दिनेश कुमार's Posts - Open Books Online2024-03-29T14:01:05Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvlnhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991286613?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=0bbsmwu5qzvln&xn_auth=noग़ज़ल -- दिनेश कुमार ( दस्तार ही जो सर पे सलामत नहीं रही )tag:openbooksonline.com,2024-03-11:5170231:BlogPost:11166792024-03-11T23:46:55.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>221--2121--1221--212</p>
<p></p>
<p>दस्तार ही जो सर पे सलामत नहीं रही</p>
<p>जी कर भी क्या करोगे जो इज़्ज़त नहीं रही</p>
<p></p>
<p>झूठों की सल्तनत में हुआ सच का सर क़लम </p>
<p>ऐसा भी सब में कहने की हिम्मत नहीं रही</p>
<p></p>
<p>जो फ़ाइलों में पुल था बना, कब का ढह गया</p>
<p>सरकारी काम काज में बरक़त नहीं रही</p>
<p></p>
<p>संसार लेन देन का बाज़ार बन गया</p>
<p>रिश्तों में अब लगाव की क़ीमत नहीं रही</p>
<p></p>
<p>देखो तो काम एक भी हमने कहाँ किया</p>
<p>पूछो तो एक पल की भी फ़ुर्सत नहीं…</p>
<p>221--2121--1221--212</p>
<p></p>
<p>दस्तार ही जो सर पे सलामत नहीं रही</p>
<p>जी कर भी क्या करोगे जो इज़्ज़त नहीं रही</p>
<p></p>
<p>झूठों की सल्तनत में हुआ सच का सर क़लम </p>
<p>ऐसा भी सब में कहने की हिम्मत नहीं रही</p>
<p></p>
<p>जो फ़ाइलों में पुल था बना, कब का ढह गया</p>
<p>सरकारी काम काज में बरक़त नहीं रही</p>
<p></p>
<p>संसार लेन देन का बाज़ार बन गया</p>
<p>रिश्तों में अब लगाव की क़ीमत नहीं रही</p>
<p></p>
<p>देखो तो काम एक भी हमने कहाँ किया</p>
<p>पूछो तो एक पल की भी फ़ुर्सत नहीं रही</p>
<p></p>
<p>दर पर ख़ुदा के सिर्फ़ सवाली ही रह गए </p>
<p>कहने को सर झुके हैं, अक़ीदत नहीं रही</p>
<p></p>
<p>ऐसा नहीं कि दूर हैं मुझसे ख़ुशी के पल</p>
<p>बस मुझको मुस्कुराने की आदत नहीं रही </p>
<p></p>
<p>दिनेश कुमार</p>
<p></p>
<p>( मौलिक और अप्रकाशित )</p>
<p></p>ग़ज़ल -- दिनेश कुमार ( अदब की बज़्म का रुतबा गिरा नहीं सकता )tag:openbooksonline.com,2024-03-10:5170231:BlogPost:11167802024-03-10T01:40:35.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212--1122--1212--22</p>
<p></p>
<p>अदब की बज़्म का रुतबा गिरा नहीं सकता</p>
<p>ग़ज़ल सुनो! मैं लतीफ़े सुना नहीं सकता</p>
<p></p>
<p>ग़मों के दौर में जो मुस्कुरा नहीं सकता</p>
<p>वो ज़िंदगी से यक़ीनन निभा नहीं सकता</p>
<p></p>
<p>ख़ुद अपने सीने पे ख़ंजर चला नहीं सकता</p>
<p>हर एक दोस्त को मैं आज़मा नहीं सकता </p>
<p></p>
<p>वो जिसकी ताल ही है मेरी धड़कनों का सबब</p>
<p>वही तराना-ए-उल्फ़त मैं गा नहीं सकता </p>
<p></p>
<p>वो आसमाँ का सितारा है, मैं ज़मीं का परिंद</p>
<p>मैं ख़्वाब में भी क़रीब…</p>
<p>1212--1122--1212--22</p>
<p></p>
<p>अदब की बज़्म का रुतबा गिरा नहीं सकता</p>
<p>ग़ज़ल सुनो! मैं लतीफ़े सुना नहीं सकता</p>
<p></p>
<p>ग़मों के दौर में जो मुस्कुरा नहीं सकता</p>
<p>वो ज़िंदगी से यक़ीनन निभा नहीं सकता</p>
<p></p>
<p>ख़ुद अपने सीने पे ख़ंजर चला नहीं सकता</p>
<p>हर एक दोस्त को मैं आज़मा नहीं सकता </p>
<p></p>
<p>वो जिसकी ताल ही है मेरी धड़कनों का सबब</p>
<p>वही तराना-ए-उल्फ़त मैं गा नहीं सकता </p>
<p></p>
<p>वो आसमाँ का सितारा है, मैं ज़मीं का परिंद</p>
<p>मैं ख़्वाब में भी क़रीब उसके जा नहीं सकता </p>
<p></p>
<p>कहानी ख़त्म की, उसने ये बात कहते हुए </p>
<p>उसे मैं चाह तो सकता हूँ, पा नहीं सकता</p>
<p></p>
<p>मेरी ज़बान पकड़ते हैं, मेरे ऐब 'दिनेश'</p>
<p>मैं ज़िंदगी की कहानी सुना नहीं सकता </p>
<p></p>
<p>दिनेश कुमार</p>
<p></p>
<p>( मौलिक और अप्रकाशित ) </p>ग़ज़ल -- दिनेश कुमार ( आप क्यूँ दूर दूर हैं हम से )tag:openbooksonline.com,2024-03-09:5170231:BlogPost:11168782024-03-09T03:00:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122--1212--22</p>
<p></p>
<p>वोदका, व्हिस्की और कभी रम से</p>
<p>दिल को निस्बत है क़िस्सा ए ग़म से</p>
<p></p>
<p>ख़्वाब झरते हैं चश्मे पुर-नम से</p>
<p>हम बहलते हैं अपने ही ग़म से</p>
<p></p>
<p>उसकी मर्ज़ी ही अपनी मर्ज़ी है </p>
<p>क्यूँ गिला ज़िंदगी को फिर हम से </p>
<p></p>
<p>छूट जाता जो मोह अपनों का</p>
<p>बुद्ध बन जाते हम भी गौतम से</p>
<p></p>
<p>कब तलक देखें हम तेरी तस्वीर</p>
<p>प्यास बुझती नहीं है शबनम से</p>
<p></p>
<p>शाम होने लगी है जीवन की</p>
<p>रंग उड़ने लगे हैं मौसम…</p>
<p>2122--1212--22</p>
<p></p>
<p>वोदका, व्हिस्की और कभी रम से</p>
<p>दिल को निस्बत है क़िस्सा ए ग़म से</p>
<p></p>
<p>ख़्वाब झरते हैं चश्मे पुर-नम से</p>
<p>हम बहलते हैं अपने ही ग़म से</p>
<p></p>
<p>उसकी मर्ज़ी ही अपनी मर्ज़ी है </p>
<p>क्यूँ गिला ज़िंदगी को फिर हम से </p>
<p></p>
<p>छूट जाता जो मोह अपनों का</p>
<p>बुद्ध बन जाते हम भी गौतम से</p>
<p></p>
<p>कब तलक देखें हम तेरी तस्वीर</p>
<p>प्यास बुझती नहीं है शबनम से</p>
<p></p>
<p>शाम होने लगी है जीवन की</p>
<p>रंग उड़ने लगे हैं मौसम से</p>
<p></p>
<p>चाँद दरिया में रोज़ उतरता है</p>
<p>आप क्यूँ दूर दूर हैं हम से</p>
<p></p>
<p>दिनेश कुमार</p>
<p></p>
<p>( मौलिक और अप्रकाशित ) </p>
<p></p>ग़ज़ल दिनेश कुमार -- अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसाtag:openbooksonline.com,2023-12-03:5170231:BlogPost:11125672023-12-03T04:30:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212-- 1122-- 1212-- 22</p>
<p></p>
<p>अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा</p>
<p>परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा</p>
<p></p>
<p>ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है </p>
<p>उभर के आया है आदम में जानवर कैसा</p>
<p></p>
<p>अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की</p>
<p>हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा</p>
<p></p>
<p>सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल </p>
<p>ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा</p>
<p></p>
<p>वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है </p>
<p>जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब…</p>
<p>1212-- 1122-- 1212-- 22</p>
<p></p>
<p>अंधेरा चार सू फैला दमे-सहर कैसा</p>
<p>परिंदे नीड़ में सहमे हैं, जाने डर कैसा</p>
<p></p>
<p>ख़ुद अपने घर में ही हव्वा की जात सहमी है </p>
<p>उभर के आया है आदम में जानवर कैसा</p>
<p></p>
<p>अधूरे ख़्वाब की सिसकी या फ़िक्र फ़रदा की</p>
<p>हमारे ज़हन में ये शोर रात-भर कैसा</p>
<p></p>
<p>सरों से शर्मो हया का सरक गया आंचल </p>
<p>ये बेटियों पे हुआ मग़रिबी असर कैसा</p>
<p></p>
<p>वो ख़ुद-परस्त था, पीरी में आ के समझा है </p>
<p>जफ़ा के पेड़ पे रिश्तों का अब समर कैसा</p>
<p></p>
<p>दिनेश कुमार </p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p></p>ग़ज़ल -- क़दमों में तेरे ख़ुशियों की इक कहकशाँ रहे -- दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2023-11-17:5170231:BlogPost:11115762023-11-17T03:00:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>ग़ज़ल -- 221 2121 1221 212</p>
<p></p>
<p>क़दमों में तेरे ख़ुशियों की इक कहकशाँ रहे</p>
<p>बन जाए गुलसिताँ वो जगह, तू जहाँ रहे</p>
<p></p>
<p>ज़ालिम का ज़ुल्म ख़्वाह सदा बे-अमाँ रहे</p>
<p>पर कोई भी ग़रीब न बे-आशियाँ रहे</p>
<p></p>
<p>आ जाए जिन को देख के आँखों में रौशनी</p>
<p>वो ख़ैर-ख़्वाह दोस्त पुराने कहाँ रहे</p>
<p></p>
<p>हर दम पराए दर्द को समझें हम अपना दर्द</p>
<p>दरिया ख़ुलूसो-मेहर का दिल में रवाँ रहे</p>
<p></p>
<p>काफ़ी नहीं है दिल में फ़लक चूमने का ख़्वाब </p>
<p>परवाज़ हौसलों…</p>
<p>ग़ज़ल -- 221 2121 1221 212</p>
<p></p>
<p>क़दमों में तेरे ख़ुशियों की इक कहकशाँ रहे</p>
<p>बन जाए गुलसिताँ वो जगह, तू जहाँ रहे</p>
<p></p>
<p>ज़ालिम का ज़ुल्म ख़्वाह सदा बे-अमाँ रहे</p>
<p>पर कोई भी ग़रीब न बे-आशियाँ रहे</p>
<p></p>
<p>आ जाए जिन को देख के आँखों में रौशनी</p>
<p>वो ख़ैर-ख़्वाह दोस्त पुराने कहाँ रहे</p>
<p></p>
<p>हर दम पराए दर्द को समझें हम अपना दर्द</p>
<p>दरिया ख़ुलूसो-मेहर का दिल में रवाँ रहे</p>
<p></p>
<p>काफ़ी नहीं है दिल में फ़लक चूमने का ख़्वाब </p>
<p>परवाज़ हौसलों की भी ता-आसमाँ रहे</p>
<p></p>
<p>मिट जाएँ दिल से हिन्दू मुसलमां के सारे फ़र्क़</p>
<p>मरकज़ जो अपने धर्म का हिन्दोस्ताँ रहे</p>
<p></p>
<p>हर बार बोल उठीं हैं ये चेहरे की झुर्रियाँ</p>
<p>कहने को हम 'दिनेश' भले बे-ज़बाँ रहे</p>
<p></p>
<p>------- दिनेश कुमार </p>
<p></p>
<p>( मौलिक व अप्रकाशित )</p>ग़ज़ल ( दिनेश कुमार )tag:openbooksonline.com,2023-05-17:5170231:BlogPost:11039292023-05-17T05:00:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122--1122--1122--22</p>
<p></p>
<p>मेरी क़िस्मत में अगरचे नहीं धन की रौनक़<br></br> सब्र-ओ-तस्लीम से हासिल हुई मन की रौनक़<br></br> <br></br> एक दूजे की तरक़्क़ी में करें हम इमदाद<br></br> भाई-चारा ही बढ़ाता है वतन की रौनक़<br></br> <br></br> किसको फ़ुर्सत है जो देखे, तेरी सीरत का जमाल<br></br> हर तरफ़ जल्वा-नुमा अब है बदन की रौनक़<br></br> <br></br> मुश्किलें कितनी भी पेश आएं तेरी राहों में<br></br> जीत की शक्ल में चमकेगी जतन की रौनक़<br></br> <br></br> ये परखते हैं ग़ज़लगो के तख़य्युल की उड़ान<br></br> सामईन अस्ल में हैं बज़्म-ए-सुख़न की…</p>
<p>2122--1122--1122--22</p>
<p></p>
<p>मेरी क़िस्मत में अगरचे नहीं धन की रौनक़<br/> सब्र-ओ-तस्लीम से हासिल हुई मन की रौनक़<br/> <br/> एक दूजे की तरक़्क़ी में करें हम इमदाद<br/> भाई-चारा ही बढ़ाता है वतन की रौनक़<br/> <br/> किसको फ़ुर्सत है जो देखे, तेरी सीरत का जमाल<br/> हर तरफ़ जल्वा-नुमा अब है बदन की रौनक़<br/> <br/> मुश्किलें कितनी भी पेश आएं तेरी राहों में<br/> जीत की शक्ल में चमकेगी जतन की रौनक़<br/> <br/> ये परखते हैं ग़ज़लगो के तख़य्युल की उड़ान<br/> सामईन अस्ल में हैं बज़्म-ए-सुख़न की रौनक़<br/> <br/> दिनेश कुमार<br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- फ़लक में उड़ने का क़ल्बो-जिगर नहीं रखता / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-11-16:5170231:BlogPost:9610662018-11-16T09:34:59.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212---1122---1212---22<br></br> .<br></br> फ़लक में उड़ने का क़ल्बो-जिगर नहीं रखता<br></br> मैं वो परिन्दा हूँ जो बालो-पर नहीं रखता<br></br>
.<br></br>
न चापलूसी की आदत, न चाह उहदे ( पदवी ) की<br></br>
फ़क़ीर शाह के क़दमों में सर नहीं रखता<br></br>
.<br></br>
उरूज और ज़वाल एक से हैं जिसके लिये<br></br>
वो हार जीत का दिल पर असर नहीं रखता<br></br>
.<br></br>
मिला नसीब से जो कुछ भी, वो बहुत है मुझे<br></br>
पराई चीज़ पे मैं बद-नज़र नहीं रखता<br></br>
.<br></br>
नशा दिमाग़ पे दौलत का जिसके जन्म से हो<br></br>
वो अपने पाँव कभी फ़र्श पर नहीं रखता<br></br>
.<br></br>
वो इस…</p>
<p>1212---1122---1212---22<br/> .<br/> फ़लक में उड़ने का क़ल्बो-जिगर नहीं रखता<br/>
मैं वो परिन्दा हूँ जो बालो-पर नहीं रखता<br/>
.<br/>
न चापलूसी की आदत, न चाह उहदे ( पदवी ) की<br/>
फ़क़ीर शाह के क़दमों में सर नहीं रखता<br/>
.<br/>
उरूज और ज़वाल एक से हैं जिसके लिये<br/>
वो हार जीत का दिल पर असर नहीं रखता<br/>
.<br/>
मिला नसीब से जो कुछ भी, वो बहुत है मुझे<br/>
पराई चीज़ पे मैं बद-नज़र नहीं रखता<br/>
.<br/>
नशा दिमाग़ पे दौलत का जिसके जन्म से हो<br/>
वो अपने पाँव कभी फ़र्श पर नहीं रखता<br/>
.<br/>
वो इस ज़माने के सीखेगा कैसे रीति-रिवाज<br/>
खुले जो ज़ह्न के दीवारो-दर नहीं रखता<br/>
.<br/>
ज़माने भर की उसे फ़िक्र है, मगर देखो<br/>
बशर, पड़ोसी की, अपने ख़बर नहीं रखता<br/>
.<br/>
दिनेश कुमार ( मौलिक व अप्रकाशित )</p>ग़ज़ल -- नेकियाँ तो आपकी सारी भुला दी जाएँगी / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-11-07:5170231:BlogPost:9601402018-11-07T04:52:10.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122---2122---2122---212<br></br> .<br></br> नेकियाँ तो आपकी सारी भुला दी जाएँगी<br></br> ग़लतियाँ राई भी हों, पर्वत बना दी जाएँगी<br></br>
.<br></br>
रौशनी दरकार होगी जब भी महलों को ज़रा<br></br>
शह्र की सब झुग्गियाँ पल में जला दी जाएँगी<br></br>
.<br></br>
फिर कोई तस्वीर हाकिम को लगी है आइना<br></br>
उँगलियाँ तय हैं मुसव्विर की कटा दी जाएँगी<br></br>
.<br></br>
इनके अरमानों की परवा अह्ले-महफ़िल को कहाँ<br></br>
सुबह होते ही सभी शमएँ बुझा दी जाएँगी<br></br>
.<br></br>
नाम पत्थर पर शहीदों के लिखे तो जाएँगे<br></br>
हाँ, मगर क़ुर्बानियाँ उनकी भुला दी…</p>
<p>2122---2122---2122---212<br/> .<br/> नेकियाँ तो आपकी सारी भुला दी जाएँगी<br/>
ग़लतियाँ राई भी हों, पर्वत बना दी जाएँगी<br/>
.<br/>
रौशनी दरकार होगी जब भी महलों को ज़रा<br/>
शह्र की सब झुग्गियाँ पल में जला दी जाएँगी<br/>
.<br/>
फिर कोई तस्वीर हाकिम को लगी है आइना<br/>
उँगलियाँ तय हैं मुसव्विर की कटा दी जाएँगी<br/>
.<br/>
इनके अरमानों की परवा अह्ले-महफ़िल को कहाँ<br/>
सुबह होते ही सभी शमएँ बुझा दी जाएँगी<br/>
.<br/>
नाम पत्थर पर शहीदों के लिखे तो जाएँगे<br/>
हाँ, मगर क़ुर्बानियाँ उनकी भुला दी जाएँगी<br/>
.<br/>
कौन मुरझाने से रोकेगा गुलों को ऐ 'दिनेश'<br/>
बुलबुलें ही बाग़ से जब सब उड़ा दी जाएँगी<br/>
.<br/>
दिनेश कुमार ( मौलिक व अप्रकाशित )</p>ग़ज़ल --- ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-07-12:5170231:BlogPost:9393672018-07-12T19:00:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122---1212---22</p>
<p></p>
<p>ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था<br></br> मैं ही मैं था, मेरे सिवा क्या था</p>
<p>.</p>
<p>झूठ बोला तो बच गई गरदन<br></br> हक़-बयानी का फ़ाएदा क्या था</p>
<p>.</p>
<p>चाह मंज़िल की थी निगाहों में<br></br> ठोकरें क्या थीं आबला क्या था</p>
<p>.</p>
<p>पर निकलते ही थे उड़े ताइर !<br></br> ये रिवायत थी, सानेहा क्या था</p>
<p>.</p>
<p>दर्द, ग़ुस्सा, मलाल, मजबूरी<br></br> आख़िर उस चश्मे-तर में क्या क्या था</p>
<p>.</p>
<p>क्यों मैं बर्बादियों का सोग करूँ<br></br> जब मैं आया, यहाँ मेरा क्या…</p>
<p>2122---1212---22</p>
<p></p>
<p>ख़ुद-परस्ती का दायरा क्या था<br/> मैं ही मैं था, मेरे सिवा क्या था</p>
<p>.</p>
<p>झूठ बोला तो बच गई गरदन<br/> हक़-बयानी का फ़ाएदा क्या था</p>
<p>.</p>
<p>चाह मंज़िल की थी निगाहों में<br/> ठोकरें क्या थीं आबला क्या था</p>
<p>.</p>
<p>पर निकलते ही थे उड़े ताइर !<br/> ये रिवायत थी, सानेहा क्या था</p>
<p>.</p>
<p>दर्द, ग़ुस्सा, मलाल, मजबूरी<br/> आख़िर उस चश्मे-तर में क्या क्या था</p>
<p>.</p>
<p>क्यों मैं बर्बादियों का सोग करूँ<br/> जब मैं आया, यहाँ मेरा क्या था</p>
<p></p>
<p>आग पानी हवा ज़मीन फ़लक<br/> पेश-तर दहर के बता क्या था</p>
<p>.</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- ख़ुशी का पल तो मयस्सर नहीं, हैं दर्द हज़ार / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-05-30:5170231:BlogPost:9320292018-05-30T12:30:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212--1122--1212--112<br></br> .<br></br> ख़ुशी का पल तो मयस्सर नहीं, हैं दर्द हज़ार<br></br> हमारे हिस्से में क्यों है बस इंतिज़ारे-बहार<br></br>
.<br></br>
कि रफ़्ता रफ़्ता थकावट बदन में आएगी<br></br>
उतर ही जाएगा आख़िर में ज़िन्दगी का ख़ुमार<br></br>
.<br></br>
मिलेगी आख़िरी ख़ाने में मौत ही सबको<br></br>
बिसाते-दह्र पे पैदल हो या हो फिर वो सवार<br></br>
.<br></br>
इधर जनाज़ा किसी का बस उठने वाला है<br></br>
उधर दुल्हन की चले पालकी उठाए कहार<br></br>
.<br></br>
ग़मों की धूप भी हमको सुखों की छाँव लगे<br></br>
हमारा नाम भी कर लो कलन्दरों में…</p>
<p>1212--1122--1212--112<br/> .<br/> ख़ुशी का पल तो मयस्सर नहीं, हैं दर्द हज़ार<br/>
हमारे हिस्से में क्यों है बस इंतिज़ारे-बहार<br/>
.<br/>
कि रफ़्ता रफ़्ता थकावट बदन में आएगी<br/>
उतर ही जाएगा आख़िर में ज़िन्दगी का ख़ुमार<br/>
.<br/>
मिलेगी आख़िरी ख़ाने में मौत ही सबको<br/>
बिसाते-दह्र पे पैदल हो या हो फिर वो सवार<br/>
.<br/>
इधर जनाज़ा किसी का बस उठने वाला है<br/>
उधर दुल्हन की चले पालकी उठाए कहार<br/>
.<br/>
ग़मों की धूप भी हमको सुखों की छाँव लगे<br/>
हमारा नाम भी कर लो कलन्दरों में शुमार<br/>
.<br/>
मुखौटा ओढ़ के चेहरे पे मुस्कुराहट का<br/>
'दिनेश' आएगा क्या तेरी शख़्सियत में निखार ?<br/>
.<br/>
मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल --- इक फ़रिश्ता है मेहरबाँ मुझ पर / दिनेश कुमार / ( इस्लाह हेतु )tag:openbooksonline.com,2018-05-21:5170231:BlogPost:9311692018-05-21T04:30:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122---1212---22<br></br> .<br></br> जो भी सोचूँ, उसी पे निर्भर है<br></br> मेरी दुनिया तो मेरे भीतर है<br></br> .<br></br> इक फ़रिश्ता है मेहरबाँ मुझ पर<br></br> स्वर्ग से ख़ूब-तर मेरा घर है<br></br> .<br></br>जिसमें जज़्बा है काम करने का<br></br> कामयाबी उसे मयस्सर है<br></br> .<br></br> जीत कैसे मिली, है बेमानी<br></br> जो भी जीता, वही सिकन्दर है<br></br> .<br></br> कोई क़तरा भी भीक में माँगे<br></br> और हासिल किसी को सागर है<br></br> .<br></br> ज़ह्र-आलूदा इन हवाओं में<br></br> साँस लेना भी कितना दूभर है<br></br> .<br></br> हाँ, ये जादूगरी है लफ़्ज़ों की<br></br> ( हाँ,…</p>
<p>2122---1212---22<br/> .<br/> जो भी सोचूँ, उसी पे निर्भर है<br/> मेरी दुनिया तो मेरे भीतर है<br/> .<br/> इक फ़रिश्ता है मेहरबाँ मुझ पर<br/> स्वर्ग से ख़ूब-तर मेरा घर है<br/> .<br/>जिसमें जज़्बा है काम करने का<br/> कामयाबी उसे मयस्सर है<br/> .<br/> जीत कैसे मिली, है बेमानी<br/> जो भी जीता, वही सिकन्दर है<br/> .<br/> कोई क़तरा भी भीक में माँगे<br/> और हासिल किसी को सागर है<br/> .<br/> ज़ह्र-आलूदा इन हवाओं में<br/> साँस लेना भी कितना दूभर है<br/> .<br/> हाँ, ये जादूगरी है लफ़्ज़ों की<br/> ( हाँ, ये अल्फ़ाज़ की है जादूगरी )<br/> शायरी ओक में समन्दर है<br/> .<br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल --- मैं अपने काम अगर वक़्त पर नहीं करता / दिनेश कुमार / इस्लाह हेतु.tag:openbooksonline.com,2018-05-20:5170231:BlogPost:9311502018-05-20T12:30:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212--1122--1212--22<br></br> .<br></br> मैं अपने काम अगर वक़्त पर नहीं करता<br></br> तो कामयाबी का पर्वत भी सर नहीं करता<br></br>
.<br></br>
हसीन ख़्वाब अगर दिल में घर नहीं करता<br></br>
तवील रात से मैं दर-गुज़र नहीं करता<br></br>
.<br></br>
हरेक मोड़ पे ख़ुशियों तो कम हैं,दर्द बहुत<br></br>
कहानी वो मेरी क्यों मुख़्तसर नहीं करता<br></br>
..<br></br>
सिखा दिया है मुझे ग़म ने ज़िन्दगी का हुनर<br></br>
किसी भी हाल, मैं अब आँख तर नहीं करता<br></br>
.<br></br>
मैं अपने अज़्म की पतवार साथ रखता हूँ<br></br>
मेरे सफ़ीने पे तूफ़ाँ असर नहीं करता<br></br>
.<br></br>
ग़ुरूर साथ…</p>
<p>1212--1122--1212--22<br/> .<br/> मैं अपने काम अगर वक़्त पर नहीं करता<br/>
तो कामयाबी का पर्वत भी सर नहीं करता<br/>
.<br/>
हसीन ख़्वाब अगर दिल में घर नहीं करता<br/>
तवील रात से मैं दर-गुज़र नहीं करता<br/>
.<br/>
हरेक मोड़ पे ख़ुशियों तो कम हैं,दर्द बहुत<br/>
कहानी वो मेरी क्यों मुख़्तसर नहीं करता<br/>
..<br/>
सिखा दिया है मुझे ग़म ने ज़िन्दगी का हुनर<br/>
किसी भी हाल, मैं अब आँख तर नहीं करता<br/>
.<br/>
मैं अपने अज़्म की पतवार साथ रखता हूँ<br/>
मेरे सफ़ीने पे तूफ़ाँ असर नहीं करता<br/>
.<br/>
ग़ुरूर साथ में चलता है हर घड़ी उसके<br/>
वो अब अमीर है तन्हा सफ़र नहीं करता<br/>
..<br/>
दिया उमीद का तू हर घड़ी जलाये रख<br/>
हर एक रात की क्या, रब सहर नहीं करता<br/>
.<br/>
अजब जवाब था उनका 'दिनेश' सोचेंगे<br/>
सुना था इश्क़ कोई सोच कर नहीं करता<br/>
.<br/>
दिनेश कुमार ( मौलिक व अप्रकाशित )</p>ग़ज़ल -- बाद मरने के भी दुनिया में हो चर्चा मेरा / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-05-17:5170231:BlogPost:9306872018-05-17T00:01:11.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122--1122--1122--22</p>
<p>बाद मरने के भी दुनिया में हो चर्चा मेरा<br></br> ऐसी शोहरत की बुलन्दी हो ठिकाना मेरा</p>
<p>मैं हूँ इक प्रेम पुजारी ऐ मेरी जाने-हयात<br></br> तू ही मन्दिर, तू कलीसा, तू ही का'बा मेरा</p>
<p>मेरे बेटे की निगाहों में हैं कुछ ख़्वाब मेरे<br></br> ज़िन्दगी उसकी है जीने का सहारा मेरा</p>
<p>मौत भी चैन से आती है कहाँ इन्सां को<br></br> ज़ेह्न में गूँजता ही रहता है मेरा मेरा</p>
<p>अब भी रातों को मेरी नींद उचट जाती है<br></br> आह इक चाँद को छूने का वो सपना मेरा</p>
<p>अनकही बात मेरी क्या वो…</p>
<p>2122--1122--1122--22</p>
<p>बाद मरने के भी दुनिया में हो चर्चा मेरा<br/> ऐसी शोहरत की बुलन्दी हो ठिकाना मेरा</p>
<p>मैं हूँ इक प्रेम पुजारी ऐ मेरी जाने-हयात<br/> तू ही मन्दिर, तू कलीसा, तू ही का'बा मेरा</p>
<p>मेरे बेटे की निगाहों में हैं कुछ ख़्वाब मेरे<br/> ज़िन्दगी उसकी है जीने का सहारा मेरा</p>
<p>मौत भी चैन से आती है कहाँ इन्सां को<br/> ज़ेह्न में गूँजता ही रहता है मेरा मेरा</p>
<p>अब भी रातों को मेरी नींद उचट जाती है<br/> आह इक चाँद को छूने का वो सपना मेरा</p>
<p>अनकही बात मेरी क्या वो समझ पाएंगे ?<br/> क्या मुकम्मल कभी हो पायेगा क़िस्सा मेरा ??</p>
<p>सिलवटें वक़्त की पड़ने ही लगीं इस पे 'दिनेश'<br/> तुमने देखा ही कहाँ ग़ौर से चेहरा मेरा</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल --- कठिन, सरल का कोई मसअला नहीं होता // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-05-06:5170231:BlogPost:9287062018-05-06T03:30:00.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212---1122--1212--22<br></br> .<br></br> कठिन, सरल का कोई मसअला नहीं होता</p>
<p>अगर तू ठान ले दिल में तो क्या नहीं होता<br></br> .<br></br> अगर हो अज़्म तो पत्थर में छेद होता है<br></br> हुनर मगर ये सभी को अता नहीं होता<br></br> .<br></br> हमारे कर्म से प्रारब्ध भी बदलता है<br></br> नसीब अपना कभी तयशुदा नहीं होता<br></br> .</p>
<p>ये तज्रिबा है हमारा मुशाहिदा भी है</p>
<p>अमीर-ए-शह्र किसी का सगा नहीं होता</p>
<p>.<br></br> सितमगरों के इशारों पे खेल होता है<br></br> अदालतों में कोई फ़ैसला नहीं होता<br></br> .<br></br> जुड़ा ही रहता है ममता…</p>
<p>1212---1122--1212--22<br/> .<br/> कठिन, सरल का कोई मसअला नहीं होता</p>
<p>अगर तू ठान ले दिल में तो क्या नहीं होता<br/> .<br/> अगर हो अज़्म तो पत्थर में छेद होता है<br/> हुनर मगर ये सभी को अता नहीं होता<br/> .<br/> हमारे कर्म से प्रारब्ध भी बदलता है<br/> नसीब अपना कभी तयशुदा नहीं होता<br/> .</p>
<p>ये तज्रिबा है हमारा मुशाहिदा भी है</p>
<p>अमीर-ए-शह्र किसी का सगा नहीं होता</p>
<p>.<br/> सितमगरों के इशारों पे खेल होता है<br/> अदालतों में कोई फ़ैसला नहीं होता<br/> .<br/> जुड़ा ही रहता है ममता की गर्भनाल से वो<br/> वजूद बेटे का माँ से जुदा नहीं होता<br/> .</p>
<p>दिनेश' वक़्त की शतरंज का मैं पैदल हूँ</p>
<p>मैं कब पिटूँगा मुझे ख़ुद पता नहीं होता</p>
<p>.<br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- ये क्या हो गया है भले आदमी को // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-05-04:5170231:BlogPost:9279852018-05-04T23:16:07.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>122----122----122----122<br></br> .<br></br> जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को<br></br> मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को<br></br>
.<br></br>
जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को<br></br>
मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को<br></br>
.<br></br>
सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब<br></br>
मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को<br></br>
.<br></br>
भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब<br></br>
बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को<br></br>
.<br></br>
कसौटी पे परखे जो किरदार अपना<br></br>
भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को<br></br>
.<br></br>
तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में<br></br>
कभी…</p>
<p>122----122----122----122<br/> .<br/> जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को<br/>
मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को<br/>
.<br/>
जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को<br/>
मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को<br/>
.<br/>
सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब<br/>
मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को<br/>
.<br/>
भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब<br/>
बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को<br/>
.<br/>
कसौटी पे परखे जो किरदार अपना<br/>
भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को<br/>
.<br/>
तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में<br/>
कभी ग़ौर से देखना तीरगी को<br/>
.<br/>
सराबों में कब तक भटकता रहेगा<br/>
तू दे अब तवज्जोह भी ख़ुद-आगही को<br/>
.<br/>
'दिनेश' अपने बारे में ही सोचता है<br/>
ये क्या हो गया है भले आदमी को<br/>
.<br/>
मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- शीशा-ए-दिल से गर्द हटाने की बात कर // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-04-29:5170231:BlogPost:9269722018-04-29T01:00:24.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>221---2121---1221---212<br></br> .<br></br> तू मुश्किलों को धूल चटाने की बात कर<br></br> तूफ़ाँ में भी चराग़ जलाने की बात कर<br></br>
.<br></br>
तू मीरे-कारवाँ है तो ये फ़र्ज़ है तिरा<br></br>
भटके हुओं को राह दिखाने की बात कर</p>
<p>महफ़िल में जब बुलाया है मुझ जैसे रिन्द को<br></br> आँखों से सिर्फ़ पीने पिलाने की बात कर<br></br> .<br></br> ऐशो-तरब की चाह भी कर लेना बाद में<br></br>
पहले उदर की आग बुझाने की बात कर<br></br>
.<br></br>
मुद्दत से मुन्तज़िर हूँ तिरा ऐ सुकूने-दिल<br></br>
ख़्वाबों में ही सही कभी आने की बात कर<br></br>
.<br></br>
बस पैरहन…</p>
<p>221---2121---1221---212<br/> .<br/> तू मुश्किलों को धूल चटाने की बात कर<br/>
तूफ़ाँ में भी चराग़ जलाने की बात कर<br/>
.<br/>
तू मीरे-कारवाँ है तो ये फ़र्ज़ है तिरा<br/>
भटके हुओं को राह दिखाने की बात कर</p>
<p>महफ़िल में जब बुलाया है मुझ जैसे रिन्द को<br/> आँखों से सिर्फ़ पीने पिलाने की बात कर<br/> .<br/>
ऐशो-तरब की चाह भी कर लेना बाद में<br/>
पहले उदर की आग बुझाने की बात कर<br/>
.<br/>
मुद्दत से मुन्तज़िर हूँ तिरा ऐ सुकूने-दिल<br/>
ख़्वाबों में ही सही कभी आने की बात कर<br/>
.<br/>
बस पैरहन ही जिस्म का बदले न ये क़ज़ा<br/>
परमात्मा से ख़ुद को मिलाने की बात कर<br/>
.<br/>
धुंधले दिखें न कर्म तिरे ख़ुद को ऐ 'दिनेश'<br/>
शीशा-ए-दिल से गर्द हटाने की बात कर<br/>
.<br/>
मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- जो काम बस का नहीं, उसका इश्तिहार किया // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-04-18:5170231:BlogPost:9254482018-04-18T04:09:46.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>1212----1122----1212----112/22</p>
<p>जो काम बस का नहीं, उसका इश्तिहार किया<br></br> यही तो काम सियासत ने बार बार किया</p>
<p>तमाम अहले-चमन भी सज़ा के भागी हैं<br></br> अगर उक़ाब ने गोरैया का शिकार किया</p>
<p>उन्हें तो शौक़ था वादों पे वादे करने का<br></br> और एक हम थे कि वादों पे ए'तिबार किया</p>
<p>ये कौन आया है साहिल से लौट कर प्यासा<br></br> ये किसकी प्यास ने दरिया को शर्मसार किया</p>
<p>मुक़ाम उनको ही हासिल हुआ है दुनिया में<br></br> जिन्होंने राह की दुश्वारियों को पार किया</p>
<p>जो इसके साथ न चल पाया रह…</p>
<p>1212----1122----1212----112/22</p>
<p>जो काम बस का नहीं, उसका इश्तिहार किया<br/> यही तो काम सियासत ने बार बार किया</p>
<p>तमाम अहले-चमन भी सज़ा के भागी हैं<br/> अगर उक़ाब ने गोरैया का शिकार किया</p>
<p>उन्हें तो शौक़ था वादों पे वादे करने का<br/> और एक हम थे कि वादों पे ए'तिबार किया</p>
<p>ये कौन आया है साहिल से लौट कर प्यासा<br/> ये किसकी प्यास ने दरिया को शर्मसार किया</p>
<p>मुक़ाम उनको ही हासिल हुआ है दुनिया में<br/> जिन्होंने राह की दुश्वारियों को पार किया</p>
<p>जो इसके साथ न चल पाया रह गया पीछे <br/> गुज़रते वक़्त ने कब किसका इन्तिज़ार किया</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- तृष्णाओं के भँवर में फँसा बद-हवास था // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2018-04-08:5170231:BlogPost:9242402018-04-08T12:55:33.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>221 - - 2121 - - 1221 - - 212</p>
<p>तृष्णाओं के भँवर में फँसा बद-हवास था<br></br> सब कुछ था मेरे पास मगर मैं उदास था</p>
<p>जीवन के मयकदे में कुछ हालत थी यूँ मेरी<br></br> होंठों पे प्यास हाथ में खाली गिलास था</p>
<p>हर आदमी के ज़ेह्न में रक़्साँ थी बेकली<br></br> दुनियावी ख़्वाहिशात का हर कोई दास था</p>
<p>आह्वान बंद का था सियासत के नाम पर<br></br> होगा नहीं वबाल फ़क़त इक क़यास था</p>
<p>भगवे हरे में बँट गया फिर शह्रे-दुश्मनी<br></br> चारों तरफ़ इक आलमे-ख़ौफ़ो-हिरास था</p>
<p>तूफ़ाँ में रात जिसका सफ़ीना बचा…</p>
<p>221 - - 2121 - - 1221 - - 212</p>
<p>तृष्णाओं के भँवर में फँसा बद-हवास था<br/> सब कुछ था मेरे पास मगर मैं उदास था</p>
<p>जीवन के मयकदे में कुछ हालत थी यूँ मेरी<br/> होंठों पे प्यास हाथ में खाली गिलास था</p>
<p>हर आदमी के ज़ेह्न में रक़्साँ थी बेकली<br/> दुनियावी ख़्वाहिशात का हर कोई दास था</p>
<p>आह्वान बंद का था सियासत के नाम पर<br/> होगा नहीं वबाल फ़क़त इक क़यास था</p>
<p>भगवे हरे में बँट गया फिर शह्रे-दुश्मनी<br/> चारों तरफ़ इक आलमे-ख़ौफ़ो-हिरास था</p>
<p>तूफ़ाँ में रात जिसका सफ़ीना बचा नहीं<br/> कहते हैं नाख़ुदा वो समन्दर-शनास था</p>
<p>मरकज़ था हर निगाह का महफ़िल में वो 'दिनेश'<br/> हैरत नहीं जो उसका चमकता लिबास था</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल --- असर होता है // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2017-12-31:5170231:BlogPost:9072362017-12-31T08:03:51.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p></p>
<p>2122--1122--1122--22<br></br> .<br></br> एक पत्थर पे भी उल्फ़त का असर होता है<br></br> दिल मे जज़्बा हो तो दीवार में दर होता है<br></br>
.<br></br>
घुप अँधेरे में उजाले की किरण सा जीवन<br></br>
जो भी जी जाए, वो दुनिया में अमर होता है<br></br>
.<br></br>
उसको हालात की गर्मी की भला क्या चिन्ता<br></br>
जिसकी दहलीज़ पे अनुभव का शजर होता है<br></br>
.<br></br>
आपसी प्यार मकीनों में हो, घर तब होगा<br></br>
दरो-दीवार का ढांचा तो खँडर होता है<br></br>
.<br></br>
वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश <br></br>
जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता…</p>
<p></p>
<p>2122--1122--1122--22<br/> .<br/> एक पत्थर पे भी उल्फ़त का असर होता है<br/>
दिल मे जज़्बा हो तो दीवार में दर होता है<br/>
.<br/>
घुप अँधेरे में उजाले की किरण सा जीवन<br/>
जो भी जी जाए, वो दुनिया में अमर होता है<br/>
.<br/>
उसको हालात की गर्मी की भला क्या चिन्ता<br/>
जिसकी दहलीज़ पे अनुभव का शजर होता है<br/>
.<br/>
आपसी प्यार मकीनों में हो, घर तब होगा<br/>
दरो-दीवार का ढांचा तो खँडर होता है<br/>
.<br/>
वो न सह पायेगा इक पल भी हक़ीक़त की तपिश <br/>
जिसके ख़्वाबों का महल मोम का घर होता है<br/>
.<br/>
हम फ़क़ीरों को ज़ियादा की नहीं चाह 'दिनेश'<br/>
जितना हासिल है, बस उतने में गुज़र होता है<br/>
.<br/>
मौलिक व अप्रकाशित।</p>ग़ज़ल -- "इसके आगे बस ख़ुदा का नाम है" / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2017-12-26:5170231:BlogPost:9060182017-12-26T01:16:25.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
<p>2122--2122--212</p>
<p>भाग्य तेरे कर्म का परिणाम है<br></br> तुझ पे ही निर्भर तेरा अंजाम है</p>
<p>मेरे हमराही को भी ठोकर लगी<br></br> मेरे दिल को अब ज़रा आराम है</p>
<p>सिर्फ़ सच की राह पर चलता हूँ मैं<br></br> आबला-पाई मेरा इनआ'म है</p>
<p>उसकी मर्ज़ी है अता कुछ भी करे<br></br> बस दुआ करना हमारा काम है</p>
<p>शख़्सियत अपनी निखारो मुफ़्त में<br></br> मुस्कुराहट का न कोई दाम है</p>
<p>हम फ़क़ीरों की नज़र से देखिये<br></br> जिस्म इक मन्दिर है पावन धाम है</p>
<p>हम यथा सम्भव मदद सब की करें<br></br> आदमीयत का यही पैग़ाम…</p>
<p>2122--2122--212</p>
<p>भाग्य तेरे कर्म का परिणाम है<br/> तुझ पे ही निर्भर तेरा अंजाम है</p>
<p>मेरे हमराही को भी ठोकर लगी<br/> मेरे दिल को अब ज़रा आराम है</p>
<p>सिर्फ़ सच की राह पर चलता हूँ मैं<br/> आबला-पाई मेरा इनआ'म है</p>
<p>उसकी मर्ज़ी है अता कुछ भी करे<br/> बस दुआ करना हमारा काम है</p>
<p>शख़्सियत अपनी निखारो मुफ़्त में<br/> मुस्कुराहट का न कोई दाम है</p>
<p>हम फ़क़ीरों की नज़र से देखिये<br/> जिस्म इक मन्दिर है पावन धाम है</p>
<p>हम यथा सम्भव मदद सब की करें<br/> आदमीयत का यही पैग़ाम है</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल -- दूर कर बद-गुमानी मेरी // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2017-10-29:5170231:BlogPost:8927062017-10-29T01:44:27.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
212---212---212<br />
<br />
दूर कर बदगुमानी मेरी<br />
ख़त्म हो सरगरानी मेरी<br />
<br />
मेरे जीवन से तुम क्या गए<br />
खो गई शादमानी मेरी<br />
<br />
अब न आएगी ये लौटकर<br />
जा रही है जवानी मेरी<br />
<br />
बीती बातों पे ये बारहा<br />
व्यर्थ की नोहा ख़्वानी मेरी<br />
<br />
ग़म के दरिया में रक्खा है क्या<br />
भूल जाओ कहानी मेरी<br />
<br />
गुल खिलाएगी कोई नया<br />
एक दिन हक़-बयानी मेरी<br />
<br />
ऐ मेरे जिस्म ! ऊबा हूँ मैं<br />
अब न कर मेज़बानी मेरी<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
<br />
<br />
सरगरानी-नाराज़गी<br />
शादमानी-ख़ुशी<br />
नोहा ख़्वानी-रोना पीटना,मातम करना
212---212---212<br />
<br />
दूर कर बदगुमानी मेरी<br />
ख़त्म हो सरगरानी मेरी<br />
<br />
मेरे जीवन से तुम क्या गए<br />
खो गई शादमानी मेरी<br />
<br />
अब न आएगी ये लौटकर<br />
जा रही है जवानी मेरी<br />
<br />
बीती बातों पे ये बारहा<br />
व्यर्थ की नोहा ख़्वानी मेरी<br />
<br />
ग़म के दरिया में रक्खा है क्या<br />
भूल जाओ कहानी मेरी<br />
<br />
गुल खिलाएगी कोई नया<br />
एक दिन हक़-बयानी मेरी<br />
<br />
ऐ मेरे जिस्म ! ऊबा हूँ मैं<br />
अब न कर मेज़बानी मेरी<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित<br />
<br />
<br />
सरगरानी-नाराज़गी<br />
शादमानी-ख़ुशी<br />
नोहा ख़्वानी-रोना पीटना,मातम करनाग़ज़ल -- इस्लाह हेतु / ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को / दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2017-10-15:5170231:BlogPost:8896712017-10-15T18:26:53.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
2122--1212--22<br />
<br />
ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को<br />
हक़परस्ती है सिर्फ़ रोने को<br />
<br />
दिल को पत्थर बना लिया मैंने<br />
ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को<br />
<br />
दूर मंज़िल है वक़्त भी कम है<br />
कौन कहता है तुम को सोने को<br />
<br />
एक बस वो नहीं हुआ मेरा<br />
क्या नहीं होता वर्ना होने को<br />
<br />
किस लिये हैं इन आँखों में आँसू<br />
पास भी क्या था जब कि खोने को<br />
<br />
ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की<br />
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को<br />
<br />
दाग़ कुछ ऐसे भी हैं दामन पर<br />
अश्क कम पड़ गए हैं धोने को<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
2122--1212--22<br />
<br />
ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को<br />
हक़परस्ती है सिर्फ़ रोने को<br />
<br />
दिल को पत्थर बना लिया मैंने<br />
ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को<br />
<br />
दूर मंज़िल है वक़्त भी कम है<br />
कौन कहता है तुम को सोने को<br />
<br />
एक बस वो नहीं हुआ मेरा<br />
क्या नहीं होता वर्ना होने को<br />
<br />
किस लिये हैं इन आँखों में आँसू<br />
पास भी क्या था जब कि खोने को<br />
<br />
ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की<br />
क्या हुआ दिल के इस खिलौने को<br />
<br />
दाग़ कुछ ऐसे भी हैं दामन पर<br />
अश्क कम पड़ गए हैं धोने को<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल --- ख़ुदकुशी बार बार कौन करे // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2017-10-10:5170231:BlogPost:8878832017-10-10T00:03:59.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
2122---1212---112/22<br />
.<br />
ख़ुदकुशी बार बार कौन करे<br />
आप का इन्तिज़ार कौन करे<br />
.<br />
आइना टूटने से डरता है<br />
झूट को शर्मसार कौन करे<br />
.<br />
अपना मतलब निकालते हैं सब<br />
बे-ग़रज़ हमसे प्यार कौन करे<br />
.<br />
नाव टूटी है हौसला ग़ायब<br />
ग़म के दरिया को पार कौन करे<br />
.<br />
हम हक़ीक़त से मुँह चुराते हैं<br />
ख़्वाब को तार तार कौन करे<br />
.<br />
उस्तरा बन्दरों के हाथ में है<br />
इन को सर पर सवार कौन करे<br />
.<br />
( मौलिक व अप्रकाशित )
2122---1212---112/22<br />
.<br />
ख़ुदकुशी बार बार कौन करे<br />
आप का इन्तिज़ार कौन करे<br />
.<br />
आइना टूटने से डरता है<br />
झूट को शर्मसार कौन करे<br />
.<br />
अपना मतलब निकालते हैं सब<br />
बे-ग़रज़ हमसे प्यार कौन करे<br />
.<br />
नाव टूटी है हौसला ग़ायब<br />
ग़म के दरिया को पार कौन करे<br />
.<br />
हम हक़ीक़त से मुँह चुराते हैं<br />
ख़्वाब को तार तार कौन करे<br />
.<br />
उस्तरा बन्दरों के हाथ में है<br />
इन को सर पर सवार कौन करे<br />
.<br />
( मौलिक व अप्रकाशित )ग़ज़ल -- ग़लती कर पछताए कौन // दिनेश कुमारtag:openbooksonline.com,2017-10-09:5170231:BlogPost:8878272017-10-09T00:48:58.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
22__22__22__2<br />
.<br />
ग़लती कर पछताए कौन<br />
ख़ुद से नज़र मिलाए कौन<br />
.<br />
अपनी अना मिटाए कौन<br />
सच्ची अलख जगाए कौन<br />
.<br />
पिछले लेखे-जोखे हैं<br />
अपने कौन पराए कौन<br />
.<br />
राम भी कब से भूखे हैं<br />
झूठे बेर खिलाए कौन<br />
.<br />
कस्तूरी मिल जाएगी<br />
ख़ुद में गहरे जाए कौन<br />
.<br />
तूफ़ां नाम का तूफ़ां है<br />
लहरों से टकराए कौन<br />
.<br />
माज़ी माज़ी करें सभी<br />
मुस्तक़बिल चमकाए कौन<br />
.<br />
( मौलिक व अप्रकाशित )
22__22__22__2<br />
.<br />
ग़लती कर पछताए कौन<br />
ख़ुद से नज़र मिलाए कौन<br />
.<br />
अपनी अना मिटाए कौन<br />
सच्ची अलख जगाए कौन<br />
.<br />
पिछले लेखे-जोखे हैं<br />
अपने कौन पराए कौन<br />
.<br />
राम भी कब से भूखे हैं<br />
झूठे बेर खिलाए कौन<br />
.<br />
कस्तूरी मिल जाएगी<br />
ख़ुद में गहरे जाए कौन<br />
.<br />
तूफ़ां नाम का तूफ़ां है<br />
लहरों से टकराए कौन<br />
.<br />
माज़ी माज़ी करें सभी<br />
मुस्तक़बिल चमकाए कौन<br />
.<br />
( मौलिक व अप्रकाशित )ग़ज़ल -- लिखूं सच को सच ये हुनर शेष है ( दिनेश कुमार )tag:openbooksonline.com,2017-09-24:5170231:BlogPost:8836472017-09-24T01:27:20.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
122___122___122___12<br />
<br />
लिखूँ सच को सच, ये हुनर शेष है<br />
अभी रोशनाई में डर शेष है<br />
<br />
क़दम उठ रहे हैं इकट्ठे मगर<br />
दिलों के मिलन का सफ़र शेष है<br />
<br />
बुझाओ न तुम शम्अ उम्मीद की<br />
फ़क़त रात का इक पहर शेष है<br />
<br />
भले उनकी दस्तार है तार तार<br />
वो ख़ुश हैं कि काँधे पे सर शेष है<br />
<br />
चमन में लगी आग, लगती रहे<br />
मुझे क्या, अभी मेरा घर शेष है<br />
<br />
दशहरा मनाने का क्या फ़ाइदा<br />
बुराई का ख़ूँ में असर शेष है<br />
<br />
जो हातिम सा इमदाद सबकी करे<br />
जहाँ में कहाँ वो बशर शेष है<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
122___122___122___12<br />
<br />
लिखूँ सच को सच, ये हुनर शेष है<br />
अभी रोशनाई में डर शेष है<br />
<br />
क़दम उठ रहे हैं इकट्ठे मगर<br />
दिलों के मिलन का सफ़र शेष है<br />
<br />
बुझाओ न तुम शम्अ उम्मीद की<br />
फ़क़त रात का इक पहर शेष है<br />
<br />
भले उनकी दस्तार है तार तार<br />
वो ख़ुश हैं कि काँधे पे सर शेष है<br />
<br />
चमन में लगी आग, लगती रहे<br />
मुझे क्या, अभी मेरा घर शेष है<br />
<br />
दशहरा मनाने का क्या फ़ाइदा<br />
बुराई का ख़ूँ में असर शेष है<br />
<br />
जो हातिम सा इमदाद सबकी करे<br />
जहाँ में कहाँ वो बशर शेष है<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल -- ज़िन्दगी की ग़ज़ल हो रही है ( दिनेश कुमार )tag:openbooksonline.com,2017-08-04:5170231:BlogPost:8717082017-08-04T16:51:38.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
212___212___212___2<br />
<br />
बे-ख़ुदी के हसीं मरहले में<br />
चैन दिल को मिला मयकदे में<br />
<br />
हौसला जब मिटा हादसे में<br />
मुश्किलें बढ़ गईं रास्ते में<br />
<br />
हमसफ़र मेरा कोई नहीं था<br />
यूँ बहुत लोग थे क़ाफ़िले में<br />
<br />
इश्क़ में डूब जाओ तुम इतना<br />
क़ुर्ब महसूस हो फ़ासले में<br />
<br />
ग़ौर से मेरे चेहरे को पढ़िए<br />
है उदासी निहाँ क़हक़हे में<br />
<br />
बोल कर सच मैं तकलीफ़ में हूँ<br />
वो झूठा है देखो मज़े में<br />
<br />
ज़िन्दगी की ग़ज़ल हो रही है<br />
बँध रहे दर्दो-ग़म क़ाफ़िये में<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
212___212___212___2<br />
<br />
बे-ख़ुदी के हसीं मरहले में<br />
चैन दिल को मिला मयकदे में<br />
<br />
हौसला जब मिटा हादसे में<br />
मुश्किलें बढ़ गईं रास्ते में<br />
<br />
हमसफ़र मेरा कोई नहीं था<br />
यूँ बहुत लोग थे क़ाफ़िले में<br />
<br />
इश्क़ में डूब जाओ तुम इतना<br />
क़ुर्ब महसूस हो फ़ासले में<br />
<br />
ग़ौर से मेरे चेहरे को पढ़िए<br />
है उदासी निहाँ क़हक़हे में<br />
<br />
बोल कर सच मैं तकलीफ़ में हूँ<br />
वो झूठा है देखो मज़े में<br />
<br />
ज़िन्दगी की ग़ज़ल हो रही है<br />
बँध रहे दर्दो-ग़म क़ाफ़िये में<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल --- बचपन था कोई झौंका सबा का बहार का ( दिनेश कुमार )tag:openbooksonline.com,2017-06-30:5170231:BlogPost:8640972017-06-30T14:38:42.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
221____2121____1221____212<br />
<br />
बचपन था कोई झौंका सबा का बहार का<br />
लौट आए काश फिर वो ज़माना बहार का<br />
<br />
खिड़की में इक गुलाब महकता था सामने<br />
बरसों से बन्द है वो दरीचा बहार का<br />
<br />
ख़ुशबू सबा की, ताज़गी-ए-गुल, बला का हुस्न<br />
दिल के चमन को याद है चेहरा बहार का<br />
<br />
अर्सा गुज़र गया प लगे कल की बात हो<br />
उस बाग़े-हुस्न में मेरा दर्जा बहार का<br />
<br />
दौरे-ख़िज़ाँ में दिल के बहलने का है सबब<br />
आँखों में मेरी क़ैद नज़ारा बहार का<br />
<br />
कलियाँ को बाग़बाँ ही मसलता है जब कभी<br />
रोता है जार जार कलेजा बहार का<br />
<br />
मर्ज़ी पे गुलसिताँ की भला कब है…
221____2121____1221____212<br />
<br />
बचपन था कोई झौंका सबा का बहार का<br />
लौट आए काश फिर वो ज़माना बहार का<br />
<br />
खिड़की में इक गुलाब महकता था सामने<br />
बरसों से बन्द है वो दरीचा बहार का<br />
<br />
ख़ुशबू सबा की, ताज़गी-ए-गुल, बला का हुस्न<br />
दिल के चमन को याद है चेहरा बहार का<br />
<br />
अर्सा गुज़र गया प लगे कल की बात हो<br />
उस बाग़े-हुस्न में मेरा दर्जा बहार का<br />
<br />
दौरे-ख़िज़ाँ में दिल के बहलने का है सबब<br />
आँखों में मेरी क़ैद नज़ारा बहार का<br />
<br />
कलियाँ को बाग़बाँ ही मसलता है जब कभी<br />
रोता है जार जार कलेजा बहार का<br />
<br />
मर्ज़ी पे गुलसिताँ की भला कब है मुनहसिर<br />
आना बहार का या न आना बहार का<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल -- मैं आँखों में सपने बोना चाहता हूँtag:openbooksonline.com,2017-06-17:5170231:BlogPost:8621982017-06-17T08:04:13.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
22--22--22--22--22--2<br />
<br />
बच्चों के मन जैसा होना चाहता हूँ<br />
बे-फ़िक्री की नींदें सोना चाहता हूँ<br />
<br />
दुनिया के मेले में खो कर देख लिया<br />
अब मैं ख़ुद के भीतर खोना चाहता हूँ<br />
<br />
राग द्वेष ईर्ष्या लालच को त्याग के मैं<br />
रूह की मैली चादर धोना चाहता हूँ<br />
<br />
प्यार का सागर है तू मैं प्यासा सहरा<br />
अपनी हस्ती तुझ में डुबोना चाहता हूँ<br />
<br />
जीवन व्यर्थ गँवाया, दिल पर बोझ है ये<br />
ख़ुद से नज़र चुरा के रोना चाहता हूँ<br />
<br />
गीली मिट्टी है, शायद जड़ पकड़ भी लें<br />
मैं आँखों में सपने बोना चाहता हूँ<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित
22--22--22--22--22--2<br />
<br />
बच्चों के मन जैसा होना चाहता हूँ<br />
बे-फ़िक्री की नींदें सोना चाहता हूँ<br />
<br />
दुनिया के मेले में खो कर देख लिया<br />
अब मैं ख़ुद के भीतर खोना चाहता हूँ<br />
<br />
राग द्वेष ईर्ष्या लालच को त्याग के मैं<br />
रूह की मैली चादर धोना चाहता हूँ<br />
<br />
प्यार का सागर है तू मैं प्यासा सहरा<br />
अपनी हस्ती तुझ में डुबोना चाहता हूँ<br />
<br />
जीवन व्यर्थ गँवाया, दिल पर बोझ है ये<br />
ख़ुद से नज़र चुरा के रोना चाहता हूँ<br />
<br />
गीली मिट्टी है, शायद जड़ पकड़ भी लें<br />
मैं आँखों में सपने बोना चाहता हूँ<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल -- अच्छे कर्मों का दिनेश अच्छा नतीज़ा होगा ( दिनेश कुमार )tag:openbooksonline.com,2017-06-15:5170231:BlogPost:8623532017-06-15T18:25:56.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
2122____1122____1122____22<br />
<br />
सर पे साया जो बुज़ुर्गों की दुआ का होगा<br />
कामयाबी का सफ़र अपना सुहाना होगा<br />
<br />
उसकी रोटी से जो आती है पसीने की महक<br />
उसके घर ख़ुशबू-ए-बरकत का ख़ज़ाना होगा<br />
<br />
रोज़े-महशर तेरी दौलत नहीं काम आयेगी<br />
साथ बस तेरे सवाबों का पिटारा होगा<br />
<br />
झूट को झूट सरे-बज़्म कहा है जिसने<br />
देखना शर्तिया वो ज़हन से बच्चा होगा<br />
<br />
मैंने ता-उम्र यही सोच के काटी अपनी<br />
शब गुज़र जायेगी, क़िस्मत में सवेरा होगा<br />
<br />
आबला-पाई मेरी और सराबों का सफ़र<br />
बारहा प्यास कहे सामने दरया होगा<br />
<br />
मुझको दुनिया की हक़ीक़त ने फ़क़ीरी…
2122____1122____1122____22<br />
<br />
सर पे साया जो बुज़ुर्गों की दुआ का होगा<br />
कामयाबी का सफ़र अपना सुहाना होगा<br />
<br />
उसकी रोटी से जो आती है पसीने की महक<br />
उसके घर ख़ुशबू-ए-बरकत का ख़ज़ाना होगा<br />
<br />
रोज़े-महशर तेरी दौलत नहीं काम आयेगी<br />
साथ बस तेरे सवाबों का पिटारा होगा<br />
<br />
झूट को झूट सरे-बज़्म कहा है जिसने<br />
देखना शर्तिया वो ज़हन से बच्चा होगा<br />
<br />
मैंने ता-उम्र यही सोच के काटी अपनी<br />
शब गुज़र जायेगी, क़िस्मत में सवेरा होगा<br />
<br />
आबला-पाई मेरी और सराबों का सफ़र<br />
बारहा प्यास कहे सामने दरया होगा<br />
<br />
मुझको दुनिया की हक़ीक़त ने फ़क़ीरी बख़्शी<br />
अब न होंठों पे मेरे लफ़्ज़-ए-तमन्ना होगा<br />
<br />
शाम-ए-तन्हाई में दरवाज़ा-ए-दिल पर दस्तक !<br />
मयकशी के लिए माज़ी का बुलावा होगा<br />
<br />
तेरे आमाल पे निर्भर है तिरा मुस्तक़बिल<br />
अच्छे कर्मों का दिनेश अच्छा नतीज़ा होगा<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितग़ज़ल -- दुनिया से जो बशर गये, लौटे हैं क्या कभी ? ( दिनेश कुमार )tag:openbooksonline.com,2017-06-14:5170231:BlogPost:8624272017-06-14T22:58:04.000Zदिनेश कुमारhttp://openbooksonline.com/profile/0bbsmwu5qzvln
221 -------- 2121 -------- 1221 - - - - 212<br />
<br />
मानिंद-ए-शम्अ बज़्म में आ कर ग़ज़ल कहें<br />
आलम है तीरगी का, मिटा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
रस्ते के सब पड़ाव क़वाफ़ी की शक़्ल हों<br />
और लक्ष्य को रदीफ़ बना कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
मफ़हूम क्या हो, चर्ख़े-तख़य्युल का चाँद हो<br />
महफ़िल को हुस्ने-ख़्वाब दिखा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
गुलकन्द की मिठास, तग़ज़्ज़ुल, जदीदियत<br />
हर शेर में ये ख़ूबियाँ ला कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
होंठों पे सामयीन के आ जाए मरहबा<br />
अल्फ़ाज़ उँगलियों पे नचा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
जिस बज़्म में न पीने-पिलाने का दौर हो<br />
हम जैसे रिन्द क्या वहाँ…
221 -------- 2121 -------- 1221 - - - - 212<br />
<br />
मानिंद-ए-शम्अ बज़्म में आ कर ग़ज़ल कहें<br />
आलम है तीरगी का, मिटा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
रस्ते के सब पड़ाव क़वाफ़ी की शक़्ल हों<br />
और लक्ष्य को रदीफ़ बना कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
मफ़हूम क्या हो, चर्ख़े-तख़य्युल का चाँद हो<br />
महफ़िल को हुस्ने-ख़्वाब दिखा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
गुलकन्द की मिठास, तग़ज़्ज़ुल, जदीदियत<br />
हर शेर में ये ख़ूबियाँ ला कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
होंठों पे सामयीन के आ जाए मरहबा<br />
अल्फ़ाज़ उँगलियों पे नचा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
जिस बज़्म में न पीने-पिलाने का दौर हो<br />
हम जैसे रिन्द क्या वहाँ जा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
दुनिया से जो बशर गये, लौटे हैं क्या कभी ?<br />
याद उनकी अपने दिल में बसा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
तब आएगा यक़ीं कि ग़ज़लगो हैं आप भी<br />
दिल के तमाम ज़ख़्म छुपा कर ग़ज़ल कहें<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशित