by Aazi Tamaam
Oct 5
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है
ये कैसा मौसम आया है जिसका रंग ज़ुदाई है
घूमते रहते हैं कई साये दिल के अँधेरे कमरे में
काट रही है पल पल मन को ग़म की रात कसाई है
जंगल जंगल घूम रहा हूँ लेकर अपनी बेचैनी
ख़ामोशी में शोर बपा है ये कैसी तन्हाई है
ना जाने क्या सोच रही है मन ही मन बैठी दुल्हन
आँखों में इक हैरानी है चेहरे पे रानाई है
शादी का अवसर लाया है ग़म के साथ ख़ुशी आज़ी
एक तरफ़ है मिलन की बेला दूजी ओर विदाई है
(मौलिक व अप्रकाशित)
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ग़ज़ल ; पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है
by Aazi Tamaam
Oct 5
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
पतझड़ के जैसा आलम है विरह की सी पुरवाई है
ये कैसा मौसम आया है जिसका रंग ज़ुदाई है
घूमते रहते हैं कई साये दिल के अँधेरे कमरे में
काट रही है पल पल मन को ग़म की रात कसाई है
जंगल जंगल घूम रहा हूँ लेकर अपनी बेचैनी
ख़ामोशी में शोर बपा है ये कैसी तन्हाई है
ना जाने क्या सोच रही है मन ही मन बैठी दुल्हन
आँखों में इक हैरानी है चेहरे पे रानाई है
शादी का अवसर लाया है ग़म के साथ ख़ुशी आज़ी
एक तरफ़ है मिलन की बेला दूजी ओर विदाई है
(मौलिक व अप्रकाशित)