MUKESH SRIVASTAVA's Posts - Open Books Online2024-03-29T08:14:10ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVAhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2966939209?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1vcuqnzroja20&xn_auth=no"मै" इक समंदर में तब्दील हो जाता हूँtag:openbooksonline.com,2020-02-20:5170231:BlogPost:10010812020-02-20T12:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<div><span style="font-size: 12pt;">एक </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">--------</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">रात </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">होते ही </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">"मै" इक समंदर में तब्दील हो जाता हूँ </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और मेरे सीने के</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">ठीक ऊपर </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">इक चाँद उग आता…</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">एक </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">--------</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">रात </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">होते ही </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">"मै" इक समंदर में तब्दील हो जाता हूँ </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और मेरे सीने के</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">ठीक ऊपर </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">इक चाँद उग आता है </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">अपनी पूरी भव्यता </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और ख़ूबसूरती के साथ </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">जो अपनी चॉँदनी सी किरणे </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">बरसाने लगता हैं लगातार </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और -- तब </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">मेरे सीने से तमाम लहरें</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">मेरे दोनों बाँहे बन </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">हरहरा कर उठती हैं </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">आसमान तक </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">उस हंसीं चाँद को अपनी आगोश में भर लेने के लिए </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">पर - </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">हर बार लहरें हताश हो हो कर लौट आती हैं </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और फिर फिर उठती हैं "चाँद' को छूने </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">उधर "चाँद" मेरी बेबसी पर मुस्कुराता है </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">रात भर - और सुबह होते ही </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">न जाने किन बादलों के </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">या पर्वतों की ओट में </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">साँझ फिर मुझे जलाने और चिढ़ाने के लिए </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">दो </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">---</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">रात </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">होते ही मै </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">समंदर में तब्दील हो जाता हूँ </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">जिसके अंदर तमाम </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">बड़े बड़े घड़ियाल, व्हेल ,और मगरमच्छ </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">नज़र आते हैं </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">जो अपने जीव को खाते रहते हैं </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और छोटे जीव बिलबिलाते रहते हैं </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">इसके अलावा कई बार </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">मेरे अंदर का समंदर हरहरा कर सब कुछ बहा ले जाना चाहता है </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">और कई बार अपनी लहरों को </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">ऊपर ऊपर उछाल कर आसमान के चमकते धमकते सितारों </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">को नोच लाना चाहता है </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">लेकिन जब वो फ़लक़ तक नहीं पहुंच पाता तो निराश हो कर </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">अपने ही साहिल पे अपना सर पटकता है रात भर </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">इस बात को भूल कर कि </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">उसके ख़ुद के अंदर न जाने कितने हीरे मोती छुपे हुए हैं </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">.</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">मुकेश इलाहाबादी</span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;">मौलिक एवम अप्रकाशित </span></div>
<div><span style="font-size: 12pt;"> </span></div>टीन एजर बेटे के मेसेज - मम्मी के लिएtag:openbooksonline.com,2020-02-15:5170231:BlogPost:10010122020-02-15T12:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>एक <br></br> -----<br></br> मुझे, <br></br> मालूम है आप <br></br> मेरी लापरवाहियां और बेतरतीबी की लिए <br></br> ऊपर ऊपर डांटते हुए भी <br></br> अंदर अंदर खुशी से और मेरे लिए प्रेम से भरपूर रहती हो</p>
<p>मेरे बिखरे हुए कपड़ों व किताबों को सहेजना अच्छा लगता है <br></br> पर यहाँ हॉस्टल में आ कर अब मुझे अपने कपडे खुद तह कर के रखना सीख लिया है <br></br> वहां तो आप सुबह ब्रश में टूथ पेस्ट भी आप लगा के देती थी <br></br> टोस्ट में मक्खन भी लगा के हाथ में पकड़ा देती थी <br></br> और प्यार भरी झिड़की से जल्दी से खाने की हिदायत देती थी <br></br> पर…</p>
<p>एक <br/> -----<br/> मुझे, <br/> मालूम है आप <br/> मेरी लापरवाहियां और बेतरतीबी की लिए <br/> ऊपर ऊपर डांटते हुए भी <br/> अंदर अंदर खुशी से और मेरे लिए प्रेम से भरपूर रहती हो</p>
<p>मेरे बिखरे हुए कपड़ों व किताबों को सहेजना अच्छा लगता है <br/> पर यहाँ हॉस्टल में आ कर अब मुझे अपने कपडे खुद तह कर के रखना सीख लिया है <br/> वहां तो आप सुबह ब्रश में टूथ पेस्ट भी आप लगा के देती थी <br/> टोस्ट में मक्खन भी लगा के हाथ में पकड़ा देती थी <br/> और प्यार भरी झिड़की से जल्दी से खाने की हिदायत देती थी <br/> पर अब तो सुबह बिना आप की प्यार भरी झुड़की के <br/> हॉस्टल के अलार्म पे उठना पड़ता है -<br/> खुद से टॉवल बाथरूम में ले जाना होता है <br/> और जल्दी जल्दी तैयार हो के <br/> कैंटीन जा के नास्ता करना होता है <br/> सच ! ऐसे में आई मिस यूं ब्रैडली<br/> बट तुम उदास मत होना <br/> मै ठीक हूँ <br/> तुम्हारा</p>
<p>ब्रेवो</p>
<p>दो <br/> --</p>
<p>मॉम ,<br/> मै जानता हूँ <br/> उस दिन हॉस्टल के लिए आप लोगों ने मुझे <br/> सी ऑफ़ कर के रात - <br/> दोपहर का बचा खुचा खा के सो गए होंगे <br/> ताज़ा खाना न बनाया होगा <br/> पापा भी चुप चाप न्यूज़ देखते देखते सोफे पे सो गए होंगे <br/> घर में सन्नाटा रहा होगा <br/> मै भी - हॉस्टल के सन्नाटे में आप को मेसेज कर रहा हूँ <br/> आप कोइ अच्छी चीज़ इस लिए नहीं बनाती होंगी <br/> क्यूँ कि मै आप लोगों के साथ नहीं हूँ <br/> कैंटीन का खाना अच्छा है - यु डोंट वरी <br/> लव यू मॉम</p>
<p>स्वीटी आए तो उसे मेरा पी सी मत छूने दीजियेगा <br/> उमसे मैंने कुछ नए गेम्स डाउनलोड किए हैं <br/> वो डिलेट कर देगी</p>
<p>तीन<br/> -----</p>
<p>मॉम ,<br/> मेरी साइंस की किताब में <br/> पाँच सौ रखे हैं -जो बड़ी मौसी जाते हुए दे गयी थी <br/> उसे काम वाली ऑन्टी को दे दीजियेगा <br/> उनके बेटे के स्कूल के शूज़ फट गए हैं <br/> वो नए खरीद देंगी उसे <br/> रेस्ट इस ओके</p>
<p>हाँ !<br/> मुझसे जब मिलने आइयेगा तो मुझे <br/> "फुग्गा ' कह के मत बुलाइयेगा <br/> मेरे दोस्त लोग हँसेंगे - घर पे चाहे जितना बोलियेगा <br/> तुम्हरा फुग्गा</p>
<p>(हूँ मेरा रूम पार्टनर कम बोलता है - ठीक है - वैसे स्वभाव कैसा है <br/> ये तो रहते रहते पता लगेगा )</p>
<p>चार <br/> ----</p>
<p>मेरे हॉस्टल के वार्डन सर कड़क हैं <br/> क्लास टीचर सॉफ्ट हैं <br/> मै दिल लगा के पढ़ रहा हूँ <br/> बॉर्न वीटा रोज़ ले लेता हूँ <br/> आई मिस यु <br/> मॉम</p>
<p>(हाँ ! दिन में मेसेज मत करना मोबाइल सिर्फ सुबह और शाम <br/> देख पाऊँगा - टेक केयर )</p>
<p>मुकेश इलाहाबादी ------</p>
<p></p>
<p>मौलिक ऐवम अप्रकाशित</p>
<p></p>प्रेम गली अति सांकरीtag:openbooksonline.com,2020-02-12:5170231:BlogPost:10009362020-02-12T08:28:44.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>प्रेम गली अति सांकरी<br></br>------------------------</p>
<p>सुमी,<br></br> <br></br>सुना है, किसी सयाने ने कहा है। ' प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाय'<br></br>जब कभी सोचता हूँ इन पंक्तियों के बारे में तो लगता है, ऐसा कहने वाला, सयाना <br></br>रहा हो या न रहा हो, पर प्रेमी ज़रूर रहा होगा,जिसने प्रेम की पराकष्ठा को जाना होगा<br></br>महसूस होगा रोम - रोम से , रग - रेशे से, उसके लिए प्रेम कोई शब्दों का छलावा न<br></br>रहा होगा, किसी कविता का या ग़ज़ल का छंद और बंद न रहा होगा, किसी हसीन<br></br>शाम की यादें भर न रही होगा,…</p>
<p>प्रेम गली अति सांकरी<br/>------------------------</p>
<p>सुमी,<br/> <br/>सुना है, किसी सयाने ने कहा है। ' प्रेम गली अति सांकरी, जा में दुई न समाय'<br/>जब कभी सोचता हूँ इन पंक्तियों के बारे में तो लगता है, ऐसा कहने वाला, सयाना <br/>रहा हो या न रहा हो, पर प्रेमी ज़रूर रहा होगा,जिसने प्रेम की पराकष्ठा को जाना होगा<br/>महसूस होगा रोम - रोम से , रग - रेशे से, उसके लिए प्रेम कोई शब्दों का छलावा न<br/>रहा होगा, किसी कविता का या ग़ज़ल का छंद और बंद न रहा होगा, किसी हसीन<br/>शाम की यादें भर न रही होगा, प्रेम -<br/>उसके लिए तो प्रेम अपने और अपने प्रेमी के अस्तित्व का अनुभव भर नहीं पूरी समष्टि<br/>और सृष्टि का अनुभव रहा होगा- प्रेम। <br/>तभी तो उसने<br/>ये बात कही होगी - 'प्रेम गली अति सांकरी'।<br/>हाँ !! वो बात दीगर उसकी महबूबा कोई,<br/>हाड- मॉस की औरत रही हो या फिर ईश्वर रहा हो या की 'सत्य' रहा हो.<br/>पर इतना सच है,<br/>उसने प्रेम की पराकाष्टा को छुआ होगा।<br/>शायद तभी ये कह भी पाया होगा। <br/>एक बात जान लो सुमी, ये तो सच है 'प्रेम' कोई राजपथ नहीं है जिसपे शान से चला जा<br/>सके। प्रेम की गली में तो राजा रानी को भी सट सट के चलना होता है, खाई खंदक से<br/>बच - बच के निकलना होता है , वरना तो , ज़रा सा चूके और गए, तभी तो आज तक जिसने<br/>भी प्रेम किया उसने ही 'प्रेम' को 'गली' कहा या 'डगर' कहा। राजपथ तो किसी ने नहीं कहा।<br/>और इन सयाने ने तो इस गली को यहाँ तक संकरी कह दिया कि इस गली में तो दो<br/>हो कर जा ही नहीं सकते। क्यूँ की जब तक दो है तब तक प्रेम का दिखावा हो सकता<br/>है। नाटक हो सकता है। पर प्रेम तो कतई नहीं हो सकता।<br/>क्यों कि प्रेम की गली में आते ही 'द्वैत' तो अद्वैत हो जाता है। 'अद्वैत' समझती हो न ?<br/>अद्वैत - का अर्थ होता है। जो दो न हो। अद्भुत शब्द है जो भारतीय मनीषा ने दुनिया को दिया है।<br/>अद्वैत - जो दो न हो - क्यूँ की एक कहने से लगता है दो होगा कहीं न कहीं।<br/>क्यों कि दो के बिना एक भी नहीं हो सकता। और जब एक होगा तो दो भी होगा , तीन भी होगा<br/>और अनंत भी हो सकते हैं। इसी लिए सत्य को , परम सत्य को 'अद्वैत' कहा जाता है।<br/>जो दो न हो। जो दो जैसा भाषता तो हो। पर दो न हो। <br/>तो मेरे देखे प्रेम की गली से गुज़ारना 'अद्वैत' की गली से गुज़ारना है। जहाँ दो जिस्म हो सकते हैं.<br/> दो रूह हो सकती है। दो साँसे आती जाती लग सकती हैं। पर वे सतह की बातें हैं। <br/>तल पे एक ही हैं। सतह पे दो लहरें हो सकती हैं। पर सागर में दोनों लहरें एक ही हैं।<br/>तभी तो दो प्रेम करने वालों के लिए कहा जाता है। ये 'दो जिस्म एक जान हैं'<br/>प्रेम की भावदशा में।<br/>एक साँस लेता है तो दुसरे का दिल धड़कता है।<br/>एक का दिल धड़कता है तो दुसरे के जिस्म में हरक़त होती है।<br/>और यही अवस्था जब और और और गहराती जाती है।<br/>तो वह अवस्था 'अद्वैत' की अवस्था होती है। <br/>उसी अनुभव को कोई सायना ' अनलहक' कहता है। कोई 'अहम ब्रम्हास्मि' कहता है।<br/>पर ये सभी हैं उसी 'प्रेम' के परम अनुभव। अद्वैत के अनुभव।<br/>एक बात और जान लो। प्रेम की अवस्था में -<br/>न 'मै' रहता है<br/>न 'तुम' रहता है<br/>न 'हम ' रहता है<br/>वहां तो सिर्फ और सिर्फ वही रहता है - ब्रम्हा - परम सत्य - जो सिर्फ और सिर्फ ' प्रेम' है। जहाँ<br/>दो नहीं है - सब कुछ एक है एक है एक है।<br/>आओ हम भी प्रेम में उतरें और उस परम सत्य को अनुभव करें। <br/>जहाँ पे -- सीता और राम ----- सीताराम हो जाता है<br/>जहाँ पे --- राधा और कृष्ण ---- राधेकृष्ण हो जाता है<br/>जहां पे 'अद्वैत' घट जाता है।</p>
<p>जहाँ पे 'जिस्म नहीं, रूह ही नहीं। सिर्फ और सिर्फ ' प्रेम' रहता है।<br/>विशुद्ध 'प्रेम'<br/>बस इनता ही।</p>
<p>मुकेश इलाहाबादी --------------------------</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>
<p></p>कुर्सीtag:openbooksonline.com,2017-09-23:5170231:BlogPost:8834472017-09-23T09:36:03.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>गुफा<br></br>से निकले हुए लोगों ने<br></br>'कुर्सी' बनाई,<br></br>अपने राजा के लिए<br></br>ज़मीन पर बैठे - बैठे</p>
<p>राजा कुर्सी पर बैठा है शान से<br></br>कुर्सी बनाने वाले ज़मीन पर</p>
<p>सबसे पहली कुर्सी 'पत्थर' की थी<br></br>फिर इंसान ने लकड़ी की कुर्सी बनाई<br></br>बाद में सोने ,चाँदी ,हीरे, जवाहरात की भी....</p>
<p>इतिहास में तो कई बार नरमुंडों की भी कुर्सियां बनाई गयी <br></br>और फिर उस पर बैठ के 'राजा' बहुत खुश हुआ...</p>
<p>कुर्सी बनाई गयी थी<br></br>इस उम्मीद में कि इस पर बैठा हुआ<br></br>राजा राज्य में<br></br>सुख शांति…</p>
<p>गुफा<br/>से निकले हुए लोगों ने<br/>'कुर्सी' बनाई,<br/>अपने राजा के लिए<br/>ज़मीन पर बैठे - बैठे</p>
<p>राजा कुर्सी पर बैठा है शान से<br/>कुर्सी बनाने वाले ज़मीन पर</p>
<p>सबसे पहली कुर्सी 'पत्थर' की थी<br/>फिर इंसान ने लकड़ी की कुर्सी बनाई<br/>बाद में सोने ,चाँदी ,हीरे, जवाहरात की भी....</p>
<p>इतिहास में तो कई बार नरमुंडों की भी कुर्सियां बनाई गयी <br/>और फिर उस पर बैठ के 'राजा' बहुत खुश हुआ...</p>
<p>कुर्सी बनाई गयी थी<br/>इस उम्मीद में कि इस पर बैठा हुआ<br/>राजा राज्य में<br/>सुख शांति समृद्धि लाएगा.....</p>
<p>कई बार ऐसा भी हुआ<br/>कुर्सी की वजह से ही<br/>सुख शांति और समृद्धि राज्य से विदा हो गईं....</p>
<p>सबसे पहली कुर्सी पत्थर की थी<br/>पर अब तो राजा भी पत्थर का हो गया है ..<br/>भले ही कुर्सी किसी भी धातु की हो</p>
<p>मुकेश इलाहाबादी --------------------</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित </p>मुट्ठी भर ताकतवर और बुद्धिमानtag:openbooksonline.com,2017-09-18:5170231:BlogPost:8823452017-09-18T09:59:56.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p><span><br></br><span>मुट्ठी भर </span><br></br><span>ताकतवर </span><br></br><span>और बुद्धिमान </span><br></br><span>लोगों ने </span><br></br><span>इकठ्ठा किया </span><br></br><span>ढेर सारे लोगों को </span><br></br><span>और </span><br></br><span>आवाहन किया </span><br></br><span>कहा </span><br></br><span>"हमें इस धरती को </span><br></br><span>स्वर्ग बनाना है </span><br></br><span>और बेहतर बनाना है "</span><br></br><br></br><span>और हम </span><br></br><span>चल पड़े </span><br></br><span>तमाम जंगल काटते हुए </span><br></br><span>पहाड़ों को रौंदते…</span></span></p>
<p><span><br/><span>मुट्ठी भर </span><br/><span>ताकतवर </span><br/><span>और बुद्धिमान </span><br/><span>लोगों ने </span><br/><span>इकठ्ठा किया </span><br/><span>ढेर सारे लोगों को </span><br/><span>और </span><br/><span>आवाहन किया </span><br/><span>कहा </span><br/><span>"हमें इस धरती को </span><br/><span>स्वर्ग बनाना है </span><br/><span>और बेहतर बनाना है "</span><br/><br/><span>और हम </span><br/><span>चल पड़े </span><br/><span>तमाम जंगल काटते हुए </span><br/><span>पहाड़ों को रौंदते हुए </span><br/><span>नदियों को सोखते हुए </span><br/><span>समंदर के सीने को </span><br/><span>चीरते हुए </span><br/><span>हज़ारों युद्ध लड़ते हुए </span><br/><span>अपनों के ही खिलाफ </span><br/><span>और अभी भी चले </span><br/><span>जा रहे हैं </span><br/><br/><span>ये और बात </span><br/><span>हमारी एंड़ियां ही नहीं </span><br/><span>पैर भी घिस चुके हैं </span><br/><span>पीठ झुक चुकी है </span><br/><span>आँखों में मोतिया बिन्द </span><br/><span>हो चूका है </span><br/><span>धरती क्षत विक्षत </span><br/><span>और आकाश लाल हो चुका है </span><br/><span>पर हम </span><br/><span>आज भी अडिग हैं </span><br/><span>धरती को स्वर्ग बनाने </span><br/><span>और बेहतर बनाने के वायदे पे </span><br/><br/><span>मुकेश इलाहाबादी -------------</span></span></p>
<p></p>
<p><span><span>मौलिक और अप्रकाशित </span></span></p>एक पति की आत्मस्वीक्रतिtag:openbooksonline.com,2017-09-17:5170231:BlogPost:8818782017-09-17T06:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p><span> चुन्नों, मेरा चश्मा कंहा रखा है ? चुन्नो मेरी नयी वाली कमीज नहीं मिल रही है, चुन्नो तुमने मेरा रुमाल देखा है क्या? चुन्नो एक कप चाय मिलेगी क्या? चुन्नो चुन्नो चुन्नो सच घर आते ही चुन्नो चुन्नो के नाम की माला जपने लगता हूं। सच आफिस मे रहता हूं तो आफिस की छोटी छोटी बातें नही भूलती पर घर आते ही जैसे यादें ह</span><span class="text_exposed_show">ैं कि साथ छोड के फिर से आफिस मे ही दुपुक जाती हैं ये कह के कि जाओ अब अपनी चुन्नो के साथ ही रहो मेरी क्या जरुरत है वो जो है न तुम्हारी और…</span></p>
<p><span> चुन्नों, मेरा चश्मा कंहा रखा है ? चुन्नो मेरी नयी वाली कमीज नहीं मिल रही है, चुन्नो तुमने मेरा रुमाल देखा है क्या? चुन्नो एक कप चाय मिलेगी क्या? चुन्नो चुन्नो चुन्नो सच घर आते ही चुन्नो चुन्नो के नाम की माला जपने लगता हूं। सच आफिस मे रहता हूं तो आफिस की छोटी छोटी बातें नही भूलती पर घर आते ही जैसे यादें ह</span><span class="text_exposed_show">ैं कि साथ छोड के फिर से आफिस मे ही दुपुक जाती हैं ये कह के कि जाओ अब अपनी चुन्नो के साथ ही रहो मेरी क्या जरुरत है वो जो है न तुम्हारी और तुम्हारे घर की हर छोटी बडी चीजें याद रखने के लिये। और सच चुन्नो सिर्फ यादें ही क्यूं घर आते ही न जाने क्यूं निर्णय लेनी की क्षमता को भी जैसे ग्रहण लग जाता है। छोटी छोटी बातों के लिये भी तुम्हारी सलाह के बिना काम नही कर पाता चाहे वह सब्जी लाने का हो तो पूछना पडता है बाजार जा रहा हूं क्या सब्जी लाउं? शाम की पार्टी मे कौन सी ड्रेस पहनूं। इस दिवाली पे दीवारों पे कौन सा रंग करवाऊँ या कि दोस्त की सालगिरह पे क्या गिफ़्ट देना है, बेटे को इस सर्दी पे सूट बनवाया जाये कि ब्लेजर ही दिलवाया जाये, सच ये सब भी बिना तुमसे पूछे निर्णय नही ले पाता। भले ही तुम डिझकती रहो कि मैने हर बात का ठेका ले लिया है क्या कोई काम तुम अपने मन से नही कर सकते हो क्या। पर न जाने क्यूं तुम्हारी ये झिडकी और डांट भी अच्छी लगती है और मै तुम्हारा मनुहार करने लगता हूं और तुम भी तो हो न थोडी देर बाद बनावटी गुस्से से उठ कर चल देती हो चाय बनाने या किचन का काम करने यह कहते हुये कि ‘मुझसे बार बार क्या पूछते रहते हो जो तुम्हारी मर्जी हो वो करो। हर काम मुझसे पूछ के करते हो क्या ? जब तुमको अपनी उस आफिस वाली के बर्थ डे मे जाना होता है तब तो नही पूछते हो कि आज कौन सी कमीज पहनू या कौन सा गिफ़्ट ले जाऊँ तब तो खुद ही बाजार से खरीदते हुए फुदकते हुये ले आये थे तो आज भी वही कर लो।’ और फिर मै अपनी सफाई देते हुए तुम्हारे पीछे पीछे किचेन तक आ जाता हूं और तुम कहती हो ‘जाओ नाटक मत करो मै सब समझती हूं’ <br/> सच चुन्नो आज शादी के उन्नीस साल बाद भी बाथरुम मे टॉवेल ले जाने की आदत नही पडी और तुम्हे ही आवाज देना पडता है। जब किसी दिन तुम घर पे नही होती हो तो सच, तब कई बार तो बाथरुम से गीले ही निकलना पडता है।<br/> जानती हो चुन्नो आज इतने सालों बाद मै समझा कि अपने हिन्दू रीत रिवाजो वाली शादी मे फेरों के वक्त वर वधू के उपर धान से वर्षा करके क्यूं आषिर्वाद लेते है। तो सूनो एक तो धान से आर्षिवाद देना का मतलब होता हो कि ‘हे, वर वधू तुम लोगों का जीवन धन धान्य से परिपूर्ण रहे और जैसे धान की भुस मे धान लिपटा होता है वैसे ही तुम वर वधू भी एक दूसरे के पूरक रहो साथ रहो। तो सच चुन्नो तुम धान हो और मै धान की भूसी हूं और षायद तभी तुम जो अक्सर मजाक मे कहती हो कि तुम्हारे दिमाग मे भूंसा भरा है तो सही ही कहती हो मेरी चुन्नो।<br/> चुन्नो आज शादी के इतने दिनों बाद जब पीछे मुड मे देखता हूं। तो विश्वास नही होता साल के इन उन्नीस सालों मे हमने इतने सारे आंधी तूफान और आषा निराषा के ढेरों गहवर और र्पवत पार कर आयें हैं। <br/> आज जब जीवन की लगभग समतल भूमि पर चल कर लगता ही नही कि इतनी कठिन यात्रा किस तरह कट गयी।<br/> मुकेश इलाहाबादी ---------------</span></p>
<p></p>
<p><span class="text_exposed_show">मौलिक और अप्रकाशित </span></p>मै एक पेड़ होता और तुम होती गिलहरीtag:openbooksonline.com,2017-09-09:5170231:BlogPost:8798052017-09-09T17:36:28.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
काश,<br />
मै एक पेड़ होता<br />
और तुम होती<br />
गिलहरी<br />
जो अपनी बटन सी<br />
चमकती आँखों से<br />
इधर - उधर देखती<br />
ऊपर चढ़ती और कभी उतरती<br />
तुम्हे देखता<br />
चुक -चुक करते हुए हरी पत्तियों को<br />
अपने मुहे में दबाये हुए फुदकते हुए<br />
और फिर ज़रा सी आवाज़ या<br />
आहट से भाग के मेरे तने की खोह में छुप जाना<br />
जैसे, तुम दुपुक जाती थी<br />
मेरी बाँहों में,<br />
उन दिनों जब हम तुम दोनों थे<br />
एक दूजे के गहन प्रेम में<br />
(हलाकि मै तो आज भी हूँ<br />
तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारा पता नहीं )<br />
<br />
ओ ! मेरी प्रिये क्या ऐसा हो सकता है किसी दिन ?<br />
<br />
कि तुम बन जाओ गिलहरी<br />
और मै बन जाऊँ…
काश,<br />
मै एक पेड़ होता<br />
और तुम होती<br />
गिलहरी<br />
जो अपनी बटन सी<br />
चमकती आँखों से<br />
इधर - उधर देखती<br />
ऊपर चढ़ती और कभी उतरती<br />
तुम्हे देखता<br />
चुक -चुक करते हुए हरी पत्तियों को<br />
अपने मुहे में दबाये हुए फुदकते हुए<br />
और फिर ज़रा सी आवाज़ या<br />
आहट से भाग के मेरे तने की खोह में छुप जाना<br />
जैसे, तुम दुपुक जाती थी<br />
मेरी बाँहों में,<br />
उन दिनों जब हम तुम दोनों थे<br />
एक दूजे के गहन प्रेम में<br />
(हलाकि मै तो आज भी हूँ<br />
तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारा पता नहीं )<br />
<br />
ओ ! मेरी प्रिये क्या ऐसा हो सकता है किसी दिन ?<br />
<br />
कि तुम बन जाओ गिलहरी<br />
और मै बन जाऊँ पेड़<br />
<br />
मुकेश इलाहाबादी ----------------<br />
<br />
मौलिक और अप्रकाशितरंग बिरंगा हो गया हूँtag:openbooksonline.com,2017-09-07:5170231:BlogPost:8795662017-09-07T11:09:39.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>रंग बिरंगा हो गया हूँ,</p>
<p>------------------------------</p>
<p>जैसे<br></br>कच्ची दोमट<br></br>मिट्टी का धेला<br></br>धीरे धीरे घुलता है<br></br>बारिस के पानी में<br></br>और पानी मटमैला मटमैला हो जाता है<br></br>मिट्टी की सोंधी सोंधी महक के साथ <br></br>बस ऐसी ही<br></br>तुम घुलती हो मुझमे<br></br>और घुलता जाता है<br></br>तुम्हारी आँखों की पुतली का<br></br>ये कत्थई रंग</p>
<p>सिर्फ आँखों का रंग ही क्यूँ<br></br>तुम्हारे काजल का गहरा काला <br></br>आँचल का आसमानी<br></br>गालों का गुलाबी<br></br>होंठो का मूँगिया<br></br>और तुम्हारी हंसी का दूधिया…</p>
<p>रंग बिरंगा हो गया हूँ,</p>
<p>------------------------------</p>
<p>जैसे<br/>कच्ची दोमट<br/>मिट्टी का धेला<br/>धीरे धीरे घुलता है<br/>बारिस के पानी में<br/>और पानी मटमैला मटमैला हो जाता है<br/>मिट्टी की सोंधी सोंधी महक के साथ <br/>बस ऐसी ही<br/>तुम घुलती हो मुझमे<br/>और घुलता जाता है<br/>तुम्हारी आँखों की पुतली का<br/>ये कत्थई रंग</p>
<p>सिर्फ आँखों का रंग ही क्यूँ<br/>तुम्हारे काजल का गहरा काला <br/>आँचल का आसमानी<br/>गालों का गुलाबी<br/>होंठो का मूँगिया<br/>और तुम्हारी हंसी का दूधिया रंग<br/>मेरे वज़ूद में घुल मिल जाते हैं<br/>तुम्हारे स्नेह और प्रेम की बारिस में</p>
<p>तुम देखो न 'मै कितना रंग बिरंगा हो गया हूँ,<br/>और रंग बिरंगी हो गयी है मेरी कविता, बिलकुल तुम्हारी तरह '</p>
<p>क्यूँ है न ??</p>
<p>देखो ! देखो, तुम हंसना नहीं<br/>और ये मत कहना तुम ' तुम पागल हो '</p>
<p>मुकेश इलाहाबादी ----------------------</p>
<p>मौलिक एवम अप्रकाशित</p>चुप्पीtag:openbooksonline.com,2016-02-04:5170231:BlogPost:7380212016-02-04T05:41:03.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>चुप्पी में<br/> कई चीखते हुए सवाल हैं<br/>
शायद<br/>
जिनके उत्तर<br/>
किसी भी पोथी<br/>
किसी भी दिग्ग्दर्शिका<br/>
किसी भी धर्मग्रन्थ<br/>
में नहीं हैं<br/>
अगर रहे भी हों तो<br/>
उन्हें मिटा दिया गया है<br/>
हमेसा हमेसा के लिए<br/>
ताकि<br/>
इन चुप्पियों से<br/>
कोई आवाज़ न उठे<br/>
चुप कराने वालों के ख़िलाफ़</p>
<p>मुकेश इलाहबदी --------</p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>
<p>चुप्पी में<br/> कई चीखते हुए सवाल हैं<br/>
शायद<br/>
जिनके उत्तर<br/>
किसी भी पोथी<br/>
किसी भी दिग्ग्दर्शिका<br/>
किसी भी धर्मग्रन्थ<br/>
में नहीं हैं<br/>
अगर रहे भी हों तो<br/>
उन्हें मिटा दिया गया है<br/>
हमेसा हमेसा के लिए<br/>
ताकि<br/>
इन चुप्पियों से<br/>
कोई आवाज़ न उठे<br/>
चुप कराने वालों के ख़िलाफ़</p>
<p>मुकेश इलाहबदी --------</p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>जब तक मै रहूंगा ‘आदम’ और तुम ‘ईव’tag:openbooksonline.com,2016-01-28:5170231:BlogPost:7349902016-01-28T06:18:20.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p></p>
<p>प्रिये,<br></br>सच तो ये है<br></br>जब तक मै रहूंगा ‘आदम’<br></br>और तुम ‘ईव’<br></br>तब तक हम खाते रहेंगे ‘सेब’<br></br>भोगते रहेंगे 'नर्क'<br></br>इससे तो बेहतर है<br></br>'मै' बन जाउं 'जंगल'<br></br>घना ओर बियाबान<br></br>तुम बहो उसमे<br></br>'नदी' सा हौले - हौले<br></br>या फिर मै<br></br>टंग जाउं आसमान मे<br></br>चॉद सा<br></br>और तुम बनो<br></br>मीठे पानी की झील<br></br>सांझ होते ही मै<br></br>उतर आउं जिसमे<br></br>चुपके से,<br></br>हिलूं। तैरूँ। इतराऊँ<br></br>सुबह होते ही फिर<br></br>टंग जाऊँ आसमान मे<br></br>या तो,<br></br>ऐसा करते हैं<br></br>मै बन जाता हूं…</p>
<p></p>
<p>प्रिये,<br/>सच तो ये है<br/>जब तक मै रहूंगा ‘आदम’<br/>और तुम ‘ईव’<br/>तब तक हम खाते रहेंगे ‘सेब’<br/>भोगते रहेंगे 'नर्क'<br/>इससे तो बेहतर है<br/>'मै' बन जाउं 'जंगल'<br/>घना ओर बियाबान<br/>तुम बहो उसमे<br/>'नदी' सा हौले - हौले<br/>या फिर मै<br/>टंग जाउं आसमान मे<br/>चॉद सा<br/>और तुम बनो<br/>मीठे पानी की झील<br/>सांझ होते ही मै<br/>उतर आउं जिसमे<br/>चुपके से,<br/>हिलूं। तैरूँ। इतराऊँ<br/>सुबह होते ही फिर<br/>टंग जाऊँ आसमान मे<br/>या तो,<br/>ऐसा करते हैं<br/>मै बन जाता हूं 'आंगन'<br/>जिसमे तुम उग आओ<br/>तुलसी बन के<br/>या कि ऐसा करो<br/>तुम बनो धरती<br/>मै,बन जाउं बादल<br/>फिर तुझसे मिलने आऊं<br/>सावन भादों मे<br/>झम झमा झम झम<br/><br/>मुकेश इलाहाबादी ...<br/><br/>मौलिक और अप्रकाशित</p>पत्थर की मूर्तिtag:openbooksonline.com,2016-01-13:5170231:BlogPost:7318832016-01-13T07:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>सुना तो यह गया है, वह पत्थर की देवी थी। पत्थर की मूर्ति। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक - एक नैन नक्श, बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें ,सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई ग़ज़ल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। . .. ? वह तो एक मूर्ति भर थी। पत्थर की मूर्ति। <br></br> सुना तो यह भी गया था, कि वह हमेसा से…</p>
<p>सुना तो यह गया है, वह पत्थर की देवी थी। पत्थर की मूर्ति। संगमरमर का तराशा हुआ बदन। एक - एक नैन नक्श, बेहद खूबसूरती से तराशे हुए। मीन जैसी ऑखें ,सुराहीदार गर्दन, सेब से गाल। गुलाब से भी गुलाबी होठ। पतली कमर। बेहद खूबसूरत देह यष्टि। जो भी देखता उस पत्थर की मूरत को देखता ही रह जाता। लोग उस मूरत की तारीफ करते नही अघाते थे। सभी उसकी खूबसूरती के कद्रदान थे। कोई ग़ज़ल लिखता कोई कविता लिखता। मगर इससे क्या। . .. ? वह तो एक मूर्ति भर थी। पत्थर की मूर्ति। <br/> सुना तो यह भी गया था, कि वह हमेसा से पत्थर की मुर्ति नही थी। बहुत दिनो पहले तक वह भी एक हाड मॉस की स्त्री थी। बिलकुल आम औरतों जैसी। यह अलग बात वह जब हंसती तो फूल झरते। बोलती तो लगता जलतरंग बज उठे हों। चलती तो लगता धरती अपनी लय मे थिरक रही हों।<br/> उसके अंदर भी हाड मासॅ का दिल धडकता था। वह भी अपनी सहेलियों संग सावन मे झूला झूला करती थी। उसके अंदर भी जज्बात हुआ करते थे। वह भी तमाम स्त्रियों सा ख्वाब देखा करती थी।<br/> वह भी सपने मे घोडा और राजकुमार देखा करती ।<br/> और ------ एक दिन उसका यह सपना सच भी हुआ ।<br/> उसके गांव मे एक मुसाफिर आया। बडे बडे बाल, चौडे कंधे। उभरी हुयी पसलियां । आवाज मे जादू , वह उसके सम्मोहन मे आगयी। वह उसके प्रेम मे हो गयी।<br/> अगर पुरुष यानी वह मुसाफिर कहता तो वह। गुडिया बन जाती और उसके लिये कठपुतली सा नाचती रहती। अगर पुरुष कहता तो वह सारंगी बन जाती, सात सुरों मे बजती। अगर पुरुष कह देता तो वह नदी बन जाती, पुरुष उसमे छपक छंइयां करता।<br/> और पुरुष कहता तो वह फूल बन जाती और देर तक महकती रहती। गरज ये की वह पुरुष को परमात्मा मान चुकी थी,खुद को दासी।<br/> पर एक दिन हुआ यूं कि। खेल - खेल मे स्त्री पुरुष के कहने से फूल बनी और पुरुष भौंरा। और तब भौंरे ने उसने फूल को सारा रस ले लिया और फिर खुल गगन मे उड चला न वापस आने के लिये। इधर स्त्री फूल बन के उसका इंतजार ही करती रही। इंतजार ही करती रही। और जब उसने दोबारा स्त्री बनना चाहा तो वह स्त्री तो बनी पर रस न होने से वह पत्थर की स्त्री बन गयी। और तब से वह पत्थर की ही थी।<br/> मगर उस पत्थर की मुर्ती मे भी इतना आकर्षण था कि जो भी देखता मंत्रमुग्ध हो जाता। जो भी देखता उसे देखता रहा जाता। लोग उसे देखने के लिये दूर दूर से आते, देखते और तारीफ करते।<br/> और एक दिन दूर देश के एक कला परखी ने जब उस पत्थर की स्त्री के बारे मे सुना तो उससे रहा न गया।<br/> उस कला के पारखी ने उसे देखने की ठानी। उसने अपने घोड़े की जीन कसी। अपनी पीठ पे अपनी असबाब बांधे और चल दिया उस पत्थर की देवी को देखने । उस कद्रदान ने तमाम नदी नाले पार किये। तमाम शहर , कस्बों और जंगलात से गुजरा और पता लगाते- लगाते एक दिन उस पत्थर की मूर्ति के गांव पहुच ही गया।<br/> उस कला के कद्रदान ने जब उसे देखा तो देखता ही रह गया उस पत्थर की स्त्री को।उसकी आँखें फटी की फटी रह गयीं। कद्रदान उसे जितना देखता उठी ही उसकी इच्छा बलवती होती जाती और वह उसे देखता रहता देखता रहता। देखते देखते क़द्रदान को उस पत्थर के मूर्ति से प्यार हो गया वह प्रेम मे पड गया, बुरी तरह से, वह उसकी अभ्यर्थना करने लगा। पर इससे उस स्त्री पे क्या फर्क पडना था। वह तो पत्थर की थी।<br/> लोग उस कद्रदान पे हंसते, उसे पागल कहते , फब्तियाँ कसते कहते अरे कभी कोई पत्थर की मूर्ति ने भी किसी से प्रेम किया है ? पर, वह कददान तो जैसे उस पत्थर की देवी के लिए पागल हो गया था । वह दिन रात उस मूर्ती की पूजा करता अर्भ्यथना करता उसके सामने गिडगिडाता। उससे प्रेम की भीख मांगता, उसके लिये कविता लिखता चित्र बनाता गीत गाता। पूजा करता। और कभी कभी तो उसके कदमो पे सिर रखकर खूब और खूब रोता।<br/> और यह सिलसिला दिनो नही सालों साल चलता रहा।<br/> आखिर उस कद्रदान का प्रेम रंगलाया। पत्थर की मूर्ति जीती जागती स्त्री में तब्दील हो गयी थी।<br/> यह देख कर वह कद्रदान बहुत खुश हुआ, स्त्री भी एक बार फिर खुश हुई।<br/> वह एक बार फिर कठपुतली बनी, सारंगी बनी नदी बनी फूल बनी अपने इस नए क़द्रदान के लिए। और एक दिन फिर वह फूल बनी। जिसे कद्रदान सूंघ सकता था। अपने हथेलियेां के बीच ले के महसूस कर सकता था। उसकी कोमलता को , उसकी ख़ूबसूरती को। <br/> जिसे वह कद्रदान अपनी हथेलियों के बीच आहिस्ता से लेकर उसकी महक को अपने नथूनों मे भर के खुश हो रहा था। अब वह खुशी से झूम रहा था नाच रहा था। हंस रहा था मुस्कुरा रहा था। वह मुर्ति भी उसके हाथों फूल सा खिल के महक के खुश थी। पर वह अपनी खुषी मे पागल कद्रदान यह भूल गया कि अगर उसने अपने अंजुरी को मुठठी मे तब्दील कर लिया या जोर से बंद किया तो फूल की पंखडियां बिखर जायेंगी आैंर फिर फूल फूल न रह जायेगा। पर उस कद्रदान ने ऐसा ही किया। नतीजा। फूल की पंखडियां हथेली मे बहुत ज्यादा मसले जाने से टूट गयीं और बिखर गयीं। अब वह फूल फल न रहा। एक सुगंध भर रहा गयी।<br/> कद्रदान को जब होष आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उसके सामने अब न तो वह पत्थर की मुर्ति थी और न उसकी अंजुरी मे फूल थे जो उस मुर्ती के तब्दील होने से बने थे।<br/> <br/> कहानी यहीं समाप्त हो जाती है।<br/> पर कहने वाले यह कहते हैं कि। वह कद्रदान आज भी।फूलों की उस खूबसूरत वादी की पहाड़ी चटटानों पे सिर पटकता है और जोर - जोर रोता हुआ भटकता हैं कि शायद उस खूबसूरत सुगंध वाला फूल या यूं कहो की वह स्त्री जो पत्थर की मूर्ति थी। जो उससे नाराज हो के फिर से पत्थर बन गयी है एक दिन फिर मूर्ति बनेगी और फिर उसके प्रेम से फूल बन के खिलेगी।<br/> पर इस बार वह अपनी अंजुरी को कस के नही भींचेगा । पंखुरियों को नही बिखरने देगा।<br/> <br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी -------------------<br/> <br/> मौलिक और अप्रकाशित <br/></p>जब तुम हंसती हो झरते हैं,tag:openbooksonline.com,2015-11-30:5170231:BlogPost:7199302015-11-30T07:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>जब</p>
<p>तुम हंसती हो<br/> झरते हैं,<br/> दशों दिशाओं से<br/> इंद्रधनुषी झरने<br/> हज़ार - हज़ार तरीके से<br/> नियाग्रा फाल बरसता हो जैसे<br/> तब,<br/> सूखी चट्टानों सा<br/> मेरा वज़ूद<br/> तब्दील हो जाता है<br/> एक हरी भरी घाटी में<br/> जिसमे तुम्हारी<br/> हंसी प्रतिध्वनित होती है<br/> और मै,<br/> सराबोर हो जाता हूँ<br/> रूहानी नाद से<br/> जैसे कोई योगी नहा लेता है<br/> ध्यान में उतर के<br/> अनाहत नाद की<br/> मंदाकनी में<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी ----<br/> <br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>जब</p>
<p>तुम हंसती हो<br/> झरते हैं,<br/> दशों दिशाओं से<br/> इंद्रधनुषी झरने<br/> हज़ार - हज़ार तरीके से<br/> नियाग्रा फाल बरसता हो जैसे<br/> तब,<br/> सूखी चट्टानों सा<br/> मेरा वज़ूद<br/> तब्दील हो जाता है<br/> एक हरी भरी घाटी में<br/> जिसमे तुम्हारी<br/> हंसी प्रतिध्वनित होती है<br/> और मै,<br/> सराबोर हो जाता हूँ<br/> रूहानी नाद से<br/> जैसे कोई योगी नहा लेता है<br/> ध्यान में उतर के<br/> अनाहत नाद की<br/> मंदाकनी में<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी ----<br/> <br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>सारा आलम, धुँआ - धुँआ हो जायेtag:openbooksonline.com,2015-11-04:5170231:BlogPost:7126912015-11-04T04:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p><span class="font-size-2"> सारा आलम,</span></p>
<p><span class="font-size-2">धुँआ - धुँआ हो जाये</span><br></br> <span class="font-size-2">इसके पहले</span><br></br> <span class="font-size-2">बचा लेना चाहता हूँ</span><br></br> <span class="font-size-2">थोड़ी से 'हवा'</span><br></br> <span class="font-size-2">पारदर्शी और स्वच्छ</span><br></br> <span class="font-size-2">जो बहुत ज़रूरी है</span><br></br> <span class="font-size-2">स्वांस लेने के लिए</span><br></br> <span class="font-size-2">ज़िंदा रहने के लिए…</span><br></br></p>
<p><span class="font-size-2"> सारा आलम,</span></p>
<p><span class="font-size-2">धुँआ - धुँआ हो जाये</span><br/> <span class="font-size-2">इसके पहले</span><br/> <span class="font-size-2">बचा लेना चाहता हूँ</span><br/> <span class="font-size-2">थोड़ी से 'हवा'</span><br/> <span class="font-size-2">पारदर्शी और स्वच्छ</span><br/> <span class="font-size-2">जो बहुत ज़रूरी है</span><br/> <span class="font-size-2">स्वांस लेने के लिए</span><br/> <span class="font-size-2">ज़िंदा रहने के लिए</span><br/> <br/> <span class="font-size-2">इसी तरह,</span><br/> <span class="font-size-2">बचा लेना चाहता हूँ</span><br/> <span class="font-size-2">नदियों और पोखरों में</span><br/> <span class="font-size-2">थोड़ा ही सही,</span><br/> <span class="font-size-2">पर स्वछ जल</span><br/> <span class="font-size-2">थोड़ा सा आकाश (स्पेस)</span><br/> <span class="font-size-2">थोड़ी सी आग (बगैर धुँआ)</span><br/> <br/> <span class="font-size-2">मुकेश इलाहाबादी -----</span><br/> <br/> <span class="font-size-2">(मौलिक और अप्रकाशित )</span></p>जंगल बदल चुके हैंtag:openbooksonline.com,2015-09-16:5170231:BlogPost:6985022015-09-16T06:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<h3 class="post-title entry-title"> जंगल बदल चुके हैं</h3>
<div class="post-header"><div class="post-header-line-1"></div>
</div>
<div class="post-body entry-content" id="post-body-5649402848538511930"><div dir="ltr"><span>चूँकि, </span><br></br> <span>जंगल बदल चुके हैं </span><br></br> <span>बस्तियों में या फिर </span><br></br> <span>फॉर्म हाउसेस में </span><br></br> <span>लिहाज़ा अब </span><br></br> <span>जंगल में </span><br></br> <span>हरे भरे फलों से लदे </span><br></br> <span>पेड़ नहीं मिलते …</span><br></br></div>
</div>
<h3 class="post-title entry-title"> जंगल बदल चुके हैं</h3>
<div class="post-header"><div class="post-header-line-1"></div>
</div>
<div class="post-body entry-content" id="post-body-5649402848538511930"><div dir="ltr"><span>चूँकि, </span><br/> <span>जंगल बदल चुके हैं </span><br/> <span>बस्तियों में या फिर </span><br/> <span>फॉर्म हाउसेस में </span><br/> <span>लिहाज़ा अब </span><br/> <span>जंगल में </span><br/> <span>हरे भरे फलों से लदे </span><br/> <span>पेड़ नहीं मिलते </span><br/> <span>दवाइयों वाली </span><br/> <span>घनी झाड़ियाँ और </span><br/> <span>और वनस्पतियां भी नहीं मिलती </span><br/> <span><br/></span> <span>यहां तक कि </span><br/> <span>जानवरों का राजा शेर </span><br/> <span>भी इधर उधर घूमता </span><br/> <span>नहीं मिलता </span><br/> <span>वह अब सर्कस या </span><br/> <span>चिड़ियाघर के पिंजड़े </span><br/> <span>में मिलता है </span><br/> <span>आज कल </span><br/> <span>जंगल का राजा </span><br/> <span>कुत्ता है </span><br/> <span>उसके भी गले में चेन रहती है </span><br/> <span>जो </span><br/> <span>गरीबों व मज़बूरों पे खूब भोकता है </span><br/> <span>और </span><br/> <span>चोरों को देख कर पूछ हिलाता है </span><br/> <span><br/></span> <span>कौवे जंगल के पेड़ों पे नहीं </span><br/> <span>संसद और विधान सभा के </span><br/> <span>गुम्बदों पे काँव - काँव करते पाये जाते हैं </span><br/> <span>गौरैया </span><br/> <span>तो होती ही शिकार करने की खातिर </span><br/> <span>अब तो उसकी प्रजाति ही लुप्त होने का </span><br/> <span>खतरा मंडरा रहा है </span><br/> <span>बुलबुल - भी कम चहकती है </span><br/> <span>डर के मारे </span><br/> <span>लिहाज़ा - गौरैया और बुलबुल को तो </span><br/> <span>भूल ही जाओ </span><br/> <span>हाँ , गैंडे जरूर </span><br/> <span>उसी शान से </span><br/> <span>जंगल की जगह </span><br/> <span>राज पथ पे अरर्राते </span><br/> <span>देखे जा सकते हैं </span><br/> <span>उहें क्या फर्क पड़ता है </span><br/> <span>कि </span><br/> <span>वे जंगल में हैं </span><br/> <span>या राजपथ पे </span><br/> <span>लोमड़ियों ने कुत्तों के साथ दोस्ती कर ली है </span><br/> <span>लिहाज़ा वह भी खुश है </span><br/> <span>सियार रंग बदल बदल के इन लोगों </span><br/> <span>की हाँ में हाँ मिलाता है </span><br/> <span>गिरगिट रंग बदल बदल के </span><br/> <span>फार्म हाउसेस की </span><br/> <span>लताओं पे </span><br/> <span>चढ़ता उतरता रहता है </span><br/> <span>लिहाज़ा दोस्त </span><br/> <span>जंगल की अपनी </span><br/> <span>पुरानी अवधारणा को बदल डालो </span><br/> <span>जंगल में </span><br/> <span>पेड़ पौधे </span><br/> <span>और जानवर मत ढूंढो </span><br/> <span>क्यूँ की ये खतरनाक जानवर </span><br/> <span>इंसान की खतरनाक फितरत के </span><br/> <span>आगे दम तोड़ चुके हैं </span><br/> <span><br/></span> <span>मुकेश इलाहाबादी --------------</span></div>
<div dir="ltr"></div>
<div dir="ltr"><p>मौलिक और अप्रकाशित</p>
</div>
</div>माँ पढ़ लेती हैtag:openbooksonline.com,2015-07-10:5170231:BlogPost:6744792015-07-10T05:59:49.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>माँ पढ़ लेती है<br></br>अपनी मोतियाबिंदी आखों<br></br>और मोटे फ्रेम के चश्मे से<br></br>रामायण की चौपाइयां<br></br>हिंदी अखबार की<span class="text_exposed_show"><br></br>मुख्य मुख्य ख़बरें<br></br>यहाँ तक कि, <br></br>मोबाइल में<br></br>अंग्रेज़ी में लिखे नाम भी<br></br>पढ़ लेती हैं<br></br>कि यह छोटके का फ़ोन है<br></br>कि यह बड़के का फ़ोन है<br></br>कि बिटिया ने फ़ोन किया है<br></br>भले ही बड़ी बड़ी किताबें न पढ़ पाती हों <br></br>पर आज भी पढ़ लेती हैं<br></br>हमारा चेहरा<br></br>हमारा मन<br></br>हमारा दुःख<br></br>हमारी तकलीफ…</span></p>
<p>माँ पढ़ लेती है<br/>अपनी मोतियाबिंदी आखों<br/>और मोटे फ्रेम के चश्मे से<br/>रामायण की चौपाइयां<br/>हिंदी अखबार की<span class="text_exposed_show"><br/>मुख्य मुख्य ख़बरें<br/>यहाँ तक कि, <br/>मोबाइल में<br/>अंग्रेज़ी में लिखे नाम भी<br/>पढ़ लेती हैं<br/>कि यह छोटके का फ़ोन है<br/>कि यह बड़के का फ़ोन है<br/>कि बिटिया ने फ़ोन किया है<br/>भले ही बड़ी बड़ी किताबें न पढ़ पाती हों <br/>पर आज भी पढ़ लेती हैं<br/>हमारा चेहरा<br/>हमारा मन<br/>हमारा दुःख<br/>हमारी तकलीफ</span></p>
<div class="text_exposed_show"><p></p>
<p>मुकेश इलाहाबादी --</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>
<p></p>
</div>बिट्टोtag:openbooksonline.com,2015-07-10:5170231:BlogPost:6745962015-07-10T05:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>एक<br></br> ----<br></br> मेरा नाम बिट्टो है,<br></br> कल मेरे गाँव का मेला है <br></br> सब खुश हैं <br></br> मेरी सहेली चुनिया <br></br> कह रही थी वह अब की <br></br> कान के बुँदे और कंगन लेगी <br></br> गुड्डू कह रहा था <br></br> वह इस बार बाबू से कह के <br></br> मेले में नुमाइश देखेगा <br></br> मेरा छुटका भाई <br></br> बैट बाल लेगा <br></br> अम्मा अपना टूटा तवा बदलेंगी <br></br> बाबू कुछ नहीं लेंगे <br></br> और मै भी कुछ नहीं लूंगी <br></br> क्यों कि हमें मालूम है <br></br> उनके पास बहुत ज़्यादा पैसे नही हैं <br></br> मै सिर्फ चुपचाप मेला देख के आ जाऊँगी…<br></br></p>
<p>एक<br/> ----<br/> मेरा नाम बिट्टो है,<br/> कल मेरे गाँव का मेला है <br/> सब खुश हैं <br/> मेरी सहेली चुनिया <br/> कह रही थी वह अब की <br/> कान के बुँदे और कंगन लेगी <br/> गुड्डू कह रहा था <br/> वह इस बार बाबू से कह के <br/> मेले में नुमाइश देखेगा <br/> मेरा छुटका भाई <br/> बैट बाल लेगा <br/> अम्मा अपना टूटा तवा बदलेंगी <br/> बाबू कुछ नहीं लेंगे <br/> और मै भी कुछ नहीं लूंगी <br/> क्यों कि हमें मालूम है <br/> उनके पास बहुत ज़्यादा पैसे नही हैं <br/> मै सिर्फ चुपचाप मेला देख के आ जाऊँगी<br/> दो,<br/> ----<br/> मै बिट्टो <br/> मेरे बाबा दिहाड़ी पे गए हैं <br/> अम्मा भी काम पे गयी है <br/> लोगों के यहाँ चौक बासन करती है <br/> मै घर पे तब तक छुटके (भाई) को सम्हालती हूँ <br/> मै तीन क्लास तक पढ़ी हूँ <br/> पर इस बार मेरी पढ़ाई छुड़ा दी गयी <br/> छुटके को जो सम्भालना रहता है <br/> और माँ के न रहने पर पानी भरना <br/> झाड़ू बुहारू करना होता है <br/> रात बापू कह रहा था <br/> छुटके को अंगरेजी स्कूल में पढ़ाएगा <br/> चाहे जो हो जाए <br/> वैसे मेरा मन भी स्कूल जाने का होता है <br/> पर, तब छुटके को कौन संभालेगा ?<br/> तीन,<br/> ---<br/> वैसे तो मेरा नाम बिट्टो है <br/> पर पप्पू मुझे 'मेरी जान' कहता है <br/> मुझे ये अच्छा नहीं लगता <br/> वो देखता भी अजीब तरह से है <br/> मैंने ये बात अम्मा को बताई थी <br/> अम्मा ने मुझी को डांट दिया <br/> 'तो तू उसकी और देखती ही क्यूं है ?'<br/> मुझे ये बात बापू से बताने में <br/> शर्म आती है <br/> मै क्या करूँ ?<br/> वैसे पप्पू का 'मेरी जान' कहना अच्छा भी लगता है <br/> पर उसकी नज़रें बड़ी गंदी हैं '<br/> अरे ! मै भी कितनी देर से बातें करने में लगी हूँ <br/> चलूँ झाड़ू बुहारू कर लूँ <br/> वरना अम्मा आ के चिल्लाएँगी <br/> छुटका भी तो उठने वाला है <br/> उठते ही रोयेगा और कुछ खाने को मांगेगा<br/> अच्छा मै चलती हूँ फिर बात करूंगी</p>
<p></p>
<p>मुकेश इलाहाबादी ------------------------</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>
<p></p>सडक एक नदी है। बस स्टैण्ड एक घाट।tag:openbooksonline.com,2015-05-01:5170231:BlogPost:6491892015-05-01T04:57:05.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p> </p>
<p> सडक एक नदी है।<br></br>बस स्टैण्ड एक घाट।<br></br>इस नदी मे आदमी बहते हैं। सुबह से शाम तक। शाम से सुबह तक। रात के वक्त यह धीरे धीरे बहती है। और देर रात गये लगभग रुकी रुकी बहती है। पर सुबह से यह अपनी रवानी पे रहती है। चिलकती धूप और भरी बरसात मे भी बहती रहती है । भले यह धीरे धीरे बहे। पर बहती अनवरत रहती है।<br></br><br></br>सडक एक नदी है इस नदी मे इन्सान बहते हैं। सुबह से शाम बहते हैं। जैसा कि अभी बह रहे हैं।<br></br>बहुत से लोग अपने घरों से इस नदी मे कूद जाते हैं। और बहते हुये पार उतर जाते हैं। कुछ लोग…</p>
<p> </p>
<p> सडक एक नदी है।<br/>बस स्टैण्ड एक घाट।<br/>इस नदी मे आदमी बहते हैं। सुबह से शाम तक। शाम से सुबह तक। रात के वक्त यह धीरे धीरे बहती है। और देर रात गये लगभग रुकी रुकी बहती है। पर सुबह से यह अपनी रवानी पे रहती है। चिलकती धूप और भरी बरसात मे भी बहती रहती है । भले यह धीरे धीरे बहे। पर बहती अनवरत रहती है।<br/><br/>सडक एक नदी है इस नदी मे इन्सान बहते हैं। सुबह से शाम बहते हैं। जैसा कि अभी बह रहे हैं।<br/>बहुत से लोग अपने घरों से इस नदी मे कूद जाते हैं। और बहते हुये पार उतर जाते हैं। कुछ लोग अपने अपने जहाज ‘कार व मोटर’ मे बैठ कर इस नदी को पार करते हैं।<br/><br/>जैसे यह चौडा मोड इस नदी का एक घाट है। उसी तरह इस नदी के किनारे किनारे तमाम घाट हैं। लोग इस घाट पे इकठठा होते हैं फिर बहुत सी नावें आती हैं। जिसमे लद के ये लोग पार उतर जाते हैं या दूसरे घाट लग जाते हैं।<br/><br/>मै जब सुबह इस घाट पे अपनी नाव याने की बस पे बैठने के लिये पहुंचूंगा। तब तक न जाने कितनी नावें आके जा चुकी हांगी। न जाने कितने आदमी बह चुके होंगे इस नदी से इस घाट से इस चौडा मोड के घाट से। और न जाने कितने लोग बहने के लिये या उस पार जाने के लिये या कि किसी और घाट से लगने के इंतजार मे होंगे।<br/>सब हबबडी मे होंगे जल्दी मे होंगे।<br/>सिर्फ जल्दी नही होगी तो सडक की इस नदी से लगे चौडा मोड के इस घाट से लगे।<br/>पानी के रेहडी वाले को, जिसकी रेहडी गर्मी मे पानी की टंकी मे तब्दील हो जाती है। और जाडे मे मूंगफली व भेलपूरी के ठेले मे।<br/>नदी के किनारे यह पान वाला भी खडा रहेगा अपनी पान की गुमटी लगाये। इसे भी जल्दी नही रहती बल्कि यह दोनो तो किसी और घाट से बह के यहां आये होते हैं।<br/><br/>तीसरे उस ए टी एम संेटर के चौकीदार को जल्दी नही रहती। कहीं बहने की कहीं जाने की किसी घाट लगने की।<br/>दूर चौडा मोड के चौराहे पे खडे ट्ैफिक पुलिस वाले को भी कोई जल्दी नही रहती बहने की पर वह चाहता है कि बहने वाले जल्दी जल्दी बहते रहें और इसके लिये वह सीटी बजाता रहता है हाथ की पतवार चलाता रहता है।<br/><br/>इसके अलावा भूरे कुत्ते को भी जल्दी नही रहती, यानी की हडबडी नही रहती क्यूं की उसे कहीं आफिस, स्कूल या काम से जाना नही होता है। लिहाजा वह इसी बस स्टैंण्ड के आस पास, नही इस घाट के आस पास जमे कूडे को सूंघता भभोडता रहता है और अगर भरे पेट होगा तो आराम से आते जाते राहगीरों को जीभ निकाल के ताकता रहेगा और पूंछ हिलाता रहेगा। और शायद यह सोचता रहेगा कि तुम लोगों से तो अच्छा मै हूं जिसे कोई हडबडी नही है या कि कहीं भी बह के जाना नही है।<br/><br/>हॉ। इन सब के अलावा एक पागल अधबूढा है जिसे जल्दी नही रहती वो अपने कपडों पे तमाम चीथडे लपेटे ध्ूामता रहता है। कभी कभी राहगीरों से कुछ उल जलूल बक झक करता रहता है। और पान वाले से एक आध बीडी या सिगरेट ले के शहनशाहों की तरह पीता रहता है।<br/>कुछ लोग कहते हैं कि यह चौडा मोड का बस स्टैड जहां बना है और यह जो सडक है यह सब किसी जमाने मे इसके बाप दादों की थी जो मुआवजे मे चली गयी। यह करोडो का इकलौता वारिस था। और इसकी यह दशा इसकी प्रेमिका की वजह से हुयी है जो इसका सारा पैसा ले के किसी और प्रेमी के साथ भाग गयी है।<br/>यह पागल प्रेमी अक्सर इस चौडे घाट का इतिहास भी बताता है।<br/>बहर हाल लोग इसे पागल समझते हैं परे मुझे बातचीत मे पागल नही लगा। हालाकि वह भी अपने आपको ‘हिला हुआ स्टेशन’ मानता है।<br/><br/>पान वाला, रेहडी वाला, चौकीदर कुत्ता पागल और ट्रैफिक वाले के अलावा एक बूढी भिखारन भी इस घाट पे देखी जा सकती है या कि पयी जाती है। जो अपने आप को कभी बिहार तो कभी बंगाल तो कभी उडीसा की बताती है। सुना है उसका लडका उसे तीरथ कराने के लिये ले जा रहा था कि यह अपने बेटे से इसी सडक या कहें नदी के इसी घाट पे यानी की चौडा मोड के घाट पे बिछुड गयी थी। कुछ लोगों का मानना है कि इसका बेटा जान बूझ के अपनी इस बूढी मॉ से पिण्ड छुडाने के लिये यहां छोड के चला गया है। तब से यह यहां भीख मॉग के पेट भरती है। और रात जाने कहां सो रहती है। और दिन भर इस चौडा मोड के स्टैण्ड यानी कि घाट से अगले बस स्टैंड यानी की घाट के बीच मे बहती रहती है। जो कभी कभी किसी बस मे भी चढ जाती है और अगले स्टैड से उतर के फिर वापस आ जाती है। और इस तरह से यह बूढी भिखारन दो घाटों के बीच बहती रहती है। और इसे भी कोई जल्दी नही रहती बहने की।<br/>खैर ...<br/>इन सब के अलावा बस स्टैंण्ड के पास खडे आटो वाले इस इंतजार मे रहते हैं कि कोई तो उनकी नाव मे यानी की स्कूटर मे बैठे और वह भी बहना शुरु कर दें।<br/>अब मै भी चौडा मोड के बस स्टैंड पे, नही नही सडक की नदी के किनारे बने इस घाट पे पहुंच गया हूं। बहने के लिये।<br/>मेरे आने के पहले बहुत से बह चुके हैं। और कुछ बहने के इंतजार मे हैं। इनमे से ज्यादा तर जाने पहचाने चेहरे हैं। जो इसी घाट से रोज नदी पे उतरते है। और दूसरे घाट जा लगते हैं। फिर शाम उस घाट से इस घाट फिर लग जाते हैं।<br/>सुबह का वक्त है सभी हडबडी मे है। हडबडी मे तो शाम को भी होते हैं पर तब वे थके थके से होते हैं। पर बह अब भी रहे होते है। एक द्याट से दूसरे घाट के लिये।<br/><br/>इनमे ये जो छाता लिये बालों मे जूडा बनाये छोटे कद की पर सलोनी सी कुछ कुछ मोटी से लडकी है। यह मुझे अच्छी लगती है जितनी देर यह इस घाट पे अपने बस का या कहें नाव का इंतजार करती है। मै इसे कनखियों से देखा करता हू। यह एक साफटवेयर की कम्पनी मे रिसेप्सनिस्ट है। मै जानता हूं। एक दिन इत्तफाकन उसके आफिस पहुंच गया था। इसने मुझे पहचाना था। मै तो खैर पहचानता ही था। पर इसने मुझसे सिर्फ औपचारिक बात की और मैने भी। पर यह जरुर है कि उस दिन के बाद से कभी नजरे मिल जाती हैं तो ऑखों से और होंठों को हल्का जुम्बिस दे के एक दूसरे को पहचानने की बात करते हैं। बस । बस इतना ही है। परिचय। जबकि मै इस परिचय को और आगे बढाना चाहता हूं पर शायद यह कुछ कुछ मोटी सी सांवली सी और मुझे अच्छी लगने वाली लडकी ऐसा नही चाहती।<br/>खैर इसके जाने के पहले दो लडकियॉ या यूं कहें की सहेलियॉं या यूूूं कह सकते हो कि साथ पढने वाली लडकियां। जो कभी जीन्स टाप मे रहती तो कभी सलवार सूट मे आपस मे हसंती खिलखिलाती आती हैं और चली जाती हैं इनकी कालेज की बस आती है जो अपने वक्त से आ जाती है इन्हे ज्यादा देर इंतजार नही करना पडता जब कि मेेरी चाहत रहती है कि इनकी बस मेरी बस से देर से आया करे ताकि इनकी हंसी सुनते हुये इनकी बाते सुनते हुये इनको निहारते हुय इंतजार का वक्त कट जाये।<br/><br/>खैर इन सब के अलावा एक अधेड और उदास से चेहरे वाली औरत भी आयेगी इसी घाट पे इसी स्टैण्ड पे जो शायद किसी अस्पताल मे नर्स है।<br/>ऐसा नही है कि सर्फ स्त्रियॉ या लडकियॉ ही इस स्टैड पे आती हैं बल्कि वह मोटा सा थुलथूल और अधेड भी आयेगा जो कि पहले पान खायेगा फिर गुटका खरीदेगा फिर स्टैड पे खडा हो के उस उदास औरत को मतलब बेमतलब देखेगा। फिर बस आने पे बैठ के फुर्र हो जायेंगे। वह उदास औरत और वह आदमी देानो कई बार एक ही बस से आते जाते दिखें हैं।<br/>हालाकि आजकल ये उदास औरत कम उदास रहती है। शायद उस अधेड के साथ का असर है। हालाकि हमको इस सब से क्या। हमारी इस कविता से उस औरत की जिंदगी से क्या ?<br/>अक्सर इस घाट पे आने वाले लडके लडकियों और औरतों को देखते रहते हैं। औरतें कहीं और देखती रहती हैं। लडकियां अपने मोबाइल से खेलती रहती हैं। कुछ लडके कान मे इयर फोन लगा के गाना सुनते रहते हैं। और कुछ हम जैसे बेवजह इधर उधर देखते रहते हैं और तमाम होडिंग और साइन बोर्ड पढा करते हैं।<br/>खैर अब मेरी बस आ चुकी है। नही नही नाव आ चुकी है।<br/>जिसमे चढ के अपने घाट चलदूंगा।<br/>कल फिर इसी नदी मे बहने के लिये।<br/><br/>मुकेश इलाहाबादी ---------------------<br/><br/><br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>दुःख, सिर्फ दुःख होता हैtag:openbooksonline.com,2015-04-21:5170231:BlogPost:6438862015-04-21T07:01:59.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p></p>
<p>थोड़ी छाँव और <br></br>ज़्यादा धूप में बैठी <br></br>बुढ़िया भी <br></br>अपने<br></br>चार करेले और <br></br>दो गड्डी साग न बिकने <br></br>पर उतना दुखी नहीं हैं <br></br>जितना नगर श्रेष्ठि <br></br>नए टेंडर न मिलने पर है <br></br><br></br>कलुवा <br></br>हलवाई की भटटी <br></br>सुलगाते हुए अपने<br></br>हम उम्र बच्चों को फुदकते हुए <br></br>नयी नयी ड्रेस और बस्ते के साथ <br></br>स्कूल जाते देख भी उतना दुखी नहीं है <br></br>जितना सेठ जी का बेटा <br></br>रिमोट वाली गाड़ी न पा के है <br></br><br></br>प्रधान मंत्री जी <br></br>हज़ारों किसान के सूखे से <br></br>मर जाने की खबर…</p>
<p></p>
<p>थोड़ी छाँव और <br/>ज़्यादा धूप में बैठी <br/>बुढ़िया भी <br/>अपने<br/>चार करेले और <br/>दो गड्डी साग न बिकने <br/>पर उतना दुखी नहीं हैं <br/>जितना नगर श्रेष्ठि <br/>नए टेंडर न मिलने पर है <br/><br/>कलुवा <br/>हलवाई की भटटी <br/>सुलगाते हुए अपने<br/>हम उम्र बच्चों को फुदकते हुए <br/>नयी नयी ड्रेस और बस्ते के साथ <br/>स्कूल जाते देख भी उतना दुखी नहीं है <br/>जितना सेठ जी का बेटा <br/>रिमोट वाली गाड़ी न पा के है <br/><br/>प्रधान मंत्री जी <br/>हज़ारों किसान के सूखे से <br/>मर जाने की खबर से<br/>भी उतने दुखी नहीं हैं <br/>जितना कि <br/>मुकेश बाबू आज <br/>कविता न लिख पाने की वज़ह दुखी हैं <br/><br/>शायद ऐसा इसलिए है कि <br/><br/>दुःख,<br/>सिर्फ दुःख होता है <br/>जो सहन शक्ति के समानुपाती <br/>बड़ा और छोटा होता है <br/><br/> मुकेश इलाहाबादी -------</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>गौरैया खुश थीtag:openbooksonline.com,2015-03-23:5170231:BlogPost:6336942015-03-23T06:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>गौरैया</p>
<p>खुश थी</p>
<p>चोंच मे सतरंगी सपने लिये</p>
<p>आसमान मे उड रही थी</p>
<p>उधर,</p>
<p>गिद्ध भी खुश था</p>
<p>गौरैया को देखकर</p>
<p>उसने अपनी पैनी नजरे गडा दी</p>
<p>मासूम गौरैया पे,</p>
<p>और दबोचना चाहा अपने खूनी पंजे मे</p>
<p>गौरैया, घबरा के भागी पर कितना भाग पाती ??</p>
<p>आखिर,</p>
<p>गिद्ध के पंजे मे आ ही गयी</p>
<p>गौरैया फडफडा रही थी, रो रही थी</p>
<p>गिद्ध खुश था अपना शिकार पा के</p>
<p>कुछ देर बाद</p>
<p>गौरैया अपने नुचे और टूटे पंखों के साथ</p>
<p>लहूलुहान जमीं पे पडी…</p>
<p>गौरैया</p>
<p>खुश थी</p>
<p>चोंच मे सतरंगी सपने लिये</p>
<p>आसमान मे उड रही थी</p>
<p>उधर,</p>
<p>गिद्ध भी खुश था</p>
<p>गौरैया को देखकर</p>
<p>उसने अपनी पैनी नजरे गडा दी</p>
<p>मासूम गौरैया पे,</p>
<p>और दबोचना चाहा अपने खूनी पंजे मे</p>
<p>गौरैया, घबरा के भागी पर कितना भाग पाती ??</p>
<p>आखिर,</p>
<p>गिद्ध के पंजे मे आ ही गयी</p>
<p>गौरैया फडफडा रही थी, रो रही थी</p>
<p>गिद्ध खुश था अपना शिकार पा के</p>
<p>कुछ देर बाद</p>
<p>गौरैया अपने नुचे और टूटे पंखों के साथ</p>
<p>लहूलुहान जमीं पे पडी थी</p>
<p>उसके सतरंगी सपने बिखरे पड़े थे</p>
<p></p>
<p>अभी भी उपर, नीले नही लाल आसमान मे</p>
<p>कुछ और गौरैया उड रही हैं</p>
<p>चोंच मे अपने सतरंगी सपने दबाये</p>
<p>जबकि कुछ और गिद्ध बेखौफ उड रहे हैं</p>
<p>अपना शिकार पाने के लिये</p>
<p></p>
<p>मुकेश इलाहाबादी ---------------</p>
<p>(मौलिक एवं अप्रकाशित)</p>पहाड़ और पीठtag:openbooksonline.com,2015-02-13:5170231:BlogPost:6166332015-02-13T06:54:06.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p> </p>
<p>पहाड़ और पीठ<br></br><br></br>एक<br></br><br></br>पहाड़,<br></br>सिर्फ पीठ होता है <br></br>मुह होता तो बोलता <br></br>पहाड़ के पैर भी नही होते<br></br>हाथ भी <br></br>वरना वह चलता<br></br>कुछ करता या, <br></br>उठता बैठता भी<br></br>पहाड़, अपनी पीठ पर<br></br>लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,<br></br>हरी भरी झील भी<br></br>सड़क और बस्तियां भी<br></br>और कुछ नही बोलता<br></br>क्यों कि,<br></br>पहाड़ सिर्फ पीठ है<br></br>और पीठ कुछ नही बोलती<br></br><br></br>दो,<br></br><br></br>पीठ,<br></br>पहाड़ नही होती <br></br>पर लाद लेती है पहाड़<br></br>पीठ के भी मुह नही होता <br></br>पहाड़ की तरह होती है एक…</p>
<p> </p>
<p>पहाड़ और पीठ<br/><br/>एक<br/><br/>पहाड़,<br/>सिर्फ पीठ होता है <br/>मुह होता तो बोलता <br/>पहाड़ के पैर भी नही होते<br/>हाथ भी <br/>वरना वह चलता<br/>कुछ करता या, <br/>उठता बैठता भी<br/>पहाड़, अपनी पीठ पर<br/>लाद लेता है तमाम जंगल नदी नाले,<br/>हरी भरी झील भी<br/>सड़क और बस्तियां भी<br/>और कुछ नही बोलता<br/>क्यों कि,<br/>पहाड़ सिर्फ पीठ है<br/>और पीठ कुछ नही बोलती<br/><br/>दो,<br/><br/>पीठ,<br/>पहाड़ नही होती <br/>पर लाद लेती है पहाड़<br/>पीठ के भी मुह नही होता <br/>पहाड़ की तरह होती है एक सतह,<br/>जो थपथपायी जाती है<br/>पहाड़ लाद लेने के एवज में, <br/>यही पीठ गोरी व चिकनी है तो फिसलती हैं <br/>नजरें व हांथ भी और, द आते हैं पहाड़ <br/>और उग आते हैं आखों के जंगल खुंखार व भयावह<br/>यही पीठ सख्त और मजबूत है तो <br/>नही दिखा सकती पीठ<br/>तमाम नस्तर व खंजर लगने के बाद भी क्यूंकी,<br/> पीठ पर पहाड़ होते हैं,<br/>और पहाड़ के मुह नही होता <br/>और पीठ के भी<br/><br/>मुकेश इलाहाबादी -------------</p>
<p></p>
<p>मौलिक और अप्रकाशित</p>साँझ होते ही सो जाता हूँ अतीत की चादर ओढ़ कर,tag:openbooksonline.com,2014-11-25:5170231:BlogPost:5902302014-11-25T11:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>साँझ होते ही<br></br> सो जाता हूँ<br></br> अतीत की चादर<br></br> ओढ़ कर,<br></br> बेसुध<br></br> न जाने कब<br></br> चादर विरल होने लगती है<br></br> इतनी विरल कि<br></br> चादर तब्दील हो जाती है<br></br> एक खूबसूरत बाग़ में<br></br> जिसमे तुम मुस्कुराती हो<br></br> फूल बन कर<br></br> और मै मंडराता हूँ<br></br> भँवरे सा<br></br> तुम इठलाती,<br></br> इतराती रात भर,<br></br> तो कभी ऐसा भी हुआ<br></br> जब मै बृक्ष बन उग आता हूँ<br></br> और तुम, बेल बन लिपट जाती हो<br></br> मै हँसता हूँ तुम मुस्कुराती हो<br></br> फिर तुम चाँद बन जाती हो<br></br> और मै - चकोर<br></br> और मै लगाने लगता…</p>
<p>साँझ होते ही<br/> सो जाता हूँ<br/> अतीत की चादर<br/> ओढ़ कर,<br/> बेसुध<br/> न जाने कब<br/> चादर विरल होने लगती है<br/> इतनी विरल कि<br/> चादर तब्दील हो जाती है<br/> एक खूबसूरत बाग़ में<br/> जिसमे तुम मुस्कुराती हो<br/> फूल बन कर<br/> और मै मंडराता हूँ<br/> भँवरे सा<br/> तुम इठलाती,<br/> इतराती रात भर,<br/> तो कभी ऐसा भी हुआ<br/> जब मै बृक्ष बन उग आता हूँ<br/> और तुम, बेल बन लिपट जाती हो<br/> मै हँसता हूँ तुम मुस्कुराती हो<br/> फिर तुम चाँद बन जाती हो<br/> और मै - चकोर<br/> और मै लगाने लगता हूँ टेर<br/> पिऊ , पिऊ की<br/> और तभी, सारा जादुई आलम<br/> फिर से सघन होकर<br/> तब्दील हो जाता है चादर में<br/> जिसे फिर से सहेज<br/> रख देता हूँ सिरहाने<br/> रात फिर ओढ़ सो जाने को<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी --------</p>
<p>(मौलिक/अप्रकाशित)</p>मेरे पास, थोडे से बीज हैंtag:openbooksonline.com,2014-11-20:5170231:BlogPost:5890122014-11-20T09:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>मेरे पास,<br></br> थोडे से बीज हैं<br></br> जिन्हे मै छींट आता हूं,<br></br> कई कई जगहों पे<br></br> <br></br> जैसे,<br></br> <br></br> इन पत्थरों पे,<br></br> जहां जानता हूं<br></br> कोई बीज न अंकुआयेगा<br></br> फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज<br></br> इस उम्मीद से, शायद<br></br> इन पत्थरों की दरारों से<br></br> नमी और मिटटी लेकर<br></br> कभी तो कोई बीज अंकुआएगा<br></br> और बनजायेगा बटबृक्ष<br></br> इन पत्थरों के बीच<br></br> <br></br> कुछ बीज छींट आया हूं<br></br> उस धरती पे,<br></br> जहां काई किसान हल नही चलाता<br></br> और अंकुआए पौधों को<br></br> बिजूका गाड़ कर<br></br> परिंदो से…</p>
<p>मेरे पास,<br/> थोडे से बीज हैं<br/> जिन्हे मै छींट आता हूं,<br/> कई कई जगहों पे<br/> <br/> जैसे,<br/> <br/> इन पत्थरों पे,<br/> जहां जानता हूं<br/> कोई बीज न अंकुआयेगा<br/> फिर भी छींट देता हूं कुछ बीज<br/> इस उम्मीद से, शायद<br/> इन पत्थरों की दरारों से<br/> नमी और मिटटी लेकर<br/> कभी तो कोई बीज अंकुआएगा<br/> और बनजायेगा बटबृक्ष<br/> इन पत्थरों के बीच<br/> <br/> कुछ बीज छींट आया हूं<br/> उस धरती पे,<br/> जहां काई किसान हल नही चलाता<br/> और अंकुआए पौधों को<br/> बिजूका गाड़ कर<br/> परिंदो से नही बचाता<br/> जानता हूं, फिर भी<br/> कुछ बीज अपने आप<br/> पृकृति से हवा पानी<br/> लेकर लहलहाएंगे<br/> जंगली ही सही<br/> कुछ फलफूल तो आयेंगे<br/> <br/> कुछ बीज छींट आया हूं<br/> बाल्कनी मे रखे गमलों मे<br/> जिन्हे कोई रोज अपने हाथों से<br/> निराई गुडाई करता है<br/> और देता है जलार्ध्य<br/> जिनमे निष्चित ही उगेंगे<br/> कुछ खूबसूरत फल फूल<br/> और बोन्साई<br/> <br/> लेकिन,<br/> अभी भी कुछ बीज बच रहे हैं<br/> जिनके लिये तलाश है<br/> एक उर्वरा और तैयार भूमि की<br/> एक समर्पित किसान की<br/> <br/> और,<br/> कुछ बीज अपने अंदर भी रोप लिये हैं<br/> अंकुआने के लिय,<br/> कुछ और बीज इकटठा करने के लिये<br/> .</p>
<p></p>
<p>मुकेश इलाहाबादी <br/> मौलिक और अप्रकाशित</p>आईना तो सच दिखा रहा थाtag:openbooksonline.com,2014-11-17:5170231:BlogPost:5884292014-11-17T05:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>आईना तो<br></br> सच दिखा रहा था<br></br> जाला,<br></br> हमारी ही आखों में था<br></br> <br></br> दुनिया जिसे<br></br> बेदाग़ समझती रही<br></br> धब्बा,<br></br> उसी केे दामन में था<br></br> <br></br> वो बहुत पहले की बात है<br></br> जब लोग<br></br> दो रोटी और दो लंगोटी में<br></br> खुश रहा करते थे<br></br> <br></br> तुम<br></br> ये जो राजपथ देखते हो<br></br> कभी वहां पगडंडी<br></br> हुआ करती थी<br></br> और एक<br></br> छांवदार पेड भी हुआ करता था<br></br> <br></br> ये तब की बात है<br></br> जब लोग<br></br> धन में नही धर्म में<br></br> आस्था रखा करते थे<br></br> <br></br> खैर छोडो मुकेश बाबू<br></br> इन बातों…</p>
<p>आईना तो<br/> सच दिखा रहा था<br/> जाला,<br/> हमारी ही आखों में था<br/> <br/> दुनिया जिसे<br/> बेदाग़ समझती रही<br/> धब्बा,<br/> उसी केे दामन में था<br/> <br/> वो बहुत पहले की बात है<br/> जब लोग<br/> दो रोटी और दो लंगोटी में<br/> खुश रहा करते थे<br/> <br/> तुम<br/> ये जो राजपथ देखते हो<br/> कभी वहां पगडंडी<br/> हुआ करती थी<br/> और एक<br/> छांवदार पेड भी हुआ करता था<br/> <br/> ये तब की बात है<br/> जब लोग<br/> धन में नही धर्म में<br/> आस्था रखा करते थे<br/> <br/> खैर छोडो मुकेश बाबू<br/> इन बातों से क्या फायदा<br/> आओ काम की बातें करें<br/> या फिर<br/> क्रिकेट, मौसम या सटटाबाजार<br/> पे तजकरा करें<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी ...............</p>वो घर ग़मज़दा थाtag:openbooksonline.com,2014-07-13:5170231:BlogPost:5589552014-07-13T17:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>वो घर ग़मज़दा था<br/> ग़म का मैक़दा था<br/> <br/> कुछ चिंगारियां थी<br/> बाकी तो धुंआ था<br/> <br/> हवा की सरसराहट<br/> अजब सन्नाटा था<br/> <br/> दरो दीवार सीली थी<br/> वो रात भर रोया था<br/> <br/> शक इक वज़ह थी<br/> घर बिखर गया था<br/> .<br/> मुकेश इलाहाबादी ---</p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित</p>
<p>वो घर ग़मज़दा था<br/> ग़म का मैक़दा था<br/> <br/> कुछ चिंगारियां थी<br/> बाकी तो धुंआ था<br/> <br/> हवा की सरसराहट<br/> अजब सन्नाटा था<br/> <br/> दरो दीवार सीली थी<br/> वो रात भर रोया था<br/> <br/> शक इक वज़ह थी<br/> घर बिखर गया था<br/> .<br/> मुकेश इलाहाबादी ---</p>
<p>मौलिक/अप्रकाशित</p>मेरे वज़ूद की ज़मीं पेtag:openbooksonline.com,2014-06-22:5170231:BlogPost:5512792014-06-22T11:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>मेरे वज़ूद की<br/> ज़मीं पे<br/> उग आये हैं<br/> यादों के तमाम<br/> कैक्टस और बबूल<br/> जो लम्हा - लम्हा<br/> छलनी करते जा रहे हैं<br/> मेरे जिस्मो जाँ को<br/> <br/> और अब<br/> <br/> मेरे जिस्म पे<br/> छप गयी है<br/> नीली स्याही से<br/> एक उदास नज़्म<br/> किसी गोदने की तरह<br/> <br/> जो मेरी,<br/> पहचान बनती जा रही है<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी -----<br/> (मौलिक/अप्रकाशित)</p>
<p>मेरे वज़ूद की<br/> ज़मीं पे<br/> उग आये हैं<br/> यादों के तमाम<br/> कैक्टस और बबूल<br/> जो लम्हा - लम्हा<br/> छलनी करते जा रहे हैं<br/> मेरे जिस्मो जाँ को<br/> <br/> और अब<br/> <br/> मेरे जिस्म पे<br/> छप गयी है<br/> नीली स्याही से<br/> एक उदास नज़्म<br/> किसी गोदने की तरह<br/> <br/> जो मेरी,<br/> पहचान बनती जा रही है<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी -----<br/> (मौलिक/अप्रकाशित)</p>खामोश दरियाtag:openbooksonline.com,2014-05-27:5170231:BlogPost:5447492014-05-27T12:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
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<p>एक ---<br></br> <br></br> मेरे, उसके बीच<br></br> बहता है<br></br> एक खामोश दरिया<br></br> जिस पे कोई पुल नहीं है<br></br> चाहूँ तो<br></br> शब्दों के खम्बो<br></br> वादों के फट्टों का<br></br> पुल खड़ा कर सकता हूँ<br></br> मगर<br></br> मुझे अच्छा लगता है<br></br> दरिया में<br></br> उतारना खामोशी से<br></br> और फिर<br></br> डूबते उतरते<br></br> उतर जाना उस पार<br></br> <br></br> दो ----<br></br> <br></br> अनवरत<br></br> चल रहा हूँ<br></br> नापता<br></br> शब्दों की सड़क<br></br> ताकि पहुंच सकूँ<br></br> अंतिम छोर तक<br></br> कूद जाने के लिए<br></br> एक खामोश समंदर में<br></br> हमेशा हमेशा के…</p>
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<p>एक ---<br/> <br/> मेरे, उसके बीच<br/> बहता है<br/> एक खामोश दरिया<br/> जिस पे कोई पुल नहीं है<br/> चाहूँ तो<br/> शब्दों के खम्बो<br/> वादों के फट्टों का<br/> पुल खड़ा कर सकता हूँ<br/> मगर<br/> मुझे अच्छा लगता है<br/> दरिया में<br/> उतारना खामोशी से<br/> और फिर<br/> डूबते उतरते<br/> उतर जाना उस पार<br/> <br/> दो ----<br/> <br/> अनवरत<br/> चल रहा हूँ<br/> नापता<br/> शब्दों की सड़क<br/> ताकि पहुंच सकूँ<br/> अंतिम छोर तक<br/> कूद जाने के लिए<br/> एक खामोश समंदर में<br/> हमेशा हमेशा के लिए<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी ----------</p>
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<p><br/> -मौलिक एवं अप्रकाशित।</p>
<p></p>पहाड़ और स्नो व्हाइटtag:openbooksonline.com,2014-05-04:5170231:BlogPost:5372382014-05-04T08:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p><span class="font-size-1">(बर्फ सी उजली व नीली ऑखों वाली नील मैम को यह कहानी नज़र करता हूं। जो तन व मन से खूबसूरत तो हैं ही, और जिनकी खूबसूरत उंगलियां पत्थरों मे भी जान ड़ाल देती हैं। जिन्हें आज भी कामशेत पूणे की वादियों में देखा जा सकता है। उन्ही की जिंदगी से यह कहानी चुरायी है।’)</span><br></br> <br></br> आज भी - दिवाकर अपने सातों रंग समेट मेज पे पसरा है । पहाड़ खिला है । हरे, भूरे, मटमैले रंगो मे अपनी पूरी भव्यता के साथ । रोज सा। मानो सातो रंग छिटक दिये गये हों एक एक कर। इंद्र धनुष…</p>
<p><span class="font-size-1">(बर्फ सी उजली व नीली ऑखों वाली नील मैम को यह कहानी नज़र करता हूं। जो तन व मन से खूबसूरत तो हैं ही, और जिनकी खूबसूरत उंगलियां पत्थरों मे भी जान ड़ाल देती हैं। जिन्हें आज भी कामशेत पूणे की वादियों में देखा जा सकता है। उन्ही की जिंदगी से यह कहानी चुरायी है।’)</span><br/> <br/> आज भी - दिवाकर अपने सातों रंग समेट मेज पे पसरा है । पहाड़ खिला है । हरे, भूरे, मटमैले रंगो मे अपनी पूरी भव्यता के साथ । रोज सा। मानो सातो रंग छिटक दिये गये हों एक एक कर। इंद्र धनुष आसमान से उतर पहाड़ पे पसर गया हो।<br/> बादल पेड़ डै़म सभी खामोश हैं सिवाय शोख चंचल गिलहरी के जो अक्सर पेड़ की ड़ालियों पे फुदकती हुयी चुकचुकाती है।<br/> यहां तक कि पहाड़ भी चुप है। पर है मन ही मन खिला खिला। मौन मैने ही तोड़ा ‘दोस्त - हर रोज शुरू होती है, अन्तहीन यात्रा। सुबह देखे सपनो के साथ। उम्मीदो के साथ, सपने सच होने के। किन्तु पल पल वक्त गुजरता है । रोशनी बढ़ती जाती है। छिन छिन सपने धुंधलाते जाते हैं। अंधेरा बढता जाता है। सूरज सर पे आता है। अंधेरा पूरी तरह फ़ैल जाता है। सपने शून्य मे खो जाते हैं। आंखो मे सपने नही अंधेरा होता है। वक्त अपनी रफ़तार से बढता जाता है। अंदर का अंधे रा बाहर आने लगता है। सूरज अपनी मांद मे छिपता जाता है। अंधेरा अंदर व बाहर दोनो जगह घिरता जाता है। दिन मे टूटे सपने फिर जुड़ने लगते हैं। नये सपने बुनने के लिये। आज तुम्हारी ऑखो मे भी देख रहा हूं एक हंसी । चेहरे पे मुस्कराहट । क्या तुम्हारा कोई सपना सच हो गया है। या कोई हंसी सपना देखा है।’<br/> ‘दोस्त- दुनिया एक सपना है। सपने ही दुनिया है। सपने हैं इसीलये दुनिया है। सपने न होते दुनिया न होती। क्योंकि सपना ही र्वतमान है, सपना ही भूत है, सपना ही भविष्य है। सपने, बनते हैं जिजिविषा जीने की। सपने खत्म, जीवन खत्म। रही बात मेरी तो जान लो।<br/> पत्थर सपने नही देखते। मै भी नही देखता। हां सपने देखने वालों को जरुर देखा है। सपनो को टूटते देखा है। आओ मै सुनाता हुं तुम्हे एक कहानी ।<br/> एक बुढिया की<br/> जो कभी एक औरत थी एक लडकी थी<br/> जो आज भी सपने बुनती है।<br/> उसी शिद्दत से जिस शिद्दत से, उसने सपने बुने थे बचपन मे जवानी मे।<br/> तो सुनो<br/> मैने अपने कान पहाड की शांत चोटियों से लगा दिये। और ऑखों को चटटानो से चिपका दी।<br/> दूर घाटियों से पहाड़ के शब्द उभरने लगे।<br/> कल्पना करो<br/> यहां से दूर बहुत दूर। सागर किनारे। खूबसूरत जगह गोवा मे एक बहोत बडे रईस की एक खूबसूरत सी लडकी की। गोरा रंग नाटा कद। सुतवा नाक, साधारण पर बेहद आर्कषित करने वाली नीली आखें । कोमल शरीर । चंचल और शोख ।<br/> नाम कुछ भी रख लो। वैसे तो हर लडकी की लगभग एक सी कहानी होती है। खैर मैने तो उसका नाम स्नो व्हाइट रखा है। हो सकता है उसका नाम कुछ और हो। पर मुझे यही नाम उसके लिये सबसे अच्छा और उपयुक्त लगा। इसीलिये मै उसको स्नोव्हाइट कहके पहचानता हूं।<br/> <br/> स्नो व्हाइट एक किशोरी । पतली दुबली छोटी काया। कांधे पे लहराते घुंघराले लम्बे बाल, बादलों के माफ़ि़क। न जाने कब बरस जांये। आंखे उफनते झरने। सागर किनारे लहरो सी दौडती, उछलती। कभी रेत मे औंधे लेट, गहरी नीली आंखों से देखना दूर तक, दूर तलक जहां जमीन व आकाश एकाकार होते है। स्नो व्हाइट उस बिंदु को देखती रहती देखती रहती देर तक और देर तक न जाने कब तक। न जाने क्या सोचती फिर उठती और फुदकने लगती सागर किनारे। घरौंदे बनाती रेत पे। सजाती संवारती। अभी पूरी तरह खुश भी न हो पाती अचानाक लहर आती। स्नो व्हाइट भीग जाती। घरौंदा बह जाता। वह उदास होती। वह खुष होती और फिर उसी शिद्दत से लग जाती घरौंदा बनाने में। सूर्य किरणें उसके गोरे मुखडे को रक्ताभ कर देती।स्वेत जलकण गालों को भिगो देते। कुछ रजकण अलकावलिया संवारने के दौरान गालो से चिपक उसकी ख़ूबसूरती को हजारहा गुणा करदेते। पर वह इन सब से बेखबर सुंदर गुड़िया सी पूरी तन्मयता से लगी रहती बार बार रेतघर बनाने मे। <br/> बेखबर इस बात से कि कोई किषोर उसे दूर से देखता रहता है और अभी भी देख रहा है।<br/> अचानक।<br/> किषोर स्नो व्हाइट के बगल आ खडा होता है।<br/> ‘क्या मै तुम्हारे साथ खेल सकता हूं स्नो व्हाइट’<br/> कमल सी आखें किशोर की ऑखो से मिली। बांहो से उसने लटो को पीछे धकेला। ‘हां हां क्यों नही जॉन’।<br/> बस, दोनो खेलने लगे साथ साथ। हंसने लगे एक साथ।<br/> अब दोनों, अक्सर रेत किनारे दिख जाते। दौडते। भागते। खेलते । उब जाते तो लड़का समुद्र मे छलांगे लगा दूर तक तैरता निकल जाता। लहरों के साथ वहां तक जहां धरती व आकाष मिलते हैं या मिलते से महसूस होते हैं। लड़की वहीं किनारे रेतघर बनाती रहती।<br/> ‘इस तरह क्या देख रहे हो जॉन’<br/> ‘कुछ नही स्नो बस देख रहा हूं तुम कितनी सुंदर हो। बिलकुल परी जैसी’<br/> ‘हां मै परी ही तो हूं। बिना परों की। पर तुम देखना एक दिन मै जरुर उड़ कर आसमान मे चली जाउंगी दूर बहुत दूर ।’<br/> ‘कहां.. चॉद पे’<br/> ‘हां चॉद पे चली जाउंगी’<br/> ‘कोई बात नही मै भी इन समुद्र की लहरो पे चलता हुआ तुम तक पहुंच जाउंगा’<br/> स्नो हंसती है। चांदनी छिटक जाती है।<br/> ‘लहरों पे चलके तुम मुझतक कैसे पहुचोगे ?’<br/> ‘पूर्णिमा को जब ज्वार भाटा आयेगा तो लहरें उंची उठ कर मुझको तुम तक पहुंचा देंगी’<br/> दोनो हंसते हैं । गडड मडड होते हैं। लहर और चांदनी हो जाते हैं।<br/> चॉद सरमा के मुंह छुपा लेता है।<br/> ताड़ ब्रक्ष भी लहरों से झूमते हैं।<br/> खामोशी --<br/> ‘जान, देखो सागर कितना सुंदर है’<br/> ‘हां, सागर है तो सुन्दर है’<br/> ‘क्यों, क्या सागर मे तुम्हे कोई सुंदरता नही दिखायी पड़ती। इन लहरों मे तुम्हे कोई संगीत नही सुनाई पड़ता। इन पेड़ों मे कोई रुहानी खुशबू नही महसूस होती’<br/> ‘स्नो, तुम इतनी भावुक क्यों हो ? यह सब तो जिंदगी के हिस्से हैं। आओ मेरी बाहों मे देखो कितना आनंद है। स्नो को अपने मे घेर लेता है। वह भी गोद मे छुप जाती है। गौरैया सी।<br/> लड़की। सपना। घरौंदा।<br/> सचमुच का घरौंदा । और ढेर सारी रेत। रेत के किनारे फैला मीलों लम्बा समुद्र। समुद्र में लहरे। लहरों पे फ़ैली चांदनी। चांदनी के साथ साथ उड़ते स्नो और जॉन। दूर तक दूर तक। चांद तक। सितारों तक सितारों के पार तक।<br/> सपना सच हुआ। चांद और चांदनी एक हुए।<br/> पर कुछ दिन बाद।<br/> लड़का लोहे के बडे़ बड़े जहाज पे चढ़, लहरों पे उड़ते हुए चला गया, दूर बहुत दूर। उससे भी बहुत दूर जहां धरती व आकाष मिलते हैं। या मिलते हुए प्रतीत होते हैं।<br/> लड़की। रेत। घरौंदा।<br/> इंतजार। मीलो लम्बा इंतजार। समुद्र सा लम्बा व अंतहीन। स्नो रोज आती सागर किनारे। सागर को देखती, लहरों को देखती उनसे अपने जान के बारे में पूंछती पर लहरें हरहरा के रह जाती और उसके बनाये घरोंदे को मिटा जातीं। स्नो फिर आती दूसरे दिन पर जान न आता। महज इंतजार इतंजार और इंतजार। और एक दिन। वह थक कर उड़ चली हवाई जहाज पे। परिचारिका बन। हवाई जहाज जब कभी, बादलों के पार जाता तो वह अपनी पलके फाड़ फाड़ बाहर देखती, षायद जॉन चॉंदनी की लहरों पे सवार हो उससे पहले आ उसके लिये घरौंदा बना रहा हो। पर हर बार उसे निराशा ही मिलती।<br/> उम्मीद भरी ऑखों मे अश्रुकण झिलमिला आते।<br/> धीरे धीरे, स्नो की ऑखो के सपने धुधंलाने लगे। आसूं सूखने लगे। वह फिर से मुस्कुराने लगी।<br/> उसने यह सोच तसल्ली कर ली की शायद जॉन उसके लायक ही न रहा हो। या वह ही उसके लायक न रही हो। या उससे कोई भूल हो गयी हो। कारण जो भी रहा हो पर जॉन वापस नही आया। षायद वापस आने के लिये गया भी नही था’<br/> कुछ पल के लिये मौन।<br/> ‘इस तरह स्नो व्हाइट की जिंदगी का पहला बौना रस लेकर उड़ गया था।’<br/> पहाड़ ने लम्बी सांस ली।<br/> मैने भी ।<br/> पहाड़ चुप, उदास ऑखो से अनंत आकाश को देखता। मेरी उत्सुक निगाहें आगे जानने को व्याकुल। कहने लगी लगं।<br/> ‘दोस्त, आगे तो बोलो’<br/> पहाड़ कुछ देर सोचता रहा।<br/> बोला ‘स्नो, जॉन के बिरह मे तपती, गलती हंसती तो रहती पर अक्सर चुप ही रहती। किसी से कुछ न कहती। खोयी खोयी सी रहती।<br/> फिर भी उन खोयी खोयी सी उदास ऑखों मे न जाने कौन सा जादू रहता कि देखने वाला स्नो को देखता ही रह जाता। पर वह इन सब से बेखबर अपनी ही दुनियो मे डूबी रहती।’ <br/> फिर एक दिन।<br/> स्नो हमेश की तरह हवाई परिचारिका की ड्रेस मे सजी धजी। रुई से बादलों के बीच से उड़ रही थी। लोग उसे उड़न परी बोला करते। कारण वह सभी यात्रियो व सहायको के काम व फरमाईशो को बड़ी तत्परता से मुष्कुराते हुए करती रहती। खूबसूरत तो वह थी ही।<br/> एक राजकुमार की नजरें उससे मिली। राजकुमार वाकई किसी देष का राजकुमार था। देखते ही स्नो की खूबसूरती पे मर मिटा। न जाने कब।<br/> औपचारिक बातें अनौपचारिता मे बदल गयी।<br/> स्नो राजकुमार के महल मे रहने लगी।<br/> फूल से कोमल व रुई से हल्के बादलों को उसने अलबिदा कह दिया।<br/> बादल स्नो से बिछड़ के खुश तो न थे पर स्नो की खुशी मे वह खुश थे।<br/> स्नो एक बार फिर अपने नये घरौंदे मे खुश थी। <br/> दिन हंसी खुषी बीत रहे थे। इन्ही हंसी खुशी के दिनो मे ही कब।<br/> घरौंदर। रेत का पिंजड़ा बन गया। <br/> स्नो को पता ही न लगा।<br/> उड़न परी के पर न जाने कब कट चुके थे। दुनियादार राजकुमार देष दुनिया के कामो मे व्यस्त रहने लगा। स्नो कभी कुछ कहती तो हंस के कहता ‘स्नो तुम्हे दुख किस बात का है। तुम्हे जो चाहिये वह सब कुछ मंगा सकती हो किसी बात की कमी हो तो बोलों हां यह जरुर है कि एक रानी होने के नाते तुम्हारे कहीं आने जाने व बोलने बतियाने मे कुछ प्रतिबंध तो रहेंगे ही। और तुम तो जानती ही हो शाशन चलाना इतना आसान नही है। इसलिये तुम मेरा हर समय इंतजार न किया करो।’<br/> झील सी आखें उफना जाती।<br/> उड़न परी को याद आने लगता। सागर की उन्मुक्त लहरें। मीलो लम्बे फैले रेत पे बेलौस दौड़ना।<br/> और घरौंदे बनाना।<br/> घरौंदा रेत का ही होता पर बनाती तो वह अपने ही हिसाब से थी।<br/> याद आने लगती बादलों की। चिड़िया सा परी सा फुदक के उड़ जाना आज इस देष मे तो कल उस देश मे। कितना मजा था। कितना आनंद था। <br/> स्नो ने एक बार फिर अपने कटे पर अलमारी से निकाले। साफ किया पिंजड़े को छोड़ उड़ चली। अनंत आकाश मे।<br/> बादलों ने एक बार फिर अपनी प्यारी उड़नपरी का दिल खोल कर स्वागत किया पर बादल परी के राजकुमार से अलग होने से कुछ उदास हो गये थे।<br/> इस बार स्नो बादलों से कहती। ‘तुम लोग क्यों उदास होते हो। घरौंदा तो मेरा टूटा है पर मै तो उदास नही हूं।’<br/> आंसुओं को पीते हुए आगे कहती ‘दोस्त घरौंदे तो होते ही हैं टूटने के लियें। गलती मेरी ही है जौ मैने घर की जगह घरौंदो को पसंद करती हूं।’<br/> यह कह के खिलखिला के हंस देती।<br/> बादल भी मुस्कुरा देते। पर अंदर का र्दद दोनो ही महसूसते।<br/> यह कह पहाड़ चुप हो गया।<br/> आगे का वाक्य मैने ही पूरा किया। ‘और इस तरह स्नो की जिंदगी का दूसरा बैना रस लेकर चला गया था।’<br/> पहाड़ की ऑखे मुझे देखती हैं। मेरी ऑखे उसकी आखों को।<br/> लंबा मौन, लंबी सॉस<br/> और चंद शब्द , बस कहानी ख़त्म।<br/> स्नो,<br/> घरौंदे बनाती रही।<br/> घरौंदे टूटते रहे।<br/> बौने जिंदगी मे आते रहे।<br/> बौने जिंदगी से जाते रहे।<br/> एक दिन वह बौनो से उब के यहीं मेरे पैरों तले सचमुच का घरौदा बना रहने लगी है। अब वह बस उसीको सजाती है। संवारती है। उसी मे खुश रहती है। आज भी उसके घरौंदे मे सात बौनों की प्रस्तर मूर्ती देख सकते हो। जमीन मे लेटे बेजान।<br/> पर स्नो तो आज भी रातों को देखती हैं। बादलों से बतियाती है।<br/> और खुश है।<br/> पर उसे आज भी चॉद मे जॉन दिखता है। जो शायद किसी दिन लहरों पे सवार हो के आयेगा।<br/> और वह उसकी बाहों में खो जायेगी<br/> और फिर एक बार इस घरौंदे को खुद तोड़ देगी<br/> और वह उड़ जायेगी पहाड़ों के पार बादलों के पास जो उसके दुख से दुखी व सुख से सुखी हो जाते हैं ।<br/> अब पहाड चुप है। मै भी चुप हूँ ।<br/> खिडकी खुली है।<br/> गिलहरी पेड़ की खोह मे जा चुकी है। दाना दुनका लेकर।<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी<br/> कामशेत .. पूणे</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
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<p>ma</p>रिटायरमेंटtag:openbooksonline.com,2014-05-02:5170231:BlogPost:5367202014-05-02T08:00:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>केदार के मरने की खबर सुनते ही एक मिनट को राय साहब चौंके फिर अपने को सामान्य करते हुये बस इतना ही कहा अरे अभी उसी दिन तो आफिस में आया था पेंशन लेने तब तो ठीक ठाक था। ‘हां, रात हार्ट अटैक पड गया अचानक डाक्टर के यहां भी नही ले जा पाया गया’ राय साहब ने कोई जवाब नहीं दिया बस हॉथो से इशरा किय, सब उपर वाले की माया है, और चुपचाप चाय की प्याली के साथ साथ अखबार की खबरों को पढने लगे। खबर क्या पढ रहे थे। इसी बहाने कुछ सोच रहे थे।</p>
<p><br></br> चाय खत्म करके राय साहब ने अपनी अलमारी खोल के देखा पचपन हजार…</p>
<p>केदार के मरने की खबर सुनते ही एक मिनट को राय साहब चौंके फिर अपने को सामान्य करते हुये बस इतना ही कहा अरे अभी उसी दिन तो आफिस में आया था पेंशन लेने तब तो ठीक ठाक था। ‘हां, रात हार्ट अटैक पड गया अचानक डाक्टर के यहां भी नही ले जा पाया गया’ राय साहब ने कोई जवाब नहीं दिया बस हॉथो से इशरा किय, सब उपर वाले की माया है, और चुपचाप चाय की प्याली के साथ साथ अखबार की खबरों को पढने लगे। खबर क्या पढ रहे थे। इसी बहाने कुछ सोच रहे थे।</p>
<p><br/> चाय खत्म करके राय साहब ने अपनी अलमारी खोल के देखा पचपन हजार नकद थे। उन्होने पचास हजार की गडडी निकाली जेब में रखा और गाडी की तरफ चल दिये। आज उन्होने ड्राइवर को भी नही पुकारा। अकेले ही चल दिये केदार के घर की तरफ।<br/> चार दषक से ज्यादा के फैलाव में वो चौथी बार केदार के घर जा रहे थे। पहली बार वो केदार की शादी पे गये थे दूसरी बार उसके पिता सूरज के मरने पे तीसरी बार तब गये थे जब केदार बहुत बीमार पड गया था। और आज चौथी बार उसके घर जा रहे थे। वैसे तो राय साहब अपने किसी कामगार के यहां कभी नहीं आते जाते सिवाय एक दो मैनेजर लोगों के। केदार ही उनमे अपवाद रहा।<br/> राय साहब की गाडी आगे आगे जा रही थी और राय साहब के विचार पीछे और पीछे की तरफ दौड रहे थे।<br/> <br/> सन 1971 के आस पास ही का वक्त था। वह बिजनेष मैनेजमेंट की शिक्षा लेकर पैत्रक व्यवसाय मेें लग चुके थे। पिताका काम बखूबी सम्हाल लिया था। पिताजी व्यवसाय से अपने को अलग करने लगे थे फिर भी पिताजी की राय और बात उनके लिये आज्ञास्वरुप ही रहा करती। जिसे वे किसी भी कीमत में काट नही सकते थे। उन्ही के हाथ की चिठठी लेकर उनके फैक्टी का चौकीदार अपने जवान होते बेटे को लेकर आया था। नौकरी के लिये। रायसाहब ने पढाई लिखाई के हिसाब से उसे असिस्टेंट क्लर्क के रुप में रख लिया था केदार को। हाई स्कूल पास केदार पढाई लिखाई मे तो भले ही होषियार न रहा हो पर मेहनती और ईमानदार था। यही वजह रही केदार राय साहब सभी वह काम उसे सौंपने लगे जिसमें ईमानदारी की ज्यादा दरकार होती। केदार की एक बात और राय साहब को पसंद थी जहा केदार उनका हर नौकर व मैनेजर उनके आस पास रहने और उनके आर्डर की प्रतीक्षा करता रहता वहीं केदार इन सब बातों से उदासीन सिर्फ अपने निर्धारित काम से काम रखता। केदार चापलूसी नहीं करता। यही कारण थे कि राय साहब और केदार के बीच एक मालिक और नौकर के अलावा एक अलग तरह के आत्मीय सम्बंध बन गये थे। शायद एक और बडा कारण यह भी रह हो कि केदार और केदार के पिता दोनो लगभग साठ साल से उसके यहां काम कर रहे थे।</p>
<p><br/> यह सब सोचते सोचते राय साहब केदार के घर पहुंच चुके थे। दो कमरों के जर्जर मकान के आंगन में केदार का शव दो चार रिस्तेदारों के बीच पडा था। केदार की पत्नी ने उन्हे देखते ही घूंघट कर लिया और उसकी सिसकियां बढ गयी। केदार की छोटी बेटी और बेटा भी वहीं सिर झुकये उदास बैठै थे। आफिस के एक दो कर्मचारी भी आ गये थे वे ही दौड के रायसाहब के लिये कुर्शी ले आये। माहौल बेहद उदास और खामोष था। न तो राय साहब के पास बोलने के लिये कुछ था और न ही उनके परिवार के पास। सारी परिस्थितयां ही तो हैं जो सब कुछ बिन कहे बयाँ हो रही थी। और फिर राय साहब से केदार के घर की कौन सी थी जो उन्हे नहीं पता थी। राय साहब ने ही खामोषी तोडते हुयी उसकी बडी बेटी से जो ससुराल से आ चुकी थी कहा अभी पंद्रह दिन पहले तो जब पेंशन लेने आये था तक तो ठीक ठाक था केदार फिर अचान क्या हो गया ?’ बडी बेटी ने फिर सारी बातें रायसाहब को बतायी जिन्हे वे पहले सुन भी चुके थे। खैर फिर उसके बाद राय साहब ने केदार के बेटे को किनारे ले जाकर उसके हाथं मे पचास हजार थमाते हुये कहा ये रख लो फिर कभी कोई जरुरत होगी तो बताना। यह कह के केदार को अंतिम प्रणाम कहा और नम ऑखों को रुमाल से पोछते हुये गाडी पे वापस लौटने के लिये चल दिये।</p>
<p><br/> गाडी की रफतार के साथ साथ यादों के काफिले एक बार फिर पीछे की तरफ घुमने लगे। केदार का माली पिता सूरज अपने पीछे तीन अनब्याही बेटियॉ और कुछ कर्ज छोड के मरा था। जिनसे उबरने में ही केदार की जवानी और छोटी पगार स्वाहा होती रही। बहनों की शादी के बाद काफी देर से खुद की शादी ब्याह और बच्चे किये नतीजा साठ की उम्र आते आते भी उसी सारी जिम्मेदारियां सिर पे ही थी किसी तरह कर्ज और पी एफ के फंड से बडी बेटी का ब्याह और बच्चों की पढाई ही करा पाया था। बेटा अभी पढ ही रहा था जब केदार रिटायर हुआ। हालाकि वह चााहता था कि गर पाच साल उसकी नौकरी और चलने पाती तो बेटा कम से कम ग्रेजुएट हो जाता और छोटी का विवाह भी फिर देखा जाता पर ...</p>
<p><br/> अचानक कम्पनी ने निर्णय लिया और वह रिटायर कर दिया गया। हालाकि रायसाहब खुद भी उसे रिटायर नही करना चाह रहे थे पर अब उन्ही की कम्पनी में उनके बेटे की चलती है। बेटे से कई बार दबी जबान में कहा भी कि ‘बेटा, पुराने कर्मचारी बोझ नहीं सम्पति होते हैं’ पर बेटे के अपने तर्क थे ‘पिताजी, ये सब पुराने सिद्धांत है अगर आप वक्त के साथ साथ नहीं बदले तो वक्त आपकेा बहुत पीछे छोड देगा आप लोगों को वक्त कुछ और था। तब टेक्नालाजी इतनी तेजी से नहीं बदलती थीं। मार्केंट में इतना कमपटीशन भी नहीं था। और आज हमे वो वर्कर और कामकार चाहिये जो कम्पयूर चला सकते हों धडाधड अग्रेंजी बोल सकते हों। आफिस का भी काम कर सकते हों और लायसनिंग का भी। अगर आप केदार की बात करते हो तो उनके पास ये सब क्वालिटीस कहां है। बहुत कोषिष तो की पर क्या वो आज तक कम्पयूटर ठीक से सीख पाये। कौन सी फाइन कहां सेव कर दी उन्हे याद ही नहीं रहता। इसके अलावा वह काम में भी स्लो हैं। पहनाव ओढाव से भी वो किसी अच्छी कम्पनी के एम्पलाई नहीं लगते को डेलगेटस आ जाय तो उनका परिचय भी नहीं करा सकते। आजकल तो उनसे अच्छ पहन के तो आफिस के चपरासी आते हैं। फिर इन सब के अलावा उन्हे हर महींने किसी न किसी बहाने से एडवांस चाहिये होता है इन सब के अलवा उनके घरेलू प्राब्लम्स इतनी रहती है कि वे उन्ही से नहीं उबर पाते तो आफिस का क्या काम करेंगे और कितना मन लगा के कर पायेंगे। अब आप ही बताइये मै क्या करुं। मेरे पास क्या अब कर्मचारियों की समस्याएं ही सुलझाने का काम रह गया है अगर यही सब करुंगा तो बिजनेष कब करुंगा इसी लिये मैने पूराने और कम काम के सारे स्टाफ को हटाने का फेसला लिया है। हां अगर आपको केदार से इतना ही स्नेह है तो दो चार हजार की पेंशन बांध दीजिये जो आप के एकाउंट से दे दी जायेगी हर महीने। इससे ज्यादा आप अब कम्पनी से न उम्मीद करिये।’ राय साहब बेटे की बातों को सुन के चुप रह गये थे। वे सोच नहीं पा रहे थे कि क्या कभी वो अपने पिता से इस तरह बात कर सकते थे। उन पिता से जो कि घर के नौकरों से भी अदब से न बात करने पर नाराज हो जाया करते थे। और उन्होने हीे तो राय साहब के बताया था कि बेटाा घर के पुराने नौकर बोझ नहीं सम्पत्ति होते हैं।</p>
<p><br/> राय साहब बेटे का विरोध इस लिये भी नहीं कर पा रहे थे कि उसकी बातों में कहीं सच्चााई भी थी। आज जब यह साठ साला कपडे की मिल अपनी पुरानी टेक्नालाजी के कारण साल दर साल घाटे की चपेट में थी जिसे उसके बेटे ने ही तो उबारा है अपनी सूझ बूझ और मेहनत से। आज उसी की वजह से तो ‘राय साहब एण्ड एसोसिएटस’ एक बार फिर से उन उंचाइयों पे पहुंचता दिखाइ्र दे रहा है। जिन उंचाइयों पर अपने वक्त में खुद राय साहब अपने पिता के छोटी सी मिल को ले के आये थे। पर क्या मजाल थी कि राय साहब उनके खिलाफ कुछ बोल पाये हों उनके मते दम तक। खैर राय साहब ने बेटे की इन बातों का कोई जवाब तो नहीं दिया था। हां चुपचाप उस ऑर्डर पे दस्तखत कर दिया था जिसमें केदारे के रिटायरमेंट और उसको पॉच हजार पेंशन की बात लिखी थी।<br/> <br/> राय साहब के पास केदार जब इस पत्र को लेकर आया था इस उम्मीद से कि उसकी नौकरी पॉच साल और बढाा दी जाये तो राय सहाब ने कम्पनी का निर्णय बताकर अपने को अलग कर लिया था। और केदार अपने आदत अनुसार बिना कुछ ज्यादा कहे केबिन के बाहर चला गया था। उस दिन केदार के जाने के बाद से राय साहब भी अपने आफिस के केबिन में कम ही देखे गयेे।शायद उन्हे लगा कि आज केदार ही नहीं वो खुद भी रिटायर हो चुके हैं। और वो दिन था कि आज का दिन मात्र दो महीने ही तो हुये थे। जिंदगी के सारे ग़म और समस्याओं को अपनी खामोषी से पी लेने वाला केदार इस रिटायरमंट के ग़म को न सह पाया। राय साहब ने अपनी कार पार्टिकों में पार्क की और कपडे बदल के सीधे अपने कमरे मे जा चुके थे। उधर केदार की चिता धू धू कर के जल रही थी।</p>
<p><br/> मुकेश श्रीवास्तव <br/> 30.01.2014 पूणे <br/> मौलिक और अप्रकाशित</p>सन्नाटाtag:openbooksonline.com,2014-04-27:5170231:BlogPost:5353362014-04-27T16:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
<p>सन्नाटा<br></br> <br></br> एक<br></br> <br></br> सन्नाटा<br></br> बुनता है<br></br> एक चादर<br></br> उदासी की<br></br> जिसे<br></br> ओढ कर<br></br> सो जाता हूं<br></br> चुपचाप<br></br> रोज<br></br> रात के इस<br></br> अंधेरे में<br></br> <br></br> दो<br></br> अंधेरा<br></br> फुसफुसता है<br></br> लोरियां कान मे<br></br> रात भर<br></br> और दे जाता है<br></br> एक टोकरा नींद का<br></br> जिसे चुन लेते हैं<br></br> कुछ भयावह,<br></br> व ड़रावने सपने<br></br> बुनता है<br></br> जिन्हे<br></br> सन्नाटा<br></br> दिन के उजाले,<br></br> रात की चांदनी में<br></br> <br></br> तीन</p>
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<p>लिहाजा, चांद से<br></br> थोड़ी चांदनी…<br></br></p>
<p>सन्नाटा<br/> <br/> एक<br/> <br/> सन्नाटा<br/> बुनता है<br/> एक चादर<br/> उदासी की<br/> जिसे<br/> ओढ कर<br/> सो जाता हूं<br/> चुपचाप<br/> रोज<br/> रात के इस<br/> अंधेरे में<br/> <br/> दो<br/> अंधेरा<br/> फुसफुसता है<br/> लोरियां कान मे<br/> रात भर<br/> और दे जाता है<br/> एक टोकरा नींद का<br/> जिसे चुन लेते हैं<br/> कुछ भयावह,<br/> व ड़रावने सपने<br/> बुनता है<br/> जिन्हे<br/> सन्नाटा<br/> दिन के उजाले,<br/> रात की चांदनी में<br/> <br/> तीन</p>
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<p>लिहाजा, चांद से<br/> थोड़ी चांदनी<br/> सूरज से<br/> थोड़ी रोशनी<br/> नोच कर<br/> रख लूं<br/> अपनी जेब मे<br/> फिर नाचूं<br/> प्रथ्वी और<br/> आकाश में<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>
<p></p>जी चाहता हैtag:openbooksonline.com,2014-04-27:5170231:BlogPost:5351422014-04-27T16:30:00.000ZMUKESH SRIVASTAVAhttp://openbooksonline.com/profile/MUKESHSRIVASTAVA
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<p>जी चाहता है,<br/> सभ्यता के<br/> पाँच हज़ार साल<br/> और इससे भी ज़्यादा<br/> लड़ाइयों से अटे -पटे<br/> स्वर्णिम इतिहास पे<br/> उड़ेल दूँ स्याही<br/> फिर<br/> चमकते सूरज को<br/> पैरों तले<br/> रौंद कर<br/> मगरमच्छों व<br/> दरियाईघोड़ों से अटे - पटे<br/> गहरे, नीले समुद्र में<br/> नमक का पुतला बन घुल जाऊं<br/> और फिर<br/> हरहराऊँ - सुनामी की तरह<br/> देर तक<br/> दूर तक<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी ----</p>
<div class="xg_user_generated"><p>मौलिक अप्रकाशित</p>
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<p>जी चाहता है,<br/> सभ्यता के<br/> पाँच हज़ार साल<br/> और इससे भी ज़्यादा<br/> लड़ाइयों से अटे -पटे<br/> स्वर्णिम इतिहास पे<br/> उड़ेल दूँ स्याही<br/> फिर<br/> चमकते सूरज को<br/> पैरों तले<br/> रौंद कर<br/> मगरमच्छों व<br/> दरियाईघोड़ों से अटे - पटे<br/> गहरे, नीले समुद्र में<br/> नमक का पुतला बन घुल जाऊं<br/> और फिर<br/> हरहराऊँ - सुनामी की तरह<br/> देर तक<br/> दूर तक<br/> <br/> मुकेश इलाहाबादी ----</p>
<div class="xg_user_generated"><p>मौलिक अप्रकाशित</p>
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