कुंडलिया. . .
चमकी चाँदी केश में, कहे उम्र का खेल ।
स्याह केश लौटें नहीं, खूब लगाओ तेल ।
खूब लगाओ तेल , वक्त कब लौटे बीता ।
भला उम्र की दौड़ , कौन है आखिर जीता ।
चौंकी बढ़ती उम्र , जरा जो बिजली दमकी ।
व्यग्र करें वो केश , जहाँ पर चाँदी चमकी ।
सुशील सरना / 22-8-25
मौलिक एवं अप्रकाशित
सदस्य टीम प्रबंधन
Saurabh Pandey
आदरणीय सुशील सरनाजी, आपकी कुण्डलिया छंद की विषयवस्तु रोचक ही नहीं, व्यापक भी है. यह आयुबोध अक्सर वार्धक्य की जकड़ में नए-नए आये महानुभावों को सालता है. बढिया प्रयास हुआ है, आदरणीय.
एक बात अवश्य निवेदन करना चाहूँगा. हालाँकि, उमर और उम्र दोनों शब्द अपने-अपने विन्यास में मान्य हैं. लेकिन एक ही रचना में उमर और उम्र का साथ लिया जाना नेष्ट है. दुष्यंत कुमार की आलोचना के क्रम में आपने भी सुना-पढ़ा होगा कि उन्होंने अपनी रचनाओं में सुविधानुसार शहर और शह्र का प्रयोग कर लिया करते थे. यहाँ तो, आदरणीय, एक ही रचना में एक ही शब्द का प्रयोग दो अक्षरियों के साथ हुआ है. जबकि यहाँ के उमर को सहज ही उम्र लिखा जा सकता है. अनावश्यक ही इस शब्द के देसज स्वरूप की आवश्यकता नहीं थी.
बहरहाल, आपकी प्रस्तुति के लिए पुनः बधाइयाँ
Aug 30
Sushil Sarna
आदरणीय सौरभ पाण्डेय जी सादर प्रणाम - सर सृजन के भावों को आत्मीय मान से अलंकृत करने का दिल से आभार आदरणीय । आपके द्वारा इंगित शब्द पुनरावृत्ति से सहमत मैं सहमत हूँ । भविष्य के लिए अवगत हुआ । संशोधित
Aug 30