चित्र से काव्य तक

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'ओबीओ चित्र से काव्य तक' छंदोत्सव अंक 157

आदरणीय काव्य-रसिको !

सादर अभिवादन !!

  

’चित्र से काव्य तक छन्दोत्सव का यह एक सौ संतावनवा आयोजन है.   

 

इस बार के आयोजन के लिए सहभागियों के अनुरोध पर अभी तक आम हो चले चलन से इतर रचना-कर्म हेतु एक विशेष छंद साझा किया जा रहा है। 

इस बार छंद है -  दोहा छंद

आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ - 

20 जुलाई’ 24 दिन शनिवार से

21 जुलाई’ 24 दिन रविवार तक

केवल मौलिक एवं अप्रकाशित रचनाएँ ही स्वीकार की जाएँगीं.  

दोहा छंद के मूलभूत नियमों के लिए यहाँ क्लिक करें

जैसा कि विदित है, कई-एक छंद के विधानों की मूलभूत जानकारियाँ इसी पटल के  भारतीय छन्द विधान समूह में मिल सकती हैं.

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आयोजन सम्बन्धी नोट 

फिलहाल Reply Box बंद रहेगा जो आयोजन हेतु निर्धारित तिथियाँ -

20 जुलाई’ 24 दिन शनिवार से  21 जुलाई’ 24 दिन रविवार तक रचनाएँ तथा टिप्पणियाँ प्रस्तुत की जा सकती हैं। 

अति आवश्यक सूचना :

  1. रचना केवल स्वयं के प्रोफाइल से ही पोस्ट करें, अन्य सदस्य की रचना किसी और सदस्य द्वारा पोस्ट नहीं की जाएगी.
  2. नियमों के विरुद्ध, विषय से भटकी हुई तथा अस्तरीय प्रस्तुति को बिना कोई कारण बताये तथा बिना कोई पूर्व सूचना दिए हटाया जा सकता है. यह अधिकार प्रबंधन-समिति के सदस्यों के पास सुरक्षित रहेगा, जिस पर कोई बहस नहीं की जाएगी.
  3. सदस्यगण संशोधन हेतु अनुरोध  करें.
  4. अपने पोस्ट या अपनी टिप्पणी को सदस्य स्वयं ही किसी हालत में डिलिट न करें. 
  5. आयोजनों के वातावरण को टिप्पणियों के माध्यम से समरस बनाये रखना उचित है. लेकिन बातचीत में असंयमित तथ्य न आ पायें इसके प्रति संवेदनशीलता आपेक्षित है.
  6. इस तथ्य पर ध्यान रहे कि स्माइली आदि का असंयमित अथवा अव्यावहारिक प्रयोग तथा बिना अर्थ के पोस्ट आयोजन के स्तर को हल्का करते हैं.
  7. रचनाओं पर टिप्पणियाँ यथासंभव देवनागरी फाण्ट में ही करें. 
  8. अनावश्यक रूप से रोमन फाण्ट का उपयोग  करें. रोमन फ़ॉण्ट में टिप्पणियाँ करना एक ऐसा रास्ता है जो अन्य कोई उपाय न रहने पर ही अपनाया जाय.
  9. रचनाओं को लेफ़्ट अलाइंड रखते हुए नॉन-बोल्ड टेक्स्ट में ही पोस्ट करें. अन्यथा आगे संकलन के क्रम में संग्रहकर्ता को बहुत ही दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.

छंदोत्सव के सम्बन्ध मे किसी तरह की जानकारी हेतु नीचे दिये लिंक पर पूछताछ की जा सकती है ...


"ओबीओ चित्र से काव्य तक छंदोत्सव" के सम्बन्ध मे पूछताछ

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मंच संचालक
सौरभ पाण्डेय
(सदस्य प्रबंधन समूह)
ओपन बुक्स ऑनलाइन डॉट कॉम  

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    Ashok Kumar Raktale

    दोहे

    *

    नेता करतब देखकर, हतप्रभ सारा गाँव।

    नाक रगड़ छूते जहाँ, वह निर्धन के पाँव।।

    *

    नेता   होते    ऊँट-से, तभी  दिखाते  लाड़।

    जब चुनाव का सामने, दिखता उन्हें पहाड़।।

    *

    पैरों पर रख शीश को, दे बूढों को मान।

    राह  चुनावी  कर रहे, नेताजी  आसान।।

    *

    चाटुकार सब  भक्त बन, खो बैठे हैं लाज।

    नेता सम्मुख नत रहें, जरा न  आते  बाज।।

    *

    नेता का सच जानकर, दाँत निपोरें लोग।

    जब चुनावी दौर में, हों   दुर्लभ   संजोग।।

    *

    मिट्टी वाले घर सभी, जान गये यह बात।

    चरण  वन्दना  से नहीं, बदलेंगे  हालात।।

    *

    वादों  के  पर्चे  नहीं, करते  आज हिसाब।

    नेता के हर काम की, रखते लोग किताब।।

    #

    मौलिक/अप्रकाशित.

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    pratibha pande

    दोहा गीत

    _______

     समय बड़ा बलवान है

    इसके अद्भुत रंग।
    खींच धरा पर ला दिये,इसने कई दबंग।।
    __
    सच्चाई करती बयाँ
    रोचक है तस्वीर। 
    जनता का दिल जीतने
    नेता हुए अधीर।।
    नेता जी खुद से कहें
    धर ले सज्जन रूप।
    सह ले थोड़ी रात भी
    पाने सत्ता धूप।।
    चढ़कर जो उतरे नहीं,सत्ता ऐसी भंग।।
    ___
    कल तक थे ये लापता
    आज खड़े हैं द्वार।
     झोले में इनके भरे 
    वादों के उपहार।।
    लोकतंत्र के खेल में
    मतदाता भगवान।
    पैर पकड़ कर कह रहे
    चाचा रखना ध्यान।। 
    चाचा भी हैं जानते, इनके सारे  ढंग।। 
    _____
    मौलिक व अप्रकाशित 
    10
  • up

    सदस्य कार्यकारिणी

    मिथिलेश वामनकर

    जाने कैसे पड़ गए, आज हमारे गाँव।

    वैसे तो आते नहीं, नेताजी के पाँव।

    नेताजी के पाँव जो, आ पहुंचे हैं ग्राम।

    समझो भाई आ गया, निर्वाचन संग्राम।

    निर्वाचन संग्राम में, मांगेंगे अब वोट।

    मिलना अब तो तय रहा, कम्बल दारू नोट।

    कम्बल दारू नोट से, सबको रहे ख़रीद।

    अब जनता के मान लो, होंगे स्वप्न शहीद।

    होंगे स्वप्न शहीद जब, सो जायेंगे लोग।

    सत्ता तब करने लगे, जनता का उपयोग।

    जनता के उपयोग से, धर्म जाति का खेल।

    फिर विकास की नाक पर, कसते धूर्त नकेल।

    कसते धूर्त नकेल जब, सोती रहे अवाम।

    ऐसी जनता कर्म से, ख़ुद ही बने ग़ुलाम।

    खुद ही बने गुलाम तो, फिर कैसा प्रतिकार।

    मान रहे हैं लोग सब, पीड़ा को उपहार।

    पीड़ा को उपहार में, लेकर सब हैं मस्त।

    उनका सूरज इस तरह, हो जाता है अस्त।

    हो जाता है अस्त जब, सूरज, ढलती शाम।

    लोग करें सब शाम को, बस ठेके के नाम।

    बस ठेके के नाम पर, बिक जाते मरदूद।

    खो देते हैं यूं सभी, अपना सकल वजूद।

    अपना सकल वजूद जब, हो धूर्तों के नाम।

    यारों फिर करता रहे, कोई किसे प्रणाम।


    (मौलिक व अप्रकाशित)

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