"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123 में आप सभी का हार्दिक स्वागत है।
"ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-123
विषय : जय/पराजय
अवधि : 29-06-2025 से 30-06-2025
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अति आवश्यक सूचना:-
1. सदस्यगण आयोजन अवधि के दौरान अपनी केवल एक लघुकथा पोस्ट कर सकते हैं।
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5. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति तथा गलत थ्रेड में पोस्ट हुई रचना/टिप्पणी को बिना कोई कारण बताये हटाया जा सकता है। यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
6. रचना पोस्ट करते समय कोई भूमिका, अपना नाम, पता, फोन नंबर, दिनांक अथवा किसी भी प्रकार के सिम्बल/स्माइली आदि लिखने/लगाने की आवश्यकता नहीं है।
7. प्रविष्टि के अंत में मंच के नियमानुसार "मौलिक व अप्रकाशित" अवश्य लिखें।
8. आयोजन से दौरान रचना में संशोधन हेतु कोई अनुरोध स्वीकार्य न होगा। रचनाओं का संकलन आने के बाद ही संशोधन हेतु अनुरोध करें।
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रात का समय था। हर रोज़ की तरह प्रतिज्ञा अपने कमरे की एक दीवार के सीमेंट-प्लास्टर के उस उधड़े हिस्से को एक टक देखे जा रही थी, जो उसे झकझोर कर रख देता था। कहने को तो वह एक धब्बा-सा था दीवार पर, लेकिन उसकी आकृति उसे स्त्री के हाइमन अर्थात कौमार्य झिल्ली जैसी लग रही थी, जिस के बारे में उसने किशोर अवस्था से ही पढ़ रखा था, जब उसकी मॉं और दादी उसके महत्व की मान्यता के बारे में बताया करतीं थीं।
प्रतिज्ञा अपने अतीत से वर्तमान तक के जीवन की एक फ़िल्म-सी देख रही थी कभी ऑंखें फाड़ते हुए, तो कभी उस धब्बे को घूरते हुए और फ़िर वह गहरी निद्रा में चली गई। सपने में वह आकृति उसको संबोधित करते हुए बोली, "तुमने अच्छी बेटी और पोती बन कर अपने आप को बंधनों और सीमाओं में रखकर यह सोचा कि तुम्हारा हाइमन सुरक्षित है, तो सब कुछ बढ़िया है, लेकिन अब तुम्हें समझ आ रहा होगा कि जीत तुम्हारे घर की महिलाओं की हुई या तुम्हारी, है न!"
"मैं एक धार्मिक प्रवृत्ति की थी और हूॅं। धर्म की बहुत सी बातें विज्ञान सम्मत हैं, मैं भी ऐसा मानती हूॅं। मैंने बड़ों की बात मानी, माहौल, सहेलियों और दोस्त लड़कों की नहीं। मैं हारी नहीं भड़काऊ माहौल से। चरित्र रक्षा के साथ पढ़-लिखकर कुछ बन कर दिखाया मैंने। भटकी नहीं। जीत मेरी हुई और हमारे बड़ों की दी शिक्षा की। हार तो बाद में हुई!" प्रतिज्ञा सपने में हाइमन को घूरते हुए बोली।
"क्या तुमने अपने शौक और हुनर का त्याग नहीं किया। खेलकूद में निपुण होते हुए भी वंचित रखा ख़ुद को और साइकल चलाने जैसे शौक को भी! मैं न चरित्र की कोई प्रतीक हूॅं, न ही कोई दीवार...तुम्हारी जीत या हार की ज़िम्मेदार भी नहीं। तुम ख़ुद ज़िम्मेदार थीं, हो और रहोगी।" दीवार वाली वह हाइमन आकृति ऊपर-नीचे और दायें-बायें झूलती सी प्रतिज्ञा के सम्मुख प्रखर स्वर में बोलती हुई अचानक चीखी, "तुमने कभी अपने गुप्तांग में मुझे देखा? तुम्हारे बड़ों ने देखा या किसी महिला चिकित्सक को दिखलाया। फ़िर कैसे कह सकती हो अपनी हाइमन के आकार-प्रकार, दशा और दिशा की और जन्मजात उपस्थिति की? भेड़चाल के अलावा तुमने क्या किया? पुरानी मान्यताओं और परम्पराओं को जिताया तुमने या ख़ुद को?"
"नहीं, लेकिन शादी होने पर मेरे पति ने अपना ज्ञान बघारा और अपने तरीक़े से उसका परीक्षण किया!" एक लम्बी सी सॉंस लेकर प्रतिज्ञा ने जब कहा, तो बिस्तर पर वह तक़िये से चिपक कर सिसकने लगी।
"फ़िर कौन जीता? तुम, तुम्हारे संस्कार या तुम्हारा कौमार्य?" हाइमन ने व्यंग्यात्मक लहज़े में पूछा, "अपने पति के कौमार्य की जॉंच-पड़ताल कर सकीं क्या तुम? पता है कुछ भी तुम्हें मेडिकल जॉंचों के बारे में और समाज की इन असंभव-सी जॉंच-पड़तालों के बारे में?"
"पता तो सब है, लेकिन मर्दों की दुनिया में मर्द ही जीतते हैं, पता तो है न तुम्हें!" उसकी निद्रा भंग हो गई और एकदम बिस्तर से उठ कर बैठती हुई वह बुदबुदाते हुए बोली और फ़िर सिसकारी मारते हुए उस दीवार के धब्बे पर नज़रें टिका कर अपने चरित्र पर लगाये गये धब्बे के ताने-बाने में फॅंसी अपनी तलाक़ की तड़प एक बार फ़िर महसूस करने लगी।
कालेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर अनेक खेलकूद प्रतियोगिताओं एवं साहित्यिक प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। संतोष कुमार पढ़ने लिखने में होशियार तो था ही वह खेलकूद में भी भाग लेने में आगे रहता था। तेज साईकिल चलाना उसका शौक था वह उस पर करतब भी करके दिखाता था। उसका शरीर भी लचीला व स्वस्थ था। वह अपने स्वास्थ्य का ध्यान भी रखता था। उसके सभी मित्रों को विश्वास था कि वह साईकिल रेस का तो बेताज बादशाह है। वह साईकिल रेस अवश्य जीतेगा। अतः संतोष ने भी उसमें भाग लेने के लिए अपना नाम लिखा दिया। इस बार साईकिल रेस 200 मीटर की ही थी। संतोष ऐसी रेस पहले भी जीत चुका था। अतः उसे व उसके मित्रों को पूरा विश्वास था कि संतोष ही यह रेस जीतेगा। निश्चित समय पर रेस आरंभ हुई। संतोष ने भी अपनी साईकिल को बड़े जोश से पैडल पर पैर चलाये। थोड़ी ही देर में वह सबसे आगे हो गया। संतोष जोश से साईकिल चलाये जा रहा था। उसका इरादा इस बार सबको बहुत पीछे छोड़ने का था। अतः वह और अधिक तेजी से साईकिल चलाने लगा और वह दूसरों से काफी आगे भी होगया। तभी अचानक संतोष का लगा कि उसका दिल एक आग को गोला बन गया है और उसकी छाती में गर्माहट तेजी से बढ़ रही है। वह घबरा गया। वह मां बाप की अकेली संतान था। उसने सोचा कि अगर वह रेस जीतने के बाद मर गया तो उसके मात पिता का क्या हाल होगा। यह सोच कर उसने साईकिल पर पैडल लगाना बंद कर दिया और अपने जीवन की कुशलता की बात सोचने लगा। लक्ष्य मात्र 25 मीटर ही दूर था और संतोष आराम से प्रतियोगिता जीत सकता था किंतु उसने मन में धार लिया कि एक पैडल भी उसकी मौत बन सकता है। अतः वह हैंडिल पकड़े साईकिल पर बैठा रहा। साईकिल स्वतः चल रही थी। धीरे धीरे उसके पीछे चल रहे दूसरे प्रतियोगी उसके आगे निकल गये पर संतोष ने ध्यान नही दिया। उसके साथी भी चिल्ला कर उसे आगे बढ़ने को कहते रहे किंतु उसने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसकी आंखों के आगे केवल अपने मात पिता की तस्वीर थी। रेस पूरी हुई। पहले नबंर पर आने वाला पैडल लगाना बंद करने के कारण पांचवे स्थान पर आया। वह हार गया था। वह साईकिल छोड़ एक कुर्सी पर बैठा और उसकी हालत देख एक मित्र उसके लिए पानी लाया। उसे पिलाया और संतोष के कहने पर उसे घर पंहुचाया। उसकी हालत देख मां बाप भी घबराये। कुछ देर बाद संतोष की हालत ठीक हुई तो पिता ने पूछा क्या हुआ बेटा? संतोष ने कहा ‘‘पापा आज मैं साईकिल प्रतियोगिता तो हार गया पर जीवन जीनें की जंग जीत आया हूँ। इसका मुझे गर्व है।
"बिना हाथ पाँव धोये अन्दर मत आना। पानी साबुन सब रखा है बाहर और फिर नहा लेना"
" हाँ हाँ धो रही हूँ, चीखो मत आप! सारे प्रिकाॅशन पता हैं हमें मम्मा! आप भी ना...बच्चा समझती हैं अभी भी। नौकरी करती हूँ"
"कितने समझदार हो तुम आज के बच्चे, सब पता है! बाहर की गन्दगी, बाहर का खाना, इन सब से ही तो नई नई बीमारियाँ बढ़ रही हैं"
"अब फिर वो ही टेप मत बजा देना मम्मा कि पहले के लोग क्यों कम बीमार पड़ते थे और आज क्या क्या गड़बड़ है.. ब्ला..ब्ला..ब्ला"
" अरे बिटिया को छोड़ो, वहाँ देखो मेरी अम्मा की तस्वीर को।कैसी विजयी मुस्कान दिख रही है उनके चेहरे पर कि चलो बहू को मेरी बातें अब जाकर तो सही लगीं" माँ बेटी को बीच में टोकते हुए गुप्ताजी बोले।
"तुम्हारी माँ खुश नहीं चिढ़ी हुई दिख रही है। तस्वीर की माला सूख गई है ना। लाँकडाउन में रोज़ ताजी माला कहाँ से लाऊँ!" बेटी को छोड़कर अब पत्नि पति की तरफ मुड़ गई।
" अरे नहीं! बहुत खुश है मेरी माँ आज" गुप्ता जी को अब मजा आ रहा था।
" कहना क्या चाह रहे हो?"
" ये ही कि पहले जब अम्मा तुमसे कहती थी कि काम से आकर बिना नहाये रसोई में मत जाओ, घर से खाना ले जाओ स्कूल कैंटीन में मत खाओ, तो तुम कितना चिढ़ती थीं। इसी तुनक में अलग हो गई थीं और आज इस महामारी ने तुम्हें सिखा ही दिया कि माँ....."
" हाँ ..हाँ सही थीं तुम्हारी माँ! बस! कितना थक जाती थी मैं तब। स्कूल में बच्चों के साथ सर खपाओ। घर आकर तुम्हारी माँ की हिदायतें सुनों, ये सफाई वो सफाई, और...और..."
" श्श्श...धीरे बोलो, बिटिया सुन लेगी।" गुप्ता जी फुसफुसा कर बोले और फिर जोर से हँस पड़े।
Sheikh Shahzad Usmani
Jun 30
Dayaram Methani
जय/पराजय
कालेज के वार्षिकोत्सव के अवसर पर अनेक खेलकूद प्रतियोगिताओं एवं साहित्यिक प्रतियोगिताओं का आयोजन किया गया था। संतोष कुमार पढ़ने लिखने में होशियार तो था ही वह खेलकूद में भी भाग लेने में आगे रहता था। तेज साईकिल चलाना उसका शौक था वह उस पर करतब भी करके दिखाता था। उसका शरीर भी लचीला व स्वस्थ था। वह अपने स्वास्थ्य का ध्यान भी रखता था। उसके सभी मित्रों को विश्वास था कि वह साईकिल रेस का तो बेताज बादशाह है। वह साईकिल रेस अवश्य जीतेगा। अतः संतोष ने भी उसमें भाग लेने के लिए अपना नाम लिखा दिया। इस बार साईकिल रेस 200 मीटर की ही थी। संतोष ऐसी रेस पहले भी जीत चुका था। अतः उसे व उसके मित्रों को पूरा विश्वास था कि संतोष ही यह रेस जीतेगा।
निश्चित समय पर रेस आरंभ हुई। संतोष ने भी अपनी साईकिल को बड़े जोश से पैडल पर पैर चलाये। थोड़ी ही देर में वह सबसे आगे हो गया। संतोष जोश से साईकिल चलाये जा रहा था। उसका इरादा इस बार सबको बहुत पीछे छोड़ने का था। अतः वह और अधिक तेजी से साईकिल चलाने लगा और वह दूसरों से काफी आगे भी होगया। तभी अचानक संतोष का लगा कि उसका दिल एक आग को गोला बन गया है और उसकी छाती में गर्माहट तेजी से बढ़ रही है। वह घबरा गया। वह मां बाप की अकेली संतान था। उसने सोचा कि अगर वह रेस जीतने के बाद मर गया तो उसके मात पिता का क्या हाल होगा। यह सोच कर उसने साईकिल पर पैडल लगाना बंद कर दिया और अपने जीवन की कुशलता की बात सोचने लगा। लक्ष्य मात्र 25 मीटर ही दूर था और संतोष आराम से प्रतियोगिता जीत सकता था किंतु उसने मन में धार लिया कि एक पैडल भी उसकी मौत बन सकता है। अतः वह हैंडिल पकड़े साईकिल पर बैठा रहा। साईकिल स्वतः चल रही थी। धीरे धीरे उसके पीछे चल रहे दूसरे प्रतियोगी उसके आगे निकल गये पर संतोष ने ध्यान नही दिया। उसके साथी भी चिल्ला कर उसे आगे बढ़ने को कहते रहे किंतु उसने किसी बात पर ध्यान नहीं दिया। उसकी आंखों के आगे केवल अपने मात पिता की तस्वीर थी।
रेस पूरी हुई। पहले नबंर पर आने वाला पैडल लगाना बंद करने के कारण पांचवे स्थान पर आया। वह हार गया था। वह साईकिल छोड़ एक कुर्सी पर बैठा और उसकी हालत देख एक मित्र उसके लिए पानी लाया। उसे पिलाया और संतोष के कहने पर उसे घर पंहुचाया। उसकी हालत देख मां बाप भी घबराये। कुछ देर बाद संतोष की हालत ठीक हुई तो पिता ने पूछा क्या हुआ बेटा? संतोष ने कहा ‘‘पापा आज मैं साईकिल प्रतियोगिता तो हार गया पर जीवन जीनें की जंग जीत आया हूँ। इसका मुझे गर्व है।
- दयाराम मेठानी
Jun 30
pratibha pande
समय
Jun 30