कविता :- ठहराव का सच
इच्छाओं की चिकनी सड़क पर फिसलती - संभलती ज़िंदगी की बाइक
और सिग्नल कभी ग्रीन कभी रेड
सोचता हूँ इन बादलों का कोई मौसम नहीं होता
बरस जाना भी कोई हल नहीं होता
कौन सा चश्मा लगाएं किस राह जाएँ
किसकी सलाह माने
किस नुस्खे को आजमायें
हर मोड़ हर चौराहे पर खड़ा यथार्थ का सिपाही
डंडे से डराता है
मौज मन से भाग जाता है
लगता है पैदल ही भला था
या तब जब कालेज के दिन थे और मैं साईकिल से च…