ग़ज़ल : 1222,1222,122
मेरे किरदार पर धब्बा नहीं था तुम्हीं ने ग़ौर से देखा नही था
मेरे ग़म को समझता कोई कैसे कोई मेरी तरह तनहा नहीं था
मैं इक ठहरा हुआ तालाब था बस वो दरिया था कभी ठहरा नहीं था
तेरी हर बात सच्ची थी हमेशा फ़क़त लहजा ही बस अच्छा नहीं था
न आया जो नदी के पास यारो वो प्यासा था मगर इतना नहीं था
नज़र मेरी थी मंज़िल पर हमेशा थकन का पाओं से रिश्ता नहीं था
तुम इसको जीत समझो…