कविता : - मांद से बाहर !
चुप मत रह तू खौफ से
कुछ बोल
बजा वह ढोल
जिसे सुन खौल उठें सब
ये चुप्पी मौत
मरें क्यों हम
मरे सब
हैं जिनके हाँथ रंगे से
छिपे दस्तानों भीतर
जो करते वार
कुटिल सौ बार टीलों के पीछे छिपकर
तू उनको मार सदा कर वार
निकलकर मांद से बाहर
कलम को मांज
हो पैनी धार
सरासर वार सरासर वार
पड़ेंगे खून के छींटे
तू उनको चाट
तू काली बन
जगाकर काल
पहन ले मुंड की माला
ह्रदय में…