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मुझे दूसरी का पता नहीं
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तुझे है पता तो बता मुझे, मैं ये जान लूँ तो बुरा नहीं
मेरी ज़िन्दगी यही एक है, मुझे दूसरी का पता नहीं
मुझे है यकीं कि वो आयेगा, तो मैं रोशनी में नहाऊंगा
कहो आफताब से जा के ये, कि यक़ीन से मैं हटा नहीं
कहे इंतिकाम उसे मार दे, कहे दिल मेरा उसे प्यार दे
मेरा फ़लसफ़ा है अजीब जो, लगे है भला प भला नहीं
मुझे छोड़ जा मेरे साथ ही न सहारा दे न ही दे दवा
ये मेरे हबीब का दर्द है , मेरी साँस से ये जुदा नहीं
न उमीद रख न उदास हो न दुआयें दे न ही बद दुआ
जो कफ़स को तोड़ के उड़ गया, उसे भूल जा तू बुला नहीं
मैं जिया था खुद से ही बेखबर, कोई चीज थी जो नहीं है अब
मुझे खुद में डूब समझ मिली, रह-ए-जीस्त मुझको पता नहीं
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मौलिक एवं अप्रकाशित
लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'
आ. भाई गिरिराज जी सादर अभिवादन। एक जटिल बह्र में खूबसूरत गजल कही है। हार्दिक बधाई।
Jun 28