आध्यात्मिक चिंतन

इस समूह मे सदस्य गण आध्यात्मिक विषयों पर चिंतन एवं स्वस्थ चर्चायें कर सकतें हैं ।

वर्तमान हिन्दू समाज में जातिगत विभीषिका को किस तरह समाप्त किया जासकता है?

  • वर्तमान हिन्दू समाज में जातिगत विभीषिका को किस तरह समाप्त किया जासकता है? 
  • क्या इस जातिगत भेद-भाव का धार्मिक आधार मनगढ़ंत है?
  • क्या वर्तमान में हमें इस शृंखला से बाहर नहीं निकाल आना चाहिए?
  • हर समस्या का निदान समस्या में ही निहित होता है, उसके बाहर नहीं।

ये कुछ प्रश्न मुझे बचपन से ही परेशान करते रहे। अन्य मायावी षट-कर्मों में लिप्त रहते हुए भी मैं इन पर मनन करता रहा इन्हें ही मैं आप लोगों के मध्य ले कर आया हूँ।

हिन्दू समाज में जातीय समस्या को समाप्त करने पर लिखा और कहा तो बहुत गया किन्तु उसको धरातल पर उतारने के मात्र कुछ ही प्रयास देखने को मिले हैं। कुछ दिनों पूर्व राजस्थान में एक दलित अधिकारी ने राज्य सचिव नहीं बनाए जाने पर धर्मांतरण कर लिया। रोहित की आत्महत्या के मुद्दे की गूंज हैदराबाद से होते हुए दिल्ली तक आ पहुंची है, किन्तु क्या यह सब यहीं थम जाएगा? डॉ. भीम राव अंबेडकर के जाति उन्मूलन प्रयासों का परिणाम,क्या बौद्ध धर्मांतरण ही तय था? वर्तमान में ‘दलित आंदोलन’ क्या खेल ही बना रहेगा। क्या दलित, दलित ही बने रहना चाहता है?

जातीय समस्या पर उबाऊ, जटिल और पांडित्य प्रदर्शन करती हुई अनेक पुस्तकें उपलब्ध हैं। किन्तु कोई पुस्तक इस समस्या के निदान तक नहीं पहुँच पाई। इन पुस्तकों की शुरुआत तो आदर्शमय होती है किन्तु निदान की पायदान से पहले ही ये दम तोड़ देती हैं। सच कहूँ तो हिन्दू धर्म में जाति व्यवस्था को अपनाते हुए भी उस से तथाकथित शूद्र वर्ण के उन्मूलन पर व्यावहारिक रास्ता दिखलानेवाली शायद ही कोई पुस्तक प्रकाशित हुई हो।  

देखा जाए तो हिन्दू समाज से जातीय दुराग्रह को समाप्त करने का गंभीर प्रयास धर्म के मठाधीशों द्वारा नहीं किया गया। कौन मूर्ख है जो जान बूझ कर अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा? यदि धर्म में सम-भाव ले आए तो विभिन्न मत-मतांतरों के नाम की आपकी दुकान कैसे चलेगी? लेखक ने एक स्थान पर लिखा भी है ‘हमें सजग रहना होगा उन शक्तियों से जो एक चिर-परिचित शैली में धार्मिक परिसर में अपनी महंतशाही जमा कर बैठी हुई हैं। जैसे-जैसे नए विचार का आलोक फैलेगा वैसे-वैसे आडंबर का प्रवचन कर रहे डेरे, समागम, संस्थाएं और ढेरों-ढेर मत-मतांतर अपनी संगठन शक्ति क्षीण होता हुआ पाएंगे।

सादर,

सुधेन्दु ओझा

  • up

    Dr T R Sukul

    आदरणीय !
    जातियां समय समय पर लोगों में हुए स्वार्थमय संघर्ष का परिणाम हैं। शास्त्र सम्मत तो केवल वर्ण ही हैं जो केवल गुणों और कर्मों के अनुसार ही विभाजित किये गए हैं जन्म से नहीं। इसका अर्थ यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने गुणों और कर्मों को परिमार्जित कर तदनुसार वर्ण प्राप्त कर सकता है।

    आपने यह सही कहा है कि आज ये जातीय भेद भाव स्वार्थी राजनैतिकों के लिए चुनाव जीतने के लिए अचूक अस्त्र और शस्त्र की तरह प्रयुक्त होते हैं।

    मेरे विचार से इसके पीछे पूंजीवादियों का ही चिंतन है जो इस भेद को पाले रहना चाहते हैं जबकि चर्चाएं इस प्रकार की करते हैं जिससे लगता है कि ये इसे दूर करने के लिए कटिबद्ध हैं। जब लोग पहाड़ों पर रहते थे तो उस पहाड़ के सभी लोग आपस में अपने को एक ही परिवार का सदस्य मानते थे और सबसे शक्तिशाली को अपना लीडर। कालांतर में जब विवाह की प्रथा प्रारम्भ हुई तो यह नियम बनाया गया कि एक ही गोत्र में विवाह नहीं किया जा सकेगा। संस्कृत में गोत्र को पहाड़ कहते हैं। पहाड़ों से जब मैदानो में निवास करने लगे तब यह परिवर्तित होकर एक ही गाँव के युवक युवतियों का परस्पर विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाया गया। अब जब कि गांव, शहर ,महांनगर की दूरियां समाप्त हो रहीं हैं और ग्लोबल समाज की रचना हो रही है तो क्या यह उचित नहीं होगा कि अब हमें अपनी ही जाति में विवाह करने पर प्रतिबन्ध लगाकर अंतर्जातीय विवाह करने की प्रथा को प्रोत्साहित करें ?
    यही एक उपाय है जिससे जातिभेद समाप्त किया जा सकता है , परन्तु इसके ध्वज वाहकों के लिए स्वयं उदहारण बनकर नयी सामाजिक क्रान्ति का सूत्रपात करना होगा, तभी हम ऋषियों के इस कथन का अनुभव कर पाएंगे कि "परमपुरुष हमारे पिता और परमा प्रकृति हमारी माता है तथा यह त्रिभुवन हमारा घर।"

    1
    • up

      Kalipad Prasad Mandal

      जातिप्रथा

      जाति प्रथा, कुरीतियाँ कैसे समाप्त हो सकती है? जब तक इन्सान स्वार्थी बने रहेंगे तबतक न कुरीतियाँ ,न जातिप्रथा, न तथाकथित धर्माचायों के कुचक्र का अंत होगा | स्वार्थ के कारण मनुष्य के व्यवहार में विरोधाभास उत्पन्न हो गया है, जिसे प्रचलित भाषा में (दोहरी नीति ) दोगलापन कहते है | हम अपनी लड़की की शादी के समय बड़े आदर्शवादी बन जाते हैं और  कहते हैं कि हम दहेज़ में विश्वास नहीं करते , दहेज़ लेना और देना दोनों कानूनन जुर्म है, इसीलिए न हम दहेज़ देंगे न लेंगे | परन्तु लड़के की शादी के समय हमारा मुहँ सिल जाता है | हम कुछ नहीं कहते परन्तु लड़की की तरफ से जितना आता है ,बिना प्रतिवाद किये हम रख लेते हैं|उस समय हमारी आदर्शवाद घास चरने जाती है | हम खुलकर नहीं कहते की हमें कोई चीज नहीं चाहिए, आप सब अपने पास रख लीजिये |

          आपने सही कहा, समस्या के ऊपर बहुत सारी किताबे मिल जाएँगी पर समाधान किसी में भी नहीं | शास्त्रों, पुरानों में भी बड़ी बड़ी आदर्श की बातें कही गयी है, जैसे “ उदार चरितानाम तू वसुधैव कुटुम्बम” या फिर “सर्वे अपि सुखिनो सन्तु  ....” इत्यादि| परन्तु यह कौन सी उदारता है की मन्दिर में कुछ लोगो को जाने दिया जाता है और कुछ लोगो को नहीं ? उदारता की बात करने वाले के दिल में कुछ और स्वार्थ प्रेरित संकुचित भावना रहती है | वक्तव्य और व्यवहार में अंतर लगता है | जब तक वक्तव्य और व्यवहार में सामंजस्य नहीं होगा, जातिप्रथा, कुरीतियाँ समाप्त नहीं हो सकती | समाज को राह दिखाने वाले तथा कथित मठाधिशो की नियत में जब तक स्वार्थ होगा तब तक समाज में जातिप्रथा रहेगी |

      व्यक्ति से परिवार बनता है और परिवार से समाज | जबतक हर व्यक्ति के विचार जात-पात, सड़े-गले कुरीतियों से ऊपर नहीं उठता है तबतक कोई सकारात्मक परिवर्तन की आशा कम है | यहाँ भी स्वार्थ है |

      आदरणीय सुकुल जी ने अच्छी बात कही है की अंतर्जातीय विवाह से जाति प्रथा समाप्त हो सकती है | इसके लिए प्रथम आवश्यकता यह है कि हर माँ बाप अपने बच्चो को इसके लिए प्रेरित करे. और जाति में विवाह करने के लिए मज्बुर न करे | शुरुयात घर से होनी चाहिए | जाति प्रथा के समर्थक यह नहीं चाहते, न उसके संरक्षक मठाधीश | इससे उनकी दूकान बंद होने का खतरा है | गैर धर्म की बहु मठाधिशो को नहीं मानेगी| इससे उनके अहम् उनके स्वार्थ में आघात होगा |      

      सादर 

      कालीपद 'प्रसाद'

      2