दोहा सप्तक. . . . विविध
मौन घाट मैं प्रेम का, तू चंचल जल धार ।
कैसे तेरे वेग से, करूँ अमर अभिसार ।।
जब आती हैं आँधियाँ, करती घोर विनाश ।
अपनी दम्भी धूल से, ढक देती आकाश ।।
मैं मेरा की रट यहाँ, गूँज रही हर ओर ।
निगल न ले इंसान को,और -और का शोर ।।
किसको अपना हम कहें, किसको मानें गैर ।
अपनेपन की आड़ में, लोग निकालें बैर ।।
अर्थ बिना संसार में, सब कुछ लगता व्यर्थ ।
आभासी दुश्वारियाँ, केवल हरता अर्थ ।।
कल ही कल की सोच में, क्या पाया नादान ।
न तो संवरा आज ही, न संवरी पहचान ।।
नवयुग की अब क्या कहें, अजब हुआ व्यवहार ।
चौखट पर संस्कार की, दूषित हुए विचार ।।
सुशील सरना / 25-11-24
मौलिक एवं अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई सुशील जी, सादर अभिवादन। सुंदर दोहे रचे हैं। हार्दिक बधाई।
Dec 31, 2024
Sushil Sarna
आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा का दिल से आभारी है सर
Jan 2