Balram Dhakar's Posts - Open Books Online2024-03-29T01:07:44ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakarhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991298551?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1jds4qxyj8fhz&xn_auth=noग़ज़ल: अगर कोशिश करेंगे आबोदाना मिल ही जाएगा।tag:openbooksonline.com,2023-09-19:5170231:BlogPost:11092832023-09-19T11:26:36.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p> </p>
<p>अगर कोशिश करेंगे आबोदाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>किराए का सही कोई ठिकाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>अगर तर्के तअल्लुक का अहद कर ही चुके हो तुम,</p>
<p>ज़ह्न पर ज़ोर दो, कोई बहाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>हमें अच्छी बुरी कोई न कोई मिल ही जाएगी,</p>
<p>तुम्हें डिप्टी कलक्टर का घराना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>ज़रूरत क्या है दरिया के भँवर को आज़माने की, </p>
<p>किनारा थाम कर चलिए, दहाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>खुशी अपनी किसी लॉकर में रख कर भूल गए…</p>
<p>1222 1222 1222 1222</p>
<p> </p>
<p>अगर कोशिश करेंगे आबोदाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>किराए का सही कोई ठिकाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>अगर तर्के तअल्लुक का अहद कर ही चुके हो तुम,</p>
<p>ज़ह्न पर ज़ोर दो, कोई बहाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>हमें अच्छी बुरी कोई न कोई मिल ही जाएगी,</p>
<p>तुम्हें डिप्टी कलक्टर का घराना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>ज़रूरत क्या है दरिया के भँवर को आज़माने की, </p>
<p>किनारा थाम कर चलिए, दहाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>खुशी अपनी किसी लॉकर में रख कर भूल गए हम लोग,</p>
<p>तलाशी लें अगर अपनी ख़ज़ाना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>भले कितना भी कुछ कर लीजिए इनके लिए लेकिन,</p>
<p>अगर वालिद हैं तो बच्चों से ताना मिल ही जाएगा।</p>
<p>.</p>
<p>तेरी अच्छाइयां तुझ तक पलटकर आ ही जाएंगीं,</p>
<p>तुझे जो भी मुनासिब है, कहा ना मिल ही जाएगा।</p>
<p> </p>
<p>बलराम धाकड़</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित.</p>ग़ज़ल : बलराम धाकड़ (पाँव कब्र में जो लटकाकर बैठे हैं।)tag:openbooksonline.com,2023-02-01:5170231:BlogPost:10985652023-02-01T17:30:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p> </p>
<p>पाँव कब्र में जो लटकाकर बैठे हैं।</p>
<p>उनके मन में भी सौ अजगर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>'ए' की बेटी, 'बी' का बेटा, 'सी' की सास,</p>
<p>दुनियाभर का ठेका लेकर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>कहाँ दिखाई देती हैं अब वो रस्में,</p>
<p>भाभीमाँ की गोद में देवर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>मैं दरवाज़े पर ताला जड़ आया हूँ,</p>
<p>दुश्मन घर में घात लगाकर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>अब हम सब सीसीटीवी की ज़द में हैं,</p>
<p>चित्रगुप्त कब खाते लेकर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>अदबी…</p>
<p>22 22 22 22 22 2</p>
<p> </p>
<p>पाँव कब्र में जो लटकाकर बैठे हैं।</p>
<p>उनके मन में भी सौ अजगर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>'ए' की बेटी, 'बी' का बेटा, 'सी' की सास,</p>
<p>दुनियाभर का ठेका लेकर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>कहाँ दिखाई देती हैं अब वो रस्में,</p>
<p>भाभीमाँ की गोद में देवर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>मैं दरवाज़े पर ताला जड़ आया हूँ,</p>
<p>दुश्मन घर में घात लगाकर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>अब हम सब सीसीटीवी की ज़द में हैं,</p>
<p>चित्रगुप्त कब खाते लेकर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>अदबी लोगो! अदब की चिन्ता जायज़ है,</p>
<p>हर नुक्कड़ पर चार सुख़नवर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>सबका नंबर आएगा, निश्चिंत रहो!</p>
<p>धुंधले साए बंकर-बंकर बैठे हैं।</p>
<p></p>
<p>बैरागी बातें करने वालों की भी,</p>
<p>छाती पर सोने के ज़ेवर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p>पहले उल्लू बैठा था, पर एक ही था,</p>
<p>अब हर डाली पर दो बंदर बैठे हैं।</p>
<p> </p>
<p></p>
<p> </p>
<p>मौलिक / अप्रकाशित,</p>
<p>बलराम धाकड़ l</p>ग़ज़ल: वक़्त की शतरंज पर किस्मत का एक मोहरा हूँ मैं।tag:openbooksonline.com,2019-10-16:5170231:BlogPost:9944382019-10-16T16:30:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<div dir="auto">2122 2122 2122 212</div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">वक़्त की शतरंज पर किस्मत का एक मोहरा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">ज़िंदगी इतना भी ख़ुश मत हो, अभी ज़िंदा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">मैं ख़ुदा की हाज़िरी में भी न बदलूँगा बयान, </div>
<div dir="auto">तुझको हाज़िर और नाज़िर जानकार कहता हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto"><div dir="auto">एक ही घर में बसर करना मुहब्बत तो नहीं, </div>
<div dir="auto">आज भी तेरी ख़ुशी…</div>
</div>
<div dir="auto">2122 2122 2122 212</div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">वक़्त की शतरंज पर किस्मत का एक मोहरा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">ज़िंदगी इतना भी ख़ुश मत हो, अभी ज़िंदा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">मैं ख़ुदा की हाज़िरी में भी न बदलूँगा बयान, </div>
<div dir="auto">तुझको हाज़िर और नाज़िर जानकार कहता हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto"><div dir="auto">एक ही घर में बसर करना मुहब्बत तो नहीं, </div>
<div dir="auto">आज भी तेरी ख़ुशी और ग़म से वाबस्ता हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
</div>
<div dir="auto">मेरी हर एक बात के मतलब हैं सौ, मक़सद हज़ार,</div>
<div dir="auto">झूठ भी सच की मीनारों से कहा करता हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">ऐ मेरे मालिक! ये तेरा अक्स मैला हो गया, </div>
<div dir="auto">अब भी लगता है तुझे तेरा नुमाइंदा हूँ मैं? </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">ये मुहब्बत है तुम्हारी और तो कुछ भी नहीं, </div>
<div dir="auto">शायरों की भीड़ में अब तक पसंदीदा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">उपनिषद, क़ुर्आन दोनों ठीक लगते हैं मुझे, </div>
<div dir="auto">और उन्हें लगता है उनकी कौम को ख़तरा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">जिसमें बह जाते हैं इकदिन मीर भी, मंसूर भी, </div>
<div dir="auto">बस उसी बहते हुए दरिया का एक क़तरा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">तुमने जिसको तोड़कर बाज़ार जैसा कर दिया, </div>
<div dir="auto">ये समझ लीजे, उसी मंदिर का कुछ मलबा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">ये मेरा लहजा, मेरा लहजा नहीं है दोस्तो, </div>
<div dir="auto">मेरा मुझमें कुछ नहीं है, सिर्फ़ आईना हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">मुश्क़िलों की आँच ने आसान काफी कर दिया,</div>
<div dir="auto">आज भी लेकिन मुझे लगता है पेचीदा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">कुछ अधूरी हसरतों का हैरत अंगेज़ अक्स हूँ, </div>
<div dir="auto">और कुछ टूटे हुए ख़्वाबों का आमेज़ा हूँ मैं। </div>
<div dir="auto">.</div>
<div dir="auto">मौलिक/अप्रकाशित, </div>
<div dir="auto">बलराम धाकड़ । </div>ग़ज़ल- बलराम धाकड़ (हम अपनी ज़िंदगी भर ज़िंदगी बर्दाश्त करते हैं)tag:openbooksonline.com,2019-02-11:5170231:BlogPost:9744782019-02-11T17:00:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<div dir="auto"><div dir="auto">1222 1222 1222 1222</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सुबह से शाम तक नाराज़गी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto">हम अपने अफ़सरों की ज़्यादती बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
</div>
<div dir="auto">अज़ल से हम उजाले के रहे हैं मुन्तज़िर लेकिन,</div>
<div dir="auto">मुक़द्दर ये कि अबतक तीरगी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सँभालो लड़खड़ाते अपने क़दमों को, ख़ुदा…</div>
<div dir="auto"><div dir="auto">1222 1222 1222 1222</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सुबह से शाम तक नाराज़गी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto">हम अपने अफ़सरों की ज़्यादती बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
</div>
<div dir="auto">अज़ल से हम उजाले के रहे हैं मुन्तज़िर लेकिन,</div>
<div dir="auto">मुक़द्दर ये कि अबतक तीरगी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सँभालो लड़खड़ाते अपने क़दमों को, ख़ुदा वालो,</div>
<div dir="auto">ये पैमाने तो कितनी बेख़ुदी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सुना है, मौत महबूबा है, उसकी इंतज़ारी में,</div>
<div dir="auto">हम अपनी ज़िंदगी भर ज़िंदगी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">कुछ ऐसे शख़्स जो हमदर्दियों के कारोबारी हैं,</div>
<div dir="auto">वो अपनी नेकियों से हर बदी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">तुम्हारे कान के झुमके सहमकर, कसमसाकर भी,</div>
<div dir="auto">तुम्हारी ज़ुल्फ़ की पेचीदगी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">बस अपने दो निवालों के लिए मीलों तलक उड़कर,</div>
<div dir="auto">कबूतर चिट्ठियों की तस्करी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">हज़ारों खूबियां और ना-शनासा इश्क़ से होना,</div>
<div dir="auto">चलो हम आपमें इतनी कमी बर्दाश्त करते हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मौलिक/अप्रकाशित।</div>
<div dir="auto">- बलराम धाकड़ ।</div>ग़ज़ल- बलराम धाकड़ (मुहब्बत के सफ़र में सैकड़ों आज़ार आने हैं)tag:openbooksonline.com,2019-01-31:5170231:BlogPost:9724712019-01-31T17:00:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<div dir="auto">1222 1222 1222 1222</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मदारिस हैं, मसाजिद, मैकदे हैं, कारख़ाने हैं।</div>
<div dir="auto">हमारी ज़िन्दगी में और भी बाज़ार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">ये लावारिस से पौधे बस इसी अफ़वाह से खुश हैं,</div>
<div dir="auto">जताने इख़्तियार इन पर भी दावेदार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मैं मरना चाहता हूँ और वो कहते हैं जीता…</div>
<div dir="auto">1222 1222 1222 1222</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मदारिस हैं, मसाजिद, मैकदे हैं, कारख़ाने हैं।</div>
<div dir="auto">हमारी ज़िन्दगी में और भी बाज़ार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">ये लावारिस से पौधे बस इसी अफ़वाह से खुश हैं,</div>
<div dir="auto">जताने इख़्तियार इन पर भी दावेदार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मैं मरना चाहता हूँ और वो कहते हैं जीता रह,</div>
<div dir="auto">उन्हीं का हुक़्म मेरी धड़कनें हर बार माने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">दुःशासन, कर्ण, अर्जुन, कृष्ण, शकुनि, द्रोण के जैसे,</div>
<div dir="auto">अभी तेरी कहानी में कई किरदार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">चलन पर वो हमारे देखिए, तनक़ीद करते हैं,</div>
<div dir="auto">कि जिनकी कीमतें ख़ुद ही के घर में चार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">अभी इस दर्द, आँसू और घुटन को पेशगी समझो,</div>
<div dir="auto">मुहब्बत के सफ़र में सैकड़ों आज़ार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">बहार आने को है, बारूद की ख़ुश्बू फ़ज़ा में है,</div>
<div dir="auto">यही बाकी है शाख़ों पे भी अब अँगार आने हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मौलिक/अप्रकाशित ।</div>ग़ज़ल-बलराम धाकड़ (किसने सूरज यहाँ खंगाले हैं)tag:openbooksonline.com,2019-01-14:5170231:BlogPost:9697252019-01-14T11:14:02.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<div dir="auto">2122 1212 112/22</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">किसने सूरज यहाँ खंगाले हैं।</div>
<div dir="auto">कितने मैले से ये उजाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"><div dir="auto">आज के दौर के ये अहल-ए-वतन,</div>
<div dir="auto">बस दरकते हुए शिवाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
</div>
<div dir="auto">अब तो किस्सा तमाम ही कर दे,</div>
<div dir="auto">ऐ हुक़ूमत! तेरे हवाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सच तिजोरी में क़ैद रख्खा…</div>
<div dir="auto">2122 1212 112/22</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">किसने सूरज यहाँ खंगाले हैं।</div>
<div dir="auto">कितने मैले से ये उजाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"><div dir="auto">आज के दौर के ये अहल-ए-वतन,</div>
<div dir="auto">बस दरकते हुए शिवाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
</div>
<div dir="auto">अब तो किस्सा तमाम ही कर दे,</div>
<div dir="auto">ऐ हुक़ूमत! तेरे हवाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">सच तिजोरी में क़ैद रख्खा है,</div>
<div dir="auto">झूठ ने मोरचे सँभाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">यूँ तो मुद्दे सभी पुराने थे,</div>
<div dir="auto">उसने सिक्के नए उछाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">चैन, उम्मीद, अम्न और सपने,</div>
<div dir="auto">ये सियासत के कुछ निवाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">अब क़यामत का शोर बरपेगा,</div>
<div dir="auto">फिर से आँखों ने ख़्वाब पाले हैं।</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">~ बलराम धाकड़ ।</div>
<div dir="auto">मौलिक/अप्रकाशित ।</div>ग़ज़ल- बलराम धाकड़ (जीवन सरोज खिल के भी सुरभित नहीं हुआ।)tag:openbooksonline.com,2018-12-18:5170231:BlogPost:9656562018-12-18T10:30:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">221, 2121, 1221, 212</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">आरोप ये गलत है कि पुष्पित नहीं हुआ।<br></br> जीवन सरोज खिल के हाँ सुरभित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">छल, साम, दाम, दण्ड, कुटिलता चरम पे थी,<br></br> ऐसे ही कर्ण रण में पराजित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">कैसा ये इन्क़लाब है, बदलाव कुछ नहीं,<br></br> अम्बर अभी तो रक्त से रंजित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">गिरकर संभल रहे हैं, गिरे जितनी बार हम,<span> </span><br></br> साहस हमारा आज भी खण्डित नहीं…</p>
<p dir="ltr">221, 2121, 1221, 212</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">आरोप ये गलत है कि पुष्पित नहीं हुआ।<br/> जीवन सरोज खिल के हाँ सुरभित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">छल, साम, दाम, दण्ड, कुटिलता चरम पे थी,<br/> ऐसे ही कर्ण रण में पराजित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">कैसा ये इन्क़लाब है, बदलाव कुछ नहीं,<br/> अम्बर अभी तो रक्त से रंजित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">गिरकर संभल रहे हैं, गिरे जितनी बार हम,<span> </span><br/> साहस हमारा आज भी खण्डित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">क्या मुझको मिल गया है, मुझे क्या नहीं मिला,</p>
<p dir="ltr">मन में तो है विषाद, मैं चिंतित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">विचलित हुई सदा ही ये नारी, ये सच नहीं,<br/> गौतम कभी अहिल्या सा शापित नहीं हुआ।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मौलिक/अप्रकाशित।</p>
<p dir="ltr">~बलराम धाकड़ ।</p>ग़ज़ल- बलराम धाकड़ (चलो धुंआ तो उठा, इस गरीबख़ाने से)tag:openbooksonline.com,2018-12-12:5170231:BlogPost:9652442018-12-12T16:25:40.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">1212,1122,1212,22/112</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तमाम ख़्वाब जलाने से, दिल जलाने से।<br></br>चलो धुंआ तो उठा, इस गरीबख़ाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हमें अदा न करो हक़, हिसाब ही दे दो,<br></br>नदी खड़ी हुई है दूर क्यों मुहाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">चराग़ ही के तले क्यों अंधेरा होता है,<br></br>ये राज़ खुल न सकेगा कभी ज़माने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">वो सूखती हुई बेलों को सींचकर देखें,<br></br>ख़ुदा मिला है किसे घंटियाँ बजाने से।…</p>
<p dir="ltr">1212,1122,1212,22/112</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तमाम ख़्वाब जलाने से, दिल जलाने से।<br/>चलो धुंआ तो उठा, इस गरीबख़ाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हमें अदा न करो हक़, हिसाब ही दे दो,<br/>नदी खड़ी हुई है दूर क्यों मुहाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">चराग़ ही के तले क्यों अंधेरा होता है,<br/>ये राज़ खुल न सकेगा कभी ज़माने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">वो सूखती हुई बेलों को सींचकर देखें,<br/>ख़ुदा मिला है किसे घंटियाँ बजाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">शमां जलेगी, अंधेरे पनाह मांगेंगे,<br/>हुई है रात उमीदों की लौ बुझाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ये रोज़-रोज़ के फ़ाके हमें नहीं मंज़ूर,<br/>चलो कि दूर चलें ऐसे आशियाने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तुम्हारी याद यहाँ चैन से न जीने दे,<br/>ख़ुदा निज़ात ही दे दे अब इस फ़साने से।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">~ बलराम धाकड़ ।</p>
<p dir="ltr">(मौलिक/अप्रकाशित)</p>काँच पत्थर से भले टकरा गया। (ग़ज़ल- बलराम धाकड़)tag:openbooksonline.com,2018-11-02:5170231:BlogPost:9594032018-11-02T10:00:43.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">2122 2122 212</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">काँच पत्थर से भले टकरा गया।<br></br>ज़िंदगी का फ़लसफ़ा समझा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फ़िर सियासत में हुई हलचल कहीं,<br></br>मीडिया के हाथ मुद्दा आ गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">सारी दुनिया एक कुनबा है अगर,<br></br>आयतन रिश्तों का क्यों घटता गया?</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">इक बतोलेबाज की डींगें सुनीं,<br></br>आदमी घुटनों के<b> </b>ऊपर<b><span> </span></b>आ गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फिर किसी औरत का दामन जल…</p>
<p dir="ltr">2122 2122 212</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">काँच पत्थर से भले टकरा गया।<br/>ज़िंदगी का फ़लसफ़ा समझा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फ़िर सियासत में हुई हलचल कहीं,<br/>मीडिया के हाथ मुद्दा आ गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">सारी दुनिया एक कुनबा है अगर,<br/>आयतन रिश्तों का क्यों घटता गया?</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">इक बतोलेबाज की डींगें सुनीं,<br/>आदमी घुटनों के<b> </b>ऊपर<b><span> </span></b>आ गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फिर किसी औरत का दामन जल गया,<br/>फ़िर किसी का कोई बचपन खा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ज़लज़ले के बाद की तस्वीर में,<br/>देखकर फ़ानी जहां घबरा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">वासिते उसके मेरे दिल में दबीं,<br/>लाख गिरहें थीं मगर सुलझा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">शुक्रिया! ऐ ज़िंदगानी के चलन,<br/>शायरी के मायने<b> </b>समझा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">क्यों किराए की इमारत पर गुमां?<br/>मौत आई, रूह का क़ब्ज़ा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">नौकरी पूरी हुई, कुर्सी गई,<br/>शुहरतें रुख़सत हुईं, रुतबा गया।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">~मौलिक/अप्रकाशित।</p>
<p dir="ltr">~ बलराम धाकड़ ।</p>जिसतरह चाँद पिघलकर किसी छत पर उतरे। ( ग़ज़ल- बलराम धाकड़)tag:openbooksonline.com,2018-10-30:5170231:BlogPost:9592282018-10-30T18:17:43.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">चन्द अश्आर मेरे अश्क़ से बहकर उतरे।</p>
<p dir="ltr">जो पसीने में हुए तर, वही बेहतर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तेरी यादों के यूँ तूफ़ां हैं दिलों पे क़ाबिज़,<br></br>जैसे बादल कोई पर्बत पे घुमड़कर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">स्याह रातों में तेरा ऐसे दमकता था बदन,<br></br>जिसतरह चाँद पिघलकर किसी छत पर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मैं तुझे प्यार करूँ, और बहुत प्यार करूँ,<br></br>ऐसे जज़्बात मेरे दिल में बराबर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ऐसी ज़ुल्मत…</p>
<p dir="ltr">चन्द अश्आर मेरे अश्क़ से बहकर उतरे।</p>
<p dir="ltr">जो पसीने में हुए तर, वही बेहतर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तेरी यादों के यूँ तूफ़ां हैं दिलों पे क़ाबिज़,<br/>जैसे बादल कोई पर्बत पे घुमड़कर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">स्याह रातों में तेरा ऐसे दमकता था बदन,<br/>जिसतरह चाँद पिघलकर किसी छत पर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मैं तुझे प्यार करूँ, और बहुत प्यार करूँ,<br/>ऐसे जज़्बात मेरे दिल में बराबर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ऐसी ज़ुल्मत ये सितम अब हुए आदत में शरीक़,<br/>अब मज़ा आए अगर धड़ से मेरा सर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">उसका दिल कैसे धड़कने से करेगा इंकार,<br/>जिसके सीने में तेरे इश्क़ का ख़ंजर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मैं इलाही के करोबार से वाकिफ़ न हुआ,<br/>उनको आदाब जिनके सर पे पयम्बर उतरे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मैं अभी तक ये न समझा कि तेरे जाने के बाद,</p>
<p dir="ltr">किसतरह मेरी इन आँखों में समंदर उतरे?</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">~मौलिक/अप्रकाशित।</p>
<p dir="ltr">~ बलराम धाकड़ ।</p>ग़ज़ल- बलराम धाकड़ (वो मेरे साथ था, मेरा शिकार होने तक)tag:openbooksonline.com,2018-10-29:5170231:BlogPost:9586882018-10-29T08:10:46.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">1212, 1122, 1212, 22</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">अजीब बात है, दुश्मन से यार होने तक,</p>
<p dir="ltr">वो मेरे साथ था, मेरा शिकार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">उबलते खौलते सागर से पार होने तक,</p>
<p dir="ltr">ख़ुदा को भूल न पाए ख़ुमार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हमें भी कम न थीं ख़ुशफ़हमियां मुहब्बत में,<br></br>हमारा दर्द से अव्वल क़रार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तुम्हारा ज़ुल्म बढ़ेगा, हमें ख़बर है ये,<br></br>तुम्हारे हुस्न का अगला शिकार…</p>
<p dir="ltr">1212, 1122, 1212, 22</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">अजीब बात है, दुश्मन से यार होने तक,</p>
<p dir="ltr">वो मेरे साथ था, मेरा शिकार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">उबलते खौलते सागर से पार होने तक,</p>
<p dir="ltr">ख़ुदा को भूल न पाए ख़ुमार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हमें भी कम न थीं ख़ुशफ़हमियां मुहब्बत में,<br/>हमारा दर्द से अव्वल क़रार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तुम्हारा ज़ुल्म बढ़ेगा, हमें ख़बर है ये,<br/>तुम्हारे हुस्न का अगला शिकार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ख़िज़ाओं के ये दरख़्तों से कहो, ज़ब्त करें,<br/>बचा रखें ये पत्तियाँ बहार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हर एक ज़िद से पिघलता हूँ, ग़र्क होता हूँ,<span> </span><br/>तुम्हारे सर पे नई ज़िद सवार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तमाम उम्र मुझे ये कचोटता ही रहा,</p>
<p dir="ltr">मेरा वजूद मेरे तार-तार होने तक।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">~मौलिक/अप्रकाशित।</p>
<p dir="ltr">~बलराम धाकड़ </p>ग़ज़ल~ बलराम धाकड़ (इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे)tag:openbooksonline.com,2018-10-27:5170231:BlogPost:9584532018-10-27T14:48:50.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<div dir="auto">1212 1122 1212 112/22</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"><p dir="ltr">इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे।<br></br>तरीक़ा उनका था जैसे शहीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">वो एक बार सही महफ़िलों में आएं तो,<br></br>उन्हें हम अपनी ग़ज़ल का मुरीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">उम्मीद बन के जो इस ज़िन्दगी में शामिल हो,<br></br>तो कैसे तुमको भला नाउम्मीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">जो तुमने ख़्वाब भी देखे बराबरी के तो,<br></br>वो ऐसे ख़्वाब की मिट्टी…</p>
</div>
<div dir="auto">1212 1122 1212 112/22</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto"><p dir="ltr">इरादा तो था मुहर्रम को ईद कर देंगे।<br/>तरीक़ा उनका था जैसे शहीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">वो एक बार सही महफ़िलों में आएं तो,<br/>उन्हें हम अपनी ग़ज़ल का मुरीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">उम्मीद बन के जो इस ज़िन्दगी में शामिल हो,<br/>तो कैसे तुमको भला नाउम्मीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">जो तुमने ख़्वाब भी देखे बराबरी के तो,<br/>वो ऐसे ख़्वाब की मिट्टी पलीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">तुम उनसे पानी, सड़क, रौशनी तो मत माँगो,<br/>तुम्हें वो चाँद-सितारे ख़रीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">सितम न ढाएंगे ऐसी उम्मीद भी मत रख,<br/>तुम्हें वो अपने सितम का मुफ़ीद कर देंगे।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">~मौलिक/अप्रकाशित</p>
<p dir="ltr">~ बलराम धाकड़</p>
</div>ग़ज़ल- चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बादtag:openbooksonline.com,2018-10-23:5170231:BlogPost:9579072018-10-23T18:30:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">2122 2122 2122 212</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद<br></br> चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया<br></br> यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली</p>
<p dir="ltr">मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का<br></br> बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के…</p>
<p dir="ltr">2122 2122 2122 212</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद<br/> चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया<br/> यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली</p>
<p dir="ltr">मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का<br/> बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">फूल, तितली, चाँद-तारे, रंग से महरूम हैं</p>
<p dir="ltr">आपकी रानाई को रंगीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr"><span>ख़ूब उगला ज़ह्र यारों ने तअल्लुक़ तोड़ कर</span></p>
<p dir="ltr">साँप का बिल है मेरी अस्तीन कह देने के बाद</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">~ बलराम धाकड़</p>
<p dir="ltr">मौलिक/अप्रकाशित।</p>ग़ज़ल- बलराम धाकड़ ( मसौदा भी ज़रूरी है...)tag:openbooksonline.com,2018-02-21:5170231:BlogPost:9146902018-02-21T06:53:06.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p dir="ltr">1222,1222,1222,1222</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ज़रूरी है अगर उपवास, रोज़ा भी ज़रूरी है।<br></br>रवाज़ों का ज़रा होना अलहदा भी ज़रूरी है।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हमें ये फ़ख़्र होता है कि हम हिंदौस्तानी हैं,<br></br>हमारे बीच हमदर्दी का सौदा भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मनाने रूठ जाने के लिखे हों क़ाइदे जिसमें,<br></br>मुहब्बत के लिए ऐसा मसौदा भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">किसानों के लिए बिजली ओ पानी ही नहीं काफ़ी,<br></br>उन्हें ख़सरा,…</p>
<p dir="ltr">1222,1222,1222,1222</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">ज़रूरी है अगर उपवास, रोज़ा भी ज़रूरी है।<br/>रवाज़ों का ज़रा होना अलहदा भी ज़रूरी है।।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">हमें ये फ़ख़्र होता है कि हम हिंदौस्तानी हैं,<br/>हमारे बीच हमदर्दी का सौदा भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">मनाने रूठ जाने के लिखे हों क़ाइदे जिसमें,<br/>मुहब्बत के लिए ऐसा मसौदा भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">किसानों के लिए बिजली ओ पानी ही नहीं काफ़ी,<br/>उन्हें ख़सरा, ख़तौनी और नक़्शा भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">निज़ामो को ये लाज़िम बात समझाए कोई जाकर,<br/>सकोरा लाज़िमी तो है, परिंदा भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr"></p>
<p dir="ltr">इन आँखों को महज़ सुरमा औ काजल ही नहीं काफ़ी,<br/>इन्हें उम्मीद, बीनाई औ सपना भी ज़रूरी है।</p>
<p dir="ltr" style="text-align: center;"></p>
<p dir="ltr">मौलिक/अप्रकाशित<br/>- बलराम धाकड़।</p>नई रुत का अभी तूफ़ान बाक़ी है... ग़ज़ल- बलराम धाकड़tag:openbooksonline.com,2018-01-23:5170231:BlogPost:9105632018-01-23T12:48:48.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p>१२२२,१२२२,१२२२</p>
<p></p>
<p>नई रुत का अभी तूफ़ान बाकी है।<br></br>निज़ामत का नया उन्वान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>निवाले छीनकर ख़ुश हो मेरे आका,<br></br>अभी अपना ये दस्तरख़ान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>अभी टूटा नहीं है सब्र का पुल भी,<br></br>ज़रा सा और इत्मीनान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>अभी थोड़ी सी घाटी ही तो खोई है,<br></br>अभी तो सारा हिन्दुस्तान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>हथेली पर तुम्हारी रख तो दीं आँखें,<br></br>हमारे पास सुरमेदान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>कयामत के बचे होंगे महीने कुछ,<br></br>अभी इंसान में इंसान बाकी…</p>
<p>१२२२,१२२२,१२२२</p>
<p></p>
<p>नई रुत का अभी तूफ़ान बाकी है।<br/>निज़ामत का नया उन्वान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>निवाले छीनकर ख़ुश हो मेरे आका,<br/>अभी अपना ये दस्तरख़ान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>अभी टूटा नहीं है सब्र का पुल भी,<br/>ज़रा सा और इत्मीनान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>अभी थोड़ी सी घाटी ही तो खोई है,<br/>अभी तो सारा हिन्दुस्तान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>हथेली पर तुम्हारी रख तो दीं आँखें,<br/>हमारे पास सुरमेदान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>कयामत के बचे होंगे महीने कुछ,<br/>अभी इंसान में इंसान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>करोगे इसपे कब यलगार, ऐ हातिम,<br/>उम्मीदों का जो कब्रिस्तान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>पियादों की ये आहों का तक़ाज़ा था,<br/>वज़ारत पिट गई सुल्तान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>खड़ी आवाम है घुटनों के बल साहब,<br/>कहें, अब और क्या फ़रमान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>दिमागों पर है पहरा, बज़्न है दिल पर,<br/>हिमालय से बड़ी चट्टान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>सच्चाई की हुई नीलाम इज़्ज़त अब,<br/>सहमता सा खड़ा ईमान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>निचोड़ो और थोड़ा ख़ूँ कलेजे से,<br/>बदन में और थोड़ी जान बाकी है।</p>
<p></p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित<br/>- बलराम धाकड़</p>चलो ये मान लेते हैं... (ग़ज़ल)- बलराम धाकड़tag:openbooksonline.com,2017-12-25:5170231:BlogPost:9054962017-12-25T05:37:18.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p>1222, 1222, 1222, 1222</p>
<p></p>
<p>चलो ये मान लेते हैं कि दफ़्तर तक पहुँचती है।<br></br>मगर क्या वाकई ये डाक, अफ़सर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>नज़र मेरी सितारों के बराबर तक पहुँचती है।<br></br>दिया हूँ, रोशनी मेरी हर इक घर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>वहां कैसा नज़ारा है, चलो देखें, ज़रा सोचें,<br></br>नज़र सैयाद की चींटी के अब पर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>शरीफ़ों की हवेली में ये आहें गूँजती तो हैं,<br></br>ज़रा धीरे भरो सिसकी, ये बाहर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>किसी से भी पता पूछा नहीं उसने कभी…</p>
<p>1222, 1222, 1222, 1222</p>
<p></p>
<p>चलो ये मान लेते हैं कि दफ़्तर तक पहुँचती है।<br/>मगर क्या वाकई ये डाक, अफ़सर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>नज़र मेरी सितारों के बराबर तक पहुँचती है।<br/>दिया हूँ, रोशनी मेरी हर इक घर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>वहां कैसा नज़ारा है, चलो देखें, ज़रा सोचें,<br/>नज़र सैयाद की चींटी के अब पर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>शरीफ़ों की हवेली में ये आहें गूँजती तो हैं,<br/>ज़रा धीरे भरो सिसकी, ये बाहर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>किसी से भी पता पूछा नहीं उसने कभी लेकिन,<br/>नदी अपनी मशक्कत से समन्दर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>जुआ उसने नहीं खेला, कभी चाही नहीं सत्ता,<br/>बताओ द्रौपदी क्यों कर के चौसर तक पहुँचती है।</p>
<p></p>
<p>तुम्हारे पैतरेबाजी से दिल्ली दूर रहती है,<br/>हमारी चीख बस नक्सल से बस्तर तक पहुँचती है।</p>
<p style="text-align: right;"></p>
<p>(मौलिक/अप्रकाशित)<br/>--- बलराम धाकड़</p>अब भी क़ायम है(ग़ज़ल)- बलराम धाकड़tag:openbooksonline.com,2017-11-06:5170231:BlogPost:8944732017-11-06T13:02:15.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
१२२२,१२२२,१२२२,१२२२<br />
<br />
दिलों पर कुछ ग़मों की हुक़्मरानी अब भी क़ाइम है,<br />
कि निचली बस्तियों में सरगरानी अब क़ाइम है।<br />
<br />
हक़ीक़त है कि उनके वास्ते सब कुछ किया हमने,<br />
मगर औरत के लव पर बेज़ुबानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
मैं शादी तो करुँगी, मह्र, वालिद आप रख लेना,<br />
कि अपनी बात पर बिटिया सयानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
यक़ीनन छोड़ दी हम सबने अब शर्मिन्दगी लेकिन,<br />
हया का आँख में थोड़ा सा पानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
धड़कना दिल ने कुछ कम कर दिया, इस दौर में लेकिन,<br />
लहू के चंद क़तरों में रवानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
<br />
मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के कुछ लोग जो आए हैं सड़कों…
१२२२,१२२२,१२२२,१२२२<br />
<br />
दिलों पर कुछ ग़मों की हुक़्मरानी अब भी क़ाइम है,<br />
कि निचली बस्तियों में सरगरानी अब क़ाइम है।<br />
<br />
हक़ीक़त है कि उनके वास्ते सब कुछ किया हमने,<br />
मगर औरत के लव पर बेज़ुबानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
मैं शादी तो करुँगी, मह्र, वालिद आप रख लेना,<br />
कि अपनी बात पर बिटिया सयानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
यक़ीनन छोड़ दी हम सबने अब शर्मिन्दगी लेकिन,<br />
हया का आँख में थोड़ा सा पानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
धड़कना दिल ने कुछ कम कर दिया, इस दौर में लेकिन,<br />
लहू के चंद क़तरों में रवानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
<br />
मुख़ालिफ़ ज़ुल्म के कुछ लोग जो आए हैं सड़कों पर,<br />
ये जोख़िम ये बताता है, जवानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
ये सच है, मिल गई है उसमें अब बारूद की कुछ बू,<br />
मगर घाटी में खु़शबू जाफ़रानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
कि धरती की हरीरी छीन ली अपनी तरक्क़ी ने, <br />
मग़र अम्बर की रंगत आसमानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
हमारे गाँव ने ख़ुद को बहुत महफ़ूज़ रक्खा है,<br />
रवायत हर पुरानी से पुरानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
ज़मीनें बेच दीं सब, तर्बियत सारी बचा ली है,<br />
हमारे पास पुरखों की निशानी अब भी क़ाइम है।<br />
<br />
मौलिक/अप्रकाशित।ग़ज़ल: बलराम धाकड़tag:openbooksonline.com,2017-10-11:5170231:BlogPost:8883692017-10-11T12:30:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
<p>1222-1222-1222-1222</p>
<p></p>
<p>जनम होगा तो क्या होगा मरण होगा तो क्या होगा<br></br> तिमिर से जब भरा अंतःकरण होगा तो क्या होगा<br></br> <br></br> हरिक घर से यूँ सीता का हरण होगा तो क्या होगा<br></br> फिर उसपे राम का वो आचरण होगा तो क्या होगा<br></br> <br></br> मेरे अहले वतन सोचो जो रण होगा तो क्या होगा<br></br> महामारी का फिर जब संक्रमण होगा तो क्या होगा<br></br> <br></br> वो ही ख़ैरात बांटेंगे वो ही एहसां जताएंगे<br></br> विमानों से निज़ामों का भ्रमण होगा तो क्या होगा<br></br> <br></br> जमा साहस है सदियों से हमारी देह में अबतक<br></br> नसों…</p>
<p>1222-1222-1222-1222</p>
<p></p>
<p>जनम होगा तो क्या होगा मरण होगा तो क्या होगा<br/> तिमिर से जब भरा अंतःकरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> हरिक घर से यूँ सीता का हरण होगा तो क्या होगा<br/> फिर उसपे राम का वो आचरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> मेरे अहले वतन सोचो जो रण होगा तो क्या होगा<br/> महामारी का फिर जब संक्रमण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> वो ही ख़ैरात बांटेंगे वो ही एहसां जताएंगे<br/> विमानों से निज़ामों का भ्रमण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> जमा साहस है सदियों से हमारी देह में अबतक<br/> नसों में रक्त का जब संचरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> अहिंसा और सत्याग्रह से जो विजयी हुआ जग में<br/> उसी गाँधी का गोली से मरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> परिस्थितियाँ विकट द्वापर से कलियुग में उपस्थित हैं<br/> धरा पर कृष्ण का अब अवतरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> फ़िरौती देके बच्चे कम-से-कम घर लौट आते हैं<br/> जब अपनी अस्मिता का अपहरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> विचारों में नपुंसकता भरे जाने के अपराधी<br/> अगर इतिहास में ये उद्धरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> हम ऐसे आलसी और तुम वही उपभोक्तावादी<br/> हमारे दुर्गुणों का संकरण होगा तो क्या होगा<br/> <br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>अंधी जनता, राजा काना बढ़िया है ...गज़लtag:openbooksonline.com,2017-08-18:5170231:BlogPost:8743772017-08-18T15:00:00.000ZBalram Dhakarhttp://openbooksonline.com/profile/BalramDhakar
22-22-22-22-22-2<br />
<br />
नये दौर का नया ज़माना, बढ़िया है<br />
अंधी जनता, राजा काना, बढ़िया है<br />
<br />
अब तो है यह उन्नति की नव परिभाषा,<br />
जंगल काटो, पेड़ लगाना, बढ़िया है<br />
<br />
अपना राग अलापो अपनी सत्ता है,<br />
अपने मुंह मिट्ठू बन जाना, बढ़िया है<br />
<br />
नई सियासत में तबदीली आई है,<br />
आग लगा कर आग बुझाना, बढ़िया है<br />
<br />
हत्या करना बीते युग की बात हुई,<br />
अब दुश्मन की साख मिटाना, बढ़िया है<br />
<br />
अगर कोख में बिटिया अब तक जिंदा है,<br />
खूब पढ़ाना, ख़ूब बढ़ाना, बढ़िया है<br />
<br />
नहीं ज़ियादा की हमको दरकार सुनो,<br />
रोज उड़ाना, रोज़ कमाना, बढ़िया है<br />
<br />
सारी बस्ती जल जाए तो जल…
22-22-22-22-22-2<br />
<br />
नये दौर का नया ज़माना, बढ़िया है<br />
अंधी जनता, राजा काना, बढ़िया है<br />
<br />
अब तो है यह उन्नति की नव परिभाषा,<br />
जंगल काटो, पेड़ लगाना, बढ़िया है<br />
<br />
अपना राग अलापो अपनी सत्ता है,<br />
अपने मुंह मिट्ठू बन जाना, बढ़िया है<br />
<br />
नई सियासत में तबदीली आई है,<br />
आग लगा कर आग बुझाना, बढ़िया है<br />
<br />
हत्या करना बीते युग की बात हुई,<br />
अब दुश्मन की साख मिटाना, बढ़िया है<br />
<br />
अगर कोख में बिटिया अब तक जिंदा है,<br />
खूब पढ़ाना, ख़ूब बढ़ाना, बढ़िया है<br />
<br />
नहीं ज़ियादा की हमको दरकार सुनो,<br />
रोज उड़ाना, रोज़ कमाना, बढ़िया है<br />
<br />
सारी बस्ती जल जाए तो जल जाए,<br />
अपना छप्पर आप बचाना,बढ़िया है<br />
<br />
~ बलराम धाकड़<br />
मौलिक एवं अप्रकाशित।