Dr Ashutosh Mishra's Posts - Open Books Online2024-03-28T19:52:13ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishrahttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991293981?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=111r45vlokizk&xn_auth=noकोरोना का तांडवtag:openbooksonline.com,2020-03-26:5170231:BlogPost:10026602020-03-26T14:24:43.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>पंख कटे पंछी हुए ,सीमित हुयी उड़ान<br></br>सर पे अम्बर था जहाँ, छत है गगन समान</p>
<p></p>
<p>सारी दुनिया सिमट कर कमरे में है कैद<br></br>घर के बाहर है पुलिस, खड़ी हुई मुश्तैद</p>
<p></p>
<p>जिनकी शादी ना हुयी , उनकी मानो खैर<br></br>और हुयी जिनकी न लें, घर वाली से बैर</p>
<p></p>
<p>घर के कामो में लगें, हर विपदा लें टाल<br></br>साँप छुछूंदर गति न हो, करफ्यू या भूचाल</p>
<p></p>
<p>भागवान से लड़ नहीं, बात ये मेरी मान<br></br>भागवान के केस में, चुप रहते भगवान</p>
<p></p>
<p>प्रथम दिवस आखिर कटा, साँसों में थे…</p>
<p>पंख कटे पंछी हुए ,सीमित हुयी उड़ान<br/>सर पे अम्बर था जहाँ, छत है गगन समान</p>
<p></p>
<p>सारी दुनिया सिमट कर कमरे में है कैद<br/>घर के बाहर है पुलिस, खड़ी हुई मुश्तैद</p>
<p></p>
<p>जिनकी शादी ना हुयी , उनकी मानो खैर<br/>और हुयी जिनकी न लें, घर वाली से बैर</p>
<p></p>
<p>घर के कामो में लगें, हर विपदा लें टाल<br/>साँप छुछूंदर गति न हो, करफ्यू या भूचाल</p>
<p></p>
<p>भागवान से लड़ नहीं, बात ये मेरी मान<br/>भागवान के केस में, चुप रहते भगवान</p>
<p></p>
<p>प्रथम दिवस आखिर कटा, साँसों में थे प्रान<br/>मगर रात धरती लगी, जैसे हो श्मशान</p>
<p></p>
<p></p>
<p>लक्ष्मण रेखा खिंच गयी,घर में रखना पाँव<br/>आस्तीन के सांप सा, कोरोना का दाँव</p>
<p></p>
<p>राशन लेने जब गये, मन मन ही घबराय<br/>ना जाने किस भेष में, कोरोना मिल जाय</p>
<p></p>
<p>अस्ल गधे तो छिप गए, नकली करें धमाल<br/>चौराहे पर अब जिन्हें, पुलिश कर रही लाल</p>
<p></p>
<p>हाथ जोड़ सेवक करे, सबसे ही फरियाद<br/>लेकिन सारी योजना , चंद करें बरबाद</p>
<p></p>
<p>हँसी ठिठोली हो चुकी,सुनो काम की बात<br/>उल्टी गिनती है शुरू, चूके समझो मात</p>
<p></p>
<p>हिन्दू मुस्लिम सोच है, सत्य महज इंसान<br/>कोरोना ये ज्ञान दे, हर के सबके प्रान</p>
<p></p>
<p>खड़े दूर थे पंक्ति में, हिन्द वतन के लोग<br/>अनुशासन का पाठ भी सिखा रहा ये रोग</p>
<p></p>
<p>"आशू" हल्के में न ले, बिपदा ये गंभीर<br/>छूट गया जो चाप से, कब लौटा वो तीर</p>
<p></p>
<p>मौलिक व् अप्रकाशित</p>कोरोना का क्या रोनाtag:openbooksonline.com,2020-03-24:5170231:BlogPost:10024062020-03-24T20:13:24.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p></p>
<div dir="ltr"><span>जितना हो सकता हो दूरियां बनाइये<br></br>मुख से न कहके नयन से जताइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br></br>घबराइये न दिल को दिलासा दिलाइये<br></br>विपदा की घड़ी में भी बस मुस्कुराइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br></br>जीभर के बात अपनी सबको सुनाइये<br></br>बस थोड़ा और अपने मुँह को घुमाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br></br>घर जो आये हाथ सोप से धुलाइये<br></br>पी के नींबू नींद भी गहरी लगाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br></br>बस प्राणायाम योग ध्यान आजमाइये<br></br>प्रतिरोध…</span></div>
<p></p>
<div dir="ltr"><span>जितना हो सकता हो दूरियां बनाइये<br/>मुख से न कहके नयन से जताइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>घबराइये न दिल को दिलासा दिलाइये<br/>विपदा की घड़ी में भी बस मुस्कुराइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>जीभर के बात अपनी सबको सुनाइये<br/>बस थोड़ा और अपने मुँह को घुमाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>घर जो आये हाथ सोप से धुलाइये<br/>पी के नींबू नींद भी गहरी लगाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>बस प्राणायाम योग ध्यान आजमाइये<br/>प्रतिरोध की जो क्षमता उसको बढाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>जो होलिका है भीतर उसको जलाइये<br/>गुटके की पीक यूँ न हवा में उड़ाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>हो घूमने का मन तो जरा भांग खाइये<br/>तन हो न टस से मस दिमाग को घुमाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>वो मौज मस्ती सैर सपाटा भुलाइये<br/>बाहर के खाने को न हाथ भी लगाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>सामान हाट से न थोक में मंगायिये<br/>गोदाम भूलकर भी न घर को बनाइये</span></div>
<div dir="ltr"><span><br/>बातों में बस विरोध के सुर न उठाइये<br/>अपने सिपाहियों का मनोबल बढाइये</span></div>
<div dir="ltr"></div>
<div dir="ltr"><span>मौलिक व अप्रकाशित ओ बी 126</span></div>नन्ही सी चीटी हाथी कि ले सकती जान हैtag:openbooksonline.com,2020-03-19:5170231:BlogPost:10023552020-03-19T07:00:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>नन्ही सी चीटी हाथी की ले सकती जान है<br></br> कोरोना ने कराया हमें इसका भान है।</p>
<p></p>
<p>हाथों को जोड़ कहता सफाई की बात वो<br></br> पर तुमको गंदगी में दिखी अपनी शान है।</p>
<p></p>
<p>बातें अगर गलत हों तो वाजिव विरोध है<br></br> सच का भी जो विरोध करे बदजुबान है।</p>
<p></p>
<p>नक़्शे कदम पे तेरे क्यूँ सारा जहाँ चले<br></br> बातों में बस तुम्हारी ही क्या गीता ज्ञान है</p>
<p></p>
<p>कोरोना की ही शक्ल में नफरत है चीन की<br></br> जिसके लिए जमीन ही सारी जहान है</p>
<p></p>
<p>मालिक के दर पे सज्दा वजू करके ही…</p>
<p>नन्ही सी चीटी हाथी की ले सकती जान है<br/> कोरोना ने कराया हमें इसका भान है।</p>
<p></p>
<p>हाथों को जोड़ कहता सफाई की बात वो<br/> पर तुमको गंदगी में दिखी अपनी शान है।</p>
<p></p>
<p>बातें अगर गलत हों तो वाजिव विरोध है<br/> सच का भी जो विरोध करे बदजुबान है।</p>
<p></p>
<p>नक़्शे कदम पे तेरे क्यूँ सारा जहाँ चले<br/> बातों में बस तुम्हारी ही क्या गीता ज्ञान है</p>
<p></p>
<p>कोरोना की ही शक्ल में नफरत है चीन की<br/> जिसके लिए जमीन ही सारी जहान है</p>
<p></p>
<p>मालिक के दर पे सज्दा वजू करके ही करूं<br/> संदेश कितना दिलकश देती कुरआन है</p>
<p></p>
<p>मालिक के दर पे आशू चलो मांग लें दुआ<br/> जल्दी चलो हरम में शुरू फिर अजान है</p>
<p></p>
<p>मौलिक व् अप्रकाशित</p>फूलीं में रस था भवरों की चाहत बनी रहीtag:openbooksonline.com,2020-01-28:5170231:BlogPost:10001632020-01-28T06:30:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही<br></br>फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही</p>
<p></p>
<p>वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते<br></br>उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही</p>
<p></p>
<p>उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके<br></br>बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही</p>
<p></p>
<p>कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो<br></br>उसकी हथेली खून से यारों सनी रही</p>
<p></p>
<p>दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख<br></br>ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही</p>
<p></p>
<p>'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा<br></br>सब छूटा कुछ बचा…</p>
<p>जब तक भरे थे जाम तो महफ़िल सजी रही<br/>फूलों में रस था भँवरों की चाहत बनी रही</p>
<p></p>
<p>वो सूखा फूल फेंकते तो कैसे फेंकते<br/>उसमे किसी की याद की खुशबू बसी रही</p>
<p></p>
<p>उस कोयले की खान में कपड़ें न बच सके<br/>बस था सुकून इतना ही इज्जत बची रही</p>
<p></p>
<p>कुर्सी पे बैठ अम्न की करता था बात जो<br/>उसकी हथेली खून से यारों सनी रही</p>
<p></p>
<p>दौलत बटोर जितनी भी लेकिन ये याद रख<br/>ये बेबफा न साथ किसी के कभी रही</p>
<p></p>
<p>'आशू' फ़कीर बन तू फकीरीं में है मजा<br/>सब छूटा कुछ बचा तो वो नेकी बदी रही</p>
<p></p>
<p>मौलिक व् अप्रकाशित</p>इजाजत हो तुम्हारी तो चिरागों को बुझा लूँ मैंtag:openbooksonline.com,2019-02-09:5170231:BlogPost:9730812019-02-09T05:50:51.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>नजर अपनी उठा लो तो गिले शिकवे भुला लूँ मैं<br></br>मुझे बस एक पल दे दो है क्या दिल में बता लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>निगाहें तो मिला लेता मगर ये खौफ है दिल में<br></br>कही ऐसा न हो दिल का चमन खुद ही जला लूँ मैं</p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>कभी तो मेरी गलियों से मेरा वो यार गुजरेगा<br></br>मेरा भी फ़र्ज़ बनता है गुलों से रह सजा लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>तुम्हारे पग जहाँ पड़ते वहीं पर फूल खिल जाते<br></br>है हसरत दिल के सहारा में हसीं गुल इक ऊगा लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>अगर ओंठों से निकली शै तो हंगामा…</p>
</div>
<p>नजर अपनी उठा लो तो गिले शिकवे भुला लूँ मैं<br/>मुझे बस एक पल दे दो है क्या दिल में बता लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>निगाहें तो मिला लेता मगर ये खौफ है दिल में<br/>कही ऐसा न हो दिल का चमन खुद ही जला लूँ मैं</p>
<p></p>
<div class="text_exposed_show"><p>कभी तो मेरी गलियों से मेरा वो यार गुजरेगा<br/>मेरा भी फ़र्ज़ बनता है गुलों से रह सजा लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>तुम्हारे पग जहाँ पड़ते वहीं पर फूल खिल जाते<br/>है हसरत दिल के सहारा में हसीं गुल इक ऊगा लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>अगर ओंठों से निकली शै तो हंगामा खड़ा होगा<br/>उन्हें बस हो खबर हर राज आँखों से जता लूँ मैं</p>
<p></p>
<p>तुम्हारे मरमरी तन से निकलता नूर ही काफी<br/>इजाजत हो तुम्हारी तो चिरागों को बुझा लूँ मैं </p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
</div>रिश्तों में दूरीtag:openbooksonline.com,2018-09-29:5170231:BlogPost:9510422018-09-29T05:25:30.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p><u>रिश्तों में दूरी </u></p>
<p></p>
<p>जब से मैंने अपने दोस्त को</p>
<p></p>
<p>सूरज के बड़े होकर भी छोटे लगने में</p>
<p></p>
<p>धरती से उसकी दूरी की भूमिका समझाई है</p>
<p></p>
<p>बड़ा दिखने के लिए कद बढाने की जगह</p>
<p></p>
<p>दोस्त मुझसे लगातार दूरियां बढ़ा रहा है</p>
<p></p>
<p>ताकि मैं मान लूं वो बृहत् आकार पा रहा है</p>
<p></p>
<p>पर दूरी के कारन छोटा नजर आ रहा है </p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p><u>रिश्तों में दूरी </u></p>
<p></p>
<p>जब से मैंने अपने दोस्त को</p>
<p></p>
<p>सूरज के बड़े होकर भी छोटे लगने में</p>
<p></p>
<p>धरती से उसकी दूरी की भूमिका समझाई है</p>
<p></p>
<p>बड़ा दिखने के लिए कद बढाने की जगह</p>
<p></p>
<p>दोस्त मुझसे लगातार दूरियां बढ़ा रहा है</p>
<p></p>
<p>ताकि मैं मान लूं वो बृहत् आकार पा रहा है</p>
<p></p>
<p>पर दूरी के कारन छोटा नजर आ रहा है </p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>सौदागरtag:openbooksonline.com,2018-09-19:5170231:BlogPost:9491542018-09-19T08:24:53.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p><u>सौदागर</u></p>
<p>” प्रोफेसर सैन और प्रोफेसर देशपांडे सरकारी मुलाजिम हैं, तनख्वाह भी एकै जैसी मिलत है लेकिन ई दुइनो जब से निरीक्षक भइ गए हैं तब से प्रोफेसर सैन तो बड़ी बड़ी लग्जरी गाड़ियों में दौरा करत है और बड़े आलीशान होटलों में बसेरा करत हैं लेकिन ..लेकिन बेचारे देशपांडे कभी धर्मशाला में ठहरत हैं तो कभी सरकारी गेस्ट हाउसन में ...कभी ऑटो से चलत हैं तो कभी बस में ....जब सब सुख सुबिधा बरोबर है तब ई फरक काहे है ई बात तनिक हमरी समझ में नाहीं आवत है “ राहुल ने अपने मित्र सुजीत से बडी…</p>
<p><u>सौदागर</u></p>
<p>” प्रोफेसर सैन और प्रोफेसर देशपांडे सरकारी मुलाजिम हैं, तनख्वाह भी एकै जैसी मिलत है लेकिन ई दुइनो जब से निरीक्षक भइ गए हैं तब से प्रोफेसर सैन तो बड़ी बड़ी लग्जरी गाड़ियों में दौरा करत है और बड़े आलीशान होटलों में बसेरा करत हैं लेकिन ..लेकिन बेचारे देशपांडे कभी धर्मशाला में ठहरत हैं तो कभी सरकारी गेस्ट हाउसन में ...कभी ऑटो से चलत हैं तो कभी बस में ....जब सब सुख सुबिधा बरोबर है तब ई फरक काहे है ई बात तनिक हमरी समझ में नाहीं आवत है “ राहुल ने अपने मित्र सुजीत से बडी जिज्ञासा के साथ पूंछा</p>
<p></p>
<p>“ अरे ! ईमें कौन बात है , प्रोफेसर सैन के बाप दादा ने खूब पैसा कमाया होगा और उसी के दम पर वो शाही जिन्दगी जिया करत हैं “</p>
<p></p>
<p>“ अरे ! काहे का बाप दादा का पैसा , हम ई प्रोफेसर साहिब के बाप का भी इतिहास जानत हैं और बाबा का भी ...एक छोटी सी राशन की दुकान की दम पर दुई वक़्त की रोटी बड़ी मुश्किल से नसीब होती थी “</p>
<p></p>
<p>“ अरे ! तो हो सकता है सैन साहिब सौदागर हों “</p>
<p></p>
<p>“सौदागर, कईसन सौदागर ....बिन दूकान , बिन सौदा के ई कैसे सौदागर हुयी सकत है “ झुंझलाते हुए राहुल ने सुजीत से सवाल किया</p>
<p>“ अरे !सौदागर बने के खातिर ई कौन जरूरी है कि सौदा भी हो और दुकान भी – अरे सौदा जमीर का भी तो हुए सकत है “ सुजीत ने गंभीर होते हुए कहा</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>मेरी आँखों में कभी अक्स ये अपना देखोtag:openbooksonline.com,2018-05-27:5170231:BlogPost:9317592018-05-27T12:00:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p style="text-align: left;">मेरी आँखों में कभी अक्स ये अपना देखो<br></br> इस बहाने ही सही प्यार का सहरा देखो<br></br> बेखबर गुल के लवों को छुआ ज्यों भँवरे ने<br></br> ले के अंगड़ाई कहा गुल ने ये पहरा देखो<br></br> वो नजाकत से मिले फिर उतर गये दिल में<br></br> अब कहे दिल की सदा हुस्न का जलवा देखो<br></br> मौला पंडित की लकीरों पे यहाँ सब चलते<br></br> तुम लकीरों से हटे हो तो ये फतवा देखो<br></br> वो भिखारी का भेष धरके बनेगा मालिक<br></br> अब सियासत में यूं ही रोज तमाशा देखो<br></br> साइकिल हाथ के हाथी के हैं जलवे देखे<br></br> अब कमल खिलने…</p>
<p style="text-align: left;">मेरी आँखों में कभी अक्स ये अपना देखो<br/> इस बहाने ही सही प्यार का सहरा देखो<br/> बेखबर गुल के लवों को छुआ ज्यों भँवरे ने<br/> ले के अंगड़ाई कहा गुल ने ये पहरा देखो<br/> वो नजाकत से मिले फिर उतर गये दिल में<br/> अब कहे दिल की सदा हुस्न का जलवा देखो<br/> मौला पंडित की लकीरों पे यहाँ सब चलते<br/> तुम लकीरों से हटे हो तो ये फतवा देखो<br/> वो भिखारी का भेष धरके बनेगा मालिक<br/> अब सियासत में यूं ही रोज तमाशा देखो<br/> साइकिल हाथ के हाथी के हैं जलवे देखे<br/> अब कमल खिलने लगा चारसू भगवा देखो<br/> ख्वाब टूटे हैं तो मतलब नहीं इसका हरगिज<br/> ख्वाब जीवन में नहीं कोई सुनहरा देखो<br/> एक जीवन है मिला उसको न जाया करना<br/> हो मयस्सर तो कभी घूम के दुनिया देखो<br/> तुमने पत्थर ही समझ मार दी जिसको ठोकर<br/> हुस्न उस हीरे को सीने से लगाता देखो</p>
<p style="text-align: left;">मौलिक व अप्रकाशित</p>यहाँ जिंदा की है खबर नहीं यहाँ फोटो पे ही वबाल हैtag:openbooksonline.com,2018-05-04:5170231:BlogPost:9279782018-05-04T12:30:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p></p>
<p>11212 11212 11212 11212 </p>
<p>यहाँ जिंदा की है खबर नहीं यहाँ फोटो पे ही वबाल है</p>
<p>जो टंगी कहीं थी जमाने से खड़ा अब उसी पे सवाल है</p>
<p> </p>
<p>कई जानवर रहे घूमते बिना फिक्र के बिना खौफ के</p>
<p>हुए क़त्ल जब कोई समझा था बड़े काम वाली ये खाल है</p>
<p> </p>
<p>कई हुक्मरान हुए यहाँ सभी आँखे बंद किये रहे</p>
<p>कोई खोल बैठा जो आँख है सभी कह उठे ये तो चाल है</p>
<p> </p>
<p>ये सियासतों का समुद्र है यहाँ मछलियों सी हैं कुर्सियां</p>
<p>सभी हुक्मरान सधी नजर सभी ने बिछाया जाल…</p>
<p></p>
<p>11212 11212 11212 11212 </p>
<p>यहाँ जिंदा की है खबर नहीं यहाँ फोटो पे ही वबाल है</p>
<p>जो टंगी कहीं थी जमाने से खड़ा अब उसी पे सवाल है</p>
<p> </p>
<p>कई जानवर रहे घूमते बिना फिक्र के बिना खौफ के</p>
<p>हुए क़त्ल जब कोई समझा था बड़े काम वाली ये खाल है</p>
<p> </p>
<p>कई हुक्मरान हुए यहाँ सभी आँखे बंद किये रहे</p>
<p>कोई खोल बैठा जो आँख है सभी कह उठे ये तो चाल है</p>
<p> </p>
<p>ये सियासतों का समुद्र है यहाँ मछलियों सी हैं कुर्सियां</p>
<p>सभी हुक्मरान सधी नजर सभी ने बिछाया जाल है</p>
<p> </p>
<p>कहीं थे लहू-लुहां जिस्म ही कहीं घर जले कहीं तन मगर</p>
<p>रहे नेता अपनी ही घात में सभी ने कहा क्या हाल है</p>
<p> </p>
<p>थे लहू से ही सने जिनके कर वो सफ़ेद पोश हैं हुक्मरान</p>
<p>नहीं खौफ है किसी का इन्हें रखी सबने उम्दा सी ढाल है</p>
<p>मौलिक व प्रकाशित</p>
<p> </p>आप वादे बड़े खूब करते रहेtag:openbooksonline.com,2018-05-02:5170231:BlogPost:9277872018-05-02T09:00:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>२१२ २१२ २१२ २१२</p>
<p>हम तो बस आपकी राह चलते रहे</p>
<p>ये ख़बर ही न थी आप छलते रहे</p>
<p></p>
<p>बादलों से निकल चाँद ने ये कहा</p>
<p>भीड़ में तारों की हम तो जलते रहे</p>
<p></p>
<p>हिम पिघलती हिमालय पे ज्यों धूप में</p>
<p>यूँ हसीं प्यार पाकर पिघलते रहे</p>
<p></p>
<p>चांदनी भाती , आशिक हूँ मैं चाँद का </p>
<p>सच कहूं तो दिए मुझको खलते रहे</p>
<p></p>
<p>जुल्फ की छांव में उनके जानो पे सर</p>
<p>याद करके वो मंजर मचलते रहे</p>
<p></p>
<p>एक दूजे को हम ऐसे देखा किये</p>
<p>अश्क आँखों से…</p>
<p>२१२ २१२ २१२ २१२</p>
<p>हम तो बस आपकी राह चलते रहे</p>
<p>ये ख़बर ही न थी आप छलते रहे</p>
<p></p>
<p>बादलों से निकल चाँद ने ये कहा</p>
<p>भीड़ में तारों की हम तो जलते रहे</p>
<p></p>
<p>हिम पिघलती हिमालय पे ज्यों धूप में</p>
<p>यूँ हसीं प्यार पाकर पिघलते रहे</p>
<p></p>
<p>चांदनी भाती , आशिक हूँ मैं चाँद का </p>
<p>सच कहूं तो दिए मुझको खलते रहे</p>
<p></p>
<p>जुल्फ की छांव में उनके जानो पे सर</p>
<p>याद करके वो मंजर मचलते रहे</p>
<p></p>
<p>एक दूजे को हम ऐसे देखा किये</p>
<p>अश्क आँखों से रुख पर फिसलते रहे</p>
<p></p>
<p>जिस तरह आसमां से है सूरज ढले </p>
<p>हुस्न भी हुस्न वालों के ढलते रहे </p>
<p></p>
<p>हमसफ़र है हसीं इसलिए दोस्तों</p>
<p>पाँव में छाले पर आशू चलते रहे</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>बदला परिवेशtag:openbooksonline.com,2017-11-26:5170231:BlogPost:8989782017-11-26T09:00:48.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>ब</p>
<p align="center"></p>
<p>“सर, दरवाजा खोलिए” प्रोफेसर राघव की शोध छात्रा नूर ने दरवाजे पर दस्तक देते हुए आवाज दी</p>
<p>“अरे! नूर तुम, दोपहर में अचानक, कैसे?” दरवाजा खोलते हुए प्रोफेसर राघव ने आने की वजह जाननी चाही</p>
<p>“ हाँ सर, एक रिसर्च पेपर में करेक्शन के लिए आई थी”</p>
<p>“ पर अभी तो मैडम घर पर नहीं हैं,और बाज़ार से कब तक लौटें इसका भी अंदाज नहीं है,आखिर तुम कब तक इस धूप में बाहर इंतज़ार करोगी” प्रोफेसर राघव् ने त्वरित जवाब दिया</p>
<p>“ बाहर क्यों सर ?” नूर ने कौतूहल से…</p>
<p>ब</p>
<p align="center"></p>
<p>“सर, दरवाजा खोलिए” प्रोफेसर राघव की शोध छात्रा नूर ने दरवाजे पर दस्तक देते हुए आवाज दी</p>
<p>“अरे! नूर तुम, दोपहर में अचानक, कैसे?” दरवाजा खोलते हुए प्रोफेसर राघव ने आने की वजह जाननी चाही</p>
<p>“ हाँ सर, एक रिसर्च पेपर में करेक्शन के लिए आई थी”</p>
<p>“ पर अभी तो मैडम घर पर नहीं हैं,और बाज़ार से कब तक लौटें इसका भी अंदाज नहीं है,आखिर तुम कब तक इस धूप में बाहर इंतज़ार करोगी” प्रोफेसर राघव् ने त्वरित जवाब दिया</p>
<p>“ बाहर क्यों सर ?” नूर ने कौतूहल से पूंछा</p>
<p>‘’ बस कुछ विबशता है “</p>
<p>“ कैसी विबशता सर “ चौंकते हुए अंदाज में नूर ने पूंछा</p>
<p>“ बात सिर्फ इतनी है नूर कि कुछ हैवानो की हैवानियत ने ऐसे प्रश्नचिन्ह खड़े कर दिए हैं कि स्त्री पुरुष प्रजाति का तन्हाई में एक साथ होना,चंद रिश्तों को छोड़कर, समाज को अनैतिक ही लगता है”</p>
<p>“ लेकिन सर मैं तो आपकी बेटी जैसी हूँ “</p>
<p>“ हाँ! मैं जानता हूँ लेकिन अब हालात ऐसे हो गए हैं कि इसमें उम्र के फासले और बालों की सफेदी भी अपने अर्थ खो चुकी है .....और ..और हम जैसे साधारण लोग अपनी पवित्रता को सिद्ध करने के लिए सीता जैसी अग्नि परीक्षा भी तो नहीं दे सकते हैं “ गंभीर मुद्रा में प्रोफेसर राघव नूर को समझा रहे थे</p>
<p>“ मैं सब समझ गयी सर” दरवाज़े से अपने कदम पीछे हटाते हुए नूर ने कहा</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>जनाजाtag:openbooksonline.com,2017-11-13:5170231:BlogPost:8966752017-11-13T06:11:42.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
“क्या पढ़ रही हो बेटा, लैपटॉप पर इस कदर आखें गडाये?”-साहित्यकार मनमोहन ने अपनी बेटी रूपा से सवाल किया<br />
“कुछ नहीं पापा, साहित्य सेवा मंच पर प्रकाशित रुपेश जी की कहानी पढ़ रही हूँ, लेकिन पापा इस शानदार रचना पर किसी की कोई भी प्रतिक्रिया नहीं है” रूपा ने जवाब देते हुए प्रश्न किया<br />
“शानदार रचना! नहीं बेटा बड़ी कमियाँ हैं इसके लेखन में“<br />
“कमियाँ हैं! कमियां हैं तब तो आपको निश्चित रूप से मंच से जुड़े हर सदस्य को इस पर प्रतिक्रिया करनी चाहिए थी”<br />
“ हाँ, बेटा तुम सही कह रही हो, लेकिन ये महाशय सिर्फ अपनी रचना…
“क्या पढ़ रही हो बेटा, लैपटॉप पर इस कदर आखें गडाये?”-साहित्यकार मनमोहन ने अपनी बेटी रूपा से सवाल किया<br />
“कुछ नहीं पापा, साहित्य सेवा मंच पर प्रकाशित रुपेश जी की कहानी पढ़ रही हूँ, लेकिन पापा इस शानदार रचना पर किसी की कोई भी प्रतिक्रिया नहीं है” रूपा ने जवाब देते हुए प्रश्न किया<br />
“शानदार रचना! नहीं बेटा बड़ी कमियाँ हैं इसके लेखन में“<br />
“कमियाँ हैं! कमियां हैं तब तो आपको निश्चित रूप से मंच से जुड़े हर सदस्य को इस पर प्रतिक्रिया करनी चाहिए थी”<br />
“ हाँ, बेटा तुम सही कह रही हो, लेकिन ये महाशय सिर्फ अपनी रचना पोस्ट तो करना जानते हैं लेकिन किसी की भी रचना पर दो शब्द लिखना इन्हें गंवारा नहीं है इसलिए कोई इनकी रचनाओं पर भी नहीं लिखता”<br />
“लेकिन पापा इससे तो मंच के पाठकों और साहित्य में पदार्पण करने वाले नव अभ्यासी मार्गदर्शन से महरूम रह जायेंगे” रूपा ने गंभीरता के साथ अपने पिता से कहा<br />
“ नहीं बेटा! ऐसा नहीं है, मैंने और कई रचनाकारों ने इनकी रचना पर प्रतिक्रिया स्वरुप कुछ कमियों को इंगित किया था तो इनके जवाब में रोष परिलक्षित हो रहा था और फिर इन्होने मेरी रचनाओं की बखिया उधेड़ना शुरू कर दिया” अपनी कृत्यों को स्पष्ट करने की चेष्टा करते हुए मनमोहन ने कहा<br />
“मतलब पापा, आप ये मानते हैं कि आपकी रचनाओं में कोई कमी नहीं है और प्रतिक्रियाओं में मिलने वाली वाह वाह आपकी रचना की पूर्णता को सिद्ध कर रही हैं ....या फिर एक दूसरे की रचनाओं पर तारीफ करके आप लोग एक दूसरे को साहित्य में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं”- रूपा ने बिश्लेश्नात्मक तरीके से अपनी बात रखते हुए कहा<br />
“नहीं बेटा तुम गलत कयास लगा रही हो, ऐसा कुछ भी नहीं है” गंभीर चिनतन्मयी मुद्रा में बेटी की तरफ देखते हुए मनमोहन ने कहा<br />
“अच्छा पापा, एक बात बताईये, क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि इस वाहवाही से रचना अपना सुंदरतम स्वरुप प्राप्त करने से बंचित रह जाती है? ......क्या आपको नहीं लगता है कि परीर् को मिलने वाले वाले अंक परीक्षक की भी योग्यता पर निर्भर करते हैं.?” प्रश्न पर प्रश्न करते हुए रूपा ने कहा<br />
“सहमत हूँ, तुम्हारी हर बात से सहमत हूँ” रूपा के चेहरे की तरफ खुशी और लाचारी के मिले जुले भावों से देखते हुए मनमोहन ने कहा<br />
“मतलब, मुझे सब समझ में आ गया ...साहित्यकार कहलाने की चाह लिए आप सब यूं ही लिखते रहेंगे साहित्य का जनाजा निकलता है तो निकलता रहे” लैपटॉप को शट डाउन करके कमरे से बाहर निकलते हुए रूपा ने कहा<br />
<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितडूबता जहाजtag:openbooksonline.com,2017-10-20:5170231:BlogPost:8906542017-10-20T05:51:14.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
"सारा शहर दिवाली के जश्न में डूबा है और तुम किस सोच में डूबे हो" दिवाली की पूजा ख़त्म होने के बाद राहुल से मुलाकात करने गए उसके मित्र रोहित ने उसकी ओर मुखातिब होते हुए पूंछा।<br />
" कुछ नहीं! दिवाली मनाते हुए तो सालों गुजर गए पर आज न जाने क्यों दिवाली मुझे मेरी पहली मुहब्बत सी लगी"<br />
"वो कैसे"<br />
" अरे!पहली बार मुहब्बत में आँखों को जो कुछ भी भाया था उसके खतरे को भी नाक ने सूँघा था और फिर सारा दर्द दिल को ही हुआ था। और आज आतिशबाजी देखकर नाक खतरे से आगाह कर रही है पर सारा दर्द सारी तकलीफ दिल को ही झेलनी…
"सारा शहर दिवाली के जश्न में डूबा है और तुम किस सोच में डूबे हो" दिवाली की पूजा ख़त्म होने के बाद राहुल से मुलाकात करने गए उसके मित्र रोहित ने उसकी ओर मुखातिब होते हुए पूंछा।<br />
" कुछ नहीं! दिवाली मनाते हुए तो सालों गुजर गए पर आज न जाने क्यों दिवाली मुझे मेरी पहली मुहब्बत सी लगी"<br />
"वो कैसे"<br />
" अरे!पहली बार मुहब्बत में आँखों को जो कुछ भी भाया था उसके खतरे को भी नाक ने सूँघा था और फिर सारा दर्द दिल को ही हुआ था। और आज आतिशबाजी देखकर नाक खतरे से आगाह कर रही है पर सारा दर्द सारी तकलीफ दिल को ही झेलनी है।" रोहित के कैसे का जवाब देते हुए राहुल ने कहा।<br />
"यह तो वाकई चिंता का सबब है राहुल"<br />
" बिल्कुल है, और जब मैं भागना चाह रहा हूँ तो ऐसा लग रहा है जैसे हवाएँ एक पुरानी फ़िल्म का गीत ....वादियां मेरा दामन रास्ते मेरी बांहे जाओ मेरे सिवा तुम कहाँ जाओगे ...मेरे साथ ठिठोली करके गा रही हो और मैं खुद को टाइटेनिक फ़िल्म में डूबते टाइटेनिक की डूब चुकी मंजिल से ऊपर की मंजिल की तरफ भागता हुआ महसूस कर रहा हूँ।"<br />
रोहित को अपने बिचारो से सहमत होता देख राहुल नेअपनी बात आगे बढ़ाते हुए कहा<br />
" लेकिन राहुल अब क्या होगा.....इससे कैसे बचा जाए" रोहित की चिंता बढ़ रही थी।<br />
" बचा जाये! नहीं रोहित अब टाइटेनिक फ़िल्म का वो दृश्य ध्यान में लाओ जिसमे डूबते जहाज की ऊपर की मंजिल पर बैठ कोई शख्स जहाज के डूबने से बेपरवाह वॉयलिन बजाने में व्यस्त था। तुम भी आओ और इस जहरीली हवा में साँस लेते हुए इस घड़ी सोचने से ज्यादा किसी भी तरह जी लेने में विश्वास करो।एक तरफ दाने दाने अन्न और साफ़ पानी को तरसते बाल वृद्ध नर -नारी और दूसरी तरफ अरबों रूपये में आग लगाकर मौत परोसते मौत के इन सौदागरों के कृत्य...अब इन्हें ही तुम अपनी नियति मान लो" एक दार्शनिक की तरह मुखर होते राहुल बोले जा रहा था<br />
" सरकार इस पर कोई सख्त कदम क्यों नहीं उठाती है। धर्म और परंपराएं जीवन के लिए है जब जीवन ही नहीं रहेगा तो क्या करेगा धर्म क्या करेंगी परंपराएं। " रोहित आक्रामक रुख के साथ कह रहा था।<br />
" कौन सी सरकार, कौन से सख्त कदम...आखों पे पट्टी बांधे न्याय की देवी ने न्याय की बात करते हुए रोक लगाई तो थी पटाखों पर.....कितना हंगामा किया था ठेकेदारों ने...न्याय की देवी की आखो से पट्टी हटाकर न्याय के नाम पर हुए क्रियान्वन को देखने तक की हिम्मत नहीं हुयी"राहुल के स्वर में आक्रोश झलक रहा था।<br />
मौलिक व अप्रकाशितहुआ क्या आपको जो आप कहती बढ़ गयी धड़कनtag:openbooksonline.com,2017-09-26:5170231:BlogPost:8841952017-09-26T11:00:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>अजब सी है जलन दिल में ये कैसी है मुझे तड़पन<br></br>उसे अहसास तो होगा बढ़ेगी दिल की जब धड़कन'</p>
<p></p>
<p>दिखा है जबसे उसकी आँखों में वीरान इक सहरा</p>
<p>मुझे क्या हो गया जाने कहीं लगता नहीं है मन</p>
<p></p>
<p>गले को घेर बाँहों से बदन करती कमाँ जब वो'</p>
<p>मुझे भी दर्द सा रहता मेरा भी टूटता है तन</p>
<p></p>
<p>वो रो लेती पिघल जाता हिमालय जैसा उसका गम</p>
<p>मगर सूरज के जैसे जलता रहता है मेरा तन मन</p>
<p></p>
<p>'नज़र मिलते ही मुझसे वो झुका लेते हैं यूँ गर्दन</p>
<p>ये मंज़र देख उठती है लहर…</p>
<p>अजब सी है जलन दिल में ये कैसी है मुझे तड़पन<br/>उसे अहसास तो होगा बढ़ेगी दिल की जब धड़कन'</p>
<p></p>
<p>दिखा है जबसे उसकी आँखों में वीरान इक सहरा</p>
<p>मुझे क्या हो गया जाने कहीं लगता नहीं है मन</p>
<p></p>
<p>गले को घेर बाँहों से बदन करती कमाँ जब वो'</p>
<p>मुझे भी दर्द सा रहता मेरा भी टूटता है तन</p>
<p></p>
<p>वो रो लेती पिघल जाता हिमालय जैसा उसका गम</p>
<p>मगर सूरज के जैसे जलता रहता है मेरा तन मन</p>
<p></p>
<p>'नज़र मिलते ही मुझसे वो झुका लेते हैं यूँ गर्दन</p>
<p>ये मंज़र देख उठती है लहर क्यों खो गया बचपन</p>
<p></p>
<p>वही ज़ुल्फ़ें जिन्हें मैं खींचता था छेड़खानी में</p>
<p>उन्ही ज़ुल्फ़ों को बिखरा देख अब छाता है पागलपन</p>
<p></p>
<p>'लड़ाना नैन खेलों में सुकूँ देता था बचपन में</p>
<p>जवानी में वही दिल को दिया करता है सूनापन</p>
<p></p>
<p>नजर मिलते ही मुझसे झुकती उसकी पलकें औ गर्दन</p>
<p>ये मंजर देख उठती है काशिस क्यूँ खो गया बचपन</p>
<p></p>
<p>जवानी है यही आशू जवानी में यही होता<br/>बढ़ी धड़कन थमी सांसें निगाहों में दिवानापन</p>
<p><br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करकेtag:openbooksonline.com,2017-09-08:5170231:BlogPost:8796052017-09-08T11:57:09.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>१२२२ १२२२ १२२२ १२२२</p>
<p>घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p>चिरागों को बुझाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>सुकूं था जिसके जीवन में जिसे आती थी मीठी नींद </p>
<p>उसे शब् भर जगाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>जो दुश्मन था जमाने से जो प्यासा था लहू का ही </p>
<p>उसी को अब बचाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>अँधेरे में मेरा साया हुआ कुछ इस तरह से गुम</p>
<p>ज्यूँ रिश्ता हर भुलाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>फकीरों की तरह जीता, था खुश तन्हाई…</p>
<p>१२२२ १२२२ १२२२ १२२२</p>
<p>घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p>चिरागों को बुझाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>सुकूं था जिसके जीवन में जिसे आती थी मीठी नींद </p>
<p>उसे शब् भर जगाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>जो दुश्मन था जमाने से जो प्यासा था लहू का ही </p>
<p>उसी को अब बचाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>अँधेरे में मेरा साया हुआ कुछ इस तरह से गुम</p>
<p>ज्यूँ रिश्ता हर भुलाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>फकीरों की तरह जीता, था खुश तन्हाई से अपनी </p>
<p>मगर तिल तिल मिटाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>तेरे पहलू में आया हूँ लगा साकी गले मुझको </p>
<p>बड़ा ही जुल्म ढाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>जमीं के एक टुकड़े को खड़ी सेनायें सरहद पर </p>
<p>लहू हरदम बहाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p>थी हर उम्मीद जब टूटी न दुनिया रास आई थी </p>
<p>तभी आशू हंसाया है किसी ने दोस्ती करके </p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>पूर्वजों की विरासतtag:openbooksonline.com,2017-09-05:5170231:BlogPost:8791312017-09-05T06:17:33.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
हे महान पूर्वजों गर्व करो<br />
हम निखार रहे हैं<br />
वो तमाम सम्पदा<br />
जो सौंपी थी तुमने, हमें बिरासत में...<br />
बहुत घने हो गए थे जंगल<br />
खो जाते थे बेश- कीमती हांथी दांत<br />
गल जाती थी शेर की खाल<br />
हो जाता था सदैव<br />
तुम्हारी सम्पदा का नुक्सान,<br />
सहन नहीं होता था ये हमसे<br />
इसलिए मार दिए हमने हांथी और शेर<br />
काट दिए जंगल,<br />
बना लिए सोफे, बेड, ड्रेसिंग टेबल और मकान,<br />
इनपे बैठे , लेटे अपना चेहरा जब भी संवारते हैं<br />
मकान में सजे हांथी दांत और शेर की खाल ,<br />
पूरी चौकसी के साथ निहारते हैं...........<br />
हे महान पूर्वजों<br />
तुम्हारे वो पुराने…
हे महान पूर्वजों गर्व करो<br />
हम निखार रहे हैं<br />
वो तमाम सम्पदा<br />
जो सौंपी थी तुमने, हमें बिरासत में...<br />
बहुत घने हो गए थे जंगल<br />
खो जाते थे बेश- कीमती हांथी दांत<br />
गल जाती थी शेर की खाल<br />
हो जाता था सदैव<br />
तुम्हारी सम्पदा का नुक्सान,<br />
सहन नहीं होता था ये हमसे<br />
इसलिए मार दिए हमने हांथी और शेर<br />
काट दिए जंगल,<br />
बना लिए सोफे, बेड, ड्रेसिंग टेबल और मकान,<br />
इनपे बैठे , लेटे अपना चेहरा जब भी संवारते हैं<br />
मकान में सजे हांथी दांत और शेर की खाल ,<br />
पूरी चौकसी के साथ निहारते हैं...........<br />
हे महान पूर्वजों<br />
तुम्हारे वो पुराने मूल्य, वो संस्कार, वो स्नेहाधार<br />
ज़माने की हवाओं और संक्रमण से बचाने के लिए<br />
सजा दिए हैं हमनें<br />
शो केशों औए संग्रहालयों में<br />
जीवन त्याग का पर्याय हो गया है<br />
अब राजतंत्र की जगह लोकतंत्र<br />
नृप की जगह नेता<br />
और हस्तिनापुर की जगह दिल्ली हो गया है<br />
अब राजनीत चूहे -बिल्ली का खेल है<br />
बिल्ली तो सौ चूहे खाकर हज चली जाती थी<br />
पर नेताओं को जनता की चिंता सताती है<br />
आम जनता गेहूं, चावल नहीं खा पाती है<br />
यह सोचकर<br />
नेताओं को नींद नहीं आती है<br />
हज न जाकर , स्वयं के लिए पुण्य न कमाकर<br />
नेता त्याग की भावना दिखा रहे हैं<br />
डामर , यूरिया और पशुओं के चारे से<br />
काम चला रहे हैं<br />
मौलिक व अप्रकाशितखुद आंसू पीते हैंtag:openbooksonline.com,2017-04-22:5170231:BlogPost:8507732017-04-22T12:21:16.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<div><div class="_1mf _1mj"><span>अहदे नौ में</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>माएं दूध पिलाती नहीं हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>गायें भैसें कसाईयों से बच पाती नहीं हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>इससे तकलीफ उन्हें नहीं होती है</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>जो खरीद सकते हैं दूध</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>सोने की कीमतों पर…</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>अहदे नौ में</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>माएं दूध पिलाती नहीं हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>गायें भैसें कसाईयों से बच पाती नहीं हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>इससे तकलीफ उन्हें नहीं होती है</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>जो खरीद सकते हैं दूध</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>सोने की कीमतों पर</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>इससे तकलीफ उन्हें होती है जो</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>दूध की बोतल में भरकर पानी</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>अपने रोते हुए मासूम को झूठी दिलासा दिलाते हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>खुद आंसू पीते हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj"><span>बच्चो को पानी पिलाते हैं</span></div>
</div>
<div><div class="_1mf _1mj">मौलिक व अप्रकाशित </div>
</div>दो कवितायेंtag:openbooksonline.com,2017-04-18:5170231:BlogPost:8497882017-04-18T09:40:55.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p><u>दो कवितायें</u></p>
<p><u> </u></p>
<p>दोस्त</p>
<p></p>
<p></p>
<p>जब मेरे पास दोस्त थे</p>
<p>तब दोस्तों के पास कद हद पद नहीं थे</p>
<p>और जब दोस्तों के पास पद हद कद थे</p>
<p>मेरे पास दोस्त नहीं</p>
<p></p>
<p><u> </u></p>
<p><u>धन </u></p>
<p></p>
<p> जब मेरे पास धन नहीं था</p>
<p>तब समझते थे सब मुझे बदहाल</p>
<p>पर मैं खुश था , बहुत खुश था</p>
<p>और जब मेरे पास है अकूत सम्पति</p>
<p>दुनिया मुझे खुशहाल समझती है</p>
<p>और मैं तडपता हूँ बिस्तर पर</p>
<p>नींद के सुकून से भरे एक झोंके के…</p>
<p><u>दो कवितायें</u></p>
<p><u> </u></p>
<p>दोस्त</p>
<p></p>
<p></p>
<p>जब मेरे पास दोस्त थे</p>
<p>तब दोस्तों के पास कद हद पद नहीं थे</p>
<p>और जब दोस्तों के पास पद हद कद थे</p>
<p>मेरे पास दोस्त नहीं</p>
<p></p>
<p><u> </u></p>
<p><u>धन </u></p>
<p></p>
<p> जब मेरे पास धन नहीं था</p>
<p>तब समझते थे सब मुझे बदहाल</p>
<p>पर मैं खुश था , बहुत खुश था</p>
<p>और जब मेरे पास है अकूत सम्पति</p>
<p>दुनिया मुझे खुशहाल समझती है</p>
<p>और मैं तडपता हूँ बिस्तर पर</p>
<p>नींद के सुकून से भरे एक झोंके के लिए </p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>अपूर्ण रह जाती है मेरी हर रचना -आशुतोष tag:openbooksonline.com,2017-03-04:5170231:BlogPost:8404012017-03-04T06:03:02.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
अपनी जाई<br />
गोद में खिलाई<br />
लाडली सी बिटिया<br />
जो कभी फूल<br />
तो कभी चाँद नजर आती है/<br />
जिसके लिए पिता का पितृत्व<br />
और माँ की ममता<br />
पलकें बिछाते हैं;<br />
किन्तु उसी लाडली के<br />
यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही,<br />
उसके सुखी जीवन की कामना में जब<br />
उसके हमसफ़र की तलाश की जाती है/<br />
तब उसके चाल चलन<br />
उसकी बोली , उसकी शिक्षा<br />
रंग रूप , कद काठी<br />
सब कुछ जांची परखी जाती है .....<br />
किसी की नजर तलाशती है<br />
उसमे काम की क्षमता<br />
कोई ढूंढता है उसमें<br />
अर्थोपार्जन में उसकी सहभागिता<br />
कोई देखता है उसके रूप में सम्मोहन<br />
हर नजर कुछ न कुछ तलाशती है<br />
और खरी नहीं…
अपनी जाई<br />
गोद में खिलाई<br />
लाडली सी बिटिया<br />
जो कभी फूल<br />
तो कभी चाँद नजर आती है/<br />
जिसके लिए पिता का पितृत्व<br />
और माँ की ममता<br />
पलकें बिछाते हैं;<br />
किन्तु उसी लाडली के<br />
यौवन की दहलीज पर कदम रखते ही,<br />
उसके सुखी जीवन की कामना में जब<br />
उसके हमसफ़र की तलाश की जाती है/<br />
तब उसके चाल चलन<br />
उसकी बोली , उसकी शिक्षा<br />
रंग रूप , कद काठी<br />
सब कुछ जांची परखी जाती है .....<br />
किसी की नजर तलाशती है<br />
उसमे काम की क्षमता<br />
कोई ढूंढता है उसमें<br />
अर्थोपार्जन में उसकी सहभागिता<br />
कोई देखता है उसके रूप में सम्मोहन<br />
हर नजर कुछ न कुछ तलाशती है<br />
और खरी नहीं उतर पाती है<br />
माँ की चाँद सी गुड़िया<br />
हर जेहन में .....<br />
कुछ बैसे ही ...जैसे<br />
सधे हाँथों से पत्थर पर प्रहार करते हर मूर्तिकार को<br />
नजर आती है उसकी मूर्ती<br />
उसकी श्रेष्ठतम शिल्प<br />
लेकिन उतरते ही हाट में<br />
जब ढूँढने लगता है कोई साधक<br />
मूरत में साधना के भाव<br />
जब कोइ कला प्रेमी<br />
निरखने लगता है मूरत का सौंदर्य<br />
और जब कोइ ख्यातिलब्ध मूर्तिकार<br />
जो मानता है कि और सधे होने थे हाँथ<br />
तब किसी के दिल में बसती<br />
किसी को न रुचती<br />
और किसी के ठीक-ठाक है जैसे ख्यालों के साथ<br />
आ जाती है सर्जक मूर्तिकार की मूर्ती<br />
अपूर्णता के घेरे में ...<br />
कुछ बैसे ही<br />
मेरे सीने में छटपटाती<br />
किसी ज्वालामुखी के लावा सम<br />
मेरे लवो को चीर कर जन्म लेते मेरी रचना<br />
या कभी शांत चित्त मन मस्तिष्क में उपज<br />
उतरती है कागज पर;<br />
ग्रीष्म कालिक नदी की तरह शनैः शनैः<br />
और देती है<br />
अपने जन्म पर<br />
कुछ बैसा ही सुखद अहसास;<br />
जैसा मिलता है किसी माँ को<br />
प्रसव पीड़ा के बाद<br />
अपने कलेजे के टुकड़े को सीने से लगाने में/<br />
जिसमे महसूस होती है कभी<br />
उगते सूरज की रश्मियों की गुनगुनाहट<br />
कभी तपते सूरज की तपिश<br />
कभी फूलों की खुश्बू<br />
तो कभी खारों की चुभन<br />
कभी जागरूक बनाती<br />
कभी सचेत करती/<br />
भावों की नदी से बहती प्रतीत होती<br />
मेरी रचना,<br />
शब्दों का सौन्दर्य बोध<br />
धुन, लय ,<br />
-पाठक की अपनी सोच से समरसता<br />
समरूपता<br />
जैसी तमाम<br />
कसौटियो पर कसी जाती है<br />
और लाडले बिटिया की तरह;<br />
मूर्तिकार की मूरत की तरह<br />
कहीं न कहीं से अपूर्ण रह जाती है<br />
<br />
मौलिक व अप्रकाशितसूंदर है हर रचनाtag:openbooksonline.com,2017-02-28:5170231:BlogPost:8398412017-02-28T06:10:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
सुंदर है हर रचना<br />
रवि! बड़े परेशान लग रहे हो -क्या बात है"-रवि के जिगरी दोस्त अनिल ने बड़े ही सहज भाव से पूछा। "कुछ नहीं- बस यूँ ही" प्रत्यूतर में रवि ने कहा।"अरे!कुछ तो होगा ....तभी तो..."अनिल ने रवि ने वास्तविक कारण जानने के उद्देश्य से दुबारा पूंछा।"भाई जी-बस यूँ ही-अपनी नयी रचनाओं को लेकर परेशान था,अथक प्रयास के बाद भी रचनाओ में वो सुंदरता नहीं दिख पा रही है, जो सुंदरता के मानदंडों पर खरी उतर सके"अनिल को अपनी परेशानी से अवगत कराते हुए रवि न जवाब दिया।कुछ देर गंभीरता के साथ सोचने के बाद बड़े ही…
सुंदर है हर रचना<br />
रवि! बड़े परेशान लग रहे हो -क्या बात है"-रवि के जिगरी दोस्त अनिल ने बड़े ही सहज भाव से पूछा। "कुछ नहीं- बस यूँ ही" प्रत्यूतर में रवि ने कहा।"अरे!कुछ तो होगा ....तभी तो..."अनिल ने रवि ने वास्तविक कारण जानने के उद्देश्य से दुबारा पूंछा।"भाई जी-बस यूँ ही-अपनी नयी रचनाओं को लेकर परेशान था,अथक प्रयास के बाद भी रचनाओ में वो सुंदरता नहीं दिख पा रही है, जो सुंदरता के मानदंडों पर खरी उतर सके"अनिल को अपनी परेशानी से अवगत कराते हुए रवि न जवाब दिया।कुछ देर गंभीरता के साथ सोचने के बाद बड़े ही सहज भाव से बोला-"भाई रवि, हर भाव सूंदर है , हर रचना सुंदर है।""ऐसा कैसे! " एक जिज्ञासु की तरह रवि ने जानने के भाव से कहा "वैसे ही जैसे हर कुरूप पत्थर के अंदर , हर सुन्दर से सूंदर मूरत के अंदर छिपी होती है दुनिया की सबसे खूब सूरत मूरत-पत्थर से जितना अनाबश्यक भाग हटता जायेगा मूर्ती उतनी ही सूंदर और परिष्कृत होती जायेगी-जरूरी है जरूरी है सधे हुये हाथों के साथ सतत शिल्पकारी के अभ्यास की"अनिल ने समझाते हुए कहा।चेहरे पर हताशा की जगह रवि के चेहरे पर खुशी और उसके हाथों में कलम फिर अपनी जगह सुनिश्चित कर चुकी थी।<br />
मौलिक व अप्रकाशितआर टी ओ बिभाग की हकीकतtag:openbooksonline.com,2017-02-19:5170231:BlogPost:8376592017-02-19T02:08:56.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
कविता 3<br />
परिवहन बिभाग<br />
एक दिन होकर तैयार<br />
अपनी नयी नवेली कार पर सवार<br />
मैंने बनाया लखनऊ शहर घूमने का बिचार<br />
लाजवन्ती नव् बिवाहिता के हौले हौले हटते घूंघट की तरह<br />
हौले हौले गाड़ी को आगे बढ़ाया<br />
गोमती नगर से ज्यों ही गाड़ी आगे बढ़ाई<br />
पोलिश चौकी नजर आयी<br />
सिपाही से होते ही नजरें चार<br />
सिपाही बोला आईये सरकार<br />
हमने कहा फरमाईये<br />
उसने कहा<br />
आर सी और बीमा के कागज़ दिखाईये<br />
मैंने बड़े आत्म बिश्वास से दिखाए<br />
सिपाही ने जब जांचा तो सही पाये<br />
सिपाही ने चौकी इंचार्ज की नजरों में झाँका<br />
चौकी इंचार्ज ने स्थिति को भांपा<br />
आँखों आँखों में…
कविता 3<br />
परिवहन बिभाग<br />
एक दिन होकर तैयार<br />
अपनी नयी नवेली कार पर सवार<br />
मैंने बनाया लखनऊ शहर घूमने का बिचार<br />
लाजवन्ती नव् बिवाहिता के हौले हौले हटते घूंघट की तरह<br />
हौले हौले गाड़ी को आगे बढ़ाया<br />
गोमती नगर से ज्यों ही गाड़ी आगे बढ़ाई<br />
पोलिश चौकी नजर आयी<br />
सिपाही से होते ही नजरें चार<br />
सिपाही बोला आईये सरकार<br />
हमने कहा फरमाईये<br />
उसने कहा<br />
आर सी और बीमा के कागज़ दिखाईये<br />
मैंने बड़े आत्म बिश्वास से दिखाए<br />
सिपाही ने जब जांचा तो सही पाये<br />
सिपाही ने चौकी इंचार्ज की नजरों में झाँका<br />
चौकी इंचार्ज ने स्थिति को भांपा<br />
आँखों आँखों में दोनों बतियाये<br />
सिपाही बोला प्रदूषण के कागज़ लाएं<br />
मैने ज्यों ही कागज़ बढ़ाया<br />
सिपाही चौकी इंचार्ज की तरफ देख मुस्कुराया<br />
उसको कागज़ दिखाया<br />
चौकी इंचार्ज ने मुझे बुलाया<br />
प्रदूषण के कागज़ के<br />
नवीनीकरण न होना बताया<br />
हमने कहा करवा लेंगे<br />
हाँ जरूर करवा लीजियेगा<br />
फिलहाल पेनाल्टी तो कटवाईए<br />
लाईये हज़ार रुपये लाईये<br />
मैं असमंजस में पड़ा<br />
मुझे लगा ये बोझ बड़ा<br />
मैंने कहा मैं बनवा लूँगा<br />
उसने कहा पेनल्टी बिन जाने न दूंगा<br />
मैं इस बोझ से खुद की बचाना चाहता था<br />
चौकी इंचार्ज कुछ कमाना चाहता था<br />
जब किसी तरह बात न बन पायी<br />
मैंने दो सौ रुपये देकर जान छुड़ाई<br />
आनन् फानन में गाड़ी पेट्रोल पम्प<br />
की तरफ बढ़ायी<br />
गाड़ी के प्रदूषण की जांच करवाई<br />
स्टीकर विंडो पे चिपका रसीद कलेजे से लगाई<br />
प्रसन्न मन से गाड़ी हजरतगंज की तरफ बढ़ाई<br />
मगर गाड़ी जाम में फंस गयी<br />
हरियाणा के न0 वाली मेरी गाड़ी पर<br />
फिर सिपहिया की नजर पड़ गयी<br />
फिर जैसे ही हुयी उसकी मुझसे नजरें चार<br />
वो भी बोला इधर आईये सरकार<br />
मैंने जैसे ही आत्मविश्वास से कहा फरमाईये<br />
सिपाही बोला सारे कागज़ ले आईये<br />
मैंने कहा पिछले थाणे पर सब चेक करवाये है<br />
प्रदूषण की जांच करवा नए कागज़ बनाये हैं<br />
सिपाही बोला ठीक है कागज़ मत दिखाईये<br />
पर 1100 की पेनल्टी तो कटवाईए<br />
हमने कहा कितनी बार कटवायेंगे<br />
वो बोला तब तब जव जब बेल्ट नहीं लगाएंगे<br />
मैंने कहा दूध के जले हैं छांछ फूंककर पिया है<br />
ड्राईवर ने बेल्ट न पहनने का गुनाह नहीं किया है<br />
सिपाही बोला ड्राईवर पर पेनल्टी नहीं लगाई है<br />
इस बार लापरवाही की सुई आप पर आयी है<br />
मैंन हँसते हुए कहा नजर घुमाओ<br />
लखनऊ में लगाता हो कोई बेल्ट तो बताओ<br />
तभी दरोगा मुस्कुराते हुए लहजे में बोला<br />
शेर यदि सारे हिरन एक दिन में मार गिराएगा<br />
तो बाकी दिनों में भूख कैसे मिटाएगा<br />
परिस्थितियों को देख मैंने भी मिजाज बदला<br />
सौ सौ के दो करारे नोट थानेदार को थमा निकला<br />
लखनऊ भ्रमण का छोड़ कर बिचार<br />
घर की तरफ मोड़ कार बढ़ाई रफ़्तार<br />
दो और थानो पे मामला निबटाते<br />
कही तेज रफ़्तार का कहीं गाड़ी की बैक लाइट का<br />
कही हेलमेट का मस्ला करारे नोटों से निबटाते<br />
जब घर की चौखट दी दिखाई<br />
सांस में सांस आयी<br />
कानून आम आदमी को सिर्फ अपने जाल में फंसाता है<br />
मछली की तरह आम सही आदमी जब छटपटाता है<br />
बीच का रास्ता उसे सही नजर आता है<br />
कोई कमाता है<br />
कोई बचाता है<br />
घर पहुचकर फुरसत के छड़ों में सोचता रहा<br />
शासन की खामियों का नुक्सान देश कैसे उठाता है<br />
मौलिक व अप्रकाशितहार में भी जीत-पहला प्रयास लघु कथाtag:openbooksonline.com,2017-02-13:5170231:BlogPost:8368072017-02-13T09:34:57.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
अपने जीवन की पहली लघु कथा लिखने के बाद बार बार<br />
उसे पढ़कर प्रकाशित करने की मनःस्थिति बना ही रहा था तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।" आओ -मित्र ! आओ "दरवाजा खोलते ही मैंने अपने मित्र आलोक से कहा।"आज कौन सी कविता ऑनलाइन प्रकाशित कर रहे हो"आलोक ने हमेशा की तरह पूंछा।"आज मैंने पहली लघु कथा लिखी है उसे ही प्रकाशित करने जा रहा हूँ"कंप्यूटर पर टाइप करते हुए मैंने जबाब दिया।" लेकिन-पहले प्रयास को सीधे प्रकाशित करते तुम्हे अजीब सा नहीं लग रहा है-"रचना के ठीक होने पर मिलने वाली संतोष जनक प्रतिक्रियाओ से…
अपने जीवन की पहली लघु कथा लिखने के बाद बार बार<br />
उसे पढ़कर प्रकाशित करने की मनःस्थिति बना ही रहा था तभी दरवाजे पर किसी ने दस्तक दी।" आओ -मित्र ! आओ "दरवाजा खोलते ही मैंने अपने मित्र आलोक से कहा।"आज कौन सी कविता ऑनलाइन प्रकाशित कर रहे हो"आलोक ने हमेशा की तरह पूंछा।"आज मैंने पहली लघु कथा लिखी है उसे ही प्रकाशित करने जा रहा हूँ"कंप्यूटर पर टाइप करते हुए मैंने जबाब दिया।" लेकिन-पहले प्रयास को सीधे प्रकाशित करते तुम्हे अजीब सा नहीं लग रहा है-"रचना के ठीक होने पर मिलने वाली संतोष जनक प्रतिक्रियाओ से हासिल सुखद अनुभव और परिमार्जित न होने पर मिलने वाली प्रतिक्रियाओ से होने वाले दुखद अनुभव को ध्यान में रखकर अपने संशय को व्यक्त करते हुए आलोक बोला।"रचना अच्छी हो या बुरी - उस पर होने वाली प्रतिक्रियाओं से सदा सुखद अहसास ही होता है,दुखद नहीं।आलोक के प्रश्न के प्रत्यत्तर नें मैंने कहा "मैं कुछ समझा नहीं -ऐसा-कैसे"आलोक ने आश्चर्य चकित होते हुए पुनः प्रश्न किया।"हां , आलोक इसकी बजह सिर्फ यह है की जिस मंच पर मैं रचना प्रकाशित करने जा रहा हूँ - उस मंच पर रचना को अच्छा देखकर मुस्कुराने और ख़राब महसूस कर मुंह बनाने जी जगह रचना क्यों अच्छी है और ख़राब है तो क्यों ख़राब है , बताने पर तरजीह दी जाती है और जानते हो यहाँ सिद्ध हस्त और मुझ जैसे नौसिखिये एक ही घाट पर पानी पीते है- रचना अच्छी क्यों है जानकर सोच को नए पंख और ख़राब क्यों है जानकार तमाम सीखने वालों को सबक और दिशा मिलती है" मैंने सुखद अनुभूति वाली अपनी बात को ज्यादा प्रभावशाली और स्पष्ट करते हुए कहा।"कहाँ खो गए आलोक" रचना को पोस्ट करते हुए मैंने कहा।"क्या वाकई ऐसा अद्भुत मंच है" होम पेज पर बड़े बड़े शब्दों में अंकित ओ बी ओ को बड़े कौतूहल से देखकर कुछ सोचते हुए आलोक ने कहा।"हां!हाँ वाकई ये हकीकत है" ऐसे मंच से जुड़े होंने के सुखद अहसास की अनुभूति करते हुए मैंने जवाब दिया।<br />
मौलिक व अप्रकाशितओजोन की परत में अब छेद खल रहा है- आशुतोषtag:openbooksonline.com,2017-01-01:5170231:BlogPost:8250072017-01-01T10:03:44.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p></p>
<p>ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है</p>
<p>धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है</p>
<p></p>
<p>उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने</p>
<p>तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने</p>
<p>खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी पर</p>
<p>सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने</p>
<p>नूतन प्रयोग अपना खुद हमको छल रहा है</p>
<p></p>
<p>धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है</p>
<p>ये गंदगी का ढेर जो चारो तरफ लगाया</p>
<p>इस गंदगी के ढेर को खुद हमने है बढ़ाया</p>
<p>हम खूब समझते है परिणाम जानते है</p>
<p>पर…</p>
<p></p>
<p>ओजोन की परत में अब छेद खल रहा है</p>
<p>धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है</p>
<p></p>
<p>उन्नति के नाम पर हैं ये कारनामे अपने</p>
<p>तालाब पाट घर के हम बुन रहे हैं सपने</p>
<p>खेतों में चौगनी है माना फसल बढ़ी पर</p>
<p>सब्जी अनाज फल में बिष खा रहे हैं अपने</p>
<p>नूतन प्रयोग अपना खुद हमको छल रहा है</p>
<p></p>
<p>धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है</p>
<p>ये गंदगी का ढेर जो चारो तरफ लगाया</p>
<p>इस गंदगी के ढेर को खुद हमने है बढ़ाया</p>
<p>हम खूब समझते है परिणाम जानते है</p>
<p>पर पोलिथीन में ही घर का सामान आया</p>
<p>खुद अपने हाथों मौत का षड्यंत्र चल रहा है</p>
<p>धरती झुलस रहे है जग सारा जल रहा है</p>
<p></p>
<p>बागों में तितलिया अब मिलती नहीं हैं ढूंढें</p>
<p>भंवरों की भ्रामरी भी अब न चमन में गूंजे</p>
<p>आता है अब भी यूं तो मौसम वो आम वाला</p>
<p>पर जाने हैं कहाँ गुम वो कोयलों की कूकें</p>
<p>प्यासी मही को बादल अब रोज छल रहा है</p>
<p>धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है</p>
<p></p>
<p>अब चील , गिद्ध मैना तीतर नजर न आते</p>
<p>फैला के पंख अपने न मोर नाच पाते</p>
<p>अब शेर चीते भालो शो पीस हो गए हैं</p>
<p>चमड़ी में भरा भूंसा महलो को हैं सजाते</p>
<p>हर जीव में जगत के आक्रोश पल रहा है</p>
<p>धरती झुलस रही है जग सारा जल रहा है </p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p></p>आओ मिलकर चमन सजायें -आशुतोषtag:openbooksonline.com,2017-01-01:5170231:BlogPost:8248172017-01-01T08:08:23.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p></p>
<p><b>नवबर्ष पर हार्दिक शुभकामनाये </b></p>
<p></p>
<p><b>आओ मिलकर चमन सजायें</b></p>
<p>गीत नए फिर मिलकर गायें</p>
<p>कुमकुम रोली से रंग धरती</p>
<p>दर पर वन्दनवार लगाये</p>
<p>जान दे रहे हैं सरहद पर</p>
<p>आज भारती के जो लाल</p>
<p>उनके सीने हैं फौलादी</p>
<p>उन्हें डराएगा क्या काल</p>
<p>मुल्क पड़ोसी को अब आओ</p>
<p>हम उसकी औकात दिखाएं</p>
<p>आओ मिलकर चमन सजायें</p>
<p>गीत नए फिर मिलकर गायें</p>
<p>अश्क बहाने से होती</p>
<p>तौहीन शेर दिल वीरों की</p>
<p>अश्कों से बलिदान…</p>
<p></p>
<p><b>नवबर्ष पर हार्दिक शुभकामनाये </b></p>
<p></p>
<p><b>आओ मिलकर चमन सजायें</b></p>
<p>गीत नए फिर मिलकर गायें</p>
<p>कुमकुम रोली से रंग धरती</p>
<p>दर पर वन्दनवार लगाये</p>
<p>जान दे रहे हैं सरहद पर</p>
<p>आज भारती के जो लाल</p>
<p>उनके सीने हैं फौलादी</p>
<p>उन्हें डराएगा क्या काल</p>
<p>मुल्क पड़ोसी को अब आओ</p>
<p>हम उसकी औकात दिखाएं</p>
<p>आओ मिलकर चमन सजायें</p>
<p>गीत नए फिर मिलकर गायें</p>
<p>अश्क बहाने से होती</p>
<p>तौहीन शेर दिल वीरों की</p>
<p>अश्कों से बलिदान चमक</p>
<p>फीकी पड़ती इन हीरों की</p>
<p>अमर शहीदों के जयकारे</p>
<p>गली गली में आज लगायें</p>
<p>आओ मिलकर चमन सजायें</p>
<p>गीत नए फिर मिलकर गायें</p>
<p>हिन्दू मुस्लिम सिक्ख इसाई</p>
<p>सबका है बलिदान बड़ा</p>
<p>महल शहादत से ही सबके</p>
<p>लोकतंत्र का अडिग खड़ा</p>
<p>जाती पांति के भेद भुलाकर</p>
<p>आओ सबको गले लगायें</p>
<p>आओ मिलकर चमन सजायें</p>
<p>गीत नए फिर मिलकर गायें</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>अगर बेटे की भाई से अदावत और हो जातीtag:openbooksonline.com,2016-09-28:5170231:BlogPost:8040662016-09-28T11:37:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>1222 1222 1222 1222 तरही ग़ज़ल</p>
<p>अगर बेटे की भाई से अदावत और हो जाती</p>
<p>मेरे अपने ही घर में इक बगावत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>जहाँ खामोशी से मेरी जसामत और हो जाती</p>
<p>वहीं कुछ कहने से मेरे मुसाफत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>हिमानी के शिखर पर डाल गलबहियाँ पलक मींचे</p>
<p>युगल प्रेमी यही सोचे क़यामत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>सुलगती साँसे जलता तन पिला दो मय ये आँखों की</p>
<p>जहाँ सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p> इधर बेटा उधर भाई पिता करते तो क्या करते</p>
<p>अगर…</p>
<p>1222 1222 1222 1222 तरही ग़ज़ल</p>
<p>अगर बेटे की भाई से अदावत और हो जाती</p>
<p>मेरे अपने ही घर में इक बगावत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>जहाँ खामोशी से मेरी जसामत और हो जाती</p>
<p>वहीं कुछ कहने से मेरे मुसाफत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>हिमानी के शिखर पर डाल गलबहियाँ पलक मींचे</p>
<p>युगल प्रेमी यही सोचे क़यामत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>सुलगती साँसे जलता तन पिला दो मय ये आँखों की</p>
<p>जहाँ सब कुछ हुआ इतनी इनायत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p> इधर बेटा उधर भाई पिता करते तो क्या करते</p>
<p>अगर धृतराष्ट्र बनते तो बगावत और हो जाती</p>
<p> </p>
<p>वो चिलमन ओट से रह रह के ताकें और छिप जाये</p>
<p>ये मंजर देख दिल कहता शरारत और हो जाती </p>
<p></p>
<p> मौलिक व अप्रकाशित</p>आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जानेtag:openbooksonline.com,2016-08-14:5170231:BlogPost:7922552016-08-14T05:39:36.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>2122 2122 2122 2122</p>
<p>शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं</p>
<p>जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है</p>
<p></p>
<p>सारी दुनिया के रसायन आज हैराँ सोचकर ये</p>
<p>हम जहाँ जुड़ ही नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने</p>
<p>शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित</p>
<p>नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं…</p>
<p>2122 2122 2122 2122</p>
<p>शोध पेपर इक कहानी ऐसी बनते जा रहे हैं</p>
<p>जिसमे नित नव कल्पना के पंख लगते जा रहे है</p>
<p></p>
<p>सारी दुनिया के रसायन आज हैराँ सोचकर ये</p>
<p>हम जहाँ जुड़ ही नहीं सकते थे जुड़ते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>आदमी कब व्याधियों से मुक्त होगा रब ही जाने</p>
<p>शोध', चूहे -खरहों के पर प्राण हरते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>मोतियों से दांत दिखला पेस्ट जो करते प्रचारित</p>
<p>नीम की दातून से निज दांत घिसते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>रोज अखबारों को पढ़कर दे रहे हैं मशविरा सब</p>
<p>अब चिकित्सक मुल्क के हर घर में बनते जा रहे है</p>
<p></p>
<p>क्यूँ न दीवाली मनेगी नित दवा की कंपनी में</p>
<p>जब दवाओंसे ही ही सबके पेट भरते जा रहे हैं</p>
<p></p>
<p>जंगलो को पार जिसने था किया बेख़ौफ़ होकर</p>
<p>उसके बच्चे पाठशाला डरते डरते जा रहे है F64</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>ज़िंदगी तेरी उदासी का कोई राज भी हैtag:openbooksonline.com,2016-07-27:5170231:BlogPost:7875302016-07-27T09:00:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>२१२२ ११२२ ११२२ २२/ ११२</p>
<p>ज़िंदगी तेरी उदासी का कोई राज भी है</p>
<p>तेरी आँखों में छुपा ख्वाब कोई आज भी है </p>
<p> </p>
<p>पतझड़ों जैसा बिखरता है ये जीवन अपना </p>
<p>कोपलो जैसे नए सुख का ये आगाज भी है</p>
<p> </p>
<p>गुनगुना लीजे कोई गीत अगर हों तन्हा </p>
<p>दिल की धड़कन भी है साँसों का हसीं साज भी है</p>
<p> </p>
<p>वो खुदा अपने लिखे को ही बदलने के लिए</p>
<p>सबको देता है हुनर अलहदा अंदाज भी है</p>
<p> </p>
<p>काम करना ही हमारा है इबादत रब की</p>
<p>इस इबादत में छिपा ज़िंदगी का…</p>
<p>२१२२ ११२२ ११२२ २२/ ११२</p>
<p>ज़िंदगी तेरी उदासी का कोई राज भी है</p>
<p>तेरी आँखों में छुपा ख्वाब कोई आज भी है </p>
<p> </p>
<p>पतझड़ों जैसा बिखरता है ये जीवन अपना </p>
<p>कोपलो जैसे नए सुख का ये आगाज भी है</p>
<p> </p>
<p>गुनगुना लीजे कोई गीत अगर हों तन्हा </p>
<p>दिल की धड़कन भी है साँसों का हसीं साज भी है</p>
<p> </p>
<p>वो खुदा अपने लिखे को ही बदलने के लिए</p>
<p>सबको देता है हुनर अलहदा अंदाज भी है</p>
<p> </p>
<p>काम करना ही हमारा है इबादत रब की</p>
<p>इस इबादत में छिपा ज़िंदगी का राज भी है</p>
<p> </p>
<p>कुछ कलम के यहाँ ऐसे भी पुजारी हैं हुए</p>
<p>सामने राजा ने जिनके दिया रख ताज भी है </p>
<p> </p>
<p>काम करता जो बुरे लोग हैं नफरत करते</p>
<p>काम गर अच्छे करे तब तो कहें नाज भी है F-49</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>जाने किस ऊंचाई पर सब लोग जाना चाहतेtag:openbooksonline.com,2016-07-22:5170231:BlogPost:7859562016-07-22T08:00:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>२१२२ २१२२ २१२२ २१२2</p>
<p>जाने किस ऊंचाई पर सब लोग जाना चाहते है</p>
<p>हो जमी पे ही खड़े सब क्या दिखाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>जो समंदर पार के ले आदमी वो ही बड़ा अब</p>
<p>आप ऐसी सोच रखकर क्या जताना चाहते है</p>
<p> </p>
<p>आदि से कंगूरों की सूरत टिकी जिस नीव पर थी</p>
<p>आप क्यूँ उस नीव को ही अब भुलाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>बंगले नौकर गाडी मोटर की तमन्ना तो नयी अब</p>
<p>पर अभी भी प्यार दिल में हम पुराना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>पढ़ लिया इतिहास सबने जानते अंजाम भी सब</p>
<p>फिर भी…</p>
<p>२१२२ २१२२ २१२२ २१२2</p>
<p>जाने किस ऊंचाई पर सब लोग जाना चाहते है</p>
<p>हो जमी पे ही खड़े सब क्या दिखाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>जो समंदर पार के ले आदमी वो ही बड़ा अब</p>
<p>आप ऐसी सोच रखकर क्या जताना चाहते है</p>
<p> </p>
<p>आदि से कंगूरों की सूरत टिकी जिस नीव पर थी</p>
<p>आप क्यूँ उस नीव को ही अब भुलाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>बंगले नौकर गाडी मोटर की तमन्ना तो नयी अब</p>
<p>पर अभी भी प्यार दिल में हम पुराना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>पढ़ लिया इतिहास सबने जानते अंजाम भी सब</p>
<p>फिर भी क्यूँ सब खून की नदियाँ बहाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>मांगते कुछ इससे पहले उसने दी दौलत ही ढेरों </p>
<p>कैसे समझायें उसे दिल में ठिकाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>मैं दिया हूँ काम मेरा करना है रोशन जहाँ ये</p>
<p>क्यूँ मेरी लौ से ही कोई घर जलाना चाहते है</p>
<p> </p>
<p>कहते हैं गर आप मुझसे मांग लो जो मांगना तो</p>
<p>ये समझ लो आप को अपना बनाना चाहते हैं</p>
<p> </p>
<p>आँखों में देखी तेरी साँसों से जो महसूस करते</p>
<p>बस ग़ज़ल आशू वही अब गुनगुनाना चाहते हैं (F 54)</p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>मीत बनाते बस इक अपना दुश्मन सौ खुद मिल जाते है.tag:openbooksonline.com,2016-07-16:5170231:BlogPost:7847252016-07-16T10:30:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ </p>
<p>मीत बनाते बस इक अपना दुश्मन सौ खुद मिल जाते है</p>
<p>गुल को पाने की चाहत में खारों से तन छिल जाते हैं</p>
<p></p>
<p>हम तो उसको भाई कहते वो हमको कमजोर बताता</p>
<p>नहीं समझता जब हम अपनी पे आते सब हिल जाते है</p>
<p></p>
<p>बसें चलाते गले लगाते क्या क्या नहीं किया करते हम</p>
<p>पर जिस वक़्त गले मिलते दुश्मन को मौके मिल जाते हैं</p>
<p></p>
<p>हम पूरब के बासी हमको मत तहजीब सिखा उल्फत की</p>
<p>यहाँ जमाने से उल्फत में बदले दिल से दिल जाते…</p>
<p>२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ </p>
<p>मीत बनाते बस इक अपना दुश्मन सौ खुद मिल जाते है</p>
<p>गुल को पाने की चाहत में खारों से तन छिल जाते हैं</p>
<p></p>
<p>हम तो उसको भाई कहते वो हमको कमजोर बताता</p>
<p>नहीं समझता जब हम अपनी पे आते सब हिल जाते है</p>
<p></p>
<p>बसें चलाते गले लगाते क्या क्या नहीं किया करते हम</p>
<p>पर जिस वक़्त गले मिलते दुश्मन को मौके मिल जाते हैं</p>
<p></p>
<p>हम पूरब के बासी हमको मत तहजीब सिखा उल्फत की</p>
<p>यहाँ जमाने से उल्फत में बदले दिल से दिल जाते हैं</p>
<p></p>
<p>जहरीले कुछ नाग वतन में सरहद से छुप छुप घुस आते</p>
<p>फिर ये इच्छाधारी अपना भेष बदल हिल मिल जाते है</p>
<p></p>
<p>अरे दरिंदों आकाओं से कह दो खौफ नहीं हम खाते</p>
<p>हम तो उस बगिया के गुल जो खारों पे ही खिल जाते हैं</p>
<p></p>
<p>कितना भी मारों पीटो पर ये कुछ भेद नही खोलेंगे</p>
<p>शैताँ इतनी नफरत भरता लव ही इनके सिल जाते हैं </p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p> </p>
<p>E34</p>नहीं आती मुझे अब नींद जीभर के पिला साकीtag:openbooksonline.com,2016-07-04:5170231:BlogPost:7819622016-07-04T08:30:00.000ZDr Ashutosh Mishrahttp://openbooksonline.com/profile/DrAshutoshMishra
<p>१२२२/१२२२/१२२२/१२२२</p>
<p>नहीं आती मुझे अब नींद जीभर के पिला साकी</p>
<p>निशा गहरी डगर सूनी कहाँ जाएँ बता साकी</p>
<p></p>
<p>मुहब्बत मेरी पथराई जमाने भर की ठोकर खा </p>
<p><strong>अहिल्या की तरह मेरी कभी जड़ता मिटा साकी</strong></p>
<p></p>
<p>मैं भंवरों सा भटकता ही रहा ताउम्र बागों में</p>
<p>कमल से अपने इस दिल में तू ले मुझको छुपा साकी</p>
<p></p>
<p> ये मंजिल आखिरी मेरी ये पथ भी आखिरी मेरा</p>
<p>मेरी नजरों से तू नजरें घड़ी भर तो मिला साकी</p>
<p></p>
<p>जो सीना चीर पाहन का निकलता मैं…</p>
<p>१२२२/१२२२/१२२२/१२२२</p>
<p>नहीं आती मुझे अब नींद जीभर के पिला साकी</p>
<p>निशा गहरी डगर सूनी कहाँ जाएँ बता साकी</p>
<p></p>
<p>मुहब्बत मेरी पथराई जमाने भर की ठोकर खा </p>
<p><strong>अहिल्या की तरह मेरी कभी जड़ता मिटा साकी</strong></p>
<p></p>
<p>मैं भंवरों सा भटकता ही रहा ताउम्र बागों में</p>
<p>कमल से अपने इस दिल में तू ले मुझको छुपा साकी</p>
<p></p>
<p> ये मंजिल आखिरी मेरी ये पथ भी आखिरी मेरा</p>
<p>मेरी नजरों से तू नजरें घड़ी भर तो मिला साकी</p>
<p></p>
<p>जो सीना चीर पाहन का निकलता मैं वो दरिया हूँ</p>
<p>मुझे आगोश में ले अपने अब सागर बना साकी</p>
<p></p>
<p>ये रिश्ते मय से थे कडवे मुझे जो लगते थे अपने</p>
<p>तेरी सुहबत में आकर ये भरम टूटा मेरा साकी</p>
<p></p>
<p>न मय की है न सागर की न मैखानो की ख्वाहिश है</p>
<p>तेरी बांहों में दम निकले यही बस इल्तिजा साकी </p>
<p>G6 मौलिक व अप्रकाशित </p>