ग़ज़ल (जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते)

122 - 122 - 122 - 122 

जो उठते धुएँ को ही पहचान लेते

तो क्यूँ हम सरों पे ये ख़लजान लेते

*

न तिनके जलाते तमाशे की ख़ातिर

न ख़ुद आतिशों के ये बोहरान लेते

*

ये घर टूटकर क्यूँ बिखरते हमारे

जो शोरिश-पसंदों को पहचान लेते

*

फ़ना हो न जाती ये अज़्मत हमारी

जो बाँहों के साँपों को भी जान लेते

*

न होता ये मिसरा यूँ ही ख़ारिज-उल-बह्र

दुरुस्त हम अगर सारे अरकान लेते

*

"अमीर'' ऐसे सर को न धुनते कभी हम

गर आबा-ओ-अज्दाद की मान लेते

" मौलिक व अप्रकाशित"

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  • बृजेश कुमार 'ब्रज'

    आदरणीय अमीरुद्दीन जी तात्कालिक परिस्थितियों को लेकर एक बेहतरीन ग़ज़ल कही है।  उसके लिए बधाई स्वीकारें।कठिन शब्दों के अर्थ भी दे दिया करें तो आसानी होगी सीखने वालों को।

  • अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी

    आदरणीय, बृजेश कुमार 'ब्रज' जी, ग़ज़ल पर आपकी आमद और ज़र्रा नवाज़ी का तह-ए-दिल से शुक्रिया।

    बृजेश भाई... शुरू-शुरू में जब मैं ओबीओ पर नया था, तो/और इस के तीव्र वेग के कारण किनारों तक ही सीमित रहता था, तब शायद आपके या किसी अन्य सदस्य के कहने के कारण मैंने कुछेक ग़ज़लों के मुश्किल शब्दों के अर्थ दिये थे तब मैं न इस सागर की गहराई से परिचित था और न इस की समृद्धि से मगर अब, जब सौभाग्य से मैं इसकी मूल धारा में शामिल हो चुका हूँ तो... 

    कठिन शब्दों के अर्थ देकर आप सभी गुणीजनों के "ज्ञान के अथाह सागर" पर संशय होने अथवा उसे कम आँकने के भाव रखने के आरोप के जोखिम नहीं ले सकता हूँ। रही बात नवागंतुकों की तो आज के युवा साहित्य या काव्य के जिज्ञासु या अभिलाषी इतनी जानकारी तो रखते ही हैं कि इन शब्दों के अर्थ कहाँ खोजने हैं, और खोजने पर भी न मिलें तो यहाँ पूछ सकते हैं... आशा है मेरे आशय को पहुँच गये होंगे। 

  • Ravi Shukla

    आदरणीय अमीरूद्दीन जी उम्दा ग़ज़ल आपने पेश की है शेर दर शेर मुबारक बाद कुबूल करे । हालांकि आस्तीन में जो मजा और मुहावरे की ठसक है वो बाहों में  नहीं लगी मुझे ।  सादर