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ग़ज़ल - ( औपचारिकता न खा जाये सरलता ) गिरिराज भंडारी

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औपचारिकता न खा जाये सरलता

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ये अँधेरा, फैलता  जो  जा रहा है

रोशनी का अर्थ भी समझा रहा है

 

चढ़ चुका है इक शिकारी घोसले तक

क्या परिंदों को समझ कुछ आ रहा है 

 

जो दिया की बोर्ड से आदेश तुमने  

मानिटर से फल तुम्हें मिलता रहा है

 

पूंछ खींची आपने बकरा समझ कर

निकला बन्दर, जो तुम्हें चौंका रहा है

 

औपचारिकता न खा जाये सरलता

आज रिश्ता ज्यों निभाया जा रहा है

 

दोनों पहलू साथ सिक्के के मिले थे    

तुमने जो चाहा वो ऊपर आ रहा है

 

है  वही रस्ता, वही  मंज़र हैं  सारे   

क्या कहानी फिर कोई दुहरा रहा है

 

कोई लौटा ले उसे समझा-बुझा कर 

तर्क से जो सच समझने जा रहा है  

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मौलिक एवं अप्रकाशित