी जिसने</p>
<p>मैं परशुराम परशुधारी</p>
<p>महादेव का शिष्य कहलाता, <span>क्या न क्रोधाग्नि सुनी हमारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्षमा न मिलती गलती की जहाँ पर</p>
<p>शक्ति श्राप की ऐसी हमारी</p>
<p>भूत-वर्तमान सब भूल जाओगे, <span>जो बात न मानी हमारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>सुनता-गुणता उनकी बातें</p>
<p>कर्ण ने मन में ठानी</p>
<p>तकलीफें राह में चाहे कितनी आयें, <span>शिक्षा इन्हीं से मुझको पानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्वीकार करूँ जो शिष्य तुमको</p>
<p>क्या कष्टों में रह पायेगा</p>
<p>कठोर हृदय मेरा सख्त अनुशासन, <span>क्या तेरा कोमल हृदय सह पायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>वृद्ध हूँ लेकिन क्षमता कितनी</p>
<p>क्या-कभी जान पायेगा</p>
<p>हर पल हर क्षण कष्ट मरण-सा, <span>तू सहते-सहते मर जायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>कितनी कठोरता कितना क्रोध है</p>
<p>भष्म पल में हो जायेगा</p>
<p>तुष्टिकर न अन्न खायेगा, <span>फिर जीवित कैसे रह पायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>लहू जलेगा मन-हृदय जलेगा</p>
<p>क्या सुख-नींद-आराम तज जायेगा</p>
<p>धीरज की तेरी परीक्षा होगी, <span>क्या सफल इसमे हो पायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्वीकार करो प्रभु शरण में अपनी</p>
<p>जिज्ञासु कर्ण सारे कर्म कर जायेगा</p>
<p>नींद-सुख-चैन क्या प्रभु, <span>एक आदेश पर अर्पण प्राण अभी कर जायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>गुरू भक्ति मेरी सच्ची-पवित्र है</p>
<p>जिसमें खोट न कभी मिल पायेगा</p>
<p>अनुशासित मैं वक़्त पाबंद, <span>आपकी आज्ञा पर कर्ण अभी मर-मिट जायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>उचित उत्तर पा कर्ण के</p>
<p>थी मुस्कान अधरों पर आनी</p>
<p>स्वीकार करने को हो आतुर वो, <span>शक्ति ममता की थी पहचानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>प्रसन्न हूँ स्वीकार मैं करता</p>
<p>तू शिष्य बड़ा कहलायेगा</p>
<p>जो भी है मेरे पास में आज, <span>अर्पण गुरु तुझे कर जायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>वेद-पुराण संग संसार-ज्ञान सब</p>
<p>निपुण अस्त्र-शस्त्र विद्या में हो जायेगा</p>
<p>न तेरे जैसा कोई महावीर भी होगा, <span>तू ऐसा वीर कहलायेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>दिन पर दिन जैसे बीतते जाते</p>
<p>ज्ञान के पट सब खुलते गए</p>
<p>जितना पाता कम ही लगता, <span>गृहण कर्ण सब कुछ करते गए॥</span></p>
<p> </p>
<p>है अनुशासित जो शिष्य मनोहर</p>
<p>गुरु न उसके ज्ञान-ध्यान में कमी कहे</p>
<p>कहने कुछ मौका न देता, <span>ख़ूब गुरु भी स्नेह चले॥</span></p>
<p> </p>
<p>हर दिन वह नई शिक्षा पाता</p>
<p>सारे ब्रह्मांड का ज्ञान भी गुरु दिए</p>
<p>निपुण करते हर शिक्षा-शास्त्र में, <span>कर्ण ने भी थे सब सीख लिए॥ </span></p>
<p> </p>
<p>कठोर साधना से मिलता सबकुछ</p>
<p>चाहे हड्डी-माँ भी क्षय हो जाए</p>
<p>लौह के जैसे भुज-दंड हो वीर के, <span>वही जय-विजय-अभय कहला</span>ए॥</p>
<p> </p>
<p>पाहन-सी बने माँस-पेशियाँ</p>
<p>अंतर्मन में उत्सुकता लाए</p>
<p>नस-नस में हो अनल भड़कता, <span>तब जय जवानी पाए॥</span></p>
<p> </p>
<p>पूजा-हवन और यज्ञाग्नि जलाते</p>
<p>अस्त्र-शस्त्र सन्धान गुरु कराए</p>
<p>स्नेह की डोर में ऐसे बंधे राम, <span>खोल पिटारा सारा ज्ञान लुटाए॥</span></p>
<p> </p>
<p>ज्ञान-विज्ञान संग अर्थशास्त्र का</p>
<p>ज्ञान सामाजिक-राजनीति का उसे बताए</p>
<p>कुछ शेष बचा न उनके पास में, <span>गुरु परशुराम बड़े महान कहलाए॥</span></p>
<p> </p>
<p>सो जाते सर उसकी गोद में रखकर</p>
<p>उतर गहरी नींद में वह जाए</p>
<p>सपनों में वह खोते जाते, <span>कर्ण को दिए बिसराए</span>॥</p>
<p> </p>
<p>मंत्र-मुग्ध हो उनकी भक्तिभाव से</p>
<p>कर्ण सहलाते जाए</p>
<p>कच्ची नींद गुरु की टूट न जाए, <span>सजग कर्ण चींटी-पत्तियाँ हटाए॥</span></p>
<p> </p>
<p>विषकीट एक आकर काटा</p>
<p>कर्ण विकल बड़ा हो जाए</p>
<p>तन में धँसता धीरे-धीरे, <span>बहते आँख से आँसू जाए॥</span></p>
<p> </p>
<p>अचल-अटल वो बैठा रहता</p>
<p>गुरु की कहीं नींद टूट न जाए</p>
<p>दर्द को सहता रहूँगा अंत तक, <span>पर ये पाप न सर पर आए॥</span></p>
<p> </p>
<p>जागे गुरु देख विस्मित होते</p>
<p>जंघा से रक्त की धारा अविचल बहते</p>
<p>सहनशीलता ब्राह्मण धर न सकेगा, <span>यूँ बहरूपियाँ मुझे कोई छलना सकेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्षत्रिय की पहचान वेदना</p>
<p>ब्राह्मण वेदना सह न सकेगा</p>
<p>निश्छल कैसे विप्र रहेगा, <span>तू क्रोधाग्नि मेरी आज सहेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>वैश्य होता लाभी लालची</p>
<p>न धन के रहा पाएगा</p>
<p>शूद्र का फ़ितरत सेवभाव है, <span>ज्ञानी न उससे कभी ठगा जायेगा</span>||</p>
<p> </p>
<p>विप्र के भेष में कौन बता तू</p>
<p>नही तो भस्म अभी-आज मिलेगा</p>
<p>थर-थर कांपे इत-उत तांके, <span>निश्चित गुरु से मुझे श्राप मिलेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>सूतपुत्र मैं शुद्र कर्ण हूँ</p>
<p>सोचा आपसे कुछ ज्ञान मिलेगा</p>
<p>शिक्षा के हकदार ब्राह्मण, <span>इसलिए मैंने ये भेष धरा था॥</span></p>
<p> </p>
<p>विद्या संचय था मुख्य लक्ष्य</p>
<p>आपसे बढ़कर गुरु मुझे कौन-कहाँ मिलेगा</p>
<p>करुणा-दया का अभिलाषी हूँ, <span>आप सर्वज्ञ आपको कौन छलेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>आपका अनुचर अंतेवासी</p>
<p>जीवन सार का यहाँ सूत्र मिलेगा</p>
<p>क्या कर सकता मैं समाज की खातिर, <span>जग में क्या मुझे मान मिलेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>शंका-चिंता मुझको प्रभु</p>
<p>शुद्र को कब-कहाँ ज्ञान मिलेगा</p>
<p>भावना-विश्वास न मेरा खोटा, <span>निश्चल-निर्मल मेरा हृदय मिलेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>शूद्र की उन्नति का कैसे मार्ग खुलेगा</p>
<p>उन्हें शिक्षा का क्या-कभी अधिकार मिलेगा</p>
<p>छद्म भेष में मुझे आना पड़ा यहाँ, <span>क्या उनकी भी कभी-कोई सुनेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>कब तक धरेंगे छ्दम भेष को</p>
<p>क्या शूद्र ज्ञान से वंचित सदा रहेगा</p>
<p>जीवन जीने का हक़ है उसको, <span>क्या उसकों कभी ये अधिकार मिलेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>सच है प्रतिभट मैं अर्जुन का</p>
<p>वह श्रेष्ठता मेरी न सह सकेगा</p>
<p>योग्यता होती सर्वोपरि जग में, <span>कब तक योग्य व्यक्ति दबता रहेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>उच्च जाति से है अर्जुन तो क्या</p>
<p>हर जीत पर उसका ही अधिकार रहेगा</p>
<p>प्रतियोगिता के बिना वह सर्वश्रेष्ठ कहलाता, <span>क्या हर योग्य व्यक्ति ये स्वीकार करेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>दास प्रथा क्यूँ शुरू हुई</p>
<p>इससे ऊंचकुल का ही अधिकार बढ़ेगा</p>
<p> एक ही ईश्वर के सारे बंदे, <span>भेदभाव का विष न इससे मिटेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>होती जायेगी ये खाई चौड़ी</p>
<p>सत्ता का नशा शीश चढ़ बोलेगा</p>
<p>हनन करेंगे दूसरे के हक़ का, <span>गुलामी में भला कौन-कैसे जीयेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>धन लोलुपता क्यूँ बढ़ती जाती</p>
<p>बुरा इसका प्रभाव पड़ेगा</p>
<p>जाति-गोत्र का चक्रव्यूह भयंकर, <span>क्या हर कोई इसको भेद पायेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>मदांध अर्जुन को झुका न पाऊँ</p>
<p>संसार मुझको छली कहेगा</p>
<p>भस्म कर दो मुझे आज-अभी आप, <span>नहीं तो जग मेरा क्या-कभी कोई सम्मान करेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>तृष्णा विजय की जीने न देती</p>
<p>अतृप्त वासना भी मैं हर न सकूंगा</p>
<p>हार मित्र की कैसे सहूँ मैं, <span>देख अभय-अजय अर्जुन को रोज़ मरूंगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>प्रतिभट जाना अर्जुन का तब</p>
<p>कणिकाएँ अश्रु की बहने लगी थी</p>
<p>विश्व-विजय का कामी तू कर्ण, <span>कभी न सोचा क्यूँ तू इतना श्रम करेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>अनगिनत शिष्य आए अब तक</p>
<p>तुझ जैसा न कभी-कोई शिष्य मिलेगा</p>
<p>द्रोण-भीष्म को सिखाया मैंने कितना, <span>पर जिज्ञासु न कभी तेरे जैसा मिलेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>पवित्रता से अपनी मुझको जीता</p>
<p>सोचा न तू भी छल करेगा</p>
<p>स्नेह तुमसे मेरा अनोखा, <span>आज श्राप का तू मेरे भागी बनेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्रोध को अपने कहाँ उतारूं</p>
<p>छल का तो तुम्हें फल मिलेगा</p>
<p>भूल जायेगा जो सीखा एक दिन, <span>जीवन-निर्णायक युद्ध को जब तू लड़ेगा॥</span></p>
<p> </p>
<p>निश्चल तेरा हृदय है कर्ण</p>
<p>उद्धारक भी एक समाज बनेगा</p>
<p>कृष्ण के रहते कैसे जीतेगा, <span>मेरा अभिशाप भी तेरा वरदान बनेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>ब्रह्मास्त्र बिना भी तू एक योद्धा</p>
<p>न वीर शस्त्र का गुलाम रहेगा</p>
<p>अनगिनत तूणीर है तेरे तरकश में, <span>तुझसे कोई न रण में जीत सकेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>विजय धनुष मैं अपना देता</p>
<p>जो भी इससे बाण चलेगा</p>
<p>अचूक उसका लक्ष्य होगा, <span>शत्रु न तुझको कभी जीत सकेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>सारी विद्याओं को लेकर मेरी </p>
<p>भरा पात्र बन बढ़ चलेगा </p>
<p>भीष्म-द्रोण रूपी अंकुर था जो, <span>कर्ण रूप में पेड़ बनेगा।।</span></p>
<p> </p>
<p>विश्व विजेता बनेगा एक दिन </p>
<p>जिसे रोकने वाला कोई न होगा </p>
<p>इंद्र को कर्तव्य पाठ पढ़ाएगा, <span>ऐसा वीर एक कर्ण ही होगा।।</span></p>
<p> </p>
<p>गर्भ में छुपा है जिसका रहस्य</p>
<p>जिसमें छल-माया कुचक्र-पाप सब होगा </p>
<p>भूल न पायेगा जग ये सारा, <span>कुछ ऐसा महा विध्वंश यहाँ पे होगा।।</span></p>
<p> </p>
<p>धर्म युद्ध है होने वाला</p>
<p>मौत का जिसमें तांडव होगा</p>
<p>महादेव ने जो लीला रची है, <span>कृष्ण जिसका शुत्रधार बनेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>कौरव-पांडवों का युद्ध नहीं ये</p>
<p>नृशंस भयंकर होगा</p>
<p>प्रलय की जैसी स्थिति होगी, <span>अधर्मियों का इसमें विनाश होगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>तुमुल होगा ऐसा भयंकर</p>
<p>जिसमें हर वीर का परीक्षण होगा</p>
<p>अस्त्र-शस्त्र संग सभी माया-छाया का, <span>अद्भुत जिसमें संगम होगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>जीत भी गया तो तुझे क्या मिलेगा</p>
<p>जब सामने तेरे कृष्ण होगा</p>
<p>धर्म की रक्षा को धरा पर आये, <span>जिनका धर्म स्थापना मकसद होगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>धन्य है कर्ण तेरी भक्ति-शक्ति</p>
<p>धन्य तू मेरा नाम करेगा</p>
<p>अमर कीर्ति फैलेगी तेरी, <span>महावीरों-सा तुझे सम्मान मिलेगा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>चले जाओ अब यहाँ से कर्ण तुम</p>
<p>मन मेरा नहीं बदल जायेगा</p>
<p>गुण-शील तेरे मन में उगते, <span>जा एकांत में छोड़ मुझे अभी चला जा</span>॥</p>
<p> </p>
<p>दुविधा में आज गुरु खड़ा था</p>
<p>क्या खोया कर्ण क्या पायेगा</p>
<p>सर्वश्रेष्ठ योद्धा तू दुनियाँ का, <span>अधर्म की ओर तू खड़ा पायेगा</span>||</p>
<p> </p>
<p>रक्षक बनकर जिसका खड़ा है</p>
<p>बचा न उसको कभी पायेगा</p>
<p>शिव की लीला, <span>कृष्ण की माया</span>, <span>अज की विधि क्या बदल पायेगा</span>||</p>
<p> </p>
<p>धारोदात्त तू कर्म योद्धा</p>
<p>दानवीर भी कहलायेगा</p>
<p>जिस महत्तवकांक्षा में जीता कानीन, <span>हासिल</span> सर्वश्रेष्ठता को क्या कर पायेगा||</p>
<p> </p>
<p>धर्म युद्ध तो होके रहेगा</p>
<p>क्या कभी उसे रोक पायेगा</p>
<p>होनी निश्चित धर्म की विजय है, <span>तुझे इतिहास कभी न भूल पायेगा</span>||</p>
<p></p>
<p>स्व्रचित व मौलिक रचना </p>
<p></p> महावीर कर्ण और दुर्योधनtag:openbooksonline.com,2023-12-29:5170231:Topic:11142682023-12-29T06:25:23.593ZKALPANA BHATT ('रौनक़')http://openbooksonline.com/profile/KALPANABHATT832
<p>सूर्यदेव का अंश कहलाया</p>
<p>माता सती कुमारी</p>
<p>जननी का क्षीर चखा न जिसने, <span>था कवच-कुंडलधारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>अधिरथ-राधा ने था गोद लिया</p>
<p>राधा माँ सुत वासुसेन को देख निहारी</p>
<p>पालना बनी थी आब की धारा, <span>बिछौना बनी पिटारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>निज समाधि में निरत हमेशा</p>
<p>किया स्वयं विकास भी भारी</p>
<p>शोण का था भाई प्यारा, <span>जिसे भ्रातप्रेम से दुनियाँ जानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>गुरु द्रोण से शिक्षा पाता</p>
<p>शिष्य अद्भुत व्यवहारी</p>
<p>ब्रहमसिर…</p>
<p>सूर्यदेव का अंश कहलाया</p>
<p>माता सती कुमारी</p>
<p>जननी का क्षीर चखा न जिसने, <span>था कवच-कुंडलधारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>अधिरथ-राधा ने था गोद लिया</p>
<p>राधा माँ सुत वासुसेन को देख निहारी</p>
<p>पालना बनी थी आब की धारा, <span>बिछौना बनी पिटारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>निज समाधि में निरत हमेशा</p>
<p>किया स्वयं विकास भी भारी</p>
<p>शोण का था भाई प्यारा, <span>जिसे भ्रातप्रेम से दुनियाँ जानी</span>||</p>
<p> </p>
<p>गुरु द्रोण से शिक्षा पाता</p>
<p>शिष्य अद्भुत व्यवहारी</p>
<p>ब्रहमसिर अस्त्र की मंशा रखता, <span>जिसे गुरु ने नहीं स्वीकारी</span>||</p>
<p> </p>
<p>प्रतापी-तपस्वी, <span>ज्ञानी-ध्यानी</span></p>
<p>जिसका पौरुष था अभिमानी</p>
<p>कोलाहल से दूर नगर के, <span>जो सम्यक अभ्यास का था पुजारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>नतमस्तक करता प्रतिबल को</p>
<p>विजय की आदत डाली</p>
<p>प्रचंड धूमकेतु-सा उसको दिखता, <span>बाधा जिसने व्रज में डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>दूर कुंज-कानन में पला-बढ़ा जो</p>
<p>न उस जैसा शक्तिशाली</p>
<p>लक्ष्य साधता दान भी देता, <span>जिसने देने की नियत थी डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण</p>
<p>उस-सा नहीं कोई दानी</p>
<p>अस्त्र-शस्त्र विद्या में जो पारंगत, <span>जिज्ञासु-आकुल थे नर-नारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>सर्वश्रेष्ठ योद्धा पार्थ जग का</p>
<p>बात विष्कंभ मन में डाली</p>
<p>कूद गया वह भरी सभा में, <span>अपनी सिद्ध करने दावेदारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>अवहेलना कर भरे समाज की</p>
<p>देने की धनंजय को चुनौती ठानी</p>
<p>एक सूरमा चुप क्यूँ रहता, <span>जब गुरु द्रोण ने सीमा लांघी॥</span></p>
<p> </p>
<p>अर्जुन को मैं प्रतिद्विंदी मानता</p>
<p>राधेय पहचान हमारी</p>
<p>निर्णय किया क्यूँ बिन परीक्षा के, <span>ये गुरु की बात निराली॥</span></p>
<p> </p>
<p>भावुक-दानी, <span>समरशूर वो</span></p>
<p>शील-पौरुष संग वो साहसी</p>
<p>मनमोहक था उसका सौंदर्य, <span>उच्च जिसकी कदकाठी॥</span></p>
<p> </p>
<p>प्रतिभट अर्जुन का वीर बड़ा था</p>
<p>कोलाहल हुआ भारी</p>
<p>आश्चर्य चकित हो सब देखते, <span>सबकी झकजोर आत्मा डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>केवल राज-बगीचे में नहीं है खिलते</p>
<p>अद्भुत वीर-ब्रह्मचारी</p>
<p>चुन-चुनकर रखती वीर अनोखे, <span>ये प्रकृति सुंदर-प्यारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्तब्ध खड़े सब देखते उसको</p>
<p>आई आफ़त कहाँ से भारी</p>
<p>जाति-गोत्र थे उसकी पूछते, <span>चुनौती अर्जुन ने स्वीकारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>राजवंश उसका कुल पूछते</p>
<p>क्रूर नियति ने दृष्टि डाली</p>
<p>रंगत चहेरे की सबकी उड़ गई, <span>तब भीष्म ने परिस्थिति संभाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>बचपन से जिसे छलती आई</p>
<p>न साथ यहाँ भी छोड़ी</p>
<p>भाग्यहीनता ने फिर वार किया था, <span>न समाज ने आँखें खोली॥</span></p>
<p> </p>
<p>सुन विदर्ण हो गया उसका हृदय</p>
<p>अंतस छलनी कर डाली</p>
<p>गुण-ज्ञान का क्या-कोई मोल न, <span>इससे त्रस्त क्यूँ दुनियाँ सारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्षोभ में भरकर राधेय बोला</p>
<p>वीरों को भुजदंड से दुनियाँ जानी</p>
<p>जाति-गोत्र हो क्यूँ पूछते, <span>होती समाजहित की हानि॥</span></p>
<p> </p>
<p>सामर्थ्य हो तो सामना करो अर्जुन</p>
<p>रण में जाति है क्यूँ लानी</p>
<p>क्षत्रिय होता वही श्रेष्ठ है, <span>जिसने प्रचारणा सभी स्वीकारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>गुरु कृपाचार्य फिर आगे आए</p>
<p>माया क्रोध ने तुम पर डाली</p>
<p>राजपुत्र से राजपुत्र युद्ध हैं करते, <span>क्यूँ न समझ में आएँ तुम्हारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>द्वंद जो चाहते भारत से तो</p>
<p>बताओ सत्ता कहाँ तुम्हारी</p>
<p>किस राजवंश के वारिस तुम, <span>किस सम्राट के उत्तराधिकारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>तेजवान वह देदीप्यवान</p>
<p>उसका जनसभा मुखमंडल तेज निहारी</p>
<p>अजय-निडर वह निर्भक यौद्धा, <span>उसकी कह सूतपुत्र चुनौती टाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>सुयोधन आता शाबाशी देता</p>
<p>निडरता से जिसकी यारी</p>
<p>अधर्म से जिसका नाता, <span>उसने शुद्ध-बुद्धि की बात कर डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>वीरों का न कोई जाति-गोत्र हो</p>
<p>प्रतियोगिता में ऐसी शर्त क्यूँ-कहाँ से आनी</p>
<p>युवराज के हक़ मैं राजा बनाता, <span>सुन जनता को हैरानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>अभिलाषा द्रोण की मरती दिखती</p>
<p>चमत्कृत जिसकी शैली</p>
<p>हरण तेज का कैसे करूंगा, <span>चिंता गुरु द्रोण के मन में डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>युक्ति लगाते, <span>चिंतन करते</span></p>
<p>मन में संशय की नींव थी डाली</p>
<p>एकलव्य नहीं जो दक्षिणा माँग लूँ, <span>कर्ण बड़ा है ज्ञानी-ध्यानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>शिष्य न बनाऊँ तो राह मिले कुछ</p>
<p>हताहत द्रोण बने अहंकारी</p>
<p>सर्वश्रेष्ठ अर्जुन कैसे रहेगा, <span>गुण-विद्या कर्ण में श्रेष्ठता सारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>मुकुट उतारकर रखता सर पर</p>
<p>मंशा कर्ण की मित्रता पानी</p>
<p>होता वीरों का सम्मान हमेशा, <span>बात जहन में सबके लानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>रंक से राजा उसे बनाकर</p>
<p>घनिष्ठ दोस्ती की नींव थी डाली</p>
<p>अपमानित हो रहा एक वीर अनोखा, <span>थी उसकी लाज बचानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>मुझ अभागी पर सुयोधन की</p>
<p>हुई क्यूँ कृपा भारी</p>
<p>इस भरी सभा में क्या-कोई हो भी सकता, <span>ऐसा भी परोपकारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>बैचेन-चकित हो रहा देखता</p>
<p>छटा संशय की मन में डाली</p>
<p>हैरान-परेशान क्यूँ हो बंधु, <span>गले लगा सुयोधन बना हितकारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>क्षुद्रोपहार कुछ ऐसा नहीं है</p>
<p>जो समझो मुझे उपकारी</p>
<p>मित्रता के लिए तुम्हें आमंत्रण देता, <span>मित्रता स्वीकार करो हमारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>बस एक महावीर का प्रशस्तिकरण ये</p>
<p>जिसके तुम अधिकारी</p>
<p>कौन-सा बड़ा मैने त्याग किया है, <span>क्यूँ अंतस अचरज में डाली॥</span></p>
<p> </p>
<p>स्वीकार करों जो मित्र मुझे तुम</p>
<p>दो देह एकल प्राण हमारी</p>
<p>परवाह नहीं मुझे लोग क्या कहेंगे, <span>कर्ण तेरी मित्रता सबसे प्यारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>झर-झर आँसू बहते नयन से</p>
<p>आई उत्थान की मेरे बारी</p>
<p>उऋण कैसे हो पाऊँगा, <span>तुम पर न्यौछावर आज से ज़िन्दगी सारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>उपकृत रहूँगा तेरा हमेशा </p>
<p>दुनियाँ कृतघ्न न अर्कज को जानी</p>
<p>प्राणों से मित्र की रक्षा करूँगा, <span>यही प्रतिज्ञा रही हमारी</span>||</p>
<p> </p>
<p>घेर खड़े सब अंग के वासी</p>
<p>सब बली पूजन के अभिलाषी</p>
<p>चुन पुष्प-कमल सब कुंकुम लाए, <span>स्नान मधु</span>, <span>दूध-नीर से कराते अपनी बारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>हवनकुंड यज्ञ सजने लगे</p>
<p>उमंग-तरंग संग हर्ष-उल्लास भी दिखता भारी</p>
<p>पहचान ही लेते अपना आराध्य, <span>सच इस बात को दुनियाँ मानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>जय महाराज, <span>जय-जय अंगेश</span></p>
<p>विकल जनता पुकार उठी थी सारी</p>
<p>द्वेष-ईर्ष्या मिथ्या-अभिमान कहो पर, <span>जनता हमेशा उज्ज्वल चरित्र की होती पुजारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>जय अंगेश का जयकारा सुनकर</p>
<p>भीम क्रोध में आए भारी</p>
<p>हय-गज की जो दुम पूछते, <span>कैसे राजपाठ के बने अधिकारी॥</span></p>
<p> </p>
<p>सुन विषले भीम के शब्द सब</p>
<p>प्रीत सुयोधन की जागी</p>
<p>उच्च कुल से कुछ नहीं होता, <span>बड़ा वही जो उज्ज्वल चरित्र का होता स्वामी॥</span></p>
<p> </p>
<p>धर्मज्ञ क्यूँ कहलाते हो तुम</p>
<p>बुद्धि जब ईर्ष्या-द्वेष के विष ने मारी</p>
<p>खोटे हैं तुम्हारे कर्मकांड भी, <span>जिसने प्रीत की रीत न जानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>जन्म का तुम्हारे क्या रहस्य</p>
<p>क्यूँ ये बात न अभी तक जानी</p>
<p>अपनी खीज क्यूँ यहाँ निकालते, <span>अप्रकट जन्म की जिसकी कहानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>अवगुण देखते ओरों के क्यूँ</p>
<p>क्यूँ करते अपने गुणों से ही बेईमानी</p>
<p>दूसरों को हमेशा हीन हो कहते, <span>तुम्हारी बुद्धि क्यूँ बौरानी॥</span></p>
<p> </p>
<p>बढ़ती जाती बातें पल-पल</p>
<p>बात मान-मर्यादा की आनी</p>
<p>बीच-बचाव में आए गुरुदेव, <span>चलो अब घोषणा प्रतियोगिता-समाप्ति की बारी आनी॥</span></p>
<p> </p>
<p>शाम भी देखो ढल चुकी है</p>
<p>एक नई सीख नज़र में आनी</p>
<p>घर जाओ आराम करो सब, <span>आज अच्छी नींद सभी को आनी॥</span></p>
<p> </p>
<p>मोद मानते ख़ुशी मनाते</p>
<p>किसी को हार-जीत नहीं थी पानी</p>
<p>कर्ण को गलबाँही दे चले सुयोधन, <span>नई मित्रता की नींव थी जिसने डाली॥</span></p>
<p></p>
<p>स्वरचित व मौलिक रचना </p>
<p>फूल सिंह, दिल्ली </p>