Er. Ganesh Jee "Bagi"'s Posts - Open Books Online2024-03-28T11:25:08ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJeehttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991284039?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1lrvlldky889p&xn_auth=noलघुकथा : पीठ का दाग (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2023-03-01:5170231:BlogPost:10999172023-03-01T12:02:45.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><span style="font-size: 36pt;">द</span>रवाजे को खटकाते हुए पड़ोसन ने आवाज़ लगायी..<br></br>"गुड़िया की मम्मी, गुड़िया की मम्मी....."<br></br>"आओ आओ, शीला बहन, कैसी हो ?" दरवाजा खोलते हुए गुड़िया की मम्मी ने औपचारिकता निभायी ।<br></br>"सब ठीक है बहन, तनिक चीनी चाहिए था"<br></br>"अरे क्यों नही, अभी देती हूँ, बैठो तो"<br></br>"तुमको पता है शीला ! 605 वाली विमला की छोटी बेटी का चक्कर किसी से चल रहा है, कल उसको एक लड़के से बतियाते देखी थी"<br></br>"छोड़ो न बहन, उसके साथ पढ़ने वाला कॉलेज-वालेज का कोई लड़का रहा होगा"<br></br>"अरे ना…</p>
<p><span style="font-size: 36pt;">द</span>रवाजे को खटकाते हुए पड़ोसन ने आवाज़ लगायी..<br/>"गुड़िया की मम्मी, गुड़िया की मम्मी....."<br/>"आओ आओ, शीला बहन, कैसी हो ?" दरवाजा खोलते हुए गुड़िया की मम्मी ने औपचारिकता निभायी ।<br/>"सब ठीक है बहन, तनिक चीनी चाहिए था"<br/>"अरे क्यों नही, अभी देती हूँ, बैठो तो"<br/>"तुमको पता है शीला ! 605 वाली विमला की छोटी बेटी का चक्कर किसी से चल रहा है, कल उसको एक लड़के से बतियाते देखी थी"<br/>"छोड़ो न बहन, उसके साथ पढ़ने वाला कॉलेज-वालेज का कोई लड़का रहा होगा"<br/>"अरे ना रे, उनका तो संस्कार ही खराब है....."<br/>"गुड़िया की मम्मी, तुम्हारे रसोई से कुछ जलने की महक आ रही है"<br/>"वो बगल वाली मिसराइन की रसोई से महक आ रही होगी, बड़ी लापरवाह है"<br/>"फिर भी एक बार चेक तो कर लो"<br/>"अरे छोड़ ना, हा तो मैं कह रही थी कि....<br/>"विमला की बड़ी बेटी को भी मैंने एक दिन एक लड़के के साथ मोटरसाइकिल पर देखी थी"<br/>"देखो न बहन, जलने की महक कुछ अधिक ही आ रही है"<br/>"अच्छा.....गुड़िया, ऐ गुड़िया, देख तो अपने रसोई में कुछ जल रहा है क्या ?"<br/>"अरे बहन, गुड़िया घर में कहाँ होगी, मैं आ रही थी तो गुड़िया सूटकेस लेकर बाहर कही जा रही थी"<br/>गुड़िया की मम्मी तेज कदमों से गुड़िया के रूम की तरफ भागी, उधर उसके ही किचन में चूल्हे पर रखा खीर जल कर काला पड़ गया था"<br/>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</p>अतुकांत कविता : सुनो ना (गणेश बागी)tag:openbooksonline.com,2022-12-27:5170231:BlogPost:10957822022-12-27T12:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>अतुकांत कविता : सुनो ना<br></br> =====<br></br> सुनो ना, <br></br> कहनी है मुझे <br></br> दिल की बात..</p>
<p></p>
<p>जब घर से निकलता हूँ<br></br> और कोई पूछ लेता है, <br></br> कहाँ जा रहे हो<br></br> मैं बुरा नहीं मानता</p>
<p></p>
<p>जब चलता हूँ गाड़ी से<br></br> और बिल्ली काट देती है रास्ता<br></br> मैं रुकता नहीं <br></br> चलता रहता हूँ<br></br> मैं नही मानता अंधविश्वास</p>
<p></p>
<p>जब भी निकलता हूँ<br></br> किसी महत्वपूर्ण कार्य हेतु<br></br> माँ खिलाती है<br></br> दही और चीनी</p>
<p>माँ को है विश्वास<br></br> ऐसा करना <br></br> होता है शुभ …<br></br></p>
<p>अतुकांत कविता : सुनो ना<br/> =====<br/> सुनो ना, <br/> कहनी है मुझे <br/> दिल की बात..</p>
<p></p>
<p>जब घर से निकलता हूँ<br/> और कोई पूछ लेता है, <br/> कहाँ जा रहे हो<br/> मैं बुरा नहीं मानता</p>
<p></p>
<p>जब चलता हूँ गाड़ी से<br/> और बिल्ली काट देती है रास्ता<br/> मैं रुकता नहीं <br/> चलता रहता हूँ<br/> मैं नही मानता अंधविश्वास</p>
<p></p>
<p>जब भी निकलता हूँ<br/> किसी महत्वपूर्ण कार्य हेतु<br/> माँ खिलाती है<br/> दही और चीनी</p>
<p>माँ को है विश्वास<br/> ऐसा करना <br/> होता है शुभ <br/> मुझे विश्वास है माँ पर</p>
<p></p>
<p>सुबह सुबह<br/> जब सो कर उठता हूँ<br/> और देख लेता हूँ<br/> तुम्हारा चाँद-सा चेहरा<br/> सच कहता हूँ<br/> बन जाता है<br/> मेरा दिन,<br/> मुझे यक़ीन है<br/> यह नही है कोई अंधविश्वास</p>
<p></p>
<p>सुनो ना<br/> कहनी है मुझे</p>
<p>दिल की बात ।।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>लघुकथा : बँटवारा (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2022-04-27:5170231:BlogPost:10830092022-04-27T14:50:32.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><span>गाँव के एक दबंग व्यक्ति ने दादा जी के भोलेपन का फ़ायदा उठाकर ज़मीन और घर के एक भाग पर अवैध कब्ज़ा कर लिया था । दादा जी तो अब रहे नही किन्तु तीन दशकों की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद ज़मीन और घर वापस मिले । आपसी सहमति से बँटवारा हुआ । पूरी संपत्ति पिता जी और चाचा जी के बीच बराबर-बराबर बाँट दी गई । दोनों ने ख़ुशी-ख़ुशी अपना-अपना हिस्सा स्वीकार किया । सहसा पिता जी ने चाचा जी से कहा,</span><br></br><span>"देख छोटे, ज़मीन और घर का बँटवारा तो हो गया । किन्तु भविष्य में कभी तुझे रहने के लिए घर छोटा पड़े…</span></p>
<p><span>गाँव के एक दबंग व्यक्ति ने दादा जी के भोलेपन का फ़ायदा उठाकर ज़मीन और घर के एक भाग पर अवैध कब्ज़ा कर लिया था । दादा जी तो अब रहे नही किन्तु तीन दशकों की लंबी कानूनी लड़ाई लड़ने के बाद ज़मीन और घर वापस मिले । आपसी सहमति से बँटवारा हुआ । पूरी संपत्ति पिता जी और चाचा जी के बीच बराबर-बराबर बाँट दी गई । दोनों ने ख़ुशी-ख़ुशी अपना-अपना हिस्सा स्वीकार किया । सहसा पिता जी ने चाचा जी से कहा,</span><br/><span>"देख छोटे, ज़मीन और घर का बँटवारा तो हो गया । किन्तु भविष्य में कभी तुझे रहने के लिए घर छोटा पड़े तो वो पूरब वाला मेरे हिस्से के घर में तू या तेरे बच्चे बेहिचक रह सकते हैं ।"</span><br/><span>सामान्यतः ज़मीन-ज़ायदाद के मामले में मैं चुप ही रहता हूँ, किन्तु पिताजी द्वारा कही गयी यह बात मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं आयी । मैं बहुत ही सम्मानपूर्वक बस इतना ही कह पाया,</span><br/><span>"पिता जी और चाचा जी ! क्षमा चाहता हूँ किन्तु मुझे सन 1947 टाइप बँटवारा नहीं चाहिए ।"</span></p>
<p></p>
<p><span>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</span></p>दो क्षणिकाएँtag:openbooksonline.com,2022-03-01:5170231:BlogPost:10805162022-03-01T08:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><span style="text-decoration: underline;">01.ख्वाहिश</span></p>
<p></p>
<p>साधारण लोग<br></br> सहज स्वभाव</p>
<p></p>
<p>छोटी-छोटी बातें<br></br> दुःखी कर देती हैं<br></br> छोटी-छोटी बातों से<br></br> खुश हो जाते हैं</p>
<p></p>
<p>हम तो ख्वाब भी देखते हैं<br></br> तो छोटे-छोटे <br></br> टुकड़ों में....</p>
<p><br></br> नही है ख्वाहिश<br></br> आसमान छूने की<br></br> इतना चाहते हैं<br></br> बस जमीन न छूटे<br></br> और न छूटे<br></br> अपनों का साथ ।।</p>
<p></p>
<p><span style="text-decoration: underline;">02.सनक</span></p>
<p></p>
<p>कई…</p>
<p><span style="text-decoration: underline;">01.ख्वाहिश</span></p>
<p></p>
<p>साधारण लोग<br/> सहज स्वभाव</p>
<p></p>
<p>छोटी-छोटी बातें<br/> दुःखी कर देती हैं<br/> छोटी-छोटी बातों से<br/> खुश हो जाते हैं</p>
<p></p>
<p>हम तो ख्वाब भी देखते हैं<br/> तो छोटे-छोटे <br/> टुकड़ों में....</p>
<p><br/> नही है ख्वाहिश<br/> आसमान छूने की<br/> इतना चाहते हैं<br/> बस जमीन न छूटे<br/> और न छूटे<br/> अपनों का साथ ।।</p>
<p></p>
<p><span style="text-decoration: underline;">02.सनक</span></p>
<p></p>
<p>कई दिनों से<br/> वह देख रहा था<br/> बर्फ की चादर ओढ़े<br/> सुंदर शहर को..</p>
<p></p>
<p>शाम हुआ<br/> खुद को कर लिया <br/> कमरे में बंद<br/> रात भर लिखते रहा<br/> सुंदर-सुंदर प्रेम की कविताएँ<br/> और बाहर <br/> दो सनकी<br/> खेल रहे थे<br/> धमाकों का खेल...</p>
<p></p>
<p>सुबह बाहर निकला<br/> सुंदर शहर वीरान हो गया था<br/> चारों तरफ बर्बादी-ही-बर्बादी<br/> पागलों-सा <br/> इधर-उधर भटकने लगा<br/> फिर <br/> किसी कोने में दिखा<br/> एक आदमी,<br/> कराहता</p>
<p></p>
<p>बदहवास-सा वह<br/> उसके पास गया<br/> और पढ़ने लगा<br/> रात में अपनी लिखी हुई <br/> सुंदर-सुंदर कविताएँ<br/> फिर पूछा,<br/> कैसी लगीं?</p>
<p></p>
<p>आदमी ने धीरे-से कहा<br/> प्प.. प्प पानी ...</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p></p>
<p></p>लघुकथा : कर्तव्य (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2021-04-03:5170231:BlogPost:10579282021-04-03T10:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>एक साल हो गया था माँ से मिले हुए। मिलने का बहुत मन हो रहा था। इसलिए वह होली के अवसर पर गाँव जाना चाहता था। किन्तु छुट्टी का आवेदन अस्वीकार कर दिया गया। घर पहुँचते ही वह सीधे बिस्तर पर गिर पड़ा और सामने दीवार पर लगी स्वर्गीय पिता की तस्वीर को एकटक देखते-देखते कब आँख लग गई, कब वह सपनों में गोते खाने लगा, पता ही न चला।<br></br> "बेटा बहुत परेशान लग रहे हो!"<br></br> "हाँ पापा, इस कोरोना के कारण माँ से मिले एक साल हो गया, छुट्टी मिल नहीं रही है। क्या नौकरी का मतलब यही होता है कि आदमी घर-परिवार से ही कट…</p>
<p>एक साल हो गया था माँ से मिले हुए। मिलने का बहुत मन हो रहा था। इसलिए वह होली के अवसर पर गाँव जाना चाहता था। किन्तु छुट्टी का आवेदन अस्वीकार कर दिया गया। घर पहुँचते ही वह सीधे बिस्तर पर गिर पड़ा और सामने दीवार पर लगी स्वर्गीय पिता की तस्वीर को एकटक देखते-देखते कब आँख लग गई, कब वह सपनों में गोते खाने लगा, पता ही न चला।<br/> "बेटा बहुत परेशान लग रहे हो!"<br/> "हाँ पापा, इस कोरोना के कारण माँ से मिले एक साल हो गया, छुट्टी मिल नहीं रही है। क्या नौकरी का मतलब यही होता है कि आदमी घर-परिवार से ही कट जाए?"<br/> पिता ने बेटे का सिर सहलाते हुए समझाया,<br/> "तुम जो कह रहे हो बिल्कुल ठीक है बेटा, मगर समाज के प्रति भी तो तुम्हारा कुछ कर्तव्य है।"<br/> "और माँ के प्रति ?"<br/> "माँ के प्रति भी तुम्हारा कर्तव्य है बेटा।"<br/> "तो आप ये चाहते हैं कि मैं अपना ये कर्तव्य भूल जाऊँ?"<br/> "बिल्कुल भी नहीं बेटा! लेकिन एक बात हमेशा याद रखना कि तुम कोई आम सरकारी नौकर नहीं हो। तुम एक डॉक्टर हो... डॉक्टर !"<br/> -----</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>लघुकथा : मज़ा (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-11-09:5170231:BlogPost:10366712020-11-09T10:51:29.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><span style="font-size: 16px;"> </span><span style="font-size: 18pt;"><strong>आ</strong></span>ज वो बेहद खुश थी। कई दिनों बाद कुछ ठीक-ठाक ग्राहक आये थे। वह अरसे बाद आज रात बच्चों को अच्छा खाना खिला पाई थी। बच्चे भी बहुत दिनों बाद अच्छा खाना खाकर तृप्त दिख रहे थे, "माँ, वाह, मज़ा आ गया !"</p>
<p></p>
<p> आज की इस आमदनी की बात उसके दल्ले पति से भी न छुपी रह सकी थी। दो-चार थप्पड़ रसीद कर उसने उससे कुछ पैसे ऐंठ लिये। ठेके पर दोस्तों के साथ बैठ, ठर्रा गटकाते हुए उधर वह भी बड़बड़ाये जा…</p>
<p><span style="font-size: 16px;"> </span><span style="font-size: 18pt;"><strong>आ</strong></span>ज वो बेहद खुश थी। कई दिनों बाद कुछ ठीक-ठाक ग्राहक आये थे। वह अरसे बाद आज रात बच्चों को अच्छा खाना खिला पाई थी। बच्चे भी बहुत दिनों बाद अच्छा खाना खाकर तृप्त दिख रहे थे, "माँ, वाह, मज़ा आ गया !"</p>
<p></p>
<p> आज की इस आमदनी की बात उसके दल्ले पति से भी न छुपी रह सकी थी। दो-चार थप्पड़ रसीद कर उसने उससे कुछ पैसे ऐंठ लिये। ठेके पर दोस्तों के साथ बैठ, ठर्रा गटकाते हुए उधर वह भी बड़बड़ाये जा रहा था, "वाह मज़ा आ गया !"</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>अतुकांत : अमावस की कविता (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-09-13:5170231:BlogPost:10174592020-09-13T08:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p style="text-align: left;"><span style="font-size: 12pt;">सुबह-सुबह</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">सूरज को देखा</span><br></br> <span style="font-size: 12pt;">बहुत ही सुंदर</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">फूलों को देखा</span><br></br> <span style="font-size: 12pt;">बहुत ही प्यारे</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">रंग बिरंगी तितलियों को देखा</span><br></br> <span style="font-size: 12pt;">हृदय हुआ प्रफुल्लित…</span></p>
<p></p>
<p></p>
<p style="text-align: left;"><span style="font-size: 12pt;">सुबह-सुबह</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">सूरज को देखा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">बहुत ही सुंदर</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">फूलों को देखा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">बहुत ही प्यारे</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">रंग बिरंगी तितलियों को देखा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">हृदय हुआ प्रफुल्लित</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">प्यारे प्यारे बच्चों को देखा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">मन हुआ आनंदित</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">दोपहर में देखा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">बादलों संग सूरज की लुका छिपी</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">आहा ! कितना सुंदर...</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">शाम को देखा</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">आकाश का सौंदर्य</span><br/><span style="font-size: 12pt;">पश्चिम दिशा की सुनहरी लालिमा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">चिड़ियों का कौतुहल..</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">सब कुछ कितना सुंदर</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">कविता सृजन हेतु</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">सभी तत्व थे मेरे पास ।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">बैठ गया लिखने</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">कविता..</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">तभी दूसरे कमरे से</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">समाचार की छन-छन आवाज आने लगी -</span></p>
<p><br/> <span style="font-size: 12pt;">ड्रग का नशा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">सत्ता का नशा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">गुंडागर्दी</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">बलात्कार</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">कोरोना</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">समाज बाढ़ से तबाह</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">आह !</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">कविता छोड़, सोचा</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">चलो चाँद देखते हैं</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">छत पर गया</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">चाँद नहीं था</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">रात अमावस की थी ।</span></p>
<p></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">लौट आया कमरे में</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">ओह!</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">यह क्या !</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">कविता ने</span><br/> <span style="font-size: 12pt;">आत्महत्या कर ली थी</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">मैं निश्शब्द था !</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">और......</span></p>
<p><span style="font-size: 12pt;">पंखा निस्तब्ध !!</span> <br/> <span style="font-size: 12pt;">(मौलिक एवं अप्रकाशित)</span></p>अतुकांत कविता : निर्लज्ज (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-04-06:5170231:BlogPost:10039682020-04-06T07:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>अतुकांत कविता : निर्लज्ज</p>
<p>=================</p>
<p>उसने कहा,<br></br> मेरे पास गाड़ी है, बंगला है<br></br> बैंक बैलेंस है<br></br> तुम्हारे पास क्या है ?</p>
<p></p>
<p>मैने कहा,<br></br> मेरे पास हैं...<br></br> फेसबुकिये दोस्त<br></br> जो नियमित भेजते रहते हैं <br></br> गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग, <br></br> गुड नाईट, स्वीट ड्रीम वाले संदेश</p>
<p></p>
<p>उसने कहा,<br></br> मूर्ख हो तुम<br></br> निपट अज्ञानी हो</p>
<p></p>
<p>मैंने कहा,<br></br> हाँ, हो सकता है मैं हूँ <br></br> किंतु...<br></br> सक्रिय हो जाती है छठी इंद्रीय<br></br> जब…</p>
<p>अतुकांत कविता : निर्लज्ज</p>
<p>=================</p>
<p>उसने कहा,<br/> मेरे पास गाड़ी है, बंगला है<br/> बैंक बैलेंस है<br/> तुम्हारे पास क्या है ?</p>
<p></p>
<p>मैने कहा,<br/> मेरे पास हैं...<br/> फेसबुकिये दोस्त<br/> जो नियमित भेजते रहते हैं <br/> गुड मॉर्निंग, गुड इवनिंग, <br/> गुड नाईट, स्वीट ड्रीम वाले संदेश</p>
<p></p>
<p>उसने कहा,<br/> मूर्ख हो तुम<br/> निपट अज्ञानी हो</p>
<p></p>
<p>मैंने कहा,<br/> हाँ, हो सकता है मैं हूँ <br/> किंतु...<br/> सक्रिय हो जाती है छठी इंद्रीय<br/> जब इनबॉक्स में <br/> कोई आकर<br/> बड़े प्यार से कहती है<br/> हाय डियर !<br/> और पूछती है<br/> कैसे हो डियर ?</p>
<p></p>
<p>मुझे पता है<br/> थोड़ी देर में ये<br/> मांगेगी धन<br/> क्योंकि <br/> इतने प्यार से तो कभी मेरी घरवाली भी <br/> नहीं पूछती हाल चाल<br/> खैर...</p>
<p></p>
<p>मैं उसे उत्तर देता हूँ<br/> हाय ! .. मैं ठीक हूँ,<br/> किंतु पैसे-रुपओं के मामले में<br/> तनिक कंजूस हूँ<br/> आप कैसी है ?<br/> पता नही क्यों <br/> उधर से कोई <br/> उत्तर ही नही आता</p>
<p></p>
<p>उसने पुनः कहा,<br/> यार, तुम तो<br/> अव्वल दर्जे के बेहया इंसान हो <br/> तुममें संस्कार नाम की चीज है कि नहीं ?</p>
<p></p>
<p>मैंने कहा,<br/> संस्कार का तो मुझे पता नही<br/> बस एक ही चीज बची है मेरे पास<br/> वह है संवेदना...<br/> जब पूरा विश्व <br/> खड़ा हो<br/> मौत की दहलीज पर<br/> नित्य हो रही हो गिनती<br/> लाशों की<br/> सुनाई दे रहे हों<br/> विलाप के स्वर...</p>
<p></p>
<p>ऐसे में<br/> मैं नहीं पीट सकता <br/> ढ़ोल-नगाड़े,<br/> मैं नही फोड़ सकता <br/> बम-पटाखे</p>
<p></p>
<p>मैं तो बस <br/> प्रज्ज्वलित कर सकता हूँ<br/> एक दीया<br/> उम्मीदों से भरा....</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>कोरोना के विरुद्ध पाँच दोहे (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-03-20:5170231:BlogPost:10025232020-03-20T04:30:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>(1)</p>
<p>सुनी सुनाई बात पर, मत करना विश्वास ।<br></br> चक्कर में गौमूत्र के, थम ना जाए श्वास ।।</p>
<p>(2)</p>
<p>कोरोना से तेज अब, फैल रही अफ़वाह ।<br></br> सोच समझ कर पग रखो, कठिन बहुत है राह ।।</p>
<p>(3)<br></br> कोरोना के संग यदि, लड़ना है अब जंग ।<br></br> धरना-वरना बस करो, बंद करो सत्संग ।।</p>
<p>(4)<br></br> साफ सफाई स्वच्छता, सजग रहें दिन रात ।<br></br> दें साबुन से हाथ धो, कोरोना को मात ।</p>
<p>(5)</p>
<p>मुश्किल के इस दौर में, मत घबराओ यार ।<br></br> बस वैसा करते रहो, जो कहती सरकार ।।</p>
<p>(मौलिक एवं…</p>
<p>(1)</p>
<p>सुनी सुनाई बात पर, मत करना विश्वास ।<br/> चक्कर में गौमूत्र के, थम ना जाए श्वास ।।</p>
<p>(2)</p>
<p>कोरोना से तेज अब, फैल रही अफ़वाह ।<br/> सोच समझ कर पग रखो, कठिन बहुत है राह ।।</p>
<p>(3)<br/> कोरोना के संग यदि, लड़ना है अब जंग ।<br/> धरना-वरना बस करो, बंद करो सत्संग ।।</p>
<p>(4)<br/> साफ सफाई स्वच्छता, सजग रहें दिन रात ।<br/> दें साबुन से हाथ धो, कोरोना को मात ।</p>
<p>(5)</p>
<p>मुश्किल के इस दौर में, मत घबराओ यार ।<br/> बस वैसा करते रहो, जो कहती सरकार ।।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>तीन क्षणिकाएँ (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-03-06:5170231:BlogPost:10019542020-03-06T03:09:07.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>तीन क्षणिकाएँ ...</p>
<p><span style="text-decoration: underline;">एक: पन्ने</span> <br></br>कुछ पन्ने<br></br>अलग करने योग्य<br></br>जुड़ने चाहिए<br></br>बच्चों की कापियों में<br></br>ताकि ...</p>
<p><br></br>वो खेल सकें<br></br>राजा-मंत्री, चोर-सिपाही<br></br>उड़ा सकें <br></br>हवाई जहाज<br></br>चला सकें <br></br>कागज की नाव <br></br>बिना डर,<br></br>बगैर किसी <br></br>असुविधा के ।</p>
<p>***<br></br><span style="text-decoration: underline;">दो : कोना</span><br></br>बचाकर रखता हूँ<br></br>एक छोटा-सा कोना<br></br>अपने दिल में ...</p>
<p></p>
<p>जब होता…</p>
<p>तीन क्षणिकाएँ ...</p>
<p><span style="text-decoration: underline;">एक: पन्ने</span> <br/>कुछ पन्ने<br/>अलग करने योग्य<br/>जुड़ने चाहिए<br/>बच्चों की कापियों में<br/>ताकि ...</p>
<p><br/>वो खेल सकें<br/>राजा-मंत्री, चोर-सिपाही<br/>उड़ा सकें <br/>हवाई जहाज<br/>चला सकें <br/>कागज की नाव <br/>बिना डर,<br/>बगैर किसी <br/>असुविधा के ।</p>
<p>***<br/><span style="text-decoration: underline;">दो : कोना</span><br/>बचाकर रखता हूँ<br/>एक छोटा-सा कोना<br/>अपने दिल में ...</p>
<p></p>
<p>जब होता हूँ<br/>मैं बेहद अकेला<br/>बैठा लेता हूँ चुपके से <br/>उसमें अपने बचपन को<br/>और करता हूँ<br/>ढेर सारी बातें<br/>सुख की, दुख की ।</p>
<p>***</p>
<p><span style="text-decoration: underline;">तीन : जमा-पूँजी</span><br/>बड़े जतन से<br/>सँजोयी थी <br/>एक पिता ने<br/>उम्र भर की<br/>जमा-पूँजी<br/>खिला-खिला कर बच्चों को <br/>लेमनचूस....</p>
<p></p>
<p>बिटिया फेंक आयी <br/>उसे लपेटकर<br/>कैडबरी के रैपर में<br/>वैलेंटाइन के रोज ।<br/>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>लघुकथा : सब्जीवाला (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-03-05:5170231:BlogPost:10019432020-03-05T04:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>उफ्फ !! ये सब्जी वाले भी न, बड़ा हल्ला करते हैं । साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था के राष्ट्रीय सचिव खान साहब ने संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री गुप्ता से कहा ।<br></br> "वो सब छोड़िए खान साहब, ये बताइये कि कितने कवियों और कवयित्रियों की अंतिम सूची बनी जिन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव है ?"<br></br> "जी गुप्ता साहब, आपके निदेशानुसार 25 कवियों और 125 कवयित्रियों की सूची तैयार कर ली गयी है, किंतु एक बात समझ नही आयी कि इनमें से अधिकतर तो कोई स्तरीय साहित्यकार भी नही हैं, फिर क्यों आपने उन्हें साहित्य और…</p>
<p>उफ्फ !! ये सब्जी वाले भी न, बड़ा हल्ला करते हैं । साहित्यिक एवं सामाजिक संस्था के राष्ट्रीय सचिव खान साहब ने संस्था के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री गुप्ता से कहा ।<br/> "वो सब छोड़िए खान साहब, ये बताइये कि कितने कवियों और कवयित्रियों की अंतिम सूची बनी जिन्हें सम्मानित करने का प्रस्ताव है ?"<br/> "जी गुप्ता साहब, आपके निदेशानुसार 25 कवियों और 125 कवयित्रियों की सूची तैयार कर ली गयी है, किंतु एक बात समझ नही आयी कि इनमें से अधिकतर तो कोई स्तरीय साहित्यकार भी नही हैं, फिर क्यों आपने उन्हें साहित्य और समाज मे योगदान के नाम पर सम्मानित करने की घोषणा कर दी ?"<br/> "आप नही समझेंगे खान साहब ! आप बस ये बताइये कि आपने उन लोगो के सोसल मीडिया पर प्रोफाइल चेक कर ली ?"<br/> "जी गुप्ता साहब, सभी अपने सम्मानित होने की सूचना सोसल मीडिया पर खूब प्रचारित कर रहे हैं"<br/> "एय शाबास !! अब एक काम कीजिये, सबको व्यक्तिगत मैसेज भेजिये कि संस्था वित्तीय संकट से गुजर रही है इसलिए संस्था अब सिर्फ सीमित साहित्यकारों को ही सम्मानित करेगी, यदि आप सम्मान समारोह में सम्मानित होना चाहते है तो मात्र 2500 रुपये की छोटी राशि से संस्था का सहयोग करें"<br/> "आपको लगता है ! वो लोग पैसा देंगे ?"<br/> "हा हा हा खूब देंगे... अब तक वे लोग इतना न सोसल मीडिया पर हवा बनाये होंगे कि वापस होना मुश्किल है, कुछ नही तो 90-100 लोग तो आ ही जाएंगे"<br/> "वाह वाह गुप्ता साहब...मान गये, खर्च वगैरह काट भी दे तो सवा-डेढ़ लाख तो कही नही गये"<br/> हा हा हा हा हा....<br/> दोनो की तेज हँसी में "आलू लेलो, कांदा लेलो, हरी ताजी सब्जियाँ लेलो" की आवाज दब सी गयी थी ।</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>अतुकांत कविता : माँद (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-03-03:5170231:BlogPost:10017782020-03-03T02:29:01.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>अतुकांत कविता : माँद<br></br> =============<br></br> क्या आपने कभी देखी है ?<br></br> सियार की माँद !</p>
<p></p>
<p>मैं बताता हूँ<br></br> क्या होती है माँद !</p>
<p></p>
<p>जमीन के अंदर<br></br> सियार बनाता है<br></br> सुरक्षित आशियाना<br></br> जिसे कहते हैं माँद</p>
<p></p>
<p>माँद से जुड़े होते है<br></br> छोटे-लंबे <br></br> कई सारे रास्ते<br></br> ताकि <br></br> जब कोई खतरा हो<br></br> तो उसका कुनबा <br></br> निकल सके सुरक्षित...</p>
<p></p>
<p>देश की न्याय प्रणाली भी है <br></br> उसी माँद की मानिंद<br></br> एक रास्ता बंद होता है<br></br> तो कई…</p>
<p>अतुकांत कविता : माँद<br/> =============<br/> क्या आपने कभी देखी है ?<br/> सियार की माँद !</p>
<p></p>
<p>मैं बताता हूँ<br/> क्या होती है माँद !</p>
<p></p>
<p>जमीन के अंदर<br/> सियार बनाता है<br/> सुरक्षित आशियाना<br/> जिसे कहते हैं माँद</p>
<p></p>
<p>माँद से जुड़े होते है<br/> छोटे-लंबे <br/> कई सारे रास्ते<br/> ताकि <br/> जब कोई खतरा हो<br/> तो उसका कुनबा <br/> निकल सके सुरक्षित...</p>
<p></p>
<p>देश की न्याय प्रणाली भी है <br/> उसी माँद की मानिंद<br/> एक रास्ता बंद होता है<br/> तो कई रास्ते और भी होते हैं<br/> खुले हुए..</p>
<p><br/> तारीख दर तारीख<br/> इस माँद में पलते हैं<br/> बड़े-बड़े अपराधी<br/> बेखौफ और सुरक्षित<br/> स्वयं को बचाए रहते हैं<br/> फाँसी के फंदे से...</p>
<p></p>
<p>न्याय की देवी<br/> ठगी-सी खड़ी रहती है<br/> आँखों पर<br/> काली पट्टी बाँधे</p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p>देवी के उपासक<br/> करते हैं सहयोग<br/> माँद से जुड़े<br/> नए-नए रास्ते खोद निकालने में ।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>अतुकांत कविता : आदमखोर (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-03-01:5170231:BlogPost:10018732020-03-01T17:48:31.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>अतुकांत कविता : आदमखोर<br></br>==================<br></br>नुकीले दाँत<br></br>लंबे-लंबे नाखून<br></br>उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें<br></br>चार पैर<br></br>लंबी-सी जीभ<br></br>बेतरतीब बाल <br></br>भयानक चेहरा<br></br>बेडौल शरीर<br></br>डरावनी दहाड़ ?</p>
<p></p>
<p>नहीं-नहीं ...<br></br>वो ऐसा बिलकुल नहीं है</p>
<p></p>
<p>उसके पास हैं<br></br>मोतियों जैसे दाँत<br></br>तराशे हुए नाखून<br></br>खूबसूरत आँखें<br></br>दो पैर, दो हाथ<br></br>सामान्य-सी जीभ<br></br>सलोना चेहरा<br></br>सजे-सँवरे बाल<br></br>आकर्षक शरीर<br></br>मीठे बोल</p>
<p></p>
<p>किंतु... <br></br>वो…</p>
<p>अतुकांत कविता : आदमखोर<br/>==================<br/>नुकीले दाँत<br/>लंबे-लंबे नाखून<br/>उभरी हुई बड़ी-बड़ी आँखें<br/>चार पैर<br/>लंबी-सी जीभ<br/>बेतरतीब बाल <br/>भयानक चेहरा<br/>बेडौल शरीर<br/>डरावनी दहाड़ ?</p>
<p></p>
<p>नहीं-नहीं ...<br/>वो ऐसा बिलकुल नहीं है</p>
<p></p>
<p>उसके पास हैं<br/>मोतियों जैसे दाँत<br/>तराशे हुए नाखून<br/>खूबसूरत आँखें<br/>दो पैर, दो हाथ<br/>सामान्य-सी जीभ<br/>सलोना चेहरा<br/>सजे-सँवरे बाल<br/>आकर्षक शरीर<br/>मीठे बोल</p>
<p></p>
<p>किंतु... <br/>वो है<br/>आदमखोर<br/>फूँक देता है<br/>बस्तियाँ...</p>
<p></p>
<p>धर्म के नाम पर<br/>बहाता है रक्त, आदम का,<br/>आदम के भेष में !</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>दो शब्द दृश्य (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-02-26:5170231:BlogPost:10016382020-02-26T17:27:15.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>प्रथम दृश्य : शांति</p>
<p>===========</p>
<p>माँ ने लगाया <br></br>चांटा...<br></br>मैं सह गयी,</p>
<p></p>
<p>पापा ने लगाया<br></br>थप्पड़..<br></br>मैं सह गयी,</p>
<p></p>
<p>भाई ने मारा<br></br>घूंसा..<br></br>मैं सह गयी,</p>
<p></p>
<p>घर से बाहर छेड़ते थे <br></br>आवारा लड़के<br></br>मैं चुप रही,</p>
<p></p>
<p>पति पीटता रहा<br></br>दारू पीकर<br></br>मैं चुप रही,</p>
<p></p>
<p>सास ससुर<br></br>अपने बेटे की<br></br>करते रहे तरफ़दारी<br></br>उसकी गलतियों पर भी<br></br>मैं चुप रही,</p>
<p></p>
<p>मैं सदैव चुप रही<br></br>ताकि बनी रहे <br></br>घर मे…</p>
<p>प्रथम दृश्य : शांति</p>
<p>===========</p>
<p>माँ ने लगाया <br/>चांटा...<br/>मैं सह गयी,</p>
<p></p>
<p>पापा ने लगाया<br/>थप्पड़..<br/>मैं सह गयी,</p>
<p></p>
<p>भाई ने मारा<br/>घूंसा..<br/>मैं सह गयी,</p>
<p></p>
<p>घर से बाहर छेड़ते थे <br/>आवारा लड़के<br/>मैं चुप रही,</p>
<p></p>
<p>पति पीटता रहा<br/>दारू पीकर<br/>मैं चुप रही,</p>
<p></p>
<p>सास ससुर<br/>अपने बेटे की<br/>करते रहे तरफ़दारी<br/>उसकी गलतियों पर भी<br/>मैं चुप रही,</p>
<p></p>
<p>मैं सदैव चुप रही<br/>ताकि बनी रहे <br/>घर मे शांति,</p>
<p></p>
<p>किंतु...<br/>मैं सदैव असफल रही<br/>शांति कायम करने में ।</p>
<p>---------------------------</p>
<p>द्वितीय दृश्य : शांति</p>
<p>============</p>
<p>माँ ने लगाया <br/>चांटा...<br/>मैं रोयी, चिल्लाई,</p>
<p></p>
<p>पापा ने लगाया<br/>थप्पड़...<br/>मैंने नही खाया खाना<br/>दो दिनों तक,</p>
<p></p>
<p>भाई ने मारा<br/>घूँसा...<br/>मैंने की उसकी शिकायत<br/>माँ - पापा से,</p>
<p></p>
<p>घर से बाहर<br/>छेड़ा था <br/>एक आवारा<br/>मैंने दिखाया था उसे<br/>कराटे का दाँव,</p>
<p></p>
<p>पति ने दारू पीकर<br/>उठाया हाथ...<br/>मैंने पकड़ ली कलाई..<br/>तबसे<br/>सास ससुर<br/>अपने बेटे की<br/>नहीं करते तरफ़दारी<br/>उसकी गलतियों पर,</p>
<p></p>
<p>मैं करती रही<br/>विरोध<br/>जो मुझे गलत लगा<br/>ताकि बनी रहे <br/>घर मे शांति</p>
<p>और....<br/>मैं सदैव सफल रही..</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>लघुकथा : भीड़ (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-02-21:5170231:BlogPost:10010912020-02-21T08:30:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>मारो रे स्साले को, जब हम लोगो का पर्व होता है तभी ये सूअर बिजली काट देता है, दूसरों के पर्व पर तो बिजली नही काटता !</p>
<p>संबंधित बिजली कर्मी जब तक कुछ कहता, तब तक भीड़ से कुछ उत्साहित युवा उस कर्मचारी को पीट चुके थे । बेचारा कर्मचारी गिड़गिड़ाते हुए बस इतना ही कह पाया...</p>
<p>"बड़े साहब के आदेश से बिजली कटी है ।"</p>
<p>"चलो रे....आज उ बड़े साहब को भी देख लेते हैं, बड़ा आया आदेश देने वाला"</p>
<p>भीड़ बड़े साहब के चेम्बर की तरफ बढ़ गयी ।</p>
<p>"क्यों जी, आज हम लोगो का पर्व का दिन है, जुलूस…</p>
<p>मारो रे स्साले को, जब हम लोगो का पर्व होता है तभी ये सूअर बिजली काट देता है, दूसरों के पर्व पर तो बिजली नही काटता !</p>
<p>संबंधित बिजली कर्मी जब तक कुछ कहता, तब तक भीड़ से कुछ उत्साहित युवा उस कर्मचारी को पीट चुके थे । बेचारा कर्मचारी गिड़गिड़ाते हुए बस इतना ही कह पाया...</p>
<p>"बड़े साहब के आदेश से बिजली कटी है ।"</p>
<p>"चलो रे....आज उ बड़े साहब को भी देख लेते हैं, बड़ा आया आदेश देने वाला"</p>
<p>भीड़ बड़े साहब के चेम्बर की तरफ बढ़ गयी ।</p>
<p>"क्यों जी, आज हम लोगो का पर्व का दिन है, जुलूस निकलता है और आप हमारे बस्ती की बिजली कटवा दिए हैं"</p>
<p>"नही नही...ऐसा नही है....."</p>
<p>"क्या ऐसा नही है ! मारो रे....इस स्साले को भी"</p>
<p>"सुनो-सुनो भाइयों, ये देखो ऊपर से ही बिजली काटने का आदेश आया है"</p>
<p>बड़े साहब आदेश की प्रति आगे कर लगभग चिल्लाते हुए बोले..</p>
<p>आदेश कुछ यूँ था...</p>
<p>"बस्ती में हर साल की भांति इस साल भी पर्व मनाया जाएगा जिसमे जुलूस भी निकलेगा, जुलूस में ऊँचे ऊँचे झंडे होंगे जो बिजली के नंगे तारों से छू सकते हैं, फलस्वरूप दुर्घटना हो सकती है ।</p>
<p>अतः आदेश दिया जाता है कि जुलूस के सफल समापन तक बिजली काट दी जाय "</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>अतुकांत कविता : मैं भी लिखूंगा एक कविता (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-02-15:5170231:BlogPost:10009642020-02-15T18:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>अतुकांत कविता : मैं भी लिखूंगा एक कविता</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br></br> एक कविता<br></br> चार पांच सालों बाद..</p>
<p></p>
<p>जब मेरे हाथों द्वारा लगाया हुआ<br></br> पलास का पौधा<br></br> बन जायेगा पेड़<br></br> उसपर लगेंगे <br></br> बसंती फूल<br></br> आयेंगी रंग बिरंगी तितलियाँ<br></br> चिड़िया बनायेंगी घोंसला...</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br></br> एक कविता<br></br> चार पांच सालों बाद..</p>
<p></p>
<p>जब मेरे घर आयेगी <br></br> नन्ही सी गुड़िया<br></br> जायेगी स्कूल<br></br> मेरी उँगली पकड़<br></br> और पढ़ेगी<br></br> क ल आ म .. कलम<br></br> गायेगी…</p>
<p>अतुकांत कविता : मैं भी लिखूंगा एक कविता</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br/> एक कविता<br/> चार पांच सालों बाद..</p>
<p></p>
<p>जब मेरे हाथों द्वारा लगाया हुआ<br/> पलास का पौधा<br/> बन जायेगा पेड़<br/> उसपर लगेंगे <br/> बसंती फूल<br/> आयेंगी रंग बिरंगी तितलियाँ<br/> चिड़िया बनायेंगी घोंसला...</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br/> एक कविता<br/> चार पांच सालों बाद..</p>
<p></p>
<p>जब मेरे घर आयेगी <br/> नन्ही सी गुड़िया<br/> जायेगी स्कूल<br/> मेरी उँगली पकड़<br/> और पढ़ेगी<br/> क ल आ म .. कलम<br/> गायेगी गीत<br/> बील तुम बल्हे चलो<br/> धील तुम बल्हे चलो...</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br/> एक कविता<br/> चार पांच सालों बाद..</p>
<p></p>
<p>जब मेरे गाँव तक<br/> आ जायेगी पक्की सड़क<br/> खुल जायेगा स्कूल<br/> बन जायेगा हस्पताल<br/> सबको मिलेगा पानी<br/> घर घर मे होगी बिजली...</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br/> एक कविता<br/> चार पांच सालों बाद..</p>
<p></p>
<p>जब मेरे शहर में<br/> खुलेगा कारखाना<br/> मिलेगा रोजगार<br/> सबकी थाली में होगी रोटी,<br/> दाल भात सब्जी<br/> नही करना होगा<br/> बेटे पोतों का इंतजार<br/> बम्बई से आने का<br/> बूढ़े दादा को<br/> मुखाग्नि के लिए....</p>
<p></p>
<p>मैं भी लिखूंगा<br/> एक कविता<br/> चार पांच सालों बाद..</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>दो क्षणिकाएँ (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-02-05:5170231:BlogPost:10006292020-02-05T03:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>दो क्षणिकाएँ<br></br> ========<br></br> (1) थप्पड़</p>
<p></p>
<p>मुझे पता भी न था<br></br> उस शब्द का अर्थ<br></br> गुस्से में किसी को बोल दिया था<br></br> 'साला....'<br></br> गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ<br></br> माँ ने समझाया था<br></br> गाली देना गंदी बात !</p>
<p>काश,<br></br> उनकी माँ ने भी <br></br> लगाया होता<br></br> थप्पड़<br></br> तो आज...<br></br> नहीं देते वे<br></br> माँ, बहन को इंगित<br></br> गालियाँ ।<br></br> <br></br> (2) बारुद</p>
<p></p>
<p>उनको दिखाई देता है<br></br> बारूद<br></br> मेरी दीया-सलाई की काठी में,<br></br> जिससे जलता है<br></br> हमारे घर का…</p>
<p>दो क्षणिकाएँ<br/> ========<br/> (1) थप्पड़</p>
<p></p>
<p>मुझे पता भी न था<br/> उस शब्द का अर्थ<br/> गुस्से में किसी को बोल दिया था<br/> 'साला....'<br/> गाल पर झन्नाटेदार थप्पड़ के साथ<br/> माँ ने समझाया था<br/> गाली देना गंदी बात !</p>
<p>काश,<br/> उनकी माँ ने भी <br/> लगाया होता<br/> थप्पड़<br/> तो आज...<br/> नहीं देते वे<br/> माँ, बहन को इंगित<br/> गालियाँ ।<br/> <br/> (2) बारुद</p>
<p></p>
<p>उनको दिखाई देता है<br/> बारूद<br/> मेरी दीया-सलाई की काठी में,<br/> जिससे जलता है<br/> हमारे घर का चूल्हा<br/> जिसपर रख तवा<br/> माँ सेकती है<br/> रोटियाँ<br/> और बुझाती है<br/> आग<br/> हमारे पेट की ।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>अतुकांत कविता : आजादी (गणेश बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2020-02-01:5170231:BlogPost:10005452020-02-01T04:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।</p>
<p style="text-align: left;">सादर</p>
<p>गणेश जी बाग़ी</p>
<p>प्रधान संपादक, आदरणीय योगराज प्रभाकर जी की टिप्पणी के आलोक में यह रचना पटल से हटायी जा रही है ।</p>
<p style="text-align: left;">सादर</p>
<p>गणेश जी बाग़ी</p>अतुकांत कविता : प्रगतिशील (गणेश जी बागी)tag:openbooksonline.com,2020-01-30:5170231:BlogPost:10003522020-01-30T14:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><span style="text-decoration: underline;">अतुकांत कविता : प्रगतिशील</span></p>
<p></p>
<p>अकस्मात हम जा पहुँचे<br></br> एक लेखिका की कविताओं पर<br></br> जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे<br></br> मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम</p>
<p></p>
<p>लगभग सभी कविताओं में...</p>
<p></p>
<p>पूरी तरह से किया गया था निर्वहन<br></br> उस परंपरा को<br></br> जहाँ दी जाती हैं गालियाँ<br></br> समूची मर्द जाति को</p>
<p></p>
<p>एक ही कटघरे में खड़ा कर<br></br> प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण<br></br> चंद मानसिक विक्षिप्तों…</p>
<p><span style="text-decoration: underline;">अतुकांत कविता : प्रगतिशील</span></p>
<p></p>
<p>अकस्मात हम जा पहुँचे<br/> एक लेखिका की कविताओं पर<br/> जिसमे प्रमुखता से उल्लेखित थे<br/> मर्द-औरत के गुप्त अंगों के नाम</p>
<p></p>
<p>लगभग सभी कविताओं में...</p>
<p></p>
<p>पूरी तरह से किया गया था निर्वहन<br/> उस परंपरा को<br/> जहाँ दी जाती हैं गालियाँ<br/> समूची मर्द जाति को</p>
<p></p>
<p>एक ही कटघरे में खड़ा कर<br/> प्रस्तुत किया जाता है विशिष्ट उदाहरण<br/> चंद मानसिक विक्षिप्तों का</p>
<p></p>
<p>हम नहीं पढ़ सके वो कविताएँ <br/> हमारे संकुचित संस्कार <br/> आड़े आ गये थे, क्योंकि ...<br/> हमारी शिक्षा नहीं हुई है<br/> देश के बहुचर्चित विश्वविद्यालय में</p>
<p></p>
<p>आज भी हमारी सोच रह गयी है<br/> पिछड़ी <br/> संकुचित<br/> नहीं बन सके हम<br/> कथित प्रगतिशील !</p>
<p></p>
<p>हम पढ़ने लगे...<br/> उन कविताओं पर आयी<br/> कुछ विदुषियों व ढेरों विद्वानों की <br/> वाह-वाह भरी टिप्पणियाँ<br/> और उन टिप्पणियों पर<br/> लेखिका द्वारा उत्साहपूर्वक<br/> की गयी प्रतिक्रियाएँ<br/> <br/> प्रतीत हो रहा था.. <br/> लेखिका की कलम से निकले<br/> स्त्री-पुरुष की देह को इंगित<br/> अश्लील शब्द-चित्रों से<br/> मिल रही हो जैसे<br/> मानसिक खूूराक</p>
<p>उन पाठक-पाठिकाओं को<br/> जो लेखिका के संग-संग<br/> प्राप्त हो रहे हों<br/> चरमोत्कर्ष को<br/> प्रगतिशीलता और नारी विमर्श के आवरण में ।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>छंद मुक्त कविता : रावण दहनtag:openbooksonline.com,2019-10-08:5170231:BlogPost:9938002019-10-08T09:58:03.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>छंद मुक्त कविता : रावण दहन</p>
<p>मैं रूप बदल कर बैठा हूँ ।<br/> स्वरूप बदल कर बैठा हूँ ।<br/> मैं आज का रावण हूँ मितरों,<br/> जन के मन में छुप बैठा हूँ ।।</p>
<p></p>
<p>मुझको जितना भी जलाओगे ।<br/> हर घर में उतना पाओगे ।<br/> गर मरना भी चाहूँ मितरों,<br/> तुम राम कहाँ से लाओगे ।।</p>
<p></p>
<p>कन्या को देवी सा मान दिया ।<br/> नारी को माँ का सम्मान दिया ।<br/> इन बातों का नही अर्थ मितरों,<br/> जब गर्भ में कन्या का प्राण लिया ।। </p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p>छंद मुक्त कविता : रावण दहन</p>
<p>मैं रूप बदल कर बैठा हूँ ।<br/> स्वरूप बदल कर बैठा हूँ ।<br/> मैं आज का रावण हूँ मितरों,<br/> जन के मन में छुप बैठा हूँ ।।</p>
<p></p>
<p>मुझको जितना भी जलाओगे ।<br/> हर घर में उतना पाओगे ।<br/> गर मरना भी चाहूँ मितरों,<br/> तुम राम कहाँ से लाओगे ।।</p>
<p></p>
<p>कन्या को देवी सा मान दिया ।<br/> नारी को माँ का सम्मान दिया ।<br/> इन बातों का नही अर्थ मितरों,<br/> जब गर्भ में कन्या का प्राण लिया ।। </p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>ग़ज़लtag:openbooksonline.com,2019-09-23:5170231:BlogPost:9929092019-09-23T07:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>घोघा रानी, कितना पानी ।<br></br> बदला मौसम, बरसा पानी ।।</p>
<p></p>
<p>डूब गई गली और सड़कें ।<br></br> नगर निगम का उतरा पानी ।।</p>
<p></p>
<p>सब कुछ अच्छा करते दावा ।<br></br> नही बचा आँखों का पानी ।।</p>
<p></p>
<p>गंगा कोशी पुनपुन गंडक ।<br></br> सब नदियों में उफना पानी ।।</p>
<p></p>
<p>मैं तो हूँ गंगा का बेटा ।<br></br> पितरों को भी देता पानी ।।</p>
<p></p>
<p>नगर हुआ मेरा स्मार्ट सिटी । <br></br> उठा गरीब का दाना पानी ।।</p>
<p></p>
<p>जल दूषित से उनको क्या है ?<br></br> वो पीते बोतल का पानी…</p>
<p>घोघा रानी, कितना पानी ।<br/> बदला मौसम, बरसा पानी ।।</p>
<p></p>
<p>डूब गई गली और सड़कें ।<br/> नगर निगम का उतरा पानी ।।</p>
<p></p>
<p>सब कुछ अच्छा करते दावा ।<br/> नही बचा आँखों का पानी ।।</p>
<p></p>
<p>गंगा कोशी पुनपुन गंडक ।<br/> सब नदियों में उफना पानी ।।</p>
<p></p>
<p>मैं तो हूँ गंगा का बेटा ।<br/> पितरों को भी देता पानी ।।</p>
<p></p>
<p>नगर हुआ मेरा स्मार्ट सिटी । <br/> उठा गरीब का दाना पानी ।।</p>
<p></p>
<p>जल दूषित से उनको क्या है ?<br/> वो पीते बोतल का पानी ।।</p>
<p></p>
<p>नदियां बोलीं सुनो समंदर ।<br/> पास न तेरे मीठा पानी ।।</p>
<p></p>
<p>बाग़ी भी तो सागर जैसा ।<br/> रखे आँख में खारा पानी ।।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>अतुकांत कविता : विरासतtag:openbooksonline.com,2018-10-24:5170231:BlogPost:9578462018-10-24T18:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>मुझे विरासत में मिलीं<br></br> कुछ हथौड़ियाँ <br></br> कुछ छेनियाँ <br></br> मिला थोड़ा-सा धैर्य <br></br> कुछ साहस<br></br> थोड़ा-सा हुनर</p>
<p></p>
<p>मैं तराशने लगा <br></br> निर्जीव पत्थरों को</p>
<p></p>
<p>बना दिया <br></br> सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ<br></br> जो कई अर्थों में<br></br> श्रेष्ठ हैं<br></br> ईश्वर द्वारा बनायी गयीं<br></br> सजीव मूर्तियों से<br></br> जिन्हें नहीं पता रिश्तों की मर्यादा<br></br> नही कर पातीं ये भेद<br></br> दूधमुँही बच्चियों, युवतियों और वृद्ध महिलाओं में</p>
<p></p>
<p>काश<br></br> एक अदद कलम<br></br> मुझे मिली होती …<br></br></p>
<p>मुझे विरासत में मिलीं<br/> कुछ हथौड़ियाँ <br/> कुछ छेनियाँ <br/> मिला थोड़ा-सा धैर्य <br/> कुछ साहस<br/> थोड़ा-सा हुनर</p>
<p></p>
<p>मैं तराशने लगा <br/> निर्जीव पत्थरों को</p>
<p></p>
<p>बना दिया <br/> सुंदर-सुंदर मूर्तियाँ<br/> जो कई अर्थों में<br/> श्रेष्ठ हैं<br/> ईश्वर द्वारा बनायी गयीं<br/> सजीव मूर्तियों से<br/> जिन्हें नहीं पता रिश्तों की मर्यादा<br/> नही कर पातीं ये भेद<br/> दूधमुँही बच्चियों, युवतियों और वृद्ध महिलाओं में</p>
<p></p>
<p>काश<br/> एक अदद कलम<br/> मुझे मिली होती <br/> विरासत में</p>
<p></p>
<p>मैं होता<br/> एक न्यायाधीश<br/> लिखता निर्विघ्न फैसला<br/> उन बलात्कारियों का<br/> और तोड़ देता निब को</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>पाँच दोहे (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2018-07-05:5170231:BlogPost:9387192018-07-05T16:21:10.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>हाथ लगा जो गाल पर, पटकेंगे धर केश ।<br/> दुनिया संग बदल रहा, गाँधी का ये देश।।</p>
<p></p>
<p>नैतिकता का पाठ अब, पढ़े-पढ़ाये कौन ?<br/> मात-पिता-बच्चे सभी, ले मोबाइल मौन।।</p>
<p></p>
<p>'तुम' धन 'मैं' जब 'हम' हुए, दोनों हुए विशेष।<br/> 'हम' ऋण 'तुम' जैसे हुए, नहीं बचा अवशेष ।।</p>
<p></p>
<p>रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।<br/> मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ?</p>
<p></p>
<p>छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।<br/> जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p>हाथ लगा जो गाल पर, पटकेंगे धर केश ।<br/> दुनिया संग बदल रहा, गाँधी का ये देश।।</p>
<p></p>
<p>नैतिकता का पाठ अब, पढ़े-पढ़ाये कौन ?<br/> मात-पिता-बच्चे सभी, ले मोबाइल मौन।।</p>
<p></p>
<p>'तुम' धन 'मैं' जब 'हम' हुए, दोनों हुए विशेष।<br/> 'हम' ऋण 'तुम' जैसे हुए, नहीं बचा अवशेष ।।</p>
<p></p>
<p>रीति जहां की देख कर, मन चंचल, मुख मौन।<br/> मतलब के सधते सभी, पूछें तुम हो कौन ?</p>
<p></p>
<p>छप कर बिकता था कभी, जिंदा था आचार।<br/> जबसे बिक छपने लगा, मृत लगते अखबार।।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>लघुकथा : धनवान (गणेश जी बाग़ी)tag:openbooksonline.com,2018-05-28:5170231:BlogPost:9319222018-05-28T14:57:40.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>नर्स अनिता उदास होकर अपनी सहकर्मी से बोली, "आज का दिन ही खराब है, बेड नंबर चार को भी लड़की हुई है । याद है जो सुबह में बेटी पैदा हुई थी ?"<br></br>"कौन ! वही क्या, जो लोग बड़ी गाड़ी से आये थे"<br></br>"हाँ रि वही, बख्शीस माँगा, तो कुछ दिया भी नही और गुस्से से बोला कि एक तो बेटी हुई है और तुम्हे बख्शीस की पड़ी है"<br></br>खैर ....<br></br>"मालती देवी के घर से कौन है ?"<br></br>"जी बहन जी, मैं हूँ, बताइए न, मालती कैसी है और ...."<br></br>रघुआ घबराते हुए बोला ।<br></br>जी, आपके घर लक्ष्मी आयी है ।<br></br>रघुआ खुशी से झूम उठा और…</p>
<p>नर्स अनिता उदास होकर अपनी सहकर्मी से बोली, "आज का दिन ही खराब है, बेड नंबर चार को भी लड़की हुई है । याद है जो सुबह में बेटी पैदा हुई थी ?"<br/>"कौन ! वही क्या, जो लोग बड़ी गाड़ी से आये थे"<br/>"हाँ रि वही, बख्शीस माँगा, तो कुछ दिया भी नही और गुस्से से बोला कि एक तो बेटी हुई है और तुम्हे बख्शीस की पड़ी है"<br/>खैर ....<br/>"मालती देवी के घर से कौन है ?"<br/>"जी बहन जी, मैं हूँ, बताइए न, मालती कैसी है और ...."<br/>रघुआ घबराते हुए बोला ।<br/>जी, आपके घर लक्ष्मी आयी है ।<br/>रघुआ खुशी से झूम उठा और बारी बारी से कुर्ता के दोनों पाकिटों से कुछ मुड़े टूडे दस और बीस के नोट नर्स की हाथों पर रख दिया ।<br/>अनिता को सहसा विश्वास ही नही हुआ ।<br/>"लग रहा है आप सब पैसा बख्शीस में ही दे दिये, घर जाने के लिए रिक्शा-गाड़ी खर्च के लिए कुछ रखे हैं कि नही ?"<br/>"कोई बात नही बहन जी, घर जाने के लिए मेरा अपना रिक्शा है न"<br/>अनाथालय में पली-बढ़ी अनिता नम आँखों के साथ सोचने लगी, काश उसका भी बाप कोई रिक्शा वाला होता ।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>ग़ज़ल (गणेश जी बागी)tag:openbooksonline.com,2018-05-22:5170231:BlogPost:9311892018-05-22T10:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>पाँच बरस तक कुछ न कहेंगे कर लो अपने मन की बाबू ।<br></br> बात चलेगी, तो बोलेंगे, अपनी ही थी गलती बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>चाँद-चाँदनी, सागर-पर्वत, चाहत कहाँ किसानों की है ?<br></br> मुमकिन हो तो इनके हिस्से लिख दो थोड़ी बदली बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>खाली थाली, खाली तसला, टूटा छप्पर, चूल्हा गीला,<br></br> रोजी-रोटी बन्द पड़ी जब, क्या करना जन-धन की बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>जो काशी बन जाए क्योटो, या दिल्ली हो जाए लंदन ।<br></br> प्यासा जन बस जल पा जाये, गाँव लगे शंघाई बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>अच्छे-दिन, काले-धन की…</p>
<p>पाँच बरस तक कुछ न कहेंगे कर लो अपने मन की बाबू ।<br/> बात चलेगी, तो बोलेंगे, अपनी ही थी गलती बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>चाँद-चाँदनी, सागर-पर्वत, चाहत कहाँ किसानों की है ?<br/> मुमकिन हो तो इनके हिस्से लिख दो थोड़ी बदली बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>खाली थाली, खाली तसला, टूटा छप्पर, चूल्हा गीला,<br/> रोजी-रोटी बन्द पड़ी जब, क्या करना जन-धन की बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>जो काशी बन जाए क्योटो, या दिल्ली हो जाए लंदन ।<br/> प्यासा जन बस जल पा जाये, गाँव लगे शंघाई बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>अच्छे-दिन, काले-धन की बातें, जुमलें हैं जुमलों की क्या ?<br/> "बाग़ी" भी अब समझ रहा है लेते हो तुम फिरकी बाबू ।।</p>
<p></p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>ग़ज़ल (गणेश जी बागी)tag:openbooksonline.com,2018-04-29:5170231:BlogPost:9270862018-04-29T09:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p>करनी है जब मन की साहब<br/> क्यों पूछे हो हमरी साहब ।</p>
<p></p>
<p>पानी भरने मैं निकला हूँ<br/> ले हाथों में चलनी साहब ।</p>
<p></p>
<p>पढ़े फ़ारसी तले पकौड़े<br/>किस्मत अपनी अपनी साहब ।*</p>
<p></p>
<p>आटा से डाटा है सस्ता<br/> सब माया है उनकी साहब ।*</p>
<p></p>
<p>शौचालय का मतलब तब ही<br/> जन जब खाए रोटी साहब ।</p>
<p></p>
<p>नही सुरक्षित घर में बेटी<br/> धरम-करम बेमानी साहब ।</p>
<p></p>
<p>सच्ची सच्ची बात जो बोले<br/> आज वही है 'बाग़ी' साहब ।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p>*संशोधित</p>
<p>करनी है जब मन की साहब<br/> क्यों पूछे हो हमरी साहब ।</p>
<p></p>
<p>पानी भरने मैं निकला हूँ<br/> ले हाथों में चलनी साहब ।</p>
<p></p>
<p>पढ़े फ़ारसी तले पकौड़े<br/>किस्मत अपनी अपनी साहब ।*</p>
<p></p>
<p>आटा से डाटा है सस्ता<br/> सब माया है उनकी साहब ।*</p>
<p></p>
<p>शौचालय का मतलब तब ही<br/> जन जब खाए रोटी साहब ।</p>
<p></p>
<p>नही सुरक्षित घर में बेटी<br/> धरम-करम बेमानी साहब ।</p>
<p></p>
<p>सच्ची सच्ची बात जो बोले<br/> आज वही है 'बाग़ी' साहब ।</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p>*संशोधित</p>अतुकान्त कविता : अजन्मी कविताtag:openbooksonline.com,2018-04-13:5170231:BlogPost:9246972018-04-13T08:00:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<div class="quoted-text"><div dir="auto">सुबह-सुबह मॉर्निंग वॉक से लौट</div>
</div>
<div dir="auto">चाय की चुस्कियों के साथ बैठते ही</div>
<div dir="auto">कविता के कुछ कीड़े </div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">कुलबुलाने लगे...</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">कितना कुछ करता है न </div>
</div>
<div dir="auto">एक अभियंता समाज के लिये </div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">सड़क, पुल, अस्पताल, विद्यालय</div>
<div dir="auto">नाली, गली, मस्जिद, देवालय…</div>
</div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">सुबह-सुबह मॉर्निंग वॉक से लौट</div>
</div>
<div dir="auto">चाय की चुस्कियों के साथ बैठते ही</div>
<div dir="auto">कविता के कुछ कीड़े </div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">कुलबुलाने लगे...</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">कितना कुछ करता है न </div>
</div>
<div dir="auto">एक अभियंता समाज के लिये </div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">सड़क, पुल, अस्पताल, विद्यालय</div>
<div dir="auto">नाली, गली, मस्जिद, देवालय</div>
<div dir="auto">टी वी, मोबाइल, जहाज, कंप्यूटर</div>
<div dir="auto">बिजली, पानी, रेल व मोटर</div>
<div dir="auto">और भी बहुत कुछ...</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">जिधर नज़र जाती है </div>
<div dir="auto">हर तरफ अभियंताओं का योगदान</div>
</div>
<div dir="auto">कि, जोड़ते हैं दिलों को</div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">बनाते हैं विश्वास का सेतु</div>
<div dir="auto">एक कविता तो बनती है</div>
<div dir="auto">अभियंताओं के लिए भी...</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">विचारों का द्वंद्व चल रहा था</div>
<div dir="auto">मन मष्तिष्क के मध्य </div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">तभी सामने पड़े अखबार पर</div>
</div>
<div dir="auto">नज़र ठहर गयी </div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">बहुमंजली इमारत से कूद</div>
</div>
<div dir="auto">एक अभियंता ने कर ली थी </div>
<div dir="auto">आत्महत्या....</div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">बताया गया था,</div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">बहुत परेशान था वह</div>
</div>
<div dir="auto">राजनीतिक एवं प्रशासनिक हस्तक्षेप से,</div>
<div dir="auto">प्रत्यक्षदर्शियों ने बताया था...</div>
<div dir="auto">वो धम्म की आवाज़ के साथ </div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">ऊपर से गिरा</div>
<div dir="auto">और</div>
</div>
<div dir="auto">कुछ ही पलों में <span>छटपटा कर </span></div>
<div dir="auto">दम तोड़ दिया था। </div>
<div dir="auto"></div>
<div dir="auto">मानसिक शून्यता के मध्य</div>
<div class="quoted-text"><div dir="auto">दम तोड़ दी</div>
<div dir="auto">एक अजन्मी कविता</div>
<div dir="auto">जैसे गर्भ में ही</div>
<div dir="auto">कर दी गयी हो</div>
</div>
<div dir="auto">भ्रूण हत्या..</div>
<div dir="auto">(मौलिक एवं अप्रकाशित)</div>अतुकांत कविता : गौरैयाtag:openbooksonline.com,2018-03-20:5170231:BlogPost:9200002018-03-20T03:30:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><b><u><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472931?profile=original" target="_self"><img class="align-right" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472931?profile=original" width="228"></img></a> 20 मार्च "विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष </u></b></p>
<p></p>
<p><span>याद आ रही है...</span></p>
<p><span>करीने से बँधी चोटियाँ</span></p>
<p><span>आँगन में खेलती बेटियाँ</span></p>
<p><span>गुड्डा-गुड़िया, गोटी-चिप्पी,</span></p>
<p><span>आइ-स्पाइस, छुआ-छुई</span></p>
<p><span>चंदा-चूड़ी, लँगड़ी-बिच्छी</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span>याद आ रहा…</span></p>
<p><b><u><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472931?profile=original" target="_self"><img src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472931?profile=original" width="228" class="align-right"/></a>20 मार्च "विश्व गौरैया दिवस" पर विशेष </u></b></p>
<p></p>
<p><span>याद आ रही है...</span></p>
<p><span>करीने से बँधी चोटियाँ</span></p>
<p><span>आँगन में खेलती बेटियाँ</span></p>
<p><span>गुड्डा-गुड़िया, गोटी-चिप्पी,</span></p>
<p><span>आइ-स्पाइस, छुआ-छुई</span></p>
<p><span>चंदा-चूड़ी, लँगड़ी-बिच्छी</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span>याद आ रहा है...</span></p>
<p><span>गाँव का पुराना घर</span></p>
<p><span>घर के सामने खड़ा पीपल का घना पेड़</span></p>
<p><span>जो रोक लेता लू के थपेड़ो को</span></p>
<p><span>जैसे सहन पर बैठे हों दादाजी</span></p>
<p><span>रोक लेते बुरी बलाओं को</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span>याद आ रहा है...</span></p>
<p><span>सुबह-सुबह तुलसी के चौरा पर</span></p>
<p><span>दादी माँ का जल चढ़ाना</span></p>
<p><span>फिर कुछ लोटा जल</span></p>
<p><span>आँगन के कोने में पड़े</span></p>
<p><span>मिट्टी के नाद में भर देना</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span>याद आ रहा है...</span></p>
<p><span>भात बनाने से पहले माँ का</span></p>
<p><span>एक मुट्ठी कच्चे चावल</span></p>
<p><span>आँगन में बिखेर देना.. </span></p>
<p><span>फिर...</span></p>
<p><span>न जाने कहाँ से आ जाता</span></p>
<p><span>गौरैयों का झुण्ड</span></p>
<p><span>चुग लेते वे चावल के दाने</span></p>
<p><span>जल भरे नाद में</span></p>
<p><span>जल-क्रीडा करते</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span>अब तो शहर में छोटा सा घर</span></p>
<p><span>न वो घना पीपल का पेड़</span></p>
<p><span>और ना ही दादा-दादी</span></p>
<p><span>ससुराल चली गयीं बेटियाँ</span></p>
<p><span>नहीं आता वो गौरैयों का झुण्ड</span></p>
<p><span> </span></p>
<p><span>आज माँ ने फिर से </span></p>
<p><span>बिखेर दिया है बालकोनी में</span></p>
<p><span>कच्चे चावल के कुछ दाने</span></p>
<p><span>और रख दिया है पानी भरा पात्र</span></p>
<div class="m_-5972225106475662742gmail-adL"><p><span> </span></p>
<p><span>आहा ! यह क्या...</span></p>
<p><span>आ गयीं कुछ गौरैया</span></p>
<p><span>जैसे बड़े दिन बाद आयी हों</span></p>
<p><span>पीहर में बेटियाँ.</span></p>
<p><span> </span></p>
</div>
<p><span>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</span></p>लघुकथा : विकलांग (गणेश जी बागी)tag:openbooksonline.com,2016-10-13:5170231:BlogPost:8074082016-10-13T09:30:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p> <span class="font-size-5">न</span>ये सरकारी आदेश की प्रति बाबूराम के कार्यालय में पहुँच गयी थी. इस आदेश के अनुसार किसी भी विकलांग को लूला-लंगड़ा, भैंगा-काणा या गूंगा-बहरा आदि कहना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था. सरकार ने यह व्यवस्था दी है कि यदि आवश्यक हुआ तो विकलांग के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग किया जाए. बड़े साहब ने मीटिंग बुला कर उस सरकारी आदेश को न केवल पढ़कर सुनाया था बल्कि सभी को सख्ती से इसे पालन करने की हिदायत भी दी थी. आज कार्यालय जाते समय बाबूराम यह सोचकर…</p>
<p> <span class="font-size-5">न</span>ये सरकारी आदेश की प्रति बाबूराम के कार्यालय में पहुँच गयी थी. इस आदेश के अनुसार किसी भी विकलांग को लूला-लंगड़ा, भैंगा-काणा या गूंगा-बहरा आदि कहना दंडनीय अपराध घोषित कर दिया गया था. सरकार ने यह व्यवस्था दी है कि यदि आवश्यक हुआ तो विकलांग के लिए दिव्यांग शब्द का प्रयोग किया जाए. बड़े साहब ने मीटिंग बुला कर उस सरकारी आदेश को न केवल पढ़कर सुनाया था बल्कि सभी को सख्ती से इसे पालन करने की हिदायत भी दी थी. आज कार्यालय जाते समय बाबूराम यह सोचकर बेहद प्रसन्न हो रहा था कि आज से कोई भी उसे ‘लंगड़ा बाबू’ या ‘लंगड़दीन’ कहकर मज़ाक नहीं उड़ायेगा.</p>
<p>कार्यालय में प्रवेश करते ही एक सहकर्मी ने ऊँचे स्वर में आवाज लगायी,<br/> “हैलो मिस्टर दिव्यांग !”<br/> यह सुनते ही कार्यालय ठहाकों से गूंज उठा, बाबूराम को ऐसा महसूस हुआ कि उसकी पोलियो ग्रस्त टांग पर किसी ने जोर से हथौड़ा मार दिया हो.</p>
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<p>"मौलिक एवं अप्रकाशित"</p>अतुकांत कविता : श्रद्धांजलि (गणेश जी बागी)tag:openbooksonline.com,2016-09-24:5170231:BlogPost:8036142016-09-24T18:30:00.000ZEr. Ganesh Jee "Bagi"http://openbooksonline.com/profile/GaneshJee
<p><strong><span style="text-decoration: underline;">श्रद्धांजलि</span></strong><br/> राज पथ पर अवस्थित <br/> शहीद चौक .. <br/> लोगो का हुजूम<br/> मिडिया वालों का आवागमन<br/> चकमक करते कैमरे<br/> चमकते-दमकते चेहरे<br/> फोटो खिंचाने की होड़<br/> हाथों में मोमबत्तियाँ <br/> नहीं-नहीं, कैंडल....<br/> साथ में लकदक पोस्टर, बैनर <br/> जिनपर अंकित था -<br/> 'शहीदों को<br/> अश्रुपूरित श्रद्धांजलि' !!</p>
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<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>
<p><strong><span style="text-decoration: underline;">श्रद्धांजलि</span></strong><br/> राज पथ पर अवस्थित <br/> शहीद चौक .. <br/> लोगो का हुजूम<br/> मिडिया वालों का आवागमन<br/> चकमक करते कैमरे<br/> चमकते-दमकते चेहरे<br/> फोटो खिंचाने की होड़<br/> हाथों में मोमबत्तियाँ <br/> नहीं-नहीं, कैंडल....<br/> साथ में लकदक पोस्टर, बैनर <br/> जिनपर अंकित था -<br/> 'शहीदों को<br/> अश्रुपूरित श्रद्धांजलि' !!</p>
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<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>