ग़ज़ल नूर की - ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा

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ताने बाने में उलझा है जल्दी पगला जाएगा,
मुझ को बुनने वाला बुनकर ख़ुद ही पगला जाएगा.
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इश्क़ के रस्ते पर चलना है तेरी मर्ज़ी; लेकिन सुन
इस रस्ते को श्राप मिला है राही पगला जाएगा.
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उस के हुनर पर किस को शक़ है लेकिन उस की सोचो तो
ज़ख़्म हमारे सीते सीते दर्ज़ी पगला जाएगा.  
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उस को समुन्दर जैसी छोटी मोटी जगहें भाती हैं
इन आँखों में आएगा तो पानी पगला जाएगा.
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जिससे बदला लूँगा उस को इतना याद करूँगा मैं
मेरे नाम की लेते लेते हिचकी पगला जाएगा.
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दूर ही रहना उस पागल से जिस ने ऐसे शे’र कहे,
वरना उस को सुनते सुनते तू भी पगला जाएगा.
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उस बेचारे कूज़ा-गर की सोच के दिल घबराता है
“नूर” सरीखी पाकर अड़ियल मिट्टी पगला जाएगा.
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निलेश नूर 
मौलिक/ अप्रकाशित 

  • अजय गुप्ता 'अजेय

    ऐसे ऐसे शेर नूर ने इस नग़मे में कह डाले

    सच कहता हूँ पढ़ने वाला सच ही पगला जाएगा :))

    बेहद खूबसूरत अशआर। मज़ा या गया। पगला जाएंगें सब। आश्चर्य से, कौतुक से, हैरानी से। क्या क़ाफ़िये लगाए, कैसे पिरोये। वाह, वाह। बहुत खूब नूर भाई।

    //उस के हुनर पर किस को शक़ है लेकिन उस की सोचो तो
    ज़ख़्म हमारे सीते सीते दर्ज़ी पगला जाएगा// इस शेर में अगर ऊला को किसी और प्रकार से कहें तो और बेहतर हो सकता है।

    जैसे: हमले रोज़ नए सहने हैं हमको दुनियादारी के।

    या ऐसा ही कुछ। बाक़ी आप बेहतर समझते है।

    पुनः बहुत बधाई।

  • Nilesh Shevgaonkar

    धन्यवाद आ. अजय जी.
    आपकी दाद से हौसला बढ़ा है. 
     उस के हुनर पर किस को शक़ है लेकिन उस की सोचो तो  
    यह मिसरा ग़ज़ल को भारीपन से बचाने के लिए मज़ाहिया लहजे में कहा गया है.
    सादर 

  • लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

    आ. भाई नीलेश जी, सादर अभिवादन।सुंदर गजल हुई है। हार्दिक बधाई।


  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    आदरणीय नीलेश नूर भाई, आपकी प्रस्तुति का रदीफ निराला है. फिर भी, आपने शेरों को खूब निकाला और सँभाला भी है.

    हार्दिक बधाई. 

    बहरहाल, कुछेक जगह आपके मिसरों की तार्किकता या उनका विन्यास तनिक और समय की मांग करते दीख रहे हैं. 

    जैसे, समुन्दर को लेकर छोटी-मोटी जगह कहना आपकी आँखों की विशालता को स्थापित करता दिखता है. लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह असहज तथ्य ही माना जाएगा. 

    //“नूर” सरीखी पाकर अड़ियल मिट्टी पगला जाएगा//

    मिट्टी के इर्द-गिर्द मिसरे का विन्यास हुआ है, लेकिन भाषाई तौर पर यह तनिक असहज-सा विन्यास है. जबकि आपके लिए विवशता ’मिट्टी’ का मिसरे में उस स्थान पर होना है. इस हिसाब से मिसरे पर कुछ और समय दिया जाना श्रेयस्कर होगा. 

    //उस के हुनर पर किस को शक़ है लेकिन उस की सोचो तो
    ज़ख़्म हमारे सीते सीते दर्ज़ी पगला जाएगा.  //     ......  उला में दो सर्वनामों के सहारे अनावश्यक ही सार्थक संज्ञा का लोप किया गया है. इसे यों देखा जाय - 

    उसके हुनर पर किसको शक है पर दर्जी की सोचो तो 

    जख्म हमारे सीते-सीते वह भी पगला जाएगा...  

    मैंने भाषा-व्याकरण के तौर पर मिसरों को देखा है. आप कुछ और देखें. हमारा आशय दुरुस्त और तार्किक मिसरों का होना है. 

    इस कठिन रदीफ को निभा लेजाना ही बहुत है. तिस पर आपने बहुत ही अच्छे अश’आर निकाले हैं, आदरणीय. दिल से दाद कबूल कीजिए. 

    शुभ-शुभ

     

  • Nilesh Shevgaonkar

    आ. सौरभ सर 
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    ग़ज़ल तक आने और उत्साहवर्धन करने का आभार ..
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    //जैसे, समुन्दर को लेकर छोटी-मोटी जगह कहना आपकी आँखों की विशालता को स्थापित करता दिखता है. लेकिन व्यावहारिक तौर पर यह असहज तथ्य ही माना जाएगा. // 
    व्यावहारिक रूप में तो चाँद तारे तोडना, आसमान झुका देना, ममोले को शाहबाज़ से लड़ा देना भी असहज है लेकिन शाइरी के रूपक शाइर को लम्बी चौड़ी फेंकने की सहूलत देते हैं. थोड़ी मैंने भी फेंक ली😂😂😂  
    //मिट्टी के इर्द-गिर्द मिसरे का विन्यास हुआ है, लेकिन भाषाई तौर पर यह तनिक असहज-सा विन्यास है. जबकि आपके लिए विवशता// 
    सर, पोएटिक लिबर्टी कई लोग गद्य में लिए जा रहे हैं आप मुझे पद्य में भी न लेने देंगे तो सल्फ़ास ही खानी पड़ेगी 🤣🤣🤣
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    ग़ज़ल तक आने और उत्साहवर्धन हेतु आभार 


  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    हा हा हा.. कमाल-कमाल कर जवाब दिये हैं आप, आदरणीय नीलेश भाई. 

    //व्यावहारिक रूप में तो चाँद तारे तोडना, आसमान झुका देना, ममोले को शाहबाज़ से लड़ा देना भी असहज है लेकिन शाइरी के रूपक शाइर को लम्बी चौड़ी फेंकने की सहूलत देते हैं. थोड़ी मैंने भी फेंक ली😂😂😂  //

    मैं आपको बताता हूँ, मेरे इस तरह के कहे का कारण क्या है. आप आदरणीय एहतराम इस्लाम को अवश्य जानते होंगे. वे एक बहुत बड़े स्तर के गजलकार हैं. वे प्रयागराज से ही हैं. हम काठमाण्डू से एक तीन-दिवसीय साहित्यिक कार्यक्रम के बाद लौट रहे थे. तमाम विधाओं पर चर्चा होनी ही थी, हो रही थी. गजल के विधान पर तो खुल कर हम बतिया रहे थे.

    मै एक मिसरे को नियत करने के लिए अपने खयाली घोड़े दौड़ा रहा था. खयाल में किन्हीं नाजुक होठों पर खिले हुए गेंदा-फूल के गमले को नियत कर रहा था. शायद मिसरा बन भी रहा था. एहतराम भाई ने मिसरे को सुनते ही कहा, ’रहम.. रहम.. सौरभ जी, रहम ! उन होठों पर रहम कीजिए, भाई, बहुत नाजुक होठ हैं वे. भारी-से गमलों के पेंदे के नीचे बेचारे पिस जाएँगे..’ 

    फिर तो हम खूब हँसे. 

    फिर मैंने कहा, ’एहतराम भाई, क्या हमें इतनी भी रचनात्मक छूट नहीं है ?’.

    वे बोले, ’शेरों के कथ्य कई बार अतिशयोक्तिपूर्ण होते हैं. लेकिन उन शेरों का वैसा लिहाज हुआ करता है. अव्वल, मिसरे अमूमन न केवल गद्यात्मक होते हैं बल्कि उनके लिए तसव्वुरात भी तार्किक भाव के होते हैं.’ 

    इस बिन्दु पर हमारी और भी बातें हुईं. मैंने अग्रज के उन मशविरों की गाँठ बाँध ली.

    और, हुजूर, उन्हीं में से एक सुझाव मैंने आपके मिसरे के कथ्य पर चेंप दिया.. हा हा हा हा... ..

    आप अब इसे चाहे जैसे लें. नीलेश भाई, हम ओबीओ वाले ऐसे ही तो ’जानकार’ हुए हैं. सीख-सीख कर सिखाना अपना लिहाज है. है न ?. 

    जय हो. 


  • सदस्य कार्यकारिणी

    शिज्जु "शकूर"

    क्या खूब कहा आदरणीय निलेश भाई सादर बधाई,

     

    “जो गुज़रेगा इस रचना से ‘नक्की’ पगला जाएगा

    दिल बोला औरों को छोड़ कि तू भी पगला जाएगा”

     

    आपके और सौरभ सर के बीच की चर्चा, खूब भी रही, विशेष कर आदरणीय एह्तराम सर की टिप्पणी, होंठों वाली, मज़ाक मज़ाक में उन्होंने गूढ़ बात कह दी।