1212-- 1122-- 1212-- 22
अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा
परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा
ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है
उभर के आया है आदम में जानवर कैसा
अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की
हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा
सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल
ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा
वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है
जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब समर कैसा
दिनेश कुमार
मौलिक व अप्रकाशित
दिनेश कुमार
बहुत बहुत शुक्रिया आपका आदरणीय समर साहब। ठीक करता हूं।
देर से रिप्लाई के लिए माफ़ कीजिएगा।
Mar 9, 2024
बृजेश कुमार 'ब्रज'
वाह-वह और वाह भाई दिनेश जी....बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल कही है बधाई....
May 5
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
बहुत खूब, आदरणीय दिनेश कुमार जी. वाह वाह
इस अच्छे प्रयास पर हार्दिक बधाई स्वीकार करें
शुभ-शुभ
11 hours ago