पुस्तक समीक्षा

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पुस्तक समीक्षा : ‘कहे जैन कविराय’ (कुण्डलिया संग्रह)


रचनाकार : अशोक कुमार जैन
प्रकाशक : अमोघ प्रकाशन, गुरुग्राम-122001(हरियाणा)
मूल्य : रूपये १००/- मात्र.

               ‘कहे जैन कविराय’ कुण्डलिया संग्रह के कुण्डलीकार अशोक कुमार जैन, परिचय बताता है कि आपका मूल लेखन गद्य ही रहा है। क्योंकि पूर्व में आपका बाल उपन्यास, उपन्यास, जीवन प्रसंग और लघुकथाओं का संग्रह प्रकाशित हुआ है. किन्तु ऐसा नहीं है कि पद्य लेखन में इनका यह प्रथम प्रयास हो. इनकी बाल कविताएँ और मुक्तक की पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकीं हैं। यह बात अवश्य चकित करती है कि कुण्डलिया संग्रह के पूर्व कोई दोहा संग्रह आपका नहीं आया। कारण यह है कि कुण्डलिया एक मिश्रित छंद है जिसकी प्रथम दो पंक्तियाँ एक दोहा होता है और उसी दोहे के अंतिम चरण से प्रारम्भ कर रोला छंद रचा जाता है। छंद की इस विशेषता के अतिरिक्त एक और विशेषता है कि छंद का प्रथम शब्द, उसके अंश या शब्द समूह को छंद के अंत में रखा जाता है। एक तरह से कहा जाये तो ऐसा प्रतीत होता है कोई कुण्डली मारकर बैठा सर्प अपनी दुम को निहार रहा हो।

              कविवर अशोक कुमार जैन जो अपने जीवन के 68 वसंत पार कर चुके हैं। उनका यह कुण्डलिया संग्रह जीवन के अनुभवों का दस्तावेज़ है कहना गलत नहीं होगा। क्यों? यह आप उनके कुछ छंद पढ़कर आसानी से समझ सकते हैं-

घर में तुलसी रोपिये, तुलसी है वरदान।
वायु को पोषित करे, तुलसी गुण की खान।।
तुलसी गुण की खान, ये पर्यावरण सुधारे।
आक्सीजन दे प्राण, बचाती सदा हमारे।
कहे जैन कविराय, न पनपे रोग उदर में।
फल फूलों के संग,उगाओ तुलसी घर में।।

नफ़रत उससे कीजिये, जो इस काबिल होय।
वरना धागा प्रेम का, सबसे रखो पिरोय।।
सबसे रखो पिरोय, दुष्ट इक दिन सुधरेंगे।
जीवन होगा सौम्य, और रिश्ते निखरेंगे।
कहे जैन कविराय, कीजिए सदा मुहब्बत।
तोहफों की मुस्कान, बाँटकर त्यागो नफ़रत।।

                   सहृदय व्यक्ति होने के साथ-साथ कवि एक साहित्यिक पत्रिका का श्रेष्ठ सम्पादक भी है इसकारण सामाजिक समस्याओं से उसका जुड़ाव होना स्वाभाविक ही है। यही कारण है कि कोरोना काल में श्रमिकों के पलायन के हृदय-विदारक दृश्य देखकर वे लिखते हैं-

भूखे नर-नारी चले, अपने-अपने गाँव।
तपती जलती सड़क पर, झुलसे नंगे पाँव।।
झुलसे नंगे पाँव, ढूँढ़ते ठौर-ठिकाना।
जहाँ बालकों हेतु, मिले मुट्ठी भर खाना।
कहे जैन कविराय, अधर हैं जलते सूखे।
रोज़गार की मार, झेलकर निकले भूखे।।

                   कवि को जहाँ समाज की अच्छाईयाँ और बुराईयों को देख रहा है वहीँ उसकी दृष्टि अपनी दिन-दिन बढ़ते वय पर भी है और उस दृष्टि में पूरी सकारात्मकता भी है-

टूटे मनकों की तरह, बिखरी जीवन माल।
अंग शिथिल सब हो रहे, अब जीवन जंजाल।।
अब जीवन जंजाल, रोग से बचना होगा।
नित्य योग और उचित भोग से साधना होगा।
कहे जैन कविराय, भले अपने सब छूटे।
आत्मशक्ति से संचित कर, ये मनके टूटे ।।

                 ‘कहे जैन कविराय’ इस पुस्तक में 112 कुण्डलिया छंदों के अतिरिक्त कवि के द्वारा रचित लगभग 20 ग़ज़लें भी इस पुस्तक के द्वितीय भाग में संग्रहित की गईं हैं। कुछ अशआर देखें –

महकते फूल हैं खुमारी है
ये नशा आज हम पे भारी है
*
मोती यूँ न हाथ लगे हैं
सागर खूब खंगाले होंगे
*
फूलों को तजकर खारों को
पाले ऐसी क्यारी देखी

                   ऐसे हरफनमौला व्यक्ति छन्दकार, लघुकथाकार, उपन्यासकार और शायर अशोक कुमार जैन का साहित्य क्षेत्र में क्या अवदान रहा होगा सहज ही समझ में आता है। उनके रचे छंदों में कुछ शिल्पगत त्रुटियाँ रहीं हैं, किन्तु उनके भावों के आवरण ने उन सब को ढँक दिया है। मैं उनके विविध रंगी साहित्य लेखन के लिए उन्हें बधाई देता हूँ। उनका यह कुण्डलिया संग्रह जहाँ तक पाठकों के हाथों में पहुँचे वहाँ तक ऊर्जा का संचार करे यही मेरी शुभकामनाएँ हैं.

समीक्षक
अशोक रक्ताले ‘फणीन्द्र’
40/54, राजस्व कॉलोनी, फ्रीगंज,
उज्जैन -456 010 (म.प्र.)
मो- 9827256343