by धर्मेन्द्र कुमार सिंह
Oct 27
बह्र: 1212 1122 1212 22
किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा
तमाम उम्र मैं तन्हा इसी सफ़र में रहा
छुपा सके न कभी बेवकूफ़ थे इतने
हमारा इश्क़ मुहब्बत की हर ख़बर में रहा
बड़ी अजीब मुहब्बत की है उलटबाँसी
बहादुरी में कहाँ था मज़ा जो डर में रहा
नदी वो हुस्न की मुझको डुबो गई लेकिन
बहुत है ये भी की मैं देर तक भँवर में रहा
मिली न प्यार की मंजिल तो क्या हुआ ‘सज्जन’
यही क्या कम है कि मैं उस की रहगुज़र में रहा
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)
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किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा (ग़ज़ल)
by धर्मेन्द्र कुमार सिंह
Oct 27
बह्र: 1212 1122 1212 22
किसी के दिल में रहा पर किसी के घर में रहा
तमाम उम्र मैं तन्हा इसी सफ़र में रहा
छुपा सके न कभी बेवकूफ़ थे इतने
हमारा इश्क़ मुहब्बत की हर ख़बर में रहा
बड़ी अजीब मुहब्बत की है उलटबाँसी
बहादुरी में कहाँ था मज़ा जो डर में रहा
नदी वो हुस्न की मुझको डुबो गई लेकिन
बहुत है ये भी की मैं देर तक भँवर में रहा
मिली न प्यार की मंजिल तो क्या हुआ ‘सज्जन’
यही क्या कम है कि मैं उस की रहगुज़र में रहा
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(मौलिक एवं अप्रकाशित)