दोहा सप्तक. . . नजर

नजरें मंडी हो गईं, नजर हुई  लाचार ।
नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार ।।

 

नजरों से छुपता नहीं,कभी नजर का प्यार ।
उठी नजर इंकार तो, झुकी नजर  इकरार ।।

 

नजरें समझें जो हुए, नजरों से संवाद ।
बिन बोले ही बोलते , नजरों के उन्माद ।।

 

नजरों को झूठी लगे, नजरों की मनुहार ।
कामुकता से है भरा, नजरों का संसार ।

 

नजरें ही करने लगी, नजरों से व्यापार ।
नजर पाश में हो गई, नजर बड़ी लाचार  ।।

 

नजरों में सिमटा रहा, नजरों का  इसरार ।
अन्तस के उन्माद को, नजर करे साकार ।।

 

नजर समर्पण से हुआ, नजरों को अहसास ।
नजर मिटाती दूरियाँ, नजर बढ़ाती प्यास ।।

 

सुशील सरना / 31-8-25

मौलिक एवं अप्रकाशित 

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  • Sushil Sarna

    आदरणीय लक्ष्मण धामी जी सृजन आपकी मनोहारी प्रशंसा से समृद्ध हुआ । हार्दिक आभार आदरणीय 


  • सदस्य कार्यकारिणी

    गिरिराज भंडारी

    आदरणीय सुशील भाई , अच्छे दोहों की रचना की है आपने , हार्दिक बधाई स्वीकार करें 


  • सदस्य टीम प्रबंधन

    Saurabh Pandey

    आदरणीय सुशील सरनाजी, आपके नजर परक दोहे पठनीय हैं. आपने दृष्टि (नजर) को आधार बना कर अच्छे दोहे प्रस्तुत किये हैं. 

    इस प्रयास हेतु हार्दिक बधाई. 
     
    एक बात मैं आपसे अकसर साझा करता रहता हूँ, आज पुनः साझा कर रहा हूँ. आपकी रचनाएँ हो जाने के बाद आपसे उचित समय माँगती हैं. लेकिन आप उन्हें अकसर निराश कर देते हैं.

     

    वस्तुतः रचनाओं का होना और उन्हें प्रस्तुत किया जाना दोनों दो प्रक्रियाएँ हैं.

    १. रचनाओं का होना विचार-कौंध का शाब्दिक होना है.

    २. रचनाओं का प्रस्तुतीकरण निम्नलिखित बिन्दुओं पर निर्भर करता है: 

                क. विधा-विधान के अनुपालन

                ख. विचार-कौंध के शब्दों के लिए व्याकरणसम्मत वाक्य विन्यास, तथा

                ग. विचार-कौंध के भाव को तर्कसम्मत संप्रेषणीयता 

    ऐसे में बिन्दु संख्या २ पर ध्यान देना आवश्यक है. यह रचनाओं के पगाने की प्रक्रिया है. यह एक बार में संभव नहीं होता. कोई रचना शाब्दिक होने के बाद कई-कई स्तरों से गुजरती है. तभी कोई रचना अपने अंदर अपने लिए अर्थबोध के सापेक्ष कई आयामों को साध पाती है. इसीसे रचनाओं में अभिधात्मक स्वरूप के अलावा व्यंजनाओं और लाक्षणाओं का शुमार हो पाता है. जिस कारण कोई रचना पद्यात्मक हो पाती है. यही रचनाओं की क्षमता और सामर्थ्य का द्योतक है. 

    आपके प्रस्तुत दोहों में से कुछ को देखें.  

    नजरें मंडी हो गईं, नजर हुई लाचार।  
    नजरों में ही बिक गया, एक जिस्म सौ बार ।। 

     

    नजरों के मण्डी हो जाने पर नजर के लाचार होने को और बेहतर गठन दिया जा सकता था. नजर हुई लाचार किसी एक की व्यथा का इंगित है. इसे ’नजरों से व्यापार’ कर इसे व्यापक किया जा सकता है. या, ऐसा ही कुछ आप भी सोचें. दूसरा पद इसे सोच से और भी प्रभावी हो जाएगा.  

     

    नजरों से छुपता नहीं,कभी नजर का प्यार ।
    उठी नजर इंकार तो, झुकी नजर  इकरार ।। 

     

    इस दोहे का पहला पद सामान्य है. और दूसरा पद तो बहुत-बहुत ही समान्य है. कई पुराने फिल्मी गीतों का स्मरण हो आता है. ऐसी प्रस्तुतियाँ प्रारम्भिक प्रयासकर्ताओं से अपेक्षित होती है. 

     

    नजरें समझें जो हुए, नजरों से संवाद ।
    बिन बोले ही बोलते , नजरों के उन्माद ।। 

     

    इस दोहे के कथ्य के तार्किक होने से इसका प्रभाव बहुत अधिक है. 

     

    नजरों को झूठी लगे, नजरों की मनुहार ।
    कामुकता से है भरा, नजरों का संसार ।

     

    इस दोहे का कथ्य ही स्पष्ट नहीं हो रहा, आदरणीय. नजरों का संसार ही कामुकता से भरा है, ऐसा कह कर आपने नजरों के सारे व्यवहार ही प्रश्नों के दायरे में ला दिया गया है. यह तो उचित नहीं है, भाई.  

     

    नजरें ही करने लगी, नजरों से व्यापार ।
    नजर पाश में हो गई, नजर बड़ी लाचार  ।।  ..........  जी, बढिया .. ... 

     

    नजरों में सिमटा रहा, नजरों का  इसरार ।
    अन्तस के उन्माद को, नजर करे साकार ।।  ..........  वाह वाह  

     

    नजर समर्पण से हुआ, नजरों को अहसास ।
    नजर मिटाती दूरियाँ, नजर बढ़ाती प्यास ।।

     

    इन दोनों पदों के बीच क्या सम्बन्ध बन रहा है ? विशेषकर फले पद के सापेक्ष दूसरे पद के दोनों चरण क्या स्थापित कर रहे हैं ?

    विश्वास है, आपने मेरे कहे को अन्यथा नहीं लिया होगा. 

    शुभातिशुभ