वीनस केसरी's Posts - Open Books Online2024-03-28T13:43:44Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991278196?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1q1lxk02g9ue6&xn_auth=noग़ज़ल - गुज़ारिश थी, कि तुम ठोकर न खाना अबtag:openbooksonline.com,2014-12-23:5170231:BlogPost:5979632014-12-23T23:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><strong>ग़ज़ल श्री गिरिराज भंडारी जी की नज्र ...</strong><br></br> <br></br> <br></br> गुज़ारिश थी, कि तुम ठोकर न खाना अब <br></br> चलो दिल ने, कहा इतना तो माना अब<br></br> <br></br> न काम आया है उनका मुस्कुराना अब <br></br> यकीनन चाल तो थी कातिलाना .... अब ? <br></br> <br></br> ये दिल तो उन पे अब फिसला के तब फिसला <br></br> ये तय जानो, नहीं इसका ठिकाना अब</p>
<p><br></br> जो दानिशवर थे सब नादान ठहरे हैं<br></br> ये किसका दर है, तुमको क्या बताना अब</p>
<p></p>
<p>ये मौसम खूबसूरत था ये माना पर <br></br> वो आये तो हुआ है शायराना अब …<br></br> <br></br></p>
<p><strong>ग़ज़ल श्री गिरिराज भंडारी जी की नज्र ...</strong><br/> <br/> <br/> गुज़ारिश थी, कि तुम ठोकर न खाना अब <br/> चलो दिल ने, कहा इतना तो माना अब<br/> <br/> न काम आया है उनका मुस्कुराना अब <br/> यकीनन चाल तो थी कातिलाना .... अब ? <br/> <br/> ये दिल तो उन पे अब फिसला के तब फिसला <br/> ये तय जानो, नहीं इसका ठिकाना अब</p>
<p><br/> जो दानिशवर थे सब नादान ठहरे हैं<br/> ये किसका दर है, तुमको क्या बताना अब</p>
<p></p>
<p>ये मौसम खूबसूरत था ये माना पर <br/> वो आये तो हुआ है शायराना अब <br/> <br/> तुम्हारा मुन्तजिर इस तरह जिन्दा है <br/> ये दिल है बस लहू का कारखाना अब<br/> <br/> ग़ज़ल की बादशाहत छोड़ दी हमने<br/> ये हमसे चाहता क्या है जमाना अब <br/> <br/> १२२२ १२२२ १२२२<br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>
<p>(आज महीनों बाद OBO के दर पर आया, और गिरिराज भंडारी जी की एक ग़ज़ल पर कुछ कहते-कहते, जेह्न में उसी जमीन पर कुछ अशआर तैयार हो गए.... ख्वाहिश जगी कि ग़ज़ल मुकम्मल भी हो सकती है ..यूं तो फिल्बदी कहने की आदत नहीं है लेकिन करीब 7-8 महीने बाद कोई मुकम्मल ग़ज़ल हुई है तो अब जो कुछ तैयार हुआ है आपके हवाले यहीं छोड़े जा रहा हूँ ... )</p>ग़ज़ल : पत्थरों में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हमtag:openbooksonline.com,2014-03-23:5170231:BlogPost:5235162014-03-23T18:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><strong>एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले ....</strong></p>
<p></p>
<p><br></br> पत्थरों में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हम |</p>
<p>आईना हैं, खुद में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |</p>
<p> </p>
<p>हम अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या, <br></br> अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |</p>
<p></p>
<p>जौहरी होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है, <br></br> अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |</p>
<p> </p>
<p>लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले, <br></br> अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम…</p>
<p><strong>एक ताज़ा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले ....</strong></p>
<p></p>
<p><br/> पत्थरों में खौफ़ का मंज़र भरे बैठे हैं हम |</p>
<p>आईना हैं, खुद में अब पत्थर भरे बैठे हैं हम |</p>
<p> </p>
<p>हम अकेले ही सफ़र में चल पड़ें तो फ़िक्र क्या, <br/> अपनी नज़रों में कई लश्कर भेरे बैठे हैं हम |</p>
<p></p>
<p>जौहरी होने की ख़ुशफ़हमी का ये अंजाम है, <br/> अपनी मुट्ठी में फ़कत पत्थर भरे बैठे हैं हम |</p>
<p> </p>
<p>लाडला तो चाहता है जेब में टॉफी मिले, <br/> अपनी सारी जेबों में दफ़्तर भरे बैठे हैं हम |</p>
<p></p>
<p>हमने अपनी शख्सियत बाहर से चमकाई मगर, <br/> इक अँधेरा आज भी अन्दर भरे बैठे हैं हम |<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>ग़ज़ल - छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्याtag:openbooksonline.com,2014-01-19:5170231:BlogPost:5020092014-01-19T19:00:18.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या <br></br>इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या <br></br><br></br>ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या <br></br>कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या <br></br><br></br>है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या <br></br>इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या</p>
<p></p>
<p>मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है</p>
<p>काट ली जायेगी ज़बान भी क्या</p>
<p></p>
<p>धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को</p>
<p>लूट लेंगे ये सायबान भी क्या <br></br><br></br>इस क़दर जीतने की बेचैनी <br></br>दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या <br></br><br></br>अब के दावा जो है मुहब्बत का <br></br>झूठ ठहरेगा ये…</p>
<p>छीन लेगा मेरा .गुमान भी क्या <br/>इल्म लेगा ये इम्तेहान भी क्या <br/><br/>ख़ुद से कर देगा बदगुमान भी क्या <br/>कोई ठहरेगा मेह्रबान भी क्या <br/><br/>है मुकद्दर में कुछ उड़ान भी क्या <br/>इस ज़मीं पर है आसमान भी क्या</p>
<p></p>
<p>मेरा लहजा ज़रा सा तल्ख़ जो है</p>
<p>काट ली जायेगी ज़बान भी क्या</p>
<p></p>
<p>धूप से लुट चुके मुसाफ़िर को</p>
<p>लूट लेंगे ये सायबान भी क्या <br/><br/>इस क़दर जीतने की बेचैनी <br/>दाँव पर लग चुकी है जान भी क्या <br/><br/>अब के दावा जो है मुहब्बत का <br/>झूठ ठहरेगा ये बयान भी क्या <br/><br/>मेरी नज़रें तो पर्वतों पर हैं <br/>मुझको ललचायेंगी ढलान भी क्या <br/><br/>- वीनस केसरी <br/>मौलिक व अप्रकाशित</p>"ग़ज़ल के फ़लक पर - १" संपादक - राणा प्रताप सिंह - प्रविष्टि आमंत्रितtag:openbooksonline.com,2013-11-08:5170231:BlogPost:4684222013-11-08T18:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472692?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472692?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"></img></a></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-4"><strong>अंजुमन प्रकाशन की नई पेशकश "ग़ज़ल के फ़लक पर - १"</strong></span><br></br> <span class="font-size-4"><strong>(२०० युवा शाइरों का साझा ग़ज़ल संकलन)</strong></span><br></br> <br></br> <span style="text-decoration: underline;">पुस्तक परिचय</span> <br></br> <br></br> पुस्तक – ग़ज़ल के फ़लक पर - १ <br></br> संपादक – राणा प्रताप सिंह <br></br> २०० शाइरों की ३-३ ग़ज़लें…</p>
<p><a target="_self" href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472692?profile=original"><img width="750" class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001472692?profile=RESIZE_1024x1024" width="750"/></a></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-4"><strong>अंजुमन प्रकाशन की नई पेशकश "ग़ज़ल के फ़लक पर - १"</strong></span><br/> <span class="font-size-4"><strong>(२०० युवा शाइरों का साझा ग़ज़ल संकलन)</strong></span><br/> <br/> <span style="text-decoration: underline;">पुस्तक परिचय</span> <br/> <br/> पुस्तक – ग़ज़ल के फ़लक पर - १ <br/> संपादक – राणा प्रताप सिंह <br/> २०० शाइरों की ३-३ ग़ज़लें <br/> पृष्ठ – २०८<br/> पुस्तक आकार – A4 (डबल डिमाई से दोगुना आकार)<br/> बाईंडिंग – हार्ड बाउंड<br/> पुस्तक मूल्य – ४०० रुपये <br/> <br/> इस संकलन में शामिल होने के लिए निम्नलिखित नियम व शर्त हैं -<br/> <br/> * देश-विदेश के ऐसे शाइर जिनका जन्म १ अप्रैल १९७४ को अथवा उसके बाद हुआ है केवल उन्हें ही इस संकलन में स्थान दिया जाएगा| <br/> <br/> * शाइरों से १० मौलिक प्रतिनिधि ग़ज़लें आमंत्रित हैं, आग्रह है कि शाइर अपनी वो ग़ज़लें भेजें जिनको पाठकों व श्रोताओं से अधिकाधिक स्नेह मिला हो| <br/> <br/> * चयन व सम्पादन के उपरांत प्रत्येक शाइर की तीन से पांच ग़ज़लों को संकलन में स्थान मिलेगा अर्थात संकलन में कुल ६०० से अधिक गज़लें प्रकाशित होंगी|<br/> <br/> * गज़लें देवनागरी लिपि में टाइप की हुई / स्पष्ट हस्तलिखित होनी चाहिए| प्रत्येक पृष्ठ पर केवल एक ग़ज़ल होनी चाहिए| प्रविष्टि यदि ई-मेल से भेज रहे हैं तो ग़ज़लें वर्ड फ़ाइल में कृतिदेव अथवा यूनीकोड फॉण्ट में टाइप होनी चाहिए|<br/> <br/> * ग़ज़लों के साथ शाइर अपना परिचय भेजें| परिचय में केवल निम्न बिन्दुओं को शामिल करें - नाम / जन्म तिथि / एक मोबाइल नंबर / एक ई मेल पता / निवास <br/> इनके अतिरिक्त कोई जानकारी न भेजें | फोटो न भेजें |<br/> <br/> * इस संकलन में केवल उन शाइर को स्थान मिलेगा जिनका जन्म ३१ मार्च १९७४ के बाद हुआ है| उम्र सत्यापित करने के लिए ई-मेल से कृपया अपना हाईस्कूल का अंक पत्र स्कैन करके अथवा डाक से भेजते समय हाईस्कूल अंक पत्र की स्वप्रमाणित छायाप्रति भेजें अथवा कोई ऐसा प्रपत्र प्रस्तुत करें जिससे शाइर की उम्र सत्यापित हो सके |<br/> शाइर की उम्र सत्यापित न हो पाने की दशा में संकलन में स्थान दे पाना संभव न होगा|<br/> <br/> * शाइर लिखित रूप से स्वप्रमाणित करें कि ग़ज़लें नितांत मौलिक हैं, इसमें किसी के कापीराईट का उल्लंघन नहीं हुआ है | यदि कापीराईट का उल्लंघन होने के कारण प्रकाशक पर किसी प्रकार की कार्यवाही की गई तो शाइर प्रकाशक की क्षतिपूर्ती करेगा| <br/> <br/> * संकलन के लिए प्रविष्टियों के चयन का सर्वाधिकार सम्पादक के पास सुरक्षित है | किसी शाइर की ग़ज़लों का चयन न होने की दशा में संपादक शाइर को कारण बताने को बाध्य नहीं होगा <br/> <br/> * संकलन में स्थान मिलने पर शाइर संकलन खरीदने को बाध्य नहीं होगा| <br/> <br/> * प्रकाशनोपरांत पुस्तक आनलाइन बिक्री के लिए उपलब्ध होगी | <br/> <br/> * पुस्तक शाइरों/पाठकों हेतु प्रकाशन पूर्व ‘प्री बुकिंग’ के लिए उपलब्ध होगी जिस पर प्रकाशक द्वारा उचित छूट दी जायेगी| (पुस्तक वीपीपी से नहीं भेजी जायेगी) <br/> <br/> * प्रविष्टि भेजने की अंतिम तिथि ३१ दिसंबर २०१३ है | संकलन के मार्च २०१४ तक प्रकाशित होने की संभावना है|<br/> <br/> ग़ज़लें भेजने का पता -<br/> डाक से -<br/> अंजुमन प्रकाशन<br/> 942 मुट्ठीगंज (आर्य कन्या चौराहा) इलाहाबाद 211003<br/> <br/> ई मेल से - <br/> singhpratapus@gmail.com</p>|| अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार - 2014 ||tag:openbooksonline.com,2013-11-03:5170231:BlogPost:4666882013-11-03T14:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3"><span style="color: #993300;">दोस्तो,</span> <br></br> <span style="color: #993300;">अंजुमन प्रकाशन द्वारा 27 अक्टूबर 2013 को लखनऊ के पुस्तक लोकार्पण समारोह में की गयी घोषणा के अनुसार अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार-2014 के नियम एवं शर्त उपलब्ध हैं | युवा शाइरों से निवेदन है कि इस पुरस्कार योजना में शामिल हो कर इसे सफल बनाएँ व इसका लाभ उठायें |…</span> <br></br> <br></br></span></p>
<div class="widget-content"></div>
<p><span class="font-size-3"><span style="color: #993300;">दोस्तो,</span> <br/> <span style="color: #993300;">अंजुमन प्रकाशन द्वारा 27 अक्टूबर 2013 को लखनऊ के पुस्तक लोकार्पण समारोह में की गयी घोषणा के अनुसार अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार-2014 के नियम एवं शर्त उपलब्ध हैं | युवा शाइरों से निवेदन है कि इस पुरस्कार योजना में शामिल हो कर इसे सफल बनाएँ व इसका लाभ उठायें |</span> <br/> <br/></span></p>
<div class="widget-content"><div><span style="text-decoration: underline;"><strong><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia,serif;">पुरस्कार परिचय</span></strong></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">अंजुमन प्रकाशन ग़ज़ल नवलेखन पुरूस्कार के अंतर्गत प्रतिवर्ष पांडुलिपियाँ आमंत्रित करके उनमें से एक सर्वश्रेष्ठ पांडुलिपि का चयन किया जाएगा तथा वर्ष के अंत में अंजुमन प्रकाशन द्वारा ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित किया जाएगा तथा एक भव्य लोकार्पण समारोह में संग्रह को लोकार्पित किया जायेगा | इसके साथ ही, शाइर को उस वर्ष के लिए निश्चित की गई धनराशि व प्रशस्ति-पत्र से पुरस्कृत किया जाएगा तथा / माला / शाल / स्मृति चिह्न आदि से सम्मानित किया जाएगा | पुस्तक बिक्री होने पर अंजुमन प्रकाशन की नीतियों के अंतर्गत शाइर को रायल्टी दी जायेगी |</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">अंजुमन ग़ज़ल नवलेखन वर्ष - 2014 के लिए पुरस्कार की धनराशि 5000 रु. (पाँच हज़ार रुपये) निर्धारित की गई है</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">पांडुलिपि अंजुमन प्रकाशन को प्राप्त होने की अंतिम तिथि 10 जनवरी 2014 है</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">अंजुमन प्रकाशन द्वारा ग़ज़ल नवलेखन पुरस्कार 2014 की घोषणा की जाती है जिसके लिए नियम एवं शर्त निम्नलिखित हैं -<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">1. इस पुरस्कार के लिए युवा ग़ज़लकारों से 100 ग़ज़लों की पांडुलिपि आमंत्रित है</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">2. जिस प्रतिभागी की उम्र 1 जनवरी 2014 को 35 वर्ष से कम होगी केवल वही इस योजना में हिस्सा ले सकते हैं अर्थात जिस शाइर का जन्म दिनांक 1 जनवरी 1979 को या इस तारीख के बाद हुआ है केवल वही इस पुरस्कार योजना में भाग ले सकेंगे |</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">3. जिन शाइर का अभी तक कोई ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है उनसे 100 ग़ज़लों की पांडुलिपि आमंत्रित है</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">4. जिन शाइर का एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है उनसे भी 100 ग़ज़लों की पांडुलिपि आमंत्रित है परन्तु पांडुलिपि में सभी 100 ग़ज़लें नई होनी चाहिए, अर्थात उनके पहले ग़ज़ल संग्रह में प्रकाशित ग़ज़लें, भेजी जा रही पांडुलिपि में कदापि नहीं होनी चाहिए |</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">5. जिन शाइर की उम्र 35 वर्ष से कम है परन्तु दो या उससे ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं वह इस पुरस्कार योजना में हिस्सा नहीं ले सकते हैं</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">6. पांडुलिपि में ग़ज़ल A4 कागज़ में केवल एक ओर कंप्यूटर द्वारा टाइपशुदा हो (अलंकारिक फांट का प्रयोग न करें), फान्ट 14 प्वाईंट से बड़ा हो, एक पेज में केवल एक ग़ज़ल हो, तथा ग़ज़ल में कम से कम ५ अशआर हों</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">7. प्रत्येक ग़ज़ल के ऊपर ग़ज़ल संख्या तथा नीचे 2 लाइन स्पेस छोड़ कर ग़ज़ल की बह्र अथवा अर्कान अथवा मात्रा लिखी हो</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">8. पांडुलिपि भेजने के पूर्व विचार कर लें कि ग़ज़लें दोष रहित व अरूज के मानकों पर खरी उतरती हों</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">इन नियमों के प्रतिकूल होने पर पांडुलिपि पर किसी दशा में विचार नहीं किया जाएगा</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">अंतिम तिथि तक प्राप्त पांडुलिपियों में अंजुमन प्रकाशन द्वार गठित चयन समिति द्वारा दो से अधिक स्तर पर चयन प्रकिया को अपनाते हुए सर्वश्रेष्ठ पांडुलिपि का चयन किया जाएगा तथा पांडुलिपि प्राप्त करने की अंतिम तिथि के 3 महीने बाद चयनित शाइर के नाम की घोषणा अंजुमन प्रकाशन की वेबसाईट तथा अन्य आनलाइन मंचों द्वारा की जायेगी जाएगी | यदि प्राप्त पांडुलिपियों में से कोई भी पांडुलिपि चयन समिति के निर्धारित मानकों पर खरी नहीं उतरती है तो पुरस्कार किसी को नहीं दिया जाएगा |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">सर्वश्रेष्ठ पांडुलिपि के अतिरिक्त यदि अन्य पांडुलिपियाँ भी मानकों पर खरी उतरती हैं तो चयन समिति द्वारा अंजुमन प्रकाशन को प्रकाशित करने के लिए अनुशंसित की जा सकती है तथा उस ग़ज़ल संग्रह का प्रकाशन, प्रकाशन की सामान्य पुस्तक के रूप में किया जा सकता है जिसके लिए प्रकाशन और शाइर की आपसी सहमति अनुसार कार्य किया जाएगा तथा उक्त पुस्तकों के प्रकाशन पर प्रकाशन की सामान्य नीतियां लागू होंगी |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span style="text-decoration: underline;"><strong><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia,serif;">पुरस्कृत होने के बाद के नियम व शर्त</span></strong></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">चयनित पांडुलिपि में से चुनिन्दा ग़ज़लों की 80 अथवा उससे अधिक पृष्ठ की पेपर बैक पुस्तक पूर्ण प्रकाशकीय खर्च से 2014 में प्रकाशित की जायेगी | पुस्तक का मूल्य प्रकाशन की नीतियों के अनुसार तय किया जाएगा</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">प्रकाशक द्वारा पहली बार खुद प्रूफ रीडिंग करवाया जाएगा तथा शाइर को को कम से कम एक बार प्रूफ पढ़ना अनिवार्य है |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">पुस्तक को आई.एस.बी.एन. नंबर मिलेगा जिससे पुस्तक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पंजीकृत होती है |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">शाइर को पुस्तक की 5 प्रतियाँ दी जायेगी तथा इसके बाद क्रय करने पर पुस्तक मूल्य पर 30 % छूट दी जायेगी |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">पहले तथा उसके बाद के सभी संस्करण की पुस्तक बिक्री होने पर लेखक को अंजुमन प्रकाशन की नीतियों के अनुसार रायल्टी दी जायेगी जिसका हिसाब प्रत्येक वित्तीय वर्ष के अंत में किया जायेगा तथा धन राशि लेखक को चेक द्वारा दी जाएगी | वर्तमान नीति के अनुसार रायल्टी पुस्तक मूल्य का <span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">15 % </span> निर्धारित है | <br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">विमोचन तथा सम्मान कार्यक्रम की तिथि शाइर की सहमति से अंजुमन प्रकाशन द्वारा संभवतः सितम्बर से दिसंबर माह के बीच तय की जायेगी | कार्यकम के लिए इलाहाबाद आने जाने व इलाहाबाद में ठहरने का खर्च लेखक को स्वयं वहन करना होगा यदि लेखक के परिचित समारोह में सम्मिलित होने के लिए अन्य शहर से इलाहाबाद आते हैं तो उनकी व्यवस्था भी लेखक को देखनी होगी |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">पुस्तक का कापीराइट लेखकाधीन होगा |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">पुरस्कृत पुस्तक का पहला संस्करण प्रकाशित होने की तिथि से अगले पाँच वर्ष की अवधि में सभी अगले संस्करण अंजुमन प्रकाशन द्वारा ही प्रकाशित किये जायेंगे, पाँच वर्ष की अवधि के बाद अंजुमन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित संस्करण समाप्त होने पर लेखक, प्रकाशक को सूचित करते हुए दो माह बाद अगला संस्करण किसी भी अन्य प्रकाशक से प्रकाशित करवाने के लिए स्वतंत्र होगा</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">पुरस्कार प्राप्त करने के लिए किसी प्रकार कि अनुशंसा करने अथवा करवाने पर प्रतिभागी की प्रतिभागिता तुरंत निरस्त कर दी जायेगी |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">चयनित न होने की दशा में पांडुलिपि वापस नहीं की जायेगी, भविष्य के लिए अपने पास पाण्डुलिपि की एक प्रति सुरक्षित रखें |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">सर्वश्रेष्ठ प्रतिभागी को पुरस्कार की घोषणा के बाद यदि पुरस्कृत प्रतिभागी के सम्बन्ध में यह तथ्य उजागर होते हैं कि प्रतिभागी द्वारा पुरस्कार पाने के नियम व शर्त के प्रतिकूल गलत तथ्यों को प्रस्तुत किया गया है तो अन्य पांडुलिपियों पर पुनः विचार करके किसी अन्य प्रतिभागी को पुरस्कार प्रदान किया जाएगा | <br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">यदि ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित होने तथा पुरस्कार देने के बाद ऐसी कोई जानकारी व सबूत प्राप्त होता है कि प्रतिभागी द्वारा पुरस्कार पाने के नियम व शर्त के प्रतिकूल गलत तथ्यों को प्रस्तुत किया गया था तो उचित न्यायिक कार्यवाही की जायेगी जिसका क्षेत्राधिकार इलाहाबाद न्यायिक परिक्षेत्र रहेगा |<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">विशेष परिस्थितियों में प्रतिभागी को बिना सूचना दिये, पांडुलिपि प्राप्त करने की अंतिम तिथि तथा पुरस्कार के लिए शाइर के नाम को घोषित करने की तिथि को घटाया बढ़ाया जा सकता है, पुरस्कार की राशि घटाई/बढ़ाई जा सकती है, नियम एवं शर्तों में बदलाव किया जा सकता है अथवा पुरस्कार को रद्द किया जा सकता है | अंजुमन प्रकाशन के पास सर्वाधिकार सुरक्षित है ।<br/></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span style="text-decoration: underline;"><strong><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia,serif;">पुरस्कार योजना में हिस्सा लेने के लिए निम्न्लिखित्त सामग्री भेजें –</span></strong></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">१ - 100 ग़ज़लों की पांडुलिपि की दो प्रतियाँ (उचित बाईंडिंग के साथ)</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">२ - प्रतिभागी का साहित्यिक व व्यक्ति परिचय जिसमें प्रतिभागी का संपर्क सूत्र, ई मेल, निवास, ब्लॉग / वेवसाईट (यदि हो) आदि का जिक्र अवश्य हो</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">३ - तीन पासपोर्ट साइज फोटो</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">४ - आयु प्रमाणित करने के लिए हाईस्कूल अंक पत्र की स्वहस्ताक्षरित छाया प्रति</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">५ – यदि एक ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित हो चुका है तो संग्रह की तीन प्रतियाँ</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">६- 20 रुपये के स्टाम्प पेपर में प्रतिभागी को स्वप्रमाणित करना है कि –</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> - प्रतिभागी की आयु 1 जनवरी 2014 को 35 वर्ष से कम है,</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> - अभी तक प्रतिभागी का कोई ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित नहीं हुआ है / केवल एक संग्रह प्रकाशित हुआ है (संग्रह तथा प्रकाशक के नाम व पता का जिक्र करें )</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> - पांडुलिपि में भेजी गई सभी 100 ग़ज़लें मौलिक हैं व किसी अन्य संग्रह में अप्रकाशित हैं</span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;"> </span></div>
<div><span class="font-size-3"><span style="font-family: Georgia, serif;"><br/></span> <span style="font-family: Georgia, serif;">द्वारा अंजुमन प्रकाशन</span></span></div>
<div><span class="font-size-3" style="font-family: Georgia, serif;">आकाश केसरवानी</span></div>
<div><span class="font-size-3"><span style="font-family: Georgia, serif;">anjumanprakashan@gmail.com<br/> <br/> <br/></span> <span style="font-family: Georgia, serif;"><span style="text-decoration: underline;"><strong>पांडुलिपि इस पते पर भेजें</strong></span> <br/> <br/></span> <span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;">Anjuman Publication</span></span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;"/><span class="font-size-3" style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;">Akash Kesari</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;"/><span class="font-size-3" style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;">Janta Pustak Bhandar</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;"/><span class="font-size-3" style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;">942, Mutthiganj (Near Arya Kanya Chauraha)</span><br style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;"/><span class="font-size-3"><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;">Allahabad - 211003</span></span></div>
<div><span class="font-size-3"><span style="background-color: white; color: #333333; font-family: Arial, serif; font-size: 13px; line-height: 20.796875px;">Uttar Pradesh, India</span><span style="font-family: Georgia, serif;"><br/></span></span></div>
</div>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>लघु कथा - मजदूरtag:openbooksonline.com,2013-10-12:5170231:BlogPost:4539022013-10-12T18:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>क्यों बे साले तेरी ये मजाल ... दो टके का मजदूर हो के मुझसे ज़बान लड़ाता है !</p>
<p></p>
<p>साहेब, गरियाते काहे हैं, मजदूर तो आपौ हैं </p>
<p></p>
<p>क्या बकता है हरामखोsss</p>
<p></p>
<p>माई बाप ... पिछले हफ्ता एक मई का आपै तो कहे रहेन ,,, "हम सब मजदूर हैं" </p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p> </p>
<p>क्यों बे साले तेरी ये मजाल ... दो टके का मजदूर हो के मुझसे ज़बान लड़ाता है !</p>
<p></p>
<p>साहेब, गरियाते काहे हैं, मजदूर तो आपौ हैं </p>
<p></p>
<p>क्या बकता है हरामखोsss</p>
<p></p>
<p>माई बाप ... पिछले हफ्ता एक मई का आपै तो कहे रहेन ,,, "हम सब मजदूर हैं" </p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित) </p>
<p> </p>ग़ज़ल - जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुतtag:openbooksonline.com,2013-09-17:5170231:BlogPost:4369222013-09-17T21:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>आदरणीय चन्द्र शेखर पाण्डेय जी की ग़ज़ल से प्रेरित एक फिलबदी ग़ज़ल ....</p>
<p><br></br> २२ २२ २२ २२ २२ २</p>
<p>ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं <br></br> गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं <br></br> <br></br> मैडम बोलीं आज बनाएँगे सब घर <br></br> बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं</p>
<p> </p>
<p>आईनों पर क्या गुजरी, क्यों सब के सब, </p>
<p>पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं</p>
<p> <br></br> धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है <br></br> हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं</p>
<p></p>
<p>जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत <br></br> हम कितना सामान…</p>
<p>आदरणीय चन्द्र शेखर पाण्डेय जी की ग़ज़ल से प्रेरित एक फिलबदी ग़ज़ल ....</p>
<p><br/> २२ २२ २२ २२ २२ २</p>
<p>ये कैसी पहचान बनाए बैठे हैं <br/> गूंगे को सुल्तान बनाए बैठे हैं <br/> <br/> मैडम बोलीं आज बनाएँगे सब घर <br/> बच्चे हिन्दुस्तान बनाए बैठे हैं</p>
<p> </p>
<p>आईनों पर क्या गुजरी, क्यों सब के सब, </p>
<p>पत्थर को भगवान बनाए बैठे हैं</p>
<p> <br/> धूप का चर्चा फिर संसद में गूंजा है <br/> हम सब रौशनदान बनाए बैठे हैं</p>
<p></p>
<p>जंग न होगी तो होगा नुक्सान बहुत <br/> हम कितना सामान बनाए बैठे हैं</p>
<p></p>
<p>वो चाहें तो और कठिन हो जाएँ पर <br/> हम खुद को आसान बनाए बैठे हैं <br/> <br/> पल में तोला पल में माशा हैं कुछ लोग <br/> महफ़िल को हैरान बनाए बैठे हैं</p>
<p></p>
<p>जान हमारी ले लेंगे वो, क्योंकि हम अब <br/> उनको अपनी जान बनाए बैठे हैं</p>
<p></p>
<p>सय्यादों से सुबहो शाम दाने पा कर</p>
<p>पिंजड़े को हम शान बनाए बैठे हैं</p>
<p></p>
<p>आप को सोचें दिल को फिर गुलज़ार करें</p>
<p>क्यों खुद को वीरान बनाए बैठे हैं </p>
<p><br/> आपकी खिदमत में हाजिर हैं हम हर पल <br/> खुद को पुल, सोपान बनाए बैठे हैं</p>
<p>सोपान - सीढ़ी</p>
<p><br/> मौलिक व अप्रकाशित</p>प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न होtag:openbooksonline.com,2013-08-11:5170231:BlogPost:4127802013-08-11T17:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-2" style="color: #993300;">दोस्तों, पिछले डेढ़ महीने, मंच से नादारद था ... एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ पुनः हाज़िरी दर्ज करता हूँ ....<br></br></span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो<br></br> आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो </span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे <br></br> तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">आपका दिल है तो जैसा चाहिए…</span></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-2">दोस्तों, पिछले डेढ़ महीने, मंच से नादारद था ... एक ताज़ा ग़ज़ल के साथ पुनः हाज़िरी दर्ज करता हूँ ....<br/></span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">प्यास के मारों के संग ऐसा कोई धोका न हो<br/> आपकी आँखों के जो दर्या था वो सहरा न हो </span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">उनकी दिलजोई की खातिर वो खिलौना हूँ जिसे <br/> तोड़ दे कोई अगर तो कुछ उन्हें परवा न हो</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">आपका दिल है तो जैसा चाहिए कीजै सुलूक</span></p>
<p><span class="font-size-2">परा ज़रा यह देखिए इसमें कोई रहता न हो</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">पत्थरों की ज़ात पर मैं कर रहा हूँ एतबार</span></p>
<p><span class="font-size-2">अब मेरे जैसा भी कोई अक्ल का अँधा न हो</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2">ज़िंदगी से खेलने वालों जरा यह कीजिए</span></p>
<p><span class="font-size-2">ढूढिए ऐसा कोई जो आखिरश हारा न हो <br/> <br/> <span style="color: #993300;">वीनस केसरी</span></span></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-2">मौलिक एवं अप्रकाशित</span></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-2">फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन / फ़ाइलान</span></p>लघु कथा : चमक - दमकtag:openbooksonline.com,2013-07-16:5170231:BlogPost:3979602013-07-16T20:34:44.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3">बर्तन की जाली में एक लोटा और कुछ चम्मच थे | सारे चम्मच लोटा को दुनिया का सबसे अच्छा बर्तन मानते थे, उसकी जय-जयकार करते थे, लोटा हमेशा उनको चमक - दमक की दुनिया से बचने नसीहतें देता था, हमेशा उनको बताता था कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है, चम्मचों ! परदे के पीछे का खेल देखने की कोशिश किया करो, सच्चाई वहाँ छुपी होती है, बहुत लोग तुमको ऐसी नकली दुनिया में घसीटने की कोशिश करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहो,,, और भी जाने क्या क्या .....…</span> <br></br></p>
<p><span class="font-size-3">बर्तन की जाली में एक लोटा और कुछ चम्मच थे | सारे चम्मच लोटा को दुनिया का सबसे अच्छा बर्तन मानते थे, उसकी जय-जयकार करते थे, लोटा हमेशा उनको चमक - दमक की दुनिया से बचने नसीहतें देता था, हमेशा उनको बताता था कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी दिखती है, चम्मचों ! परदे के पीछे का खेल देखने की कोशिश किया करो, सच्चाई वहाँ छुपी होती है, बहुत लोग तुमको ऐसी नकली दुनिया में घसीटने की कोशिश करेंगे ऐसे लोगों से दूर रहो,,, और भी जाने क्या क्या .....</span> <br/> <span class="font-size-3">किसी ने लोटा को जाली से बाहर निकला और किचन के टाईल्स लगे चमकते दमकते फर्श पर रख दिया, लोटा लुढक गया .....</span> <span class="font-size-3">चम्मच बहुत दुखी हैं</span></p>
<p><span class="font-size-3">(नोट - चम्मच कभी स्कूल नहीं गये हैं इसलिए उनको कहावतों के विषय में कोई जानकारी नहीं है)</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">- वीनस केसरी <br/><br/>मौलिक व अप्रकाशित</span></p>चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में - वीनसtag:openbooksonline.com,2013-07-03:5170231:BlogPost:3899062013-07-03T16:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-2" style="color: #993300;">एक ताज़ा ग़ज़ल ...</span> <br></br> <br></br> <span class="font-size-2">चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में</span></p>
<p><span class="font-size-2">जाएगी जान क्या शराफत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">किसको मालूम था कि ये होगा</span></p>
<p><span class="font-size-2">खाएँगे चोट यूँ मुहब्बत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">पीटते हैं हम अपनी छाती…</span></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-2">एक ताज़ा ग़ज़ल ...</span> <br/> <br/> <span class="font-size-2">चुप तो बैठे हैं हम मुरव्वत में</span></p>
<p><span class="font-size-2">जाएगी जान क्या शराफत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">किसको मालूम था कि ये होगा</span></p>
<p><span class="font-size-2">खाएँगे चोट यूँ मुहब्बत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">पीटते हैं हम अपनी छाती क्यों</span> <br/> <span class="font-size-2">क्यों पड़े हैं हम उनकी आदत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">खून उगलूँ तो उनको चैन आए</span></p>
<p><span class="font-size-2">आप पड़िए तो पड़िए हैरत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">बेहया हैं, सो साँसें लेते हैं</span></p>
<p><span class="font-size-2">मर ही जाते तुम ऐसी सूरत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">अब नहीं आ रहा उधर से जवाब</span> <br/> <span class="font-size-2">लुत्फ़ अब आएगा शिकायत में</span> <br/> <br/> <span class="font-size-2">नाम उन तक पहुँच गया मेरा</span></p>
<p><span class="font-size-2">अब तो रक्खा ही क्या है शुहरत में</span></p>
<p><br/> <span class="font-size-2">ख़ाब में भी न सोच सकते थे</span></p>
<p><span class="font-size-2">लिख के भेजा है उसने जो खत में</span></p>
<p><span class="font-size-2"><br/> मैंने रोका था, ख़ाक माने आप</span> <br/> <span class="font-size-2">और पड़िए हमारी सुहबत में</span> <br/> <br/> <span class="font-size-2">जेह्न से वो नहीं उतरता है</span></p>
<p><span class="font-size-2">हर घड़ी अब रहूँ इबादत में</span></p>
<p><br/> <span class="font-size-2">ठोकरें खाऊंगा ... बहुत अच्छा !</span></p>
<p><span class="font-size-2">और क्या क्या लिखा है किस्मत में ?</span><br/> <br/> <br/> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-2">फाइलातुन मफ़ाइलुन फैलुन </span> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-2">मौलिक व अप्रकाशित</span> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-2">- वीनस</span></p>वक्त जो हम पर भारी है - वीनसtag:openbooksonline.com,2013-06-20:5170231:BlogPost:3807422013-06-20T05:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">छोटी बहर पर ग़ज़ल का एक प्रयास .....</span></p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">वक्त जो हम पर भारी है </span><br></br> <span class="font-size-2">अपनी भी तय्यारी है </span><br></br> <br></br> <span class="font-size-2">पूरा कारोबारी है </span><br></br> <span class="font-size-2">ये अमला सरकारी है </span></p>
<p style="text-align: left;">.…</p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">छोटी बहर पर ग़ज़ल का एक प्रयास .....</span></p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">वक्त जो हम पर भारी है </span><br/> <span class="font-size-2">अपनी भी तय्यारी है </span><br/> <br/> <span class="font-size-2">पूरा कारोबारी है </span><br/> <span class="font-size-2">ये अमला सरकारी है </span></p>
<p style="text-align: left;">.</p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">प्रजातंत्र के ढांचे में </span></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">हर कोई दरबारी है </span></p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">तय्यारी है हमलों की </span></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">अम्न का नाटक ज़ारी है </span><br/> <br/> <span class="font-size-2">सच को कैसे सच कह दें </span><br/> <span class="font-size-2">जान हमें भी प्यारी है </span></p>
<p style="text-align: left;"><br/> <span class="font-size-2">खुद को खतरा है खुद से </span></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">ये कैसी खुद्दारी है </span></p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">साम्यवाद के नारों पर </span></p>
<p style="text-align: left;"><span class="font-size-2">भारी जिम्मेदारी है </span></p>
<p style="text-align: left;"><br/> <br/> <span class="font-size-2">वीनस केसरी </span><br/> <span class="font-size-2">मौलिक व अप्रकाशित </span><br/> <br/> <span class="font-size-2">फैलुन फैलुन फैलुन फ़ा </span></p>ऐ दोस्त ! खुशतरीन वो मंज़र कहाँ गएtag:openbooksonline.com,2013-06-05:5170231:BlogPost:3730162013-06-05T19:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3" style="color: #993300;">दोस्तो, एक और ग़ज़ल जो होते होते मुकम्मल हुई है, आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ जैसी लगे वैसे नवाजें ....</span> <br></br> <br></br> <span class="font-size-3">ऐ दोस्त ! खुशतरीन वो मंज़र कहाँ गए</span> <br></br> <span class="font-size-3">हाथों में फूल हैं तो वो पत्थर कहाँ गए</span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">डरता हूँ मुझसे आज के बच्चे न पूछ लें</span> <br></br> <span class="font-size-3">तितली कहाँ गईं हैं, कबूतर कहाँ गए…</span> <br></br> <br></br></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-3">दोस्तो, एक और ग़ज़ल जो होते होते मुकम्मल हुई है, आपकी खिदमत में पेश कर रहा हूँ जैसी लगे वैसे नवाजें ....</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">ऐ दोस्त ! खुशतरीन वो मंज़र कहाँ गए</span> <br/> <span class="font-size-3">हाथों में फूल हैं तो वो पत्थर कहाँ गए</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">डरता हूँ मुझसे आज के बच्चे न पूछ लें</span> <br/> <span class="font-size-3">तितली कहाँ गईं हैं, कबूतर कहाँ गए</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">पुल जब से बन गया है नदी बेकरार है</span> <br/> <span class="font-size-3">बस्ती से नाखुदाओं के सब घर कहाँ गये</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">बातें तो हमसे करते थे दुनिया जहान की</span> <br/> <span class="font-size-3">जब वक्त आ गया तो वो तेवर कहाँ गये</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">दुनिया को जीत कर भी अलग क्या मिला उन्हें</span> <br/> <span class="font-size-3">सबको पता है मर के सिकंदर कहाँ गये</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">मंचों पे चुटकुलों से हुए हिट मुशाइरे</span> <br/> <span class="font-size-3">ग़ज़लें कहाँ गईं वो सुखनवर कहाँ गये</span> <br/> <br/> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-3">- वीनस</span> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-3">@ २०११</span> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-3">मौलिक व अप्रकाशित</span> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-3">२२१ / २१२१ / १२२१ / २१२</span></p>वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझेtag:openbooksonline.com,2013-06-03:5170231:BlogPost:3718872013-06-03T19:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3" style="color: #993300;">एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी की मुहब्बतों के हवाले ....</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे</span> <br></br> <span class="font-size-3">पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">मैं डर रहा हूँ कहीं वो न हार जाए मुझे</span><br></br> <span class="font-size-3">मेरी अना के मुक़ाबिल नज़र जो आए मुझे</span> <br></br> <br></br> <span class="font-size-3">मुझे समझने का दावा अगर है सच्चा तो …</span></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-3">एक ताज़ा ग़ज़ल आप सभी की मुहब्बतों के हवाले ....</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">वो एक बार तबीअत से आजमाए मुझे</span> <br/> <span class="font-size-3">पुकारता भी रहे और नज़र न आए मुझे</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">मैं डर रहा हूँ कहीं वो न हार जाए मुझे</span><br/> <span class="font-size-3">मेरी अना के मुक़ाबिल नज़र जो आए मुझे</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">मुझे समझने का दावा अगर है सच्चा तो </span> <br/> <span class="font-size-3">मैं उसको चाहता हूँ, अब 'वही' बताए मुझे</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">मनाने रूठने के खेल में तो तय था यही</span> <br/> <span class="font-size-3">मैं रूठ जाऊं, वो हर हाल में मनाए मुझे</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">वो मुफ्त में मुझे हासिल नहीं है, तो वो भी</span> <br/> <span class="font-size-3">मुहब्बतों के हवाले से ही कमाए मुझे</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">मैं सुब्हो शाम पढ़े हूँ उसे फ़साने सा</span> <br/> <span class="font-size-3">वो हर वरक पे मनाज़िर नए दिखाए मुझे</span> <br/> <br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-3">(मफ़ाइलुन फ़इलातुन मफ़ाइलुन फैलुन)</span><br/> <span style="color: #993300;" class="font-size-3">१२१२ ११२२ १२१२ २२ <br/> <br/> - वीनस केसरी</span></p>नवगीत ::: नेता काटें ‘मोटा माल’tag:openbooksonline.com,2013-05-10:5170231:BlogPost:3605332013-05-10T09:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-2" style="font-size: 12pt; color: #993300;">सामयिक मुद्दों पर एक नवगीत ...</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">साम्यवाद के पक्ष में</span></p>
<p><span class="font-size-2">जितने दावे थे</span></p>
<p><span class="font-size-2">सब ख़ारिज हैं…</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-2" style="font-size: 12pt; color: #993300;">सामयिक मुद्दों पर एक नवगीत ...</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">साम्यवाद के पक्ष में</span></p>
<p><span class="font-size-2">जितने दावे थे</span></p>
<p><span class="font-size-2">सब ख़ारिज हैं</span></p>
<p><span class="font-size-2">देश में अब क़ानून के मंत्री</span></p>
<p><span class="font-size-2">खुद क़ानून से</span></p>
<p><span class="font-size-2">आजिज हैं</span></p>
<p><span class="font-size-2">सी बी आई में बैठे हैं</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता जी के</span></p>
<p><span class="font-size-2">सौ सौ लाल<br/> <br/></span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">न्यूज़ चैनलों में हम देखें</span></p>
<p><span class="font-size-2">घोटालों का</span></p>
<p><span class="font-size-2">डेली सोप</span></p>
<p><span class="font-size-2">मामा भांजे के रिश्ते में</span></p>
<p><span class="font-size-2">खोज रहे हैं</span></p>
<p><span class="font-size-2">सब स्कोप</span></p>
<p><span class="font-size-2">लंबी लंबी बातें करके</span></p>
<p><span class="font-size-2">हो जाते हैं</span></p>
<p><span class="font-size-2">जो मिस काल</span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">व्यभिचारों के पैमाने से</span></p>
<p><span class="font-size-2">नपता दिल्ली</span></p>
<p><span class="font-size-2">का किरदार</span></p>
<p><span class="font-size-2">पर संसद में अब भी होता</span></p>
<p><span class="font-size-2">सख्त सजा पर</span></p>
<p><span class="font-size-2">सोच विचार</span></p>
<p><span class="font-size-2">दिल वालों के बस्ती शायद</span></p>
<p><span class="font-size-2">नैतिकता से</span></p>
<p><span class="font-size-2">है कंगाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">दारू पी कर जो बहके थे</span></p>
<p><span class="font-size-2">मर कर वो</span></p>
<p><span class="font-size-2">हो गए शहीद</span></p>
<p><span class="font-size-2">मार के दुश्मन के कैदी को</span></p>
<p><span class="font-size-2">उनको हम</span></p>
<p><span class="font-size-2">देते ताकीद</span></p>
<p><span class="font-size-2">गांधी जी के तीनों बन्दर</span></p>
<p><span class="font-size-2">छाती पीटें</span></p>
<p><span class="font-size-2">नोचें बाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2">आने वाले समय को अपनी</span></p>
<p><span class="font-size-2">ओर से हम</span></p>
<p><span class="font-size-2">भटकाव न दें</span></p>
<p><span class="font-size-2">हम पर जिम्मेदारी है अब</span></p>
<p><span class="font-size-2">जाति धर्म को</span></p>
<p><span class="font-size-2">भाव न दें</span></p>
<p><span class="font-size-2">हर मुश्किल का हल हम खोजें</span></p>
<p><span class="font-size-2">खुद ना होगा</span></p>
<p><span class="font-size-2">कोई कमाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">रो रो कर जनता बेहाल</span></p>
<p><span class="font-size-2">नेता काटें ‘मोटा माल’</span></p>
<p><span class="font-size-2"> <br/> <br/> <span style="color: #993300;">वीनस केसरी </span></span></p>
<p><span class="font-size-2" style="color: #993300;">मौलिक व अप्रकाशित </span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>
<p><span class="font-size-2"> </span></p>दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगींtag:openbooksonline.com,2013-05-06:5170231:BlogPost:3587012013-05-06T16:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3" style="color: #993300;">तमाम विसंगतियों के विरोध में एक ताज़ा ग़ज़ल .....</span></p>
<p></p>
<p><br></br> <span class="font-size-3">दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं </span><br></br> <span class="font-size-3">फैसले को ‘खाप’ की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं </span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का</span></p>
<p><span class="font-size-3">अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं</span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">आरियाँ…</span></p>
<p><span class="font-size-3" style="color: #993300;">तमाम विसंगतियों के विरोध में एक ताज़ा ग़ज़ल .....</span></p>
<p></p>
<p><br/> <span class="font-size-3">दिल से दिल के बीच जब नज़दीकियाँ आने लगीं </span><br/> <span class="font-size-3">फैसले को ‘खाप’ की कुछ पगड़ियाँ आने लगीं </span><br/> <br/> <span class="font-size-3">किसको फुर्सत है भला, वो ख़्वाब देखे चाँद का</span></p>
<p><span class="font-size-3">अब सभी के ख़्वाब में जब रोटियाँ आने लगीं</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">आरियाँ खुश थीं कि बस दो –चार दिन की बात है </span><br/> <span class="font-size-3">सूखते पीपल पे फिर से पत्तियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">उम्र फिर गुज़रेगी शायद राम की वनवास में</span></p>
<p><span class="font-size-3">दासियों के फेर में फिर रानियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">बीच दरिया में न जाने सानिहा क्या हो गया</span></p>
<p><span class="font-size-3">साहिलों पर खुदकुशी को मछलियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">है हवस का दौर यह, इंसानियत है शर्मसार</span></p>
<p><span class="font-size-3">आज हैवानों की ज़द में बच्चियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">यूँ शहादत पर सियासत का नया फैशन दिखा</span></p>
<p><span class="font-size-3">शोक जतलाने को नीली बत्तियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">हमने सच को सच कहा था, और फिर ये भी हुआ</span></p>
<p><span class="font-size-3">बौखला कर कुछ लबों पर गालियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">शाहज़ादों को स्वयंवर जीतने की क्या गरज़</span></p>
<p><span class="font-size-3">जब अँधेरे मुंह महल में दासियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">आज कह के कल मुकर जाने को सब तय्यार हैं</span></p>
<p><span class="font-size-3">शाइरों में भी सियासी खूबियाँ आने लगीं</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">उसने अपने ख़्वाब के किस्से सुनाये थे हमें</span></p>
<p><span class="font-size-3">और हमारे ख़्वाब में भी तितलियाँ आने लगीं </span></p>
<p></p>
<p><br/><br/> <span class="font-size-3" style="color: #993300;">- वीनस केसरी </span><br/> <span class="font-size-3" style="color: #993300;">मौलिक व अप्रकाशित </span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>परेशां है समंदर तिश्नगी से - ग़ज़लtag:openbooksonline.com,2013-04-25:5170231:BlogPost:3530472013-04-25T16:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p align="center"><span class="font-size-3"><span lang="HI" xml:lang="HI">परेशां है समंदर तिश्नगी से <br></br> मिलेगा क्या मगर इसको नदी से<br></br> <br></br></span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span lang="HI" xml:lang="HI">अमीरे शहर उसका ख़ाब देखे </span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span lang="HI" xml:lang="HI">कमाया है जो हमने मुफलिसी से</span></span></p>
<p><span class="font-size-3"> …</span></p>
<p align="center"></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">परेशां है समंदर तिश्नगी से <br/> मिलेगा क्या मगर इसको नदी से<br/> <br/></span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">अमीरे शहर उसका ख़ाब देखे </span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">कमाया है जो हमने मुफलिसी से</span></span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">पुराना मस्अला ये तीरगी का <br/> कभी क्या हल भी होगा रोशनी से <br/> <br/> यहीं तो खुद से खा जाता हूँ धोका <br/> निभाना चाहता हूँ मैं सभी से <br/> <br/></span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">नदी वाला तिलिस्मी ख़्वाब टूटा <br/> भरा बैठा हूँ अब मैं तिश्नगी से <br/> <br/> भुला बैठे जो रस्ता उस गली का <br/> गुज़रना हो गया किस किस गली से</span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"> </span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">खुशामद भर है जो महबूब की तो, <br/> मुझे आजिज समझिए शाइरी से</span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"> </span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3"><span xml:lang="HI" lang="HI">पुराना है मेरा लहज़ा यकीनन</span></span></p>
<p align="center"><span class="font-size-3" xml:lang="HI" lang="HI">मगर बरता है किस शाइस्तगी से<br/> <br/> मौलिक व अप्रकाशित </span></p>किसी दिन मर न जाएँ हम खुशी से - वीनसtag:openbooksonline.com,2013-04-18:5170231:BlogPost:3492252013-04-18T18:44:35.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p align="center" style="text-align: left;">मुलाकातें हमारी, तिश्नगी से <br></br> किसी दिन मर न जाएँ हम खुशी से <br></br> <br></br> महब्बत यूँ मुझे है बतकही से<br></br> निभाए जा रहा हूँ खामुशी से <br></br> <br></br> उन्हें कुछ काम शायद आ पड़ा है <br></br> तभी मिलते हैं मुझसे खुशदिली से <br></br> <br></br> उजाला बांटने वालों के सदके <br></br> हमारी निभ रही है तीरगी से <br></br> <br></br> ये कैसी बेखुदी है जिसमे मुझको</p>
<p align="center" style="text-align: left;">मिलाया जा रहा हैं अब मुझी से<br></br> <br></br> उतारो भी मसीहाई का चोला <br></br> हँसा बोला…</p>
<p style="text-align: left;" align="center">मुलाकातें हमारी, तिश्नगी से <br/> किसी दिन मर न जाएँ हम खुशी से <br/> <br/> महब्बत यूँ मुझे है बतकही से<br/> निभाए जा रहा हूँ खामुशी से <br/> <br/> उन्हें कुछ काम शायद आ पड़ा है <br/> तभी मिलते हैं मुझसे खुशदिली से <br/> <br/> उजाला बांटने वालों के सदके <br/> हमारी निभ रही है तीरगी से <br/> <br/> ये कैसी बेखुदी है जिसमे मुझको</p>
<p style="text-align: left;" align="center">मिलाया जा रहा हैं अब मुझी से<br/> <br/> उतारो भी मसीहाई का चोला <br/> हँसा बोला करो हर आदमी से</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">खबर से जी नहीं भरता हमारा</p>
<p style="text-align: left;" align="center">मजा आता है केवल सनसनी से <br/> <br/> अना के वास्ते खुद से लड़ा मैं <br/> तअल्लुक तोड़ बैठा हूँ सभी से</p>
<p style="text-align: left;" align="center"></p>
<p style="text-align: left;" align="center">ये बेदारी, ये बेचैनी का आलम<br/> मैं आजिज आ गया हूँ शाइरी से<br/><br/><br/><br/>बह्र-ए-हजज मुसद्दस महज़ूफ़ <br/>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>इंसानtag:openbooksonline.com,2013-04-11:5170231:BlogPost:3453532013-04-11T19:22:22.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>जीतने के सौ तरीके खोजने वाले, <br></br> ग्लूकान-डी के सहारे <br></br> सूरज से लड़ने वाले हम इंसान<br></br> उजले सच को भी बर्दाशत नहीं कर पाते <br></br> <br></br> प्रकृति पर विजय की लालसा लिए, <br></br> हम इंसान <br></br> पर्वत विजय का जश्न मनाते हैं, <br></br> इंगलिश चैनल को तैर कर पार करते हैं,<br></br> भू-गर्भ की गहराइयों को 'मीटर' में नापते हैं, <br></br> 'मीटर' के ऊपर के सारे पैमाने जाने कहाँ चले जाते हैं उस समय !!!<br></br> <br></br> चाहते हैं, <br></br> चाँद पर खेती करें,<br></br> मंगल पर पानी मिल जाए, <br></br> नए तारों की खोज में ,<br></br> हमने…</p>
<p>जीतने के सौ तरीके खोजने वाले, <br/> ग्लूकान-डी के सहारे <br/> सूरज से लड़ने वाले हम इंसान<br/> उजले सच को भी बर्दाशत नहीं कर पाते <br/> <br/> प्रकृति पर विजय की लालसा लिए, <br/> हम इंसान <br/> पर्वत विजय का जश्न मनाते हैं, <br/> इंगलिश चैनल को तैर कर पार करते हैं,<br/> भू-गर्भ की गहराइयों को 'मीटर' में नापते हैं, <br/> 'मीटर' के ऊपर के सारे पैमाने जाने कहाँ चले जाते हैं उस समय !!!<br/> <br/> चाहते हैं, <br/> चाँद पर खेती करें,<br/> मंगल पर पानी मिल जाए, <br/> नए तारों की खोज में ,<br/> हमने टेलीस्कोपिक मीनारें खड़ी कर दीं <br/> <br/> मगर <br/> जब हम हारने लगते हैं <br/> तो दुहाई देते हैं <br/> हम भूल जाते हैं कि हमने ही बनाए थे नदियों पर बाँध <br/> चढाते हैं बकरे की बली<br/> मनाते हैं मनौती <br/> <br/> विनती करते हैं <br/> रचते हैं नकली श्रद्धा का खूबसूरत नाटक <br/> प्रार्थनाओं का दौर चलता है,<br/> "माँ" हम सब अपकी संतान हैं .......<br/> <br/> हम इंसान,,, दोगले हैं !!!</p>
<p> </p>सच मन को आहत करता है - वीनस केसरीtag:openbooksonline.com,2013-04-09:5170231:BlogPost:3442922013-04-09T11:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>सच बोलने वालो<br></br> तुमको हमेशा सूली पर लटकाया गया <br></br> मगर यह गलत कहाँ है</p>
<p>तुम्हारे कारण <br></br>आहत होती हैं कितनी भावनाएँ, <br></br> शून्य से शिखर तक पहुँचते-पहुँचते <br></br> कितने शीशे टूट जाते है<br></br> <br></br> सच बोलने वालो <br></br> तुम अलगाव वादी हो </p>
<p>तुमसे बर्दाशत नहीं होती <br></br>अखंडता की भावना <br></br> तुम्हें मसीहाई सूझती है <br></br> तुम्हें अप्राकृतिक सुन्दर अट्टालिकाएँ नहीं दिखतीं <br></br> केवल भूखे लोग दीखते हैं <br></br> जोर से बोलने पर<br></br> सच भी जोरदार माना जा रहा है</p>
<p>तारे भी सूरज है…</p>
<p>सच बोलने वालो<br/> तुमको हमेशा सूली पर लटकाया गया <br/> मगर यह गलत कहाँ है</p>
<p>तुम्हारे कारण <br/>आहत होती हैं कितनी भावनाएँ, <br/> शून्य से शिखर तक पहुँचते-पहुँचते <br/> कितने शीशे टूट जाते है<br/> <br/> सच बोलने वालो <br/> तुम अलगाव वादी हो </p>
<p>तुमसे बर्दाशत नहीं होती <br/>अखंडता की भावना <br/> तुम्हें मसीहाई सूझती है <br/> तुम्हें अप्राकृतिक सुन्दर अट्टालिकाएँ नहीं दिखतीं <br/> केवल भूखे लोग दीखते हैं <br/> जोर से बोलने पर<br/> सच भी जोरदार माना जा रहा है</p>
<p>तारे भी सूरज है और सूरज भी तारा <br/> तो यह भेदभाव केवल इसलिए की सूरज जोरदार है ? <br/> <br/> सच बोलने वालो <br/> सच कडवा होता है इसलिए तुमने इसे दवा बताया <br/> मगर यह जहर है, क़त्ल का सामान है <br/> मार डालता है हसीन सपनों को <br/> तुम झूठ के सामने प्रश्न चिह्न खड़े करते हो <br/> क्यों ? कैसे ? कब ? कहाँ ? किसको ? किससे ? ...<br/> तुम शानदार व्यवस्था में अवरोध भर हो <br/> <br/> सच बोलने वालो <br/> तुमको हमेशा सूली पर लटकाया जाता रहेगा <br/> क्योकि,<br/> तुम्हारे साथ यही सुलूक होना चाहिए</p>
<p>तुम इसी के हक़दार हो !!!</p>नई कविता - वीनस केसरीtag:openbooksonline.com,2013-04-08:5170231:BlogPost:3443182013-04-08T21:41:08.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><strong><span style="text-decoration: underline;">नई कविता जो आज रात पुरानी हो गई</span></strong> <br></br><br></br>मैं चाहता था</p>
<p>ख़्वाब मखमली हों और उनमें परियां आएँ</p>
<p>सूरज की तरह किस्मत हर दिन चमकदार हो</p>
<p>और जब सलोना चाँद रास्ता भटक जाए, <br></br> तो तारों से राह पूछने में उसे शर्म न लगे</p>
<p> </p>
<p>ये भी चाहा कि, <br></br> मैं पूरी शिद्दत से किसी को पुकारूं</p>
<p>और वो मुड कर मुझे देख कर मुस्कुराए </p>
<p>हम सुलझते सुलझते, थोडा सा फिर उलझ जाएँ</p>
<p>प्यार करते करते लड़ पड़ें</p>
<p>और…</p>
<p><strong><span style="text-decoration: underline;">नई कविता जो आज रात पुरानी हो गई</span></strong> <br/><br/>मैं चाहता था</p>
<p>ख़्वाब मखमली हों और उनमें परियां आएँ</p>
<p>सूरज की तरह किस्मत हर दिन चमकदार हो</p>
<p>और जब सलोना चाँद रास्ता भटक जाए, <br/> तो तारों से राह पूछने में उसे शर्म न लगे</p>
<p> </p>
<p>ये भी चाहा कि, <br/> मैं पूरी शिद्दत से किसी को पुकारूं</p>
<p>और वो मुड कर मुझे देख कर मुस्कुराए </p>
<p>हम सुलझते सुलझते, थोडा सा फिर उलझ जाएँ</p>
<p>प्यार करते करते लड़ पड़ें</p>
<p>और लड़ते लड़ते प्यार करना सीखें</p>
<p> </p>
<p>चाहता था मैं जान लूँ </p>
<p>जब टकराती हैं नज़र से नज़र <br/> तो वो हादिसा हसीन क्यों होता है</p>
<p>सीखूं गणित के वो दांव पेंच <br/> जिसमें दो और दो चार की जगह</p>
<p>कुछ और होने लगता है</p>
<p><br/> जिंदगी ऊन के गोले सी नर्म हो <br/> वक्त जब स्वेटर बुने तो उसका डिजाइन हमेशा नया रहे <br/> <br/> ऐसी ही कुछ और चाहतें,<br/> जिसको लोग हसीन कहते थे</p>
<p><br/> चाहता था सारे ख़्वाब पूरे हो जाएँ</p>
<p>और हुए</p>
<p>ख़्वाब में परियां आईं <br/> और किस्मत सूरज के जैसी चमकदार हो गई </p>
<p>हर प्रश्न का उत्तर मिल गया </p>
<p>मगर साथ ही मिले कुछ जवाब <br/> जिनके सवाल नदारद थे</p>
<p><br/> जाने किसने पूछा था ...</p>
<p>मगर जब जवाब हैं तो सवाल भी रहे होंगे ...</p>
<p><br/> उन जवाबों के कारण मैंने यह जान लिया कि,</p>
<p>चाँद रोटी भी होता है</p>
<p>ख़्वाब में परियां केवल तब ही आती हैं, <br/> जब हम भर पेट खाना खा कर सोए हों</p>
<p>पटरियों पर बिखरे प्लास्टिक के टुकड़े और कागज़ की कतरनें <br/> चावल के वो दाने हैं जिनको चिड़िया नहीं चुग पाती</p>
<p><br/> मैंने यह भी जाना </p>
<p>कारखाने इंसानों को लील कर टीवी और फ्रिज बना रहे हैं </p>
<p>रोटी कपडा मकान के सारे वादे झूठे थे</p>
<p>रजिस्टर के पन्ने में एक के आगे अनंत गोले हैं <br/> और अनाज भरे बोरे गोदामों में सड़ गये हैं</p>
<p>आदमी खरीदे जा रहे हैं पुरूस्कार बिकते हैं</p>
<p>जो नहीं बिकना चाहता उसका भाव रद्दी से भी कम हो जाता है </p>
<p><br/> और मैंने यह भी जाना <br/> बाज़ार में मिलावटी खून सस्ता मिलता है <br/> रिश्ते कैडबरी चाकलेट की तरह मीठे नहीं रह गये <br/> जीने का हक सिर्फ कुछ लोगों को है <br/> जो यह भी तय करते हैं किसे जीने देंगे और किसे ...</p>
<p> </p>
<p>मैं अब भी</p>
<p>ख़्वाब में परियां को बुलाना चाहता हूँ</p>
<p>मगर अब मुझे नींद नहीं आती<br/><br/>- वीनस</p>ग़ज़ल - जिससे सब घबरा रहे हैं ...- वीनसtag:openbooksonline.com,2013-03-11:5170231:BlogPost:3318452013-03-11T22:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<div><span class="font-size-3" style="color: #800000;">हज़रात,</span><br></br> <span class="font-size-3" style="color: #800000;">एक और ताज़ा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले कर रहा हूँ, लुत्फ़ लें .....</span> <br></br>-<br></br>-</div>
<p><span class="font-size-3">जो ये जानूं, मुख़्तसर हक आप पर मेरा भी है |</span><br></br> <span class="font-size-3">तब तो समझूं, मुन्तज़िर हूँ, मुन्तज़र मेरा भी है | <br></br></span></p>
<p><br></br> <span class="font-size-3">जिससे सब घबरा रहे हैं वो ही डर मेरा भी है |…</span><br></br></p>
<div><span style="color: #800000;" class="font-size-3">हज़रात,</span><br/> <span style="color: #800000;" class="font-size-3">एक और ताज़ा ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले कर रहा हूँ, लुत्फ़ लें .....</span> <br/>-<br/>-</div>
<p><span class="font-size-3">जो ये जानूं, मुख़्तसर हक आप पर मेरा भी है |</span><br/> <span class="font-size-3">तब तो समझूं, मुन्तज़िर हूँ, मुन्तज़र मेरा भी है | <br/></span></p>
<p><br/> <span class="font-size-3">जिससे सब घबरा रहे हैं वो ही डर मेरा भी है |</span><br/> <span class="font-size-3">शहर में दंगे की ज़द में एक घर मेरा भी है |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">घरघराती आरियों में दब गई थी हर सदा, </span> <br/> <span class="font-size-3">कुछ कबूतर कह रहे थे,,, पर शज़र मेरा भी है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">आखिरश नंगी हकीकत से हुआ है सामना, </span> <br/> <span class="font-size-3">आइना खुश था कि पत्थर पे असर मेरा भी है |</span></p>
<p><span class="font-size-3"> </span></p>
<p><span class="font-size-3">आसमां वालों ! मिलेगा जा-ब-जा तुमको जवाब,</span> <br/> <span class="font-size-3">तुम से टकराना पड़ा तो, बालोपर मेरा भी है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">इश्क में हद से गुज़र जाने को वो तय्यार हैं, </span> <br/> <span class="font-size-3">और ऐसा ही इरादा अब इधर मेरा भी है |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">वक्त तो ये चाहता था, झुक के मैं उससे कहूँ,</span> <br/> <span class="font-size-3">''आसमां इक चाहिए मुझको कि सर मेरा भी है |</span>''</p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">तज्रिबा ही काम आया ज़िन्दगी के मोड पर,</span> <br/> <span class="font-size-3">पर मेरे सब दोस्त कहते हैं हुनर मेरा भी है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">रहगुज़र मंजिल हुई, अब मंजिलें हैं रहगुज़र,</span> <br/> <span class="font-size-3">वो जो सबका राहबर है राहबर मेरा भी है |</span></p>
<p><br/> <span class="font-size-3">खुद को समझे बिन किसी को क्या समझ पाऊंगा मैं,</span> <br/> <span class="font-size-3">इसलिए अब खुद से खुद का इक सफ़र मेरा भी है |</span></p>
<p><br/><br/>=============================================<br/><br/></p>
<div>मुख़्तसर - थोडा सा, इकाई का एक टुकड़ा <br/> मुन्तजिर - प्रतीक्षारत, इंतज़ार करने वाला <br/> मुन्तज़र - जिसकी प्रतीक्षा हो, इंतज़ार करवाने वाला <br/> बालोपर - सामर्थ्य <br/> <br/> <br/> मौलिक, अप्रसारित व अप्रकाशित <br/> - वीनस केसरी</div>ग़ज़ल - उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइनाtag:openbooksonline.com,2013-02-26:5170231:BlogPost:3247352013-02-26T16:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>एक नई ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले कर रहा हूँ, जैसी लगे वैसे नवाजें <br></br> <br></br> उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |<br></br> झूठ को लेकिन दिखा सकता है पैकर आइना | <br></br> <br></br> शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है, <br></br> पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |<br></br> <br></br> गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ, <br></br> कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |<br></br> <br></br> आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है, <br></br> जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |<br></br> <br></br> मैंने पल भर झूठ-सच पर…</p>
<p>एक नई ग़ज़ल आपकी मुहब्बतों के हवाले कर रहा हूँ, जैसी लगे वैसे नवाजें <br/> <br/> उलझनों में गुम हुआ फिरता है दर-दर आइना |<br/> झूठ को लेकिन दिखा सकता है पैकर आइना | <br/> <br/> शाम तक खुद को सलामत पा के अब हैरान है, <br/> पत्थरों के शहर में घूमा था दिन भर आइना |<br/> <br/> गमज़दा हैं, खौफ़ में हैं, हुस्न की सब देवियाँ, <br/> कौन पागल बाँट आया है ये घर-घर आइना |<br/> <br/> आइनों ने खुदकुशी कर ली ये चर्चा आम है, <br/> जब ये जाना था की बन बैठे हैं पत्थर, आइना |<br/> <br/> मैंने पल भर झूठ-सच पर तब्सिरा क्या कर दिया, <br/> रख गए हैं लोग मेरे घर के बाहर आइना |<br/> <br/> अपना अपना हौसला है, अपने अपने फैसले, <br/> कोई पत्थर बन के खुश है कोई बन कर आइना |<br/><br/>मौलिक, अप्रकाशित व अप्रसारित</p>ग़ज़ल - आप खुश हैं कि तिलमिलाए हमtag:openbooksonline.com,2013-02-05:5170231:BlogPost:3151042013-02-05T23:00:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3" style="color: #993300;">एक और ताज़ा गज़ल आपकी खिदमत में पेश करता हूँ... लुत्फ़ लें ...</span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">आप खुश हैं, कि तिलमिलाए हम |</span><br></br> <span class="font-size-3">आपके कुछ तो काम आए हम |</span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">खुद गलत, आपको ही माना सहीह,</span><br></br> <span class="font-size-3">जाने क्यों आपको न भाए हम |</span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">आपके फैसले गलत कब थे,</span><br></br> <span class="font-size-3">और फिर, सब…</span></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-3">एक और ताज़ा गज़ल आपकी खिदमत में पेश करता हूँ... लुत्फ़ लें ...</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">आप खुश हैं, कि तिलमिलाए हम |</span><br/> <span class="font-size-3">आपके कुछ तो काम आए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">खुद गलत, आपको ही माना सहीह,</span><br/> <span class="font-size-3">जाने क्यों आपको न भाए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">आपके फैसले गलत कब थे,</span><br/> <span class="font-size-3">और फिर, सब सगे, पराए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">दोस्तों ने भी कुछ कमी न रखी,</span><br/> <span class="font-size-3">और खुद के भी हैं सताए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">हम पे इल्ज़ाम था मुहब्बत का,</span><br/> <span class="font-size-3">पर खड़े क्यों थे सर झुकाए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">इल्मो-फन का लगा है इक बाज़ार,</span><br/> <span class="font-size-3">लौटते हैं लुटे लुटाए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">शामियाने सी फितरतें अपनी,</span><br/> <span class="font-size-3">उम्र भर धूप में नहाए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">नाम कम है, जियादा हैं बदनाम,</span><br/> <span class="font-size-3">शाइरी तुझसे बाज़ आए हम |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">पसे-आईना कोई है 'वीनस',</span><br/> <span class="font-size-3">जिसको अब तक समझ न पाए हम |</span></p>ग़ज़ल - वो हर कश-म-कश से बचा चाहती हैtag:openbooksonline.com,2013-02-05:5170231:BlogPost:3149742013-02-05T04:30:00.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3" style="color: #993300;">मित्रों, कई दिन के बाद एक ग़ज़ल के चंद अशआर हो सके हैं, आपकी मुहब्बतों के नाम पेश कर रहा हूँ</span></p>
<p><span class="font-size-3">वो हर कश-म-कश से बचा चाहती है |</span></p>
<p><span class="font-size-3">वो मुझसे है पूछे, वो क्या चाहती है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">यूँ तंग आ चुकी है इन आसानियों से,</span></p>
<p><span class="font-size-3">हयात अब कोई मसअला चाहती है |…</span></p>
<p></p>
<p></p>
<p><span style="color: #993300;" class="font-size-3">मित्रों, कई दिन के बाद एक ग़ज़ल के चंद अशआर हो सके हैं, आपकी मुहब्बतों के नाम पेश कर रहा हूँ</span></p>
<p><span class="font-size-3">वो हर कश-म-कश से बचा चाहती है |</span></p>
<p><span class="font-size-3">वो मुझसे है पूछे, वो क्या चाहती है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">यूँ तंग आ चुकी है इन आसानियों से,</span></p>
<p><span class="font-size-3">हयात अब कोई मसअला चाहती है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">उन्हें सोच लूँ या करूँ इसको पूरी,</span></p>
<p><span class="font-size-3">ये ताज़ा ग़ज़ल जो हुआ चाहती है |<br/></span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">ये नाज़ुक सा रिश्ता रहे ? टूट जाये ?</span></p>
<p><span class="font-size-3">समझ में न आए वो क्या चाहती है |</span></p>
<p></p>
<p><span class="font-size-3">पढ़ो खुद को 'वीनस' समझ जाओगे तुम,</span></p>
<p><span class="font-size-3">अभी शाइरी तज्रिबा चाहती है |</span></p>ग़ज़ल - खूब भटका है दर-ब-दर कोईtag:openbooksonline.com,2012-12-16:5170231:BlogPost:3010352012-12-16T22:47:14.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p style="text-align: center;"><span class="font-size-3"><strong><span style="color: #993300;">एक और ग़ज़ल पेश -ए- महफ़िल है,</span></strong> <br></br><strong><span style="color: #993300;">इसे ताज़ा ग़ज़ल तो नहीं कह सकता, हाँ यह कि बहुत पुरानी भी नहीं है</span></strong> <br></br><strong><span style="color: #993300;">गौर फरमाएँ</span></strong> <br></br><br></br>खूब भटका है दर-ब-दर कोई |</span> <br></br> <span class="font-size-3">ले के लौटा है तब हुनर कोई |</span><br></br> <br></br><span class="font-size-3">अब पशेमां नहीं बशर कोई…</span></p>
<p style="text-align: center;"><span class="font-size-3"><strong><span style="color: #993300;">एक और ग़ज़ल पेश -ए- महफ़िल है,</span></strong> <br/><strong><span style="color: #993300;">इसे ताज़ा ग़ज़ल तो नहीं कह सकता, हाँ यह कि बहुत पुरानी भी नहीं है</span></strong> <br/><strong><span style="color: #993300;">गौर फरमाएँ</span></strong> <br/><br/>खूब भटका है दर-ब-दर कोई |</span> <br/> <span class="font-size-3">ले के लौटा है तब हुनर कोई |</span><br/> <br/><span class="font-size-3">अब पशेमां नहीं बशर कोई |</span><br/><span class="font-size-3">ख़ाक होगी नई सहर कोई |</span><br/><br/> <span class="font-size-3">हिचकियाँ बन्द ही नहीं होतीं,</span> <br/> <span class="font-size-3">सोचता होगा किस कदर कोई |</span> <br/><br/> <span class="font-size-3">गमज़दा देखकर परिंदों को,</span> <br/> <span class="font-size-3">खुश कहाँ रह सका शज़र कोई |</span><br/> <br/><span class="font-size-3">धुंध ने ऐसी साजिशें रच दीं,</span> <br/><span class="font-size-3">फिर न खिल पाई दोपहर कोई</span> |<br/><span class="font-size-3"><br/> कोई खुशियों में खुश नहीं होता,</span> <br/> <span class="font-size-3">गम से रहता है बेखबर कोई |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">पाँव को मंजिलों की कैद न दे,</span> <br/> <span class="font-size-3">बख्श दे मुझको फिर सफर कोई |</span> <br/> <br/><span class="font-size-3">गम कि कुछ इन्तेहा नहीं होती,</span> <br/><span class="font-size-3">फेर लेता है जब नज़र कोई |</span><br/><br/><span class="font-size-3">सामने है तवील तन्हा सफर</span> <br/><span class="font-size-3">मुन्तजिर है न मुन्तज़र कोई </span> <br/><br/><span class="font-size-3">बेहयाई की हद भी है 'वीनस',</span> <br/> <span class="font-size-3">तुझपे होता नहीं असर कोई |</span> <br/><br/><span class="font-size-3" style="color: #993300;">१३- ०५ - २०१२</span> <br/><br/></p>ग़ज़ल - इतनी शिकायत बाप रेtag:openbooksonline.com,2012-12-11:5170231:BlogPost:2988962012-12-11T21:35:49.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p style="text-align: center;"><span class="font-size-3" style="color: #0000ff;">एक और शुरुआती दौर की ग़ज़ल......<br></br>कच्चे अधपके ख्यालात.......<br></br>एक दो शेअर शायद आपने सुना हो, पूरी ग़ज़ल पहली बार मंज़रे आम पर आ रही है <br></br>बर्दाश्त करें ....</span><br></br><br></br></p>
<p style="text-align: center;"><span class="font-size-3">इतनी शिकायत बाप रे </span> |<br></br> <span class="font-size-3">जीने की आफत बाप रे |</span><br></br> <br></br> <span class="font-size-3">हम भी मरें तुम भी मरो,…</span><br></br></p>
<p style="text-align: center;"><span style="color: #0000ff;" class="font-size-3">एक और शुरुआती दौर की ग़ज़ल......<br/>कच्चे अधपके ख्यालात.......<br/>एक दो शेअर शायद आपने सुना हो, पूरी ग़ज़ल पहली बार मंज़रे आम पर आ रही है <br/>बर्दाश्त करें ....</span><br/><br/></p>
<p style="text-align: center;"><span class="font-size-3">इतनी शिकायत बाप रे </span> |<br/> <span class="font-size-3">जीने की आफत बाप रे |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">हम भी मरें तुम भी मरो,</span><br/> <span class="font-size-3">ऐसी मुहब्बत बाप रे |</span><br/> <br/> <span class="font-size-3">जो खौफ बाँटें उनके भी,</span> <br/> <span class="font-size-3">लब पर तिलावत बाप रे |<br/><span class="font-size-1">तिलावत - कुरआन पाठ</span></span> <br/> <br/><span class="font-size-3">नेता दरोगा और क्लर्क,</span> <br/> <span class="font-size-3">इनकी शराफत बाप रे |</span><br/><br/> <span class="font-size-3">शब भर करें हैं जुल्म और,</span><br/> <span class="font-size-3">दिन भर इबादत बाप रे |</span> <br/> <br/> <span class="font-size-3">ऐसी पडी है देश को,</span> <br/> <span class="font-size-3">लुटने की आदत बाप रे |</span><br/> <br/><span class="font-size-3">कुछ शर्म कर अह्.ले सुखन,</span> <br/><span class="font-size-3">पल पल सियासत बाप रे | </span> <br/><br/><span class="font-size-3">घायल पड़ा है जब वतन,</span> <br/> <span class="font-size-3">फिर भी शराफत बाप रे</span> |<br/><br/><span class="font-size-3">२४/०४/२०१०</span></p>ग़ज़ल - फकत शैतान की बातें करे हैtag:openbooksonline.com,2012-12-07:5170231:BlogPost:2965852012-12-07T00:37:14.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p style="text-align: center;"><span class="font-size-3" style="color: #0000ff;">वादा किया था कि जल्द ही कुछ पुरानी ग़ज़लें साझा करूँगा,,, <br></br> एक ग़ज़ल पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ...</span><br></br><br></br><br></br><span class="font-size-3">फकत शैतान की बातें करे है</span> ?<br></br><span class="font-size-3">सियासतदान की बातें करे है</span> !<br></br><br></br><span class="font-size-3">अँधेरे से न पूछो उसकी ख्वाहिश,</span> <br></br><span class="font-size-3">वो रौशनदान की बातें करे है |…</span><br></br><br></br></p>
<p style="text-align: center;"><span style="color: #0000ff;" class="font-size-3">वादा किया था कि जल्द ही कुछ पुरानी ग़ज़लें साझा करूँगा,,, <br/> एक ग़ज़ल पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ...</span><br/><br/><br/><span class="font-size-3">फकत शैतान की बातें करे है</span> ?<br/><span class="font-size-3">सियासतदान की बातें करे है</span> !<br/><br/><span class="font-size-3">अँधेरे से न पूछो उसकी ख्वाहिश,</span> <br/><span class="font-size-3">वो रौशनदान की बातें करे है |</span><br/><br/><span class="font-size-3">नहीं है रीढ़ की हड्डी भी जिसमें,</span> <br/><span class="font-size-3">पतन उत्थान की बातें करे है |</span><br/><br/><span class="font-size-3">अगर वो चुप रहे, उसकी खमोशी,</span> <br/><span class="font-size-3">किसी तूफ़ान की बातें करे है |</span><br/><br/><span class="font-size-3">वो पहले खुल्द की बातें करे फिर,</span> <br/><span class="font-size-3">सरो सामान की बातें करे है |</span><br/><br/><span class="font-size-3">ग़ज़ल कहना तो पहले सीख 'वीनस',</span> <br/><span class="font-size-3">कहाँ 'दीवान' की बातें करे है |</span><br/><br/><span class="font-size-3">(१२- १० - २०११)</span></p>ग़ज़ल - अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखियेtag:openbooksonline.com,2012-11-25:5170231:BlogPost:2927442012-11-25T09:29:26.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><span class="font-size-3">एक पुरानी ग़ज़ल.... <br></br>शायद २००९ के अंत में या २०१० की शुरुआत में कही थी मगर ३ साल से मंज़रे आम पर आने से रह गयी... <br></br>इसको मित्रों से साझा न करने का कारण मैं खुद नहीं जान सका खैर ... <br></br>पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ............ <br></br><br></br><br></br><span style="color: #800000;">अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये</span></span><br></br><span class="font-size-3" style="color: #800000;">शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये…</span><br></br><br></br></p>
<p><span class="font-size-3">एक पुरानी ग़ज़ल.... <br/>शायद २००९ के अंत में या २०१० की शुरुआत में कही थी मगर ३ साल से मंज़रे आम पर आने से रह गयी... <br/>इसको मित्रों से साझा न करने का कारण मैं खुद नहीं जान सका खैर ... <br/>पेश -ए- खिदमत है गौर फरमाएं ............ <br/><br/><br/><span style="color: #800000;">अब हो रहे हैं देश में बदलाव व्यापक देखिये</span></span><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">शीशे के घर में लग रहे लोहे के फाटक देखिये</span><br/><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">जो ढो चुके हैं इल्म की गठरी, अदब की बोरियां</span> <br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">वह आ रहे हैं मंच पर बन कर विदूषक देखिये</span> <br/><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">जिनके सहारे जीत ली हारी हुई सब बाजियां</span> <br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">उस सत्य के बदले हुए प्रारूप भ्रामक देखिये</span> <br/><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">जब आप नें रोका नहीं खुद को पतन की राह पर</span><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">तो इस गिरावट के नतीजे भी भयानक देखिये</span><br/><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">इक उम्र जो गंदी सियासत से लड़ा, लड़ता रहा</span><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">वह पा के गद्दी खुद बना है क्रूर शासक देखिये</span> <br/><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">किसने कहा था क्या विमोचन के समय, सब याद है</span> <br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">पर खा रही हैं वह किताबें, कब से दीमक देखिये</span> <br/><br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">जनता के सेवक थे जो कल तक, आज राजा हो गए</span> <br/><span style="color: #800000;" class="font-size-3">अब उनकी ताकत देखिये उनके समर्थक देखिये</span> <br/><br/>(बाहर-ए-रजज मुसम्मन सालिम)</p>लघु कथा - गर्दtag:openbooksonline.com,2012-11-11:5170231:BlogPost:2899302012-11-11T16:55:18.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p><br></br><span class="font-size-3">शाम हो रही थी साहब घर जाने के लिए निकले और जाते जाते रामदीन को मेरी जिम्मेदारी सौंप गये. रामदीन को भी घर जाना था इसलिए उसने जल्दी से मुझे नीचे उतरा और झाड़ा झटका, अचानक मुझ पर पडी गर्द रामदीन से जा चिपकी, वह झुझला गया जैसे उसके शरीर पर धूल न चिपक गई हो बल्कि उसकी आत्मा से ईमानदारी जा चिपकी हो. उसने तुरंत अपने गमछे से सारे शरीर को झाड़ा और एक बार आईने में भी देख आया, उसे लग रहा था जैसे इमानदारी अब भी उससे चिपकी रह गई है. उसने मुझे तह किया और अलमारी में रख…</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3">शाम हो रही थी साहब घर जाने के लिए निकले और जाते जाते रामदीन को मेरी जिम्मेदारी सौंप गये. रामदीन को भी घर जाना था इसलिए उसने जल्दी से मुझे नीचे उतरा और झाड़ा झटका, अचानक मुझ पर पडी गर्द रामदीन से जा चिपकी, वह झुझला गया जैसे उसके शरीर पर धूल न चिपक गई हो बल्कि उसकी आत्मा से ईमानदारी जा चिपकी हो. उसने तुरंत अपने गमछे से सारे शरीर को झाड़ा और एक बार आईने में भी देख आया, उसे लग रहा था जैसे इमानदारी अब भी उससे चिपकी रह गई है. उसने मुझे तह किया और अलमारी में रख दिया. </span><br/><span class="font-size-3">***</span><br/><span class="font-size-3">रामदीन ने बहुत दिन के बाद मुझे अलमारी से निकला, मैंने देखा कैलेण्डर के कई पन्ने पलते जा चुके हैं. अगस्त ! तो क्या पन्द्रह अगस्त आ गया ? उसने मुझे फिर से झाडा झटका, गर्द तो एक बार फिर से उस पर चिपका चाहती थी मगर गरीब रामदीन इस बार सावधान था, उसे पता था कि वो यह बोझ नहीं उठा सकता.</span><br/><span class="font-size-3"><br/>साहब आ चुके हैं, दस बजे ध्वजारोहण होगा. </span></p>कहानी - नशा - वीनस केसरीtag:openbooksonline.com,2012-10-29:5170231:BlogPost:2863402012-10-29T21:53:51.000Zवीनस केसरीhttp://openbooksonline.com/profile/1q1lxk02g9ue6
<p>पांचवा दिन| घर बिखरा हुआ है, हर सामान अपने गलत जगह पर होने का अहसास करवा रहा है, फ्रिज के ऊपर पानी की खाली बोतलें पडी हैं, पता नहीं अंदर एकाध बची भी हैं या नही; बिस्तर पर चादर ऐसी पडी है की समझ नहीं आ रहा बिछी है या किसी ने यूं ही बिस्तर पर फेक दी है; कोई और देखे तो यही समझे की बिस्तर पर फेंक दी है, कोई भला इतनी गंदी चादर कैसे बिछा सकता है | शायद मानसी के जाने के दो या तीन दिन पहले से बिछी हुई है | बाहर बरामदे की डोरी पर मेरे कुछ कपड़ें फैले है | तार में कपड़ों के बीच कुछ जगह खाली है, कपडे…</p>
<p>पांचवा दिन| घर बिखरा हुआ है, हर सामान अपने गलत जगह पर होने का अहसास करवा रहा है, फ्रिज के ऊपर पानी की खाली बोतलें पडी हैं, पता नहीं अंदर एकाध बची भी हैं या नही; बिस्तर पर चादर ऐसी पडी है की समझ नहीं आ रहा बिछी है या किसी ने यूं ही बिस्तर पर फेक दी है; कोई और देखे तो यही समझे की बिस्तर पर फेंक दी है, कोई भला इतनी गंदी चादर कैसे बिछा सकता है | शायद मानसी के जाने के दो या तीन दिन पहले से बिछी हुई है | बाहर बरामदे की डोरी पर मेरे कुछ कपड़ें फैले है | तार में कपड़ों के बीच कुछ जगह खाली है, कपडे गायब है, श्रीयांश के रहे होंगे |<br/>साढ़े चार बज गए, श्रीयांश होता तो अब तक स्कूल से वापस आ गया होता ५ दिन से उसके स्कूल का भी नागा हो रहा है, मानसी को सोचना चाहिए | पहले भी इसी तरह जाती थी मगर तीन दिन में वापस आ जाती थी; ऐसा तो कभी नहीं हुआ की तीन दिन से अधिक रुकी हो | पहले तो श्रीयांश का स्कूल भी नहीं होता था, फिर भी दूसरे दिन फोन करने पर ही कहती थी “अच्छा कल आ जाउंगी” फिर इस बार क्यों...|उफ्फ... कुर्सी पर पड़े पड़े कमर अकड गई; थोड़ा टहल ही लूं... उठने की कोशिश में बेंत की कुर्सी जोर से काँपी और मैं फिर से धंस गया| कैसी बुरी आदत हो गई है; कुर्सी को कमरे और दालान के बीच डाल कर घंटों पड़े रहना और मानसी की गुस्साई आवाज़ का इंतज़ार करना “उठो भी”| आज भी शायद उसी “उठो भी” का इंतज़ार था, भूल ही गया था की “उठो भी” की आवाज भी मानसी के साथ ही पांच दिन पहले जा चुकी है और तीन दिन होने के बाद भी नहीं लौटी है| इस बीच दो ग़ज़ल कह ली, एक नज़्म और एक कविता भी लिख ली, आज तो कुछ लिखने का मन ही नहीं कर रहा,,, वैसे मानसी के जाने का एक फ़ायदा तो होता है ; थोड़ा एकांत मिल जाता है और कुछ लिखने पढ़ने का मन करता है, कल दूध वाला भी पूछ रहा था “मालकिन नहीं लौंटी?” आज भी १ लीटर ही दूं ? तीन की जगह १ लीटर देने में बेचारे को बहुत कोफ़्त होती है सीधा सीधा आधा लीटर पानी का नुकसान होता है, आज तो दूध देने ही नहीं आया | क्या आज फिर से फोन करू ? कल भी तो किया था और परसों भी; मगर एक बार भी मानसी नें नहीं कहा “अच्छा कल आती हूँ” जाते समय तो उतना ही गुस्सा थी जितना हर बार होती थी; मगर जाते हुए कैसी बातें कर रही थी.. “अब तुम्हें किसी एक को चुनना ही होगा”<br/>किन दो में से चुनना होगा? क्या चुनना होगा? क्यों चुना होगा? कुछ भी तो नहीं बताया, मगर शायद इसलिए की मुझे पता है किन दो की बात कही जा रही है |<br/>पिछले चार दिन से “किसी एक को चुनना ही होगा” की प्रक्रिया चल रही है, समझ नहीं पा रहा की यह क्यों जरूरी है, जैसे इतने दिन से सब कुछ चल रहा है क्या आगे भी नहीं चल सकता ? क्यों चुनना है किसी एक को ? क्यों ? क्या मैं मानसी के बिना रह सकता हूँ, पता नहीं मैं कल्पना भी कैसे करू इस बात की| तो क्या फोन पर मानसी को कह दूं की, हाँ मानसी मैं तुम्हें चुनता हूँ, प्लीज़ अपने घर लौट आओ| सूरज ढल रहा है, उफ़! अब क्या जाऊँगा टहलने, अब तो कुछ काम ही किया जाए, किचन गया तो वह भी अपनी फूटी किस्मत पर जार जार रो चुकी बेवा की तरह लग रही थी, सफाई करने की सोच कर गया था मगर अब दराज़ से टोस्ट का पैकेट निकाल कर वापस कुर्सी पर आ गया हूँ फ्रिज से दूध का भगोना भी ले आया कल का थोड़ा सा दूध बचा है उसी में टोस्ट डुबो कर खाने लगा|<br/>फिर से बरसात होने लगी है पानी की बौछार बरामदे से कुर्सी के पाए तक आ रही है, मानसी होती तो एक बार फिर से कहती “उठो भी” पिछले पांच दिन से जैसे जैसे दिन बीतते जा रहे हैं मेरा फैसला दृढ होता जा रहा है की मैं सब कुछ छोड़ सकता हूँ मगर मानसी को नहीं | आज फोन करके मानसी को अपना फैसला सूना दूंगा | कमरे की ओर झुक कर घड़ी देखा; सवा पांच बज गए, फैसला करके मन थोड़ा हल्का हो गया तो आँख बंद करके कुर्सी पर ही लुढक गया |</p>
<p><u>-</u></p>
<p>७ बज रहे हैं हाँथ में एक लिफाफा और दूसरे हाँथ में कुछ कागज़ लेकर फिर से उसी कुर्सी पर बैठा हूँ लिफाफा अभी कोरियर वाला दे गया है | बारिश रुक चुकी है | इस बीच दूध का भगोना रखने किचन गया था तो थोड़ी सी सफाई कर दी, बिस्तर पर नई चादर डाल दी, बोतल में पानी भर कर फ्रिज में लगा दिए और बाहर बरामदे से कपडे ला कर अलमारी में रख दिए, किताबें फैली थी उनको भी समेट दिया की घर लौटने पर मानसी को उसका घर कुछ तो उसका लगे, फोन करने जा रहा था की जब कोरियर वाला ये लिफाफा दे गया<br/>भेजने वाले का नाम मानसी देख कर दिल जोर से धड़क गया और अब खोलने पर अंदर से निकले ५ पन्नों में लिखावट भी मानसी की ही है, लिखावट पहचान कर इतनी देर से पढ़ने की हिम्मत ही नहीं हो रही है, पता नहीं क्या सूझी मानसी को खत लिखने की, उलट पलट के पढ़ना शुरू किया</p>
<p>रवि,</p>
<p>कैसे हो, जानती हूँ अच्छे से नहीं होगे, पूरा घर फैला होगा और मेरे लौटने की राह देख रहे होगे; पहले के दो दिन में कोई गज़ल, कविता, नज़्म, कहानी या ये सारी चीजें लिख चुके होगे, तुम्हें यह चिट्ठी देख कर अजीब लग रहा होगा, मैं पहले यह चिट्ठी तुम्हारे हाँथ में दे कर आना चाहती थी, मगर लिख ही न सकी, लिखी ही न गई | मगर अब जब तुम दो दिन से फोन कर रहे हो तो लिख रही हूँ| मैंने घर से जाते समय तुमसे कहा था तुम्हें अब निर्णय लेना पडेगा की तुम्हें क्या छोडना है क्योकि एक को तो छोड़ना ही होगा, मगर मैं गलत थी, हाँ मैं गलत थी, क्योकि मैंने तुमको मुझमें और तुम्हारी कलम में से एक को छोड़ने को कहा था, तुमको कविता, कहानी, गज़ल से दूर हो जाने की बात कह दी मगर जब सोचना शुरू किया तो कई बातें खुल कर समझ आने लगीं| याद करो, कालेज में हम पहली बार मिले थे और हमारे मिलने का कारण बनी थी वो कविता जो तुम सीनियर्स को इंट्रो के समय सुना रहे थे आज भी उसी ओज के स्वर में ये अन्तिम पंक्तियाँ मेरे जेह्न में विचरती हैं <br/> नहीं हटूंगा, नहीं डरूंगा, अपने कर्म के पथ से,<br/>कभी तो मंजिल मिलेगी मुझको, होगा जय का घोष |<br/>सीनियर्स के कई ग्रुप जो किसी जूनियर को नहीं बख्श रहे थे वो भी तुम्हारी कविता से प्रभावित थे, सम्मोहित थे | हमने कविता पर बात करनी शुरू की जो कविता से शुरू होती और राजनीति, धर्म, दर्शन और न जाने किन किन बातों पर खत्म होती | समय बीतता गया और हम नज़दीक आते गए, पहला साल बीतते बीतते हम जान गए की भावनाओं को दोस्ती के दायरे में रख पाना अब संभव नहीं है, तुम्हारी कविताओं से प्यार करते करते मैं तुमसे प्यार करने लगी और तुम भी तो कुछ ऐसा ही सोचते थे<br/>फिर शुरू हुआ प्यार का सिलसिला, रूठने मनाने का सिलसिला, मैं रूठ जाती तुम एक बढ़िया सी कविता लिख कर सुना देते और मैं मान जाती, सिलसिला चल निकला मैं बार बार रूठने लगी; तुम बार बार मनाने लगे; हर बार एक नई कविता, नई नज़्म, नई कहानी, और कभी नई गज़ल; कभी कभी मैं बिना कारण के ही तुम्हारी नई कविता के लिए तुमसे रूठ जाती थी और इस तरह दो साल और बीते<br/>चौथे साल मुझे इस बात का एहसास होने लगा की तुम्हारी कविताओं की धार खत्म हो रही है, जब तुम खुश रहते हो सामान्य रहते हो तो जो कुछ लिखते हो वो भी सामान्य सा ही रह जाता, कुछ कमी सी नज़र आती और फिर जब हमारा झगडा होता तो तुम मुझे फिर चौंका देते; फिर वही तेवर, फिर वही ओज ... इस बीच मुझे यह भी लगाने लगा की तुम छोटी छोटी बात पर झगड पड़ते हो, झिडक देते हो, बहस करते हो मगर मैं कारण समझ न सकी |समझ तो मैं शादी के पांच साल तक नहीं पाई, मगर अब समझ आ रहा है शायद तुम भी समझ गए थे की तुम्हारी कविता मर रही है, तुम्हे जरूरत थी दुःख की, उस दर्द की जो मुझसे दूर रह कर तुम्हें हासिल होता था, जो तुम्हारी कविताओं में फिर से प्राण फूक देता था| शादी के बाद भी यही सब होता रहा, तुम लड़ते रहे, झगड़ते रहे, बिगड़ते रहे | जब जब तुम्हें लगा तुम्हारी कविता मर रही है तुम मुझसे लड़ते | तुम्हें कहानी, कविता गज़ल या नज़म लिखने का नशा नहीं हैं | रवि, तुम्हें नशा है दुःख का, दर्द का, गम का | आज तुम इस बात को स्वीकार कर लो की तुम्हारी ज़िंदगी में इस नशे से बढ़ कर कुछ नहीं है | यह तुम्हारा नशा ही है जो तुमसे कलम उठवाता है, तुम्हारी लेखनी में आग भरता है दुःख का नशा ही है जो तुमको मजबूर कर देता है कुछ लिखने पर और यह नशा ही है जिसने हमारी जिंदगी को बर्बाद कर के रख दिया | मैं गलत थी जो मैंने तुमसे कलम को छोड़ने की बात कही| तुम लिखना छोड़ ही नहीं सकते, जब जब तुम दुःख का नशा करोगे तब तब तुम लिखने को मजबूर हो जाओगे| पता नहीं यह बात मैं अब समझ पाई हूँ या शादी के समय ही समझ गई थी, शायद समझ तब ही गई थी मगर स्वीकार आज कर पाई हूँ क्योकि तभी तो शादी के बाद ही हर तीन चार महीने में बात-बेबात तुमसे बहस कर के दो दिन के लिए पापा के घर आ जाती थी जिससे तुम्हारी नशे की खुराक तुम्हें मिलती रहे, तुम लिखते रहो, मगर मैं यह ना समझ सकी की तब क्या होगा जब तुम्हारा नशा बढ़ेगा<br/>तुम गलतियाँ करते और तुम्हारे पास इसका कोई कारण न होता, गलतियों को दोहराना और माफी मांगना तुम्हारी आदत बन गई, तुम सोचते हर बार, तुम्हें हर कोई माफ कर दे, मगर कोई क्यों माफ करे तुमको बार बार| क्यों तुम्हारी बेवकूफियों को झेलते हुए तुम्हारे साथ रहे, क्यों तुम्हारे साथ निभाए|<br/>तुम्हारे इस नशे की वजह से ही लोगों ने तुमको छोड़ना शुरू कर दिया, तुमसे दूर होने लगे, कटाने लगे और तुम ! तुम्हारी तो मन माँगी मुराद पूरी हो रही थी तुम्हारे दुःख का नशा पूरा हो रहा था तुम कविताएं लिख रहे थे,,,अच्छी कवितायेँ | <br/>महीने घटते गए, हमारी बहस बढ़ती गई चार से तीन, तीन से दो, दो से एक महीना और अब एक महीने से घट कर १५-२० दिन में तुम्हें तुम्हारा नशा चाहिए, अब नशे के बिना तुम्हारा सामान्य लिख पाना भी मुमकिन नहीं | बिना प्रताडित किये, बिना हाँथ उठाए तुम पर अब नशा भी तो नहीं चढता है<br/>मगर अब मुझे तुम्हारे साथ साथ श्रीयांश के बारे में भी सोचना है ४ साल का हो रहा है स्कूल भी जाने लगा है| डरती हूँ की जब तुमको नशे की लत इतनी ज्यादा हो जायेगी की उसे मैं पूरा न कर सकूंगी तब क्या होगा | क्या तुम मुझे मार डालोगे ? या खुद को ? </p>
<p>तुम इस नशे से मुक्त नहीं हो सकते और मैंने फैसला कर लिया है, तुमको इस नशे के साथ रहने के लिए इस बार हमेशा हमेशा के लिए छोड़ कर आई हूँ, मैंने पापा से बात कर ली है, श्रीयांश का एडमीशन यहाँ बगल के स्कूल में करवा दिया है, लौटने के लिए मत कहना, मैं पत्रिकाओं में तुम्हारे लेख, कवितायेँ पढ़ती रहूंगी <br/> -मानसी<br/>मेरा हाँथ थर थर काँप रहा था, आँखे जैसे अविश्वास से फटी जा रही थी फिर धीरे धीरे मुंदने लगी, उंगलियां से पन्ने अपने आप फिसल गए और उंगलियां आँखों के कोर के पास पहुँच गईं| उठा और जाकर राइटिंग टेबल की कुर्सी पर बैठ गया और कलम उठा कर लिखने लगा ...<br/><br/>माना की सुबह के तो उजाले नहीं थे हम<br/>ठुकरा दो हमको इतने भी काले नहीं थे हम<br/><br/> तोड़ा गया है मुझको अजब दिल्लगी के साथ<br/>यूं अपने आप टूटने वाले नहीं थे हम<br/><br/>मंजिल के पास जा के हमें लौटना............<br/><br/>*** समाप्त ***<br/>(मई २०१०)</p>