दोहा सप्तक. .. . विरह
देख विरहिणी पीर को, बाती हुई उदास ।
गालों पर रुक- रुक बही , पिया मिलन की आस ।।
चैन छीन कर ले गया, परदेसी का प्यार ।
आहट उसकी खो गई, सूना लगता द्वार ।।
जलती बाती से करे, शलभ अनोखा प्यार ।
जल कर उसके प्यार में, तज देता संसार ।।
तिल- तिल तड़पे विरहिणी, कहे न मन की बात ।
आँखों से झर - झर बहें, प्रीति जनित आघात ।।
पिया मिलन में नींद तो, रहे नयन से दूर ।
पिया दूर तो भी नयन , जगने को मजबूर ।।
बड़ा अजब है प्रीति का, इस जग में दस्तूर ।
जिसको चाहो वह यहाँ, अक्सर होता दूर ।।
विरहन को दाहक लगे, शीतल मन्द बयार ।
मुदित नयन मंथन करें, कहाँ गया वह प्यार ।।
सुशील सरना / 27-11-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे रचे हैं। हार्दिक बधाई।
Dec 31, 2024
Sushil Sarna
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन के भावों को मान देने का दिल से आभार आदरणीय जी
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