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ग़ज़ल: मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है

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मुराद ये नहीं हमको किसी से डरना है
मगर सँभल के रह-ए-ज़ीस्त से गुज़रना है

मैं देखता हूँ तुझे भी वो सब दिखाई दे
मुझे कभी न कोई ऐसा शग्ल करना है

नज़ारा कोई दिखा दे ये शब तो वक्त कटे
इसी के साथ सहर होने तक ठहरना है

न जाने कितने मराहिल हैं ज़ह'न में मेरे
कोई ये काश बता दे कहाँ उतरना है

ये दिल भी देखता है बारहा वही सपने
ज़मीं पे आके बिल-आखिर जिन्हें बिखरना है

उन्हें उजालों से तकलीफ़ होती है ऐ दोस्त
जिन्हें अँधेरों से अपना जहान भरना है

उन्हें चमन से न फूलों से है कोई रग़बत
मगर मुझे यूँ न सहराओं में विचरना है

- मौलिक, अप्रकाशित

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  • बृजेश कुमार 'ब्रज'

    आदरणीय भाई शिज्जु 'शकूर' जी इस खूबसूरत ग़ज़ल से रु-ब-रु करवाने के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद।  ​

  • Ravi Shukla

    आदरणीय शिज्जु भाई ग़ज़ल की उम्दा पेशकश के लिये आपको मुबारक बाद  पेश करता हूँ । ग़ज़ल पर आाई टिप्प्णियों से लाभान्वित हो रहा हूँ । 

  • लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    आ. भाई शिज्जू 'शकूर' जी, सादर अभिवादन। खूबसूरत गजल हुई है। हार्दिक बधाई।