"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114

आदरणीय साथियो,

सादर नमन।
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"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
विषय : अधूरे ख्वाब
अवधि : 29-09-2024 से 30-09-2024 
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अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
2. रचनाकारों से निवेदन है कि अपनी रचना/ टिप्पणियाँ केवल देवनागरी फॉण्ट में टाइप कर, लेफ्ट एलाइन, काले रंग एवं नॉन बोल्ड/नॉन इटेलिक टेक्स्ट में ही पोस्ट करें।
3. टिप्पणियाँ केवल "रनिंग टेक्स्ट" में ही लिखें, 10-15 शब्द की टिप्पणी को 3-4 पंक्तियों में विभक्त न करें। ऐसा करने से आयोजन के पन्नों की संख्या अनावश्यक रूप में बढ़ जाती है तथा "पेज जम्पिंग" की समस्या आ जाती है। 
4. एक-दो शब्द की चलताऊ टिप्पणी देने से गुरेज़ करें। ऐसी हल्की टिप्पणी मंच और रचनाकार का अपमान मानी जाती है।आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है, किन्तु बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पाए इसके प्रति टिप्पणीकारों से सकारात्मकता तथा संवेदनशीलता अपेक्षित है। देखा गया कि कई साथी अपनी रचना पोस्ट करने के बाद गायब हो जाते हैं, या केवल अपनी रचना के आस पास ही मंडराते रहते हैंI कुछेक साथी दूसरों की रचना पर टिप्पणी करना तो दूर वे अपनी रचना पर आई टिप्पणियों तक की पावती देने तक से गुरेज़ करते हैंI ऐसा रवैया कतई ठीक नहींI यह रचनाकार के साथ-साथ टिप्पणीकर्ता का भी अपमान हैI
5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें। 
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मंच संचालक
योगराज प्रभाकर
(प्रधान संपादक)
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    Admin

    स्वागतम

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      Sheikh Shahzad Usmani

      ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) :


      "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है? फटाफट दायें-बायें हाथ मार और छुट्टी ले काम से, मेरी तरह!"
      "सड़कों और पार्क कीउन जगहों पर ध्यान से झाडू लगाती हूॅं बिट्टो, जहॉं तफ़री-मस्ती करने वाले लोग खाने-पीने की चीज़ें फैंक जाते हैं; कभी-कभी तो बिना झूठी या साबुत पैकेट में भी... वो भी कूड़ेदान से बाहर ही!"
      "अच्छा ऐसा क्या-क्या मिल जाता है तुझे, बता तो ज़रा?"
      "काजू-बादाम से लेकर अचार-चटनी तक और रोटी-पराठे से फल-सब्ज़ी तक! कुछ न कुछ, कभी कम कभी ज़्यादा!"
      "तू तो ऐसे मुस्कुरा-मुस्कुरा के बता रही है, जैसे कि तू फ़िर से पेट से है?"
      "हॉं, बिट्टो। तभी तो चिंता है अच्छा खाने-पीने की।"
      "लेकिन यहॉं ज़मीन पर पड़ी चीज़ें नुकसान भी तो कर सकती हैं तुम्हें!"
      "छॉंटा-बीनी आती है मुझे। साफ़-सफ़ाई भी। मुझे ऑंगनबाड़ी वाली दीदी ने सब तरीके समझा दिये। वो कहते हैं न हैल्थ, हाईजीन, सेनीटेसन...सब। क्या कैसे धोना और उबालना है, सब।"
      "तो क्या तू उसे सब कुछ बता देती है, जो कूड़े-कचरे में से उठाती है, ऐं?"
      "सपने बीनती हूॅं, उठाती हूॅं पगली; उसे क्यों बताऊॅंगी, तुझे बताया क्योंकि अच्छी सेहत के सपने तू भी देखती है, बिट्टो!"


      (मौलिक व अप्रकाशित)

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        TEJ VEER SINGH

        काल चक्र - लघुकथा - 

        "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो दिन में तीन चार बार अपनी मनपसंद टॉफ़ी लेने आते थे। अब तो दिखते ही नहीं हैं। टॉफ़ी निकाल दूँ क्या?" 

        "नहीं, अब हम मीठा नहीं खाते जगदीश जी।चिकित्सक मना किया है। 

        जगदीश ने समय के साथ परिवर्तन महसूस किया।बचपन में रमेश बाबू उसे काका कह कर पुकारते थे जबकि उस वक्त जगदीश जी जवान थे। अब वह सत्तर पार कर गये तो वही रमेश बाबू उसे नाम से पुकार रहे हैं।हो सकता है यह बदलाव रमेश बाबू में अब जमींदार घराने के बड़े मालिक बनने के बाद आया हो।

        "जगदीश जी, क्या आप सिगरेट रखते हैं?”

        "हाँ रखता तो हूँ। आजकल तो आधा गाँव सिगरेट पीने लगा है। आप कौनसी पीते हैं?”

         विल्स"

        "विल्स तो नहीं है। मंगवा लूंगा।

        "नहीं हमारा आदमी शहर गया है। ले आयेगा। अभी आपके पास जो भी हो निकाल दीजिये।" 

        जगदीश ने एक डब्बी सिगरेट की निकाल कर दे दी।रमेश बाबू एक सिगरेट मुँह में दबा कर धुआँ उड़ाते अपनी हवेली की ओर चले जा रहे थे।

        समय के साथ रमेश बाबू कितना बदल गये थे।एक समय था जब वे गाँव के सबसे होनहार युवक थे। हर क्षेत्र में आगे रहते थे।खेल कूद से लेकर शिक्षा तक ।

        इतनी सारी खूबियों के मालिक होने के कारण एक सहपाठी महिला रमेश बाबू को दिल दे बैठी।उसका परिवार फौजी पृष्ठ भूमि से था। अतः वह लड़की भी रमेश बाबू को एक आर्मी अफसर के रूप में अपना हमसफर बनाना चाहती थी।

        प्रेमिका के लिये उनकी भी चाहत थी कि आर्मी  अफ़सर बनें।चुने भी जा चुके थे। लेकिन इकलौती संतान होने के कारण पिता ने सेना में नहीं जाने दिया। 

        पिता की तरह रमेश बाबू भी जिद्दी निकले।

        पिता की बात मान ली लेकिन एक शर्त अपनी भी थोप दी। जिंदगी भर अविवाहित रहने की शर्त । 

        बाप बेटे की जिद ने जमींदार परिवार को सदैव के लिये लावारिस कर दिया। 

        मौलिक एवं अप्रकाशित

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