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मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
मगर सँभल के रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रना है
मैं देखता हूँ तुझे भी वो सब दिखाई दे
मुझे कभी न कोई ऐसा शग्ल करना है
नज़ारा कोई दिखा दे ये शब तो वक्त कटे
इसी के साथ सहर होने तक ठहरना है
न जाने कितने मराहिल हैं ज़ह'न में मेरे
कोई ये काश बता दे कहाँ उतरना है
ये दिल भी देखता है बारहा वही सपने
ज़मीं पे आके बिल-आखिर जिन्हें बिखरना है
उन्हें उजालों से तकलीफ़ होती है ऐ दोस्त
जिन्हें अँधेरों से अपना जहान भरना है
उन्हें चमन से न फूलों से है कोई रग़बत
मगर मुझे यूँ न सहराओं में विचरना है
- मौलिक, अप्रकाशित
बृजेश कुमार 'ब्रज'
आदरणीय भाई शिज्जु 'शकूर' जी इस खूबसूरत ग़ज़ल से रु-ब-रु करवाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।
May 5
Ravi Shukla
आदरणीय शिज्जु भाई ग़ज़ल की उम्दा पेशकश के लिये आपको मुबारक बाद पेश करता हूँ । ग़ज़ल पर आाई टिप्प्णियों से लाभान्वित हो रहा हूँ ।
May 15
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई शिज्जू 'शकूर' जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।
on Tuesday