Savitamishra's Posts - Open Books Online2024-03-29T07:38:18Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisrahttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991289131?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1wxr1hw8bliwu&xn_auth=noमूल्य -(लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2016-10-22:5170231:BlogPost:8091992016-10-22T04:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>छुट्टी की बड़ी समस्या है दीदी, पापा अस्पताल में नर्सो के सहारे हैं! भाई से फोनवार्ता होते ही सुमी तुरन्त अटैची तैयार कर बनारस से दिल्ली चल दी|</p>
<p>अस्पताल पहुँचते ही देखा कि पापा बेहोशी के हालत में बड़बड़ा रहें थे| उसने झट से उनका हाथ अपने हाथों में लेकर, अहसास दिला दिया कि कोई है, उनका अपना |<br></br> हाथ का स्पर्श पाकर जैसे उनके मृतप्राय शरीर में जान सी आ गयी हो |<br></br> वार्तालाप घर-परिवार से शुरू हो न जाने कब जीवन बिताने के मुद्दे पर आकर अटक गयी |<br></br> एक अनुभवी स्वर प्रश्न बन उभरा, तो दूसरा…</p>
<p>छुट्टी की बड़ी समस्या है दीदी, पापा अस्पताल में नर्सो के सहारे हैं! भाई से फोनवार्ता होते ही सुमी तुरन्त अटैची तैयार कर बनारस से दिल्ली चल दी|</p>
<p>अस्पताल पहुँचते ही देखा कि पापा बेहोशी के हालत में बड़बड़ा रहें थे| उसने झट से उनका हाथ अपने हाथों में लेकर, अहसास दिला दिया कि कोई है, उनका अपना |<br/> हाथ का स्पर्श पाकर जैसे उनके मृतप्राय शरीर में जान सी आ गयी हो |<br/> वार्तालाप घर-परिवार से शुरू हो न जाने कब जीवन बिताने के मुद्दे पर आकर अटक गयी |<br/> एक अनुभवी स्वर प्रश्न बन उभरा, तो दूसरा अनुभवी स्वर उत्तर बन बोल उठा -"पापा पहला पड़ाव आपके अनुभवी हाथ को पकड़ के बीत गया | दूसरा पति के ताकतवर हाथों को पकड़ बीता और तीसरा बेटों के मजबूत हाथों में आकर बीत गया |"<br/> "चौथा ..., वह कैसे बीतेगा, कुछ सोचा ?? वही तो बीतना कठिन होता बिटिया |"<br/> "चौथा आपकी तरह !"<br/> "मेरी तरह !! ऐसे बीमार, निसहाय !"<br/> "नहीं पापा, आपकी तरह अपनी बिटिया के शक्तिशाली हाथों को पकड़, मैं भी चौथा पड़ाव पार कर लूँगी |"<br/> "मेरा शक्तिशाली हाथ तो मेरे पास है, पर तेरा किधर है?" मुस्करा कर बोले |</p>
<p>तभी "नानाजी'" अंशु का ऊँचा स्वर कानों में घंटी सा बज, पूरे कमरे में गूँज उठा| समवत दो और स्वर गूँजे ! आवाज़ पहचानकर, भावातिरेक में सुमी उठी तो लड़खड़ा गयी | दोनों बेटे आगे बढ़कर दोनों हाथ पकड़, उसे सम्भाल लिए|</p>
<p>सुमी के पिता बुदबुदाये- "संस्कारित जमीन में खरपतवार कैसे पनपती !!" सविता मिश्रा</p>
<p><span><span><span><span class="UFICommentBody"><span><br/> <br/> <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></span></span></p>श्वासtag:openbooksonline.com,2016-10-15:5170231:BlogPost:8081922016-10-15T14:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
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<p>"अरे मुंगेरी, खाना खाने भी चलेगा, या मगन रहेगा यहीं |" मुंगेरी को दीवार से बात करता हुआ देख चाचा ने कहा |<br></br> बहुमंजिला इमारत में प्लास्टर होने के साथ बिजली का भी काम चल रहा था | दोपहर में भोजन करने सब नीचे जाने लगे थे | मुंगेरी भी चाचा के साथ नीचे आकर जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म करने लगा | तभी अचानक इमारत धू-धूकर जलने लगी | जैसे ही आग मुंगेरी के बनाये मंजिल पर पहुँची, मुंगेरी फफक कर रो पड़ा | सारे मजदूर महज हो-हल्ला मचा रहे थे | लेकिन मुंगेरी ऐसे रो रहा था जैसे उसकी अपनी कमाई जल…</p>
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<p>"अरे मुंगेरी, खाना खाने भी चलेगा, या मगन रहेगा यहीं |" मुंगेरी को दीवार से बात करता हुआ देख चाचा ने कहा |<br/> बहुमंजिला इमारत में प्लास्टर होने के साथ बिजली का भी काम चल रहा था | दोपहर में भोजन करने सब नीचे जाने लगे थे | मुंगेरी भी चाचा के साथ नीचे आकर जल्दी-जल्दी खाना ख़त्म करने लगा | तभी अचानक इमारत धू-धूकर जलने लगी | जैसे ही आग मुंगेरी के बनाये मंजिल पर पहुँची, मुंगेरी फफक कर रो पड़ा | सारे मजदूर महज हो-हल्ला मचा रहे थे | लेकिन मुंगेरी ऐसे रो रहा था जैसे उसकी अपनी कमाई जल<span class="text_exposed_show">कर ख़ाक हो रही हो |<br/> "तू इतना काहे रो रहा रे !" एक बुजुर्ग बोला|<br/> "मेरी मेहनतss"<br/> "मेहनत तो सबने की थी न, तेरी तरह तो कोई नहीं रो रहा है | और कौन सी अपनी मेहनत की कमाई लगी इसमें | हम तो राजगीर है, इधर मजदूरी मिली, उधर दीवार से रिश्ता ख़त्म |"<br/> "मेरा तो सपना जल रहा है | अपना तन जलाकर कितने मन से बनाया था मैंने |"<br/> "तन तो सबने ही जलाया, उसी की तो मजदूरी मिलती थी| अच्छा हुआ जल गया | अब साल भर की मजदूरी का यहीं फिर से जुगाड़ बन गया |"<br/> "लेकिन उस मंजिल में जो रहता वह मुझे ही याद करता |" मुंगेरी आंसू पोंछते हुए बोला |<br/> "अरी ! ताजमहल थोड़े ही बनाया था |" कहकर एक मजदूर युवक ठहाका मार के हँसा |<br/> "मेहनत से मैंने मंदिर बनाया था | जिसमें प्रेम भाव से सुकून बसाया था | दीवारें भी बोलती हुई सी थीं उसकी | रहने वाला मकान में नहीं बल्कि घर में रहना महसूस करता |"<br/> "ऐसा क्या किया था रे तूने !!"<br/> "आह के श्वास से नहीं बल्कि मेहनत और उल्लास से भर खड़ी करी थीं दीवारें मैंने |"<br/> सुनते ही सब बगले झाँकने लग पड़े | सविता मिश्रा</span></p>
<p><span><span><span><span class="UFICommentBody"><span><br/> <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></span></span></p>गुर (बस दो मिनट में )tag:openbooksonline.com,2016-10-01:5170231:BlogPost:8049062016-10-01T06:13:37.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span><span><span class="UFICommentBody _1n4g"><span><br></br><br></br><span>दो मिनट में</span></span><span><span><br></br><span>नहीं लिख दी जाती</span><br></br><span>कोई कविता</span><br></br><span>जैसे नहीं बनती सब्जी</span><br></br><span>दो मिनट में बढ़िया</span><br></br><span>दो मिनट में तो</span><br></br><span>बनती है बस मैगी</span><br></br><span>जो सिर्फ पेट भरती हैं |</span><br></br><br></br><span>अपनी संतुष्टि के लिए</span><br></br><span>भले लिख दो</span><br></br><span>मिनट, दो मिनट में</span><br></br><span>कुछ भी…</span></span></span></span></span></span></span></p>
<p><span><span><span><span class="UFICommentBody _1n4g"><span><br/><br/><span>दो मिनट में</span></span><span><span><br/><span>नहीं लिख दी जाती</span><br/><span>कोई कविता</span><br/><span>जैसे नहीं बनती सब्जी</span><br/><span>दो मिनट में बढ़िया</span><br/><span>दो मिनट में तो</span><br/><span>बनती है बस मैगी</span><br/><span>जो सिर्फ पेट भरती हैं |</span><br/><br/><span>अपनी संतुष्टि के लिए</span><br/><span>भले लिख दो</span><br/><span>मिनट, दो मिनट में</span><br/><span>कुछ भी अपने</span><br/><span>अंतर्मन के भाव !</span><br/><br/><span>पर चाहिए तुम्हें यदि</span><br/><span>सब की संतुष्टि</span><br/><span>तो पहले उसे</span><br/><span>कागज पर चढ़ाओ</span><br/><span>फिर पकाओ</span><br/><span>फिर जाके उतारो</span><br/><span>अंगीठी से</span><br/><span>धीरे-धीरे मध्यम आँच पर</span><br/><span>पक जाती है कविता</span><br/><span>कविता ही नही</span><br/><span>कथा भी</span><br/><span>और हाँ कहानी भी !</span><br/><br/><span>हर चीज की</span><br/><span>तासीर के हिसाब से</span><br/><span>दो उसे समय</span><br/><span>फिर देखो</span><br/><span>जो निकलेगी</span><br/><span>वह होगी कोई</span><br/><span>कविता या कहानी</span><br/><span>जो दिलो में सबके</span><br/><span>बस जाएगी</span><br/><span>खाकर ऊँगली चाटने वाली कहावत</span><br/><span>चरितार्थ कर जाएगी | सविता<br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/><br/></span></span></span></span></span></span></span></p>जीवन की पाठशाला (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2015-11-21:5170231:BlogPost:7165062015-11-21T04:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span><span><span><span><span>आगरा से लखनऊ का छ-सात घंटे का सफ़र | ट्रेन खचाखच भरी हुई थी, पर भला हो उस दलाल का,जिसने सौ रूपये ज्यादा लेकर सीट कन्फर्म करा दी थी | वरना सिविल सेवा परीक्षा देने जाना बड़ा भारी लग रहा था | दोनों ही सहेलियों ने गेट से लगी सीट पर धम्म से बैठ कब्ज़ा जमा लिया था | सामने फर्श पर सामान्य कद-काठी का शरीरधारी, किसी दूसरे ग्रह का प्राणी लग रहा था | मैला-कुचैला सा कम्बल अपने शरीर के चारो तरफ लपेटे बैठा था | रह-रह सुमी उसे हिकारत…</span></span></span></span></span></span></span></span></p>
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span><span><span><span><span>आगरा से लखनऊ का छ-सात घंटे का सफ़र | ट्रेन खचाखच भरी हुई थी, पर भला हो उस दलाल का,जिसने सौ रूपये ज्यादा लेकर सीट कन्फर्म करा दी थी | वरना सिविल सेवा परीक्षा देने जाना बड़ा भारी लग रहा था | दोनों ही सहेलियों ने गेट से लगी सीट पर धम्म से बैठ कब्ज़ा जमा लिया था | सामने फर्श पर सामान्य कद-काठी का शरीरधारी, किसी दूसरे ग्रह का प्राणी लग रहा था | मैला-कुचैला सा कम्बल अपने शरीर के चारो तरफ लपेटे बैठा था | रह-रह सुमी उसे हिकारत भरी नजर से देख लेती | और नाक-भौं बनाते हुए अपनी सहेली तनु के साथ चर्चा में तल्लीन हो जाती | बात रसोई से शुरू हो , राजनीति तक जा पहुँची थी |</span><br/> <span>अब तो दोनों सहेली एक दूजे पर कटाक्ष रूपी तीर छोड़ रही थीं | कभी तनु कटाक्ष से घायल, कभी सुमी तनु के मुख से निकली आग से रुई सी हुई जा रही थी |</span><br/> <span>तभी दोनों की चर्चा के बीच में एक तल्ख़ आवाज गूंजी |</span><br/> <span>"ये राजनीति के बंदे, किसी के कभी हुए, जो अब होंगे | आपस का प्रेम ऐसे क्यों किसी ऐसे के लिए गंवा रही हों, जो 'पानी में दीखता चाँद' सरीखा हैं | न वो शीतलता दें सकता, न रोशनी और न ही पकड़ में आएगा |"</span><br/> <span>दोनों अवाक सी, दीनहीन से उस व्यक्ति को देखती रह गयीं |</span><br/> <span>सुमी, ये सोच हतप्रभ थी, कि सामान्य से दिखने वाले लोग भी दार्शनिक सोच रखते हैं | अब सफ़र का बचाखुचा समय, </span></span></span></span> <span><span><span><span><span><span><span><span>चुप्पी साध,</span></span></span></span></span></span></span></span> <span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span>मुग्ध सी,</span></span></span></span></span></span></span></span> सिर्फ सुन रही थीं</span></span></span></span> दोनों | चार घंटे से चुपचाप बैठा व्यक्ति जब मुंह खोला तो चुप कहाँ हुआ| एक से बढ़कर एक फिलाॅसफी भरी उसकी बातें |</span> <br/> <span>एकाएक सुमी पूछी "बाबा पढ़े कितना हो ?"</span><br/> <span>"पाठशाला में तो न गया, पर जीवन की पाठशाला बखूबी पढ़ी है |"</span><br/> <span>सुमी और तनु के बैग में रखी डिग्रियाँ, अब जैसे उन्हें ही मुंह चिढ़ा रही थीं |</span></span></span></span></span><span><br/></span></span></span></span></p>
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span>.<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></span></p>सच्ची सुहागन (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2015-10-29:5170231:BlogPost:7100742015-10-29T15:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span>पूरे दिन घर में आवागमन लगा था | दरवाज़ा खोलते बंद करते श्यामू परेशान हो गया था | घर की गहमागहमी से वह इतना तो समझ <strong>चूका</strong> था कि बहूरानी का उपवास हैं | सारे घर के लोग उनकी तीमारदारी में लगें थें | माँजी सरगी की तैयारी के <strong>लिय</strong> उसे बार-बार आवाज दे रही थी | सारी सामग्री उन्हें देने के बाद वह खाना खिलाने लगा घर के सभी सदस्यों को | फिर फुर्सत हो माँजी से कह अपने घर की ओर चल पड़ा |</span> <br></br> <span>बाजार की रौनक देख अपनी…</span></span></span></span></p>
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span>पूरे दिन घर में आवागमन लगा था | दरवाज़ा खोलते बंद करते श्यामू परेशान हो गया था | घर की गहमागहमी से वह इतना तो समझ <strong>चूका</strong> था कि बहूरानी का उपवास हैं | सारे घर के लोग उनकी तीमारदारी में लगें थें | माँजी सरगी की तैयारी के <strong>लिय</strong> उसे बार-बार आवाज दे रही थी | सारी सामग्री उन्हें देने के बाद वह खाना खिलाने लगा घर के सभी सदस्यों को | फिर फुर्सत हो माँजी से कह अपने घर की ओर चल पड़ा |</span> <br/> <span>बाजार की रौनक देख अपनी जेब टटोली महज दो सौ रूपये | सरगी के लिय ही ५० रूपये तो खर्च करने पड़ेंगे आखिर त्यौहार पर फल इतने महंगे जो हो जातें | मन को समझा उसने सरगी के लिय आधा दर्जन केले खरीद ही लिये | <span><span><span class="UFICommentBody"><span>वह भी अपनी दुल्हन को सुहागन रूप में सजी-धजी देखना चाहता था ,अतः </span></span></span></span> १०० रूपये की साड़ी और सृंगार सामग्री भी ले ली |</span> <span>१०० रूपये की साड़ी को देख सोचने लगा मेरी पत्नी तो इसमें ही खुश हो जायेगी | उसकी धोती में बहत्तर तो छेद हो गये हैं | अब कोठी वालों की तरह न सही ,पर दो चार साल में तन ढ़कने का एक कपड़ा तो दिला ही सकता हूँ | 'बहूरानी की तरह मुहं थोड़े फुलाएगी | कैसे माँजी की दी साड़ी पर बहूरानी नाक-भौं सिकोड़ रही थी | फिर छोटे मालिक के साथ जाकर दूसरी साड़ी लें ही आईं|'</span><br/> <span>मन में गुनते हुय ख़ुशी-ख़ुशी सब कुछ लेकर घर पहुंचा| अपने छोटे साहब की तरह ही वह भी अपनी पत्नी की आंख बंद करते हुय बोला, "सोचो-सोचो क्या लाया हूँ मैं ?"</span><br/> <span>"बड़े खुश लग रहें हो | लगता हैं बच्चों को, कल के लिय भरपेट खाने को लाये हो !!"<br/> <br/> (मौलिक और अप्रकाशित)<br/></span></span></span></span></p>~बोल ~tag:openbooksonline.com,2015-10-21:5170231:BlogPost:7078762015-10-21T06:36:19.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>तुम्हारें श्री मुख से <br></br> दो शब्द <br></br> निकले कि <br></br> मैंने कैद कर लिया <br></br> अपने हृदय उपवन में !!<br></br><br></br></p>
<div class="text_exposed_show"><p>अब हर रोज <br></br> दिल से निकाल <br></br> दिमाग तक लाऊँगी <br></br> फिर कंठ तक <br></br> फिर मुस्कराऊँगी<br></br> चेहरे पर <br></br> एक अलग सी <br></br> चमक बिखर जाएँगी <br></br> बार बार यही <br></br> दुहराती रहूंगी <br></br> क्योकि <br></br> अच्छी यादों को <br></br> बार-बार खाद-पानी <br></br> चाहिए ही होता है!!<br></br><br></br></p>
<p>और तब जाके <br></br>एक दिन <br></br> तैर जायेंगी <br></br> सरसराहट …<br></br></p>
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<p>तुम्हारें श्री मुख से <br/> दो शब्द <br/> निकले कि <br/> मैंने कैद कर लिया <br/> अपने हृदय उपवन में !!<br/><br/></p>
<div class="text_exposed_show"><p>अब हर रोज <br/> दिल से निकाल <br/> दिमाग तक लाऊँगी <br/> फिर कंठ तक <br/> फिर मुस्कराऊँगी<br/> चेहरे पर <br/> एक अलग सी <br/> चमक बिखर जाएँगी <br/> बार बार यही <br/> दुहराती रहूंगी <br/> क्योकि <br/> अच्छी यादों को <br/> बार-बार खाद-पानी <br/> चाहिए ही होता है!!<br/><br/></p>
<p>और तब जाके <br/>एक दिन <br/> तैर जायेंगी <br/> सरसराहट <br/> बेकाबू हो <br/> उड़ चलेगा<br/> पूरा शरीर ही <br/> हल्का-फुल्का हो <br/> आकाश के उस पार !!<br/><br/></p>
<p>फिर तुम्हारें ही <br/> महज दो बोल <br/> भारी कर जायेंगे <br/> मन को <br/> और तत्क्षण <br/> ला पटकेंगे मुझे <br/> धरती पर !!<br/><br/></p>
<p>क्यों !<br/> होता हैं न ऐसा <br/> कभी कभी !!!<br/><br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>
</div>अन्तर्मन (कहानी)tag:openbooksonline.com,2015-07-13:5170231:BlogPost:6762812015-07-13T06:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>पेड़ के बगल ही खड़ी हो पेड़ से प्रगट हुई स्त्री ने पूछा , “अब बताओ इस रूप में ज्यादा काम की चीज और खूबसूरत हूँ या पेड़ रूप में |<br></br> पेड़ बोला , “खूबसूरत तो मैं तुम्हारे रूप में ही हूँ , पर मेरी खूबसूरती भी कम नहीं | काम का तो मैं तुमसे ज्यादा ही हूँ |”<br></br> ” न ‘मैं’ हूँ |”<br></br> पेड़ ने कहा, ” न न ‘मैं’ ”<br></br> पेड़ ने धोंस देते हुए कहा , “मुझे देखते ही लोग सुस्ताने आ जाते हैं |जब कभी गर्मी से बेकल होते हैं |”<br></br> “मुझे भी तो |” रहस्यमयी हंसी हंसकर बोली स्त्री<br></br> “मुझसे तो छाया और सुख मिलता हैं…</p>
<p>पेड़ के बगल ही खड़ी हो पेड़ से प्रगट हुई स्त्री ने पूछा , “अब बताओ इस रूप में ज्यादा काम की चीज और खूबसूरत हूँ या पेड़ रूप में |<br/> पेड़ बोला , “खूबसूरत तो मैं तुम्हारे रूप में ही हूँ , पर मेरी खूबसूरती भी कम नहीं | काम का तो मैं तुमसे ज्यादा ही हूँ |”<br/> ” न ‘मैं’ हूँ |”<br/> पेड़ ने कहा, ” न न ‘मैं’ ”<br/> पेड़ ने धोंस देते हुए कहा , “मुझे देखते ही लोग सुस्ताने आ जाते हैं |जब कभी गर्मी से बेकल होते हैं |”<br/> “मुझे भी तो |” रहस्यमयी हंसी हंसकर बोली स्त्री<br/> “मुझसे तो छाया और सुख मिलता हैं आदमी को |”<br/> “अरे मूर्ख मैं भी छाया और सुख प्रदान करती हूँ| आंचल से ज्यादा छाया और सुख कोई नही दे सकता |” अहंकार से भर इठला गयी स्त्री<br/> “मुझ पर लगे फल लोग खा के तृप्त होते हैं |”<br/> “हा हा हा हा” ठहाका जोर का मारकर बोली , “मुझसे भी तृप्त ही होते हैं |” कुछ शरमाई सी बोली<br/> “मेरी पतली पतली शाखायें लोग काट आग के काम में लाते हैं |”<br/> “मैं स्वयं एक आग हूँ बड़े बुजुर्ग यही कहते हैं |” रहस्यमयी मुस्कान बढ़ गयी थी<br/> “मैं आक्सीजन प्रदान करता हूँ |”<br/> “मैं खुद आक्सीजन हूँ ! जिन्दगी देती हूँ ! मेरे से प्यार करने वाला मेरे बगैर मर जाता हैं | तुमसे भी प्यार करने वाले करते तो हैं पर तुम्हारे न होने पर मरते नहीं हैं |” गर्वान्वित हो बोली स्त्री<br/> “मैं उपवन को हरा-भरा रखता हूँ |”<br/> “अरे महामूर्ख , मैं खुद उपवन ही हूँ ! मेरे बगैर इस धरती का सारा वैभव तुच्छ हैं |”</p>
<p>“मुझे लोग काट निर्जीव कर अपने घरों में सजाने के उपयोग में लें आते हैं |” थोड़ा दुखी हो वृक्ष बोला ” इससे अच्छा हैं मैं तुम्हारे इस स्त्री रूप में ही रहूँ | सच में तुम ज्यादा खूबसूरत और काम की हो | मैंने हार मान ली तुमसे |”</p>
<p>अहंकार खो सा गया यह सुनते ही | स्त्री बोली, “नहीं , नहीं वृक्ष मैं इस रूप में नहीं रह सकती | तुम्हारा निर्जीव रूप में ही सही शान से उपयोग तो लोग कर रहें पर मुझे तो ना जीने देते हैं न मरने | तुम्हे निर्जीव कर तुम्हारे ऊपर आरी चलाते हैं पर मुझ पर तो जीते जी |” दुखित हो स्त्री बोली<br/> ठहरों मैं तुम में समा जाती हूँ फिर से | जादूगर ने कहा था न सूरज डूबने से पहले नहीं समाई तो मैं स्त्री ही बन रह जाऊँगी | हे वृक्षराज ,” मैं स्त्री नहीं वृक्ष रूप में ही ज्यादा सुरक्षित हूँ | और हर रूप में मानव को सुख देने में सक्षम रहूंगी इस वृक्ष रूप में | मानव स्त्री को तो नरक का द्वार कहकर घृणा भी करता हैं | तुम्हें यानि पीपल को पिता का रूप मान आदर देता हैं | मैं तुम्हारे रूप में ही रहकर सुकून पाऊँगी | मुझे अपने में समेट लो वृक्षराज |” विनती करती हुई सी बोली स्त्री |</p>
<p>दोनों ने जादूगर द्वारा दिए मन्त्र बोले और एक रूप हो गये | अँधेरा अपने यौवन रूप में प्रवेश कर चुका था |</p>
<p>— <strong>सविता मिश्रा</strong></p>
<p><span><br/></span></p>
<p><span>...मेरी स्वरचित/मौलिक रचना हैं...<br/></span></p>ढाढ़स (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2015-07-06:5170231:BlogPost:6733002015-07-06T14:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>लैपटाप बेटी के हाथों में देख माता -पिता प्रसन्न थे हो भी क्यों न आखिर चीफ़ मिनिस्टर साहब से जो मिला था | उनकी बेटी पुरे गाँव में अकेली प्रतिभाशाली छात्रों में चुनी गयी थी |<br></br> पूरा कुनबा लैपटाप के डिब्बों में कैद तस्वीरें देखने बैठ गया |<br></br> "बिट्टी इ सब का हैं ? लाल-पीला |" माँ पहली बार रंगबिरंगे भोजन को देख पूछ बैठी |<br></br> "अम्मा, ये लजीज पकवान हैं | बड़े बड़े होटलों में ऐसे ही पकवान परोसे जाते हैं और घरो में भी ऐसे ही तरह तरह का भोजन करते हैं लोग |"<br></br> "और दाल रोटी ?"<br></br> "अम्मा, दाल…</p>
<p>लैपटाप बेटी के हाथों में देख माता -पिता प्रसन्न थे हो भी क्यों न आखिर चीफ़ मिनिस्टर साहब से जो मिला था | उनकी बेटी पुरे गाँव में अकेली प्रतिभाशाली छात्रों में चुनी गयी थी |<br/> पूरा कुनबा लैपटाप के डिब्बों में कैद तस्वीरें देखने बैठ गया |<br/> "बिट्टी इ सब का हैं ? लाल-पीला |" माँ पहली बार रंगबिरंगे भोजन को देख पूछ बैठी |<br/> "अम्मा, ये लजीज पकवान हैं | बड़े बड़े होटलों में ऐसे ही पकवान परोसे जाते हैं और घरो में भी ऐसे ही तरह तरह का भोजन करते हैं लोग |"<br/> "और दाल रोटी ?"<br/> "अम्मा, दाल रोटी तो बस हम गरीबों का भोजन हैं| अमीर तो शाही-पनीर , पनीर टिक्का , लच्छेदार पराठा आदि खाते हैं |<span class="text_exposed_show"><br/> पीछे स्कूल जाने के लिय तैयार खड़ा जीतू तपाक से बोला - "दीदी , मुझे भी खाना हैं यह !!"<br/> "जितुवा तू फिर चिपक गवा |" अम्मा गुस्सा होती हुई बोली <br/> " अरे परवतिया के बाबू इसको सकूल छोड़ आओ , देर भई तो मास्टर भगा देंगा |"<br/> जीतू रोते हुए बोला- "मुझे नहीं पढ़ना , दीदी के साथ लैपटाप पर पिक्चर देखना हैं |"<br/> "अरे बाबू, पढ़ेगा नहीं तो मेरे जैसे ये लैपटाप कैसे पायेगा | तेजतर्रार छात्र को सरकार लैपटाप देती हैं कमजोर को थोड़े | और मुझे भी तो पढ़ना हैं न |" <br/> जूते पहनाते हुय पार्वती बोली "और कल खाना हैं न रंगबिरंगा पकवान | आज ही बीबी जी कहीं थी, कल किटी हैं जल्दी आ जाना | किटी में खूब बचता हैं बढ़िया-बढ़िया पकवान | वो सब तेरे लिय लेती आऊँगी |" सुन के जीतू के साथ- साथ बाबा के मुहं में भी पानी आ गया | सामने आई नमक रोटी की थाली ठेल चल दिए | सविता मिश्रा<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></p>पछतावा (लघुकथा )tag:openbooksonline.com,2015-05-14:5170231:BlogPost:6546382015-05-14T06:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>"बाबा आप अकेले यहाँ क्यों बैठे हैं, चलिए आपको आपके घर छोड़ दूँ | "<br></br> बुजुर्ग बोले:</p>
<p>"बेटा जुग जुग जियो तुम्हारे माँ -बाप का समय बड़ा अच्छा जायेगा | और तुम्हारा समय तो बड़ा सुखमय होगा |"<br></br> "आप ज्योतिषी हैं क्या बाबा |" <br></br> हंसते हुय बाबा बोले - "समय ज्योतिषी बना देता हैं | गैरों के लिय जो इतनी चिंता रखे वह संस्कारी व्यक्ति दुखित कभी नही होता | " आशीष में दोनों हाथ उठ गये |<br></br> "मतलब बाबा ? मैं समझा नहीं | "<br></br> "मतलब बेटा मेरा समय आ गया | अपने माँ बाप के समय में मैं समझा नहीं कि…</p>
<p>"बाबा आप अकेले यहाँ क्यों बैठे हैं, चलिए आपको आपके घर छोड़ दूँ | "<br/> बुजुर्ग बोले:</p>
<p>"बेटा जुग जुग जियो तुम्हारे माँ -बाप का समय बड़ा अच्छा जायेगा | और तुम्हारा समय तो बड़ा सुखमय होगा |"<br/> "आप ज्योतिषी हैं क्या बाबा |" <br/> हंसते हुय बाबा बोले - "समय ज्योतिषी बना देता हैं | गैरों के लिय जो इतनी चिंता रखे वह संस्कारी व्यक्ति दुखित कभी नही होता | " आशीष में दोनों हाथ उठ गये |<br/> "मतलब बाबा ? मैं समझा नहीं | "<br/> "मतलब बेटा मेरा समय आ गया | अपने माँ बाप के समय में मैं समझा नहीं कि मेरा भी एक न एक दिन तो यही समय आएगा | समझा होता तो ये समय ना आता |" नजरे धरती पर गड़ा दी कह | </p>
<p>.</p>
<p>सविता मिश्रा <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>सम्मान : लघुकथाtag:openbooksonline.com,2015-04-15:5170231:BlogPost:6419692015-04-15T11:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span>"कुछ सिखाओं अपनी माँ को | शहर में रहते पच्चीसों साल हो गये पर रही गंवार की गंवार |"</span><br/> <span>" बड़े साहब कितनी बार कहें बैठ जाओ पर ये बैठी नहीं |"</span><br/> <span>"कइसे बैठती जी, वो 'पैताने' बैठने को कहत रहा | "...सविता मिश्रा<br/> <br/></span></span></span></span></p>
<p><span class="UFICommentBody"><span style="text-decoration: underline;">"मौलिक व अप्रकाशित"</span></span></p>
<p><span><span><span class="UFICommentBody"><span>"कुछ सिखाओं अपनी माँ को | शहर में रहते पच्चीसों साल हो गये पर रही गंवार की गंवार |"</span><br/> <span>" बड़े साहब कितनी बार कहें बैठ जाओ पर ये बैठी नहीं |"</span><br/> <span>"कइसे बैठती जी, वो 'पैताने' बैठने को कहत रहा | "...सविता मिश्रा<br/> <br/></span></span></span></span></p>
<p><span class="UFICommentBody"><span style="text-decoration: underline;">"मौलिक व अप्रकाशित"</span></span></p>आगे पीछे : लघुकथाtag:openbooksonline.com,2015-02-08:5170231:BlogPost:6142462015-02-08T05:29:19.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><br></br>"कहाँ आगे-आगे बढ़े जा रहे हो जी', मैं पीछे रह जा रही हूँ |"<br></br> "तुम हमेशा ही तो पीछे थी"<br></br> "मैं आगे ही रही "<br></br> "और चाहूँ तो हमेशा आगे ही रहूँ, पर तुम्हारें अहम् को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती हूँ समझे|"<br></br> "शादी वक्त जयमाल में पीछे ..."<br></br> "डाला जयमाल तो मैंने आगे"<br></br> "फेरे में तो पीछे रही"<br></br> "तीन में पीछे, चार में तो आगे रही न "<br></br> "गृह प्रवेश में तो पीछे"<br></br> "जनाब भूल रहे हैं, वहां भी मैं आगे थी "<br></br>इसी आगे पीछे को लेकर लड़ते -हँसते पार्क से बाहर निकले और एक दूजे से…</p>
<p><br/>"कहाँ आगे-आगे बढ़े जा रहे हो जी', मैं पीछे रह जा रही हूँ |"<br/> "तुम हमेशा ही तो पीछे थी"<br/> "मैं आगे ही रही "<br/> "और चाहूँ तो हमेशा आगे ही रहूँ, पर तुम्हारें अहम् को ठेस नहीं पहुँचाना चाहती हूँ समझे|"<br/> "शादी वक्त जयमाल में पीछे ..."<br/> "डाला जयमाल तो मैंने आगे"<br/> "फेरे में तो पीछे रही"<br/> "तीन में पीछे, चार में तो आगे रही न "<br/> "गृह प्रवेश में तो पीछे"<br/> "जनाब भूल रहे हैं, वहां भी मैं आगे थी "<br/>इसी आगे पीछे को लेकर लड़ते -हँसते पार्क से बाहर निकले और एक दूजे से नोंकझोक करते हुए ही बेफिक्र हो बाइक से जा रहे थे| सुनसान रास्ते पर बदमाशों ने उनकी बाइक रोक तमंचा तान दिया - "निकालो सारे गहने" चीखा एक |<br/> दुवेश शीला को पीछे कर,बदमाशों से भिड़ गया |<br/> जैसे ही घोड़ा दबा, पत्नी उसकी बाहों में झूलती हुई मुस्करा कर बोली " लो जी यहाँ भी मैं आगे ..|"<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong><br/> सविता मिश्रा <br/> <br/> "मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>गुड़ियाtag:openbooksonline.com,2015-02-02:5170231:BlogPost:6138232015-02-02T17:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span><span>मेरी गुड़िया ,मेरी बच्ची --कह कह शर्माइन बेहोश हुई जा रही थी |</span><br></br> <span>विधायक शर्मा जी फोन-पर-फोन किये जा रहें थे पर अभी तक कुछ पता ना चला था|</span></span><span><span><br></br> <span>ब्रेकिंग न्यूज के नाम से घर-घर न्यूज दिख रही थी कि "कद्दावर नेता की कुतिया किसी दुश्मन ने की गायब"</span><br></br> <span>कुतिया नहीं कहो वर्ना चढ़ बैठेगें किसी ने फुसफुसाया ...|</span><br></br> <span>"विधायक की गुड़िया को किसी ने किया गायब ...| " संभलते हुय पत्रकार…</span></span></span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span><span>मेरी गुड़िया ,मेरी बच्ची --कह कह शर्माइन बेहोश हुई जा रही थी |</span><br/> <span>विधायक शर्मा जी फोन-पर-फोन किये जा रहें थे पर अभी तक कुछ पता ना चला था|</span></span><span><span><br/> <span>ब्रेकिंग न्यूज के नाम से घर-घर न्यूज दिख रही थी कि "कद्दावर नेता की कुतिया किसी दुश्मन ने की गायब"</span><br/> <span>कुतिया नहीं कहो वर्ना चढ़ बैठेगें किसी ने फुसफुसाया ...|</span><br/> <span>"विधायक की गुड़िया को किसी ने किया गायब ...| " संभलते हुय पत्रकार बोला</span><br/> <span>"कई टीमें हुई रवाना , खुद विधायक एक टीम को लीड कर रहे हैं| "</span><br/> <span>तभी कैमरे के सामने एक लाचार बुड्ढा आ गया |</span><br/> <span>"अरे बुड्ढे कहाँ बीच में घुसा आ रहा है" धक्का मारते हुए पत्रकार बोला</span><br/> <span>"अरे बेटा मेरी भी १६साल की गुड़िया खो गयी है उसे भी खोजने में मदद कर दो |"</span><br/> <span>"अब्बे बुड्ढे जाके खोज ,होगी कही मुहं काला कर रही| देख नहीं रहा, हम ब्रेकिंग न्यूज चला रहे|"</span><br/> <span>"बेटा ऐसा न कहो , मुझे शक है विधायक साहब ने ही गायब किया है| वह इन्ही के यहाँ काम करती थी| महीने से यही भूखा-प्यासा बैठा हूँ पर कोई नहीं सुन रहा|"</span><br/> <span>तुरंत फिर ब्रेकिंग न्यूज तैयार ...'कामवाली ने किया विधायक की गुड़िया का अपहरण ' अभी फ़रार बताई जा रही है| जल्दी ही खोज निकाला जायेगा उसे|</span><br/> <span>कैमरामैन बूढ़े को एक कुर्सी पर बैठा, पानी -समोसा आफ़र कर मुस्करातें हुए बोला बाबा चिंता ना करो | सविता मिश्रा<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/> <br/></span></span></span></span></span></p>मन में लड्डू फूटा (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2014-10-15:5170231:BlogPost:5821332014-10-15T17:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>"भैया डीजल देना"</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>"कितना दे दूँ भाईसाब ?"</span><br></br> <span>"अरे भैया दे दो दस पन्द्रह लिटर, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है| रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"</span><br></br> <span>"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार</span><br></br> <span>शाम को वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही…</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>"भैया डीजल देना"</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>"कितना दे दूँ भाईसाब ?"</span><br/> <span>"अरे भैया दे दो दस पन्द्रह लिटर, देख ही रहे हो आजकल लाईट कितनी जा रही है| रोज-रोज दूकान के चक्कर कौन लगाये|"</span><br/> <span>"हा भाईसाब इस सरकार ने तो हद कर दी है|" जैसे उसके दुःख में खुद शामिल है दूकानदार</span><br/> <span>शाम को वही दूकानदार आरती करते वक्त- "हे प्रभु अपनी कृपा यूँ ही बनाये रखना| यदि साल भर भी ऐसे ही सरकार को बुद्धि देते रहे तो बच्चे की पढ़ाई पूरी हो ही जायेगी प्रभु"</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>**********************************************</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>सविता मिश्र<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong><br/> "मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/> <br/></span></span></span></p>दोगलापन (लघु कहानी)tag:openbooksonline.com,2014-10-02:5170231:BlogPost:5790792014-10-02T13:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span><span>"कुछ पुन्य कर्म भी कर लिया करो भाग्यवान, सोसायटी की सारी औरतें कन्या जिमाती है, और तू है कि कोई धर्म कर्म है ही नहीं|"</span></span><span><span><br></br> <span>"देखिये जी लोग क्या कहते है, करते है इससे हमसे कोई मतलब ......"</span><br></br> <span>बात को बीच में काटते हुए रमेश बोले- "हाँ हाँ मालुम है तू तो दूसरे ही लोक से आई है, पर मेरे कहने पर ही सही कर लिया कर|"</span><br></br> <span>नवमी पर दरवाजे की घंटी बजी- -सामने छोटे बच्चों की भीड़ देख सोचा रख ही लूँ…</span></span></span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span><span>"कुछ पुन्य कर्म भी कर लिया करो भाग्यवान, सोसायटी की सारी औरतें कन्या जिमाती है, और तू है कि कोई धर्म कर्म है ही नहीं|"</span></span><span><span><br/> <span>"देखिये जी लोग क्या कहते है, करते है इससे हमसे कोई मतलब ......"</span><br/> <span>बात को बीच में काटते हुए रमेश बोले- "हाँ हाँ मालुम है तू तो दूसरे ही लोक से आई है, पर मेरे कहने पर ही सही कर लिया कर|"</span><br/> <span>नवमी पर दरवाजे की घंटी बजी- -सामने छोटे बच्चों की भीड़ देख सोचा रख ही लूँ पतिदेव का मन| जैसे ही बिठा प्यार से भोजन परोसने लगी तो चेहरे और शरीर पर नजर गयी किसी की</span> <span>नाक बह रही थी, तो किसी के कपड़ो से गन्दी सी बदबू आ रही थी, मन खट्टा सा हो</span> <span>गया| किसी तरह शिखा ने दक्षिणा दे पा विदा कर अपने हाथ पैर धुले|</span><br/> <span>"देखो</span> <span>जी कहें देती हूँ इस बार तो आपका मन रख लिया, पर अगली बार भूले से मत कहना</span><span>........| इतने गंदे बच्चे जानते हो एक तो नाक में ऊँगली डालने के बाद</span> <span>खाना खायी| मुझसे ना होगा यह....ऐसा लग रहा था कन्या नहीं खिला रही बल्कि</span><span>.....भाव कुछ और हो जाये तो क्या फायदा ऐसी कन्या भोज का| अतः मुझसे उम्मीद</span> <span>मत ही रखना|"</span><br/> <span>"अच्छा बाबा जो मर्जी आये करो, बस सोचा नास्तिक से तुझे थोड़ा आस्तिक बना दूँ|"</span><br/> <span>"मैं नास्तिक नहीं हूँ जी. बस यह ढोंग मुझसे नहीं होता समझे आप|"</span><br/> <span>"अच्छा-अच्छा दूरग्रही प्राणी|"...पूरे घर में खिलखिलाहट गूंज पड़ी</span><br/> <span>पड़ोसियों</span> <span>ने दूजे दिन कहा -यार तेरी मुराद पूरी हो गयी क्या ? बड़ी हंसी सुनाई दे</span> <span>रही थी बाहर तक| हम इन नीची बस्ती के गंदे बच्चो को कितने सालो से झेल रहे</span> <span>है, पर नवरात्रे में ऐसे ठहाके नहीं गूंजे ..बता क्या बात हुई|"</span><br/> <span>शिखा मुस्करा पड़ी .....सविता मिश्रा</span><br/> <br/> <span>"मौलिक व अप्रकाशित"</span></span></span></span></span></p>प्यास (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2014-09-24:5170231:BlogPost:5775402014-09-24T06:04:30.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>फुसफुसाने की आवाज सुन काजल जैसे ही पास पहुँची सुना कि -तुम आ गये न, मैं जानती थी तुम जरुर आओगें, सब झूठ बोलते थे, तुम नहीं आ सकते अब कभी| <br/>"भाभी आप किससे बात कर रही हैं कोई नहीं हैं यहाँ" <br/>"अरे देखो ये हैं ना खड़े, जाओ पानी ले आओ अपने भैया के लिय बहुत प्यासे है|"<br/>डरी सी अम्मा-अम्मा करते ननद के जाते ही भाभी गर्व से मुस्करा दी| <br/><br/>सविता मिश्रा <br/><br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>
<p>फुसफुसाने की आवाज सुन काजल जैसे ही पास पहुँची सुना कि -तुम आ गये न, मैं जानती थी तुम जरुर आओगें, सब झूठ बोलते थे, तुम नहीं आ सकते अब कभी| <br/>"भाभी आप किससे बात कर रही हैं कोई नहीं हैं यहाँ" <br/>"अरे देखो ये हैं ना खड़े, जाओ पानी ले आओ अपने भैया के लिय बहुत प्यासे है|"<br/>डरी सी अम्मा-अम्मा करते ननद के जाते ही भाभी गर्व से मुस्करा दी| <br/><br/>सविता मिश्रा <br/><br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>सिसकियाँ (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2014-08-25:5170231:BlogPost:5699362014-08-25T08:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>माँ सोनी के कमरे से खूब रोने चीखने की आवाजें आ रही थी, १४ साल की राधा भयभीत हो रसोई में दुबकी रही, जब तक पिता के बाहर जाने की आहट ना सुनी ! बाहर बने मंदिर से पिता हरी की दुर्गा स्तुति की ओजस्वी आवाज गूंजने लगी! भक्तों की "हरी महाराज की जय" के नारे से सोनी की सिसकियाँ दब गयी! पिता के बाहर जाते ही माँ से जा लिपट बोली "माँ क्यों सहती हो?" सोनी घर के मंदिर में बिराजमान सीता की मूर्ति देख मुस्करा दी! अपने घाव पर मलहम लगाते हुए बोली, "मेरा पति और तेरा पिता…</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>माँ सोनी के कमरे से खूब रोने चीखने की आवाजें आ रही थी, १४ साल की राधा भयभीत हो रसोई में दुबकी रही, जब तक पिता के बाहर जाने की आहट ना सुनी ! बाहर बने मंदिर से पिता हरी की दुर्गा स्तुति की ओजस्वी आवाज गूंजने लगी! भक्तों की "हरी महाराज की जय" के नारे से सोनी की सिसकियाँ दब गयी! पिता के बाहर जाते ही माँ से जा लिपट बोली "माँ क्यों सहती हो?" सोनी घर के मंदिर में बिराजमान सीता की मूर्ति देख मुस्करा दी! अपने घाव पर मलहम लगाते हुए बोली, "मेरा पति और तेरा पिता हैं, तू बहुत छोटी है, नहीं समझेगी|"</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>.<br/> सविता मिश्रा<br/> <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></p>गांधी नोटtag:openbooksonline.com,2014-08-21:5170231:BlogPost:5691342014-08-21T07:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span><span>अपनी आबरू बेच जब</span></span> <span><span><br></br> <span>हाथ में नोट आया</span><br></br> <span>लड़की ने नोट पर</span><br></br> <span>अंकित गांधी के चित्र पर</span><br></br> <span>अपनी बेबस नजरों को गड़ाया</span><br></br> <span>गांधी बहुत ही शर्मिंदा हुए</span><br></br> <span>अपनी खुद की नजरों को</span><br></br> <span>जमीं में गड़ता पाया</span><br></br> <span>नहीं मिला पायें नजर</span><br></br> <span>आंसुओं से डबडबाई नजरों से</span><br></br> <span>देश के हालत पर चीत्कार से…</span></span></span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span><span>अपनी आबरू बेच जब</span></span> <span><span><br/> <span>हाथ में नोट आया</span><br/> <span>लड़की ने नोट पर</span><br/> <span>अंकित गांधी के चित्र पर</span><br/> <span>अपनी बेबस नजरों को गड़ाया</span><br/> <span>गांधी बहुत ही शर्मिंदा हुए</span><br/> <span>अपनी खुद की नजरों को</span><br/> <span>जमीं में गड़ता पाया</span><br/> <span>नहीं मिला पायें नजर</span><br/> <span>आंसुओं से डबडबाई नजरों से</span><br/> <span>देश के हालत पर चीत्कार से उठे</span><br/> <span>पर सुनता कौन|</span><br/> <br/> <span>आग पेट की बुझाने</span><br/> <span>के खातिर एक औरत</span><br/> <span>अपनी ही औलाद जब</span><br/> <span>मजबूर हुई बेचने को</span><br/> <span>बेचने के उपरांत जो</span><br/> <span>नोट हाथों में लिया</span><br/> <span>उसने भी गांधी को घूरा</span><br/> <span>खूब आंसू बहाया</span><br/> <span>पर मजबूर थे गांधी भी</span><br/> <span>नजरें ना मिला सकें</span><br/> <span>औरत ने तोड़-मरोड़</span><br/> <span>नोट को ठूंस लिया</span><br/> <span>अपने ही सीने में सिसकते हुए</span><br/> <span>उसी सीनें से जिसमें</span><br/> <span>अब तक उसका लाल</span><br/> <span>छुप जाया करता था</span><br/> <span>पेट की आग बुझाने के खातिर|</span><br/> <br/> <span>मेहनत मजदूरी करते</span><br/> <span>धर दिया ठेकेदार ने</span><br/> <span>चंद नोट शाम को हाथ</span><br/> <span>मेहनताने स्वरूप</span><br/> <span>गांधी छपे उन नोटों को देख</span><br/> <span>मजदूर व्यंग में मुस्काया</span><br/> <span>और मन ही मन बोला</span><br/> <span>वाह रे गांधी क्या तुमने</span><br/> <span>भविष्य हमारा इसी में देखा था</span><br/> <span>तू आज उतार दें अपना ऐनक</span><br/> <span>क्योकि ऐनक में हमें तेरा</span><br/> <span>दोगलापन नजर आता है</span><br/> <span>तू खुद गरीबी का चोला ओढ़</span><br/> <span>हम गरीबों को मुहं चिढ़ाता हैं और</span><br/> <span>अमीरों के घर लाखों-करोड़ों की</span><br/> <span>नोटों में पा खुद को</span><br/> <span>हँसता-खिलखिलाता हैं|</span><br/> <br/> <span>दस साल के एक नौनिहाल की</span><br/> <span>फीस रूप में चंद गांधी नोटों को</span><br/> <span>ना दे पाने की वजह से</span><br/> <span>जब रुक जाती हैं पढ़ाई उसकी</span><br/> <span>फीस के चंद टुकड़े भरने के लिए</span><br/> <span>दर-दर भटकना पड़ता हैं उसे</span><br/> <span>भटकने के उपरान्त जब</span><br/> <span>बीस-पचास के नोट हाथ आते हैं</span><br/> <span>देख मुस्काता तेरा चेहरा</span><br/> <span>लगता है उड़ा रहा हैं खिल्ली</span><br/> <span>तू विदेश से पढ़ लौटा और हमें</span><br/> <span>सड़े-गले सरकारी स्कूल में भी</span><br/> <span>चंद गांधी धारी नोट</span><br/> <span>ना होने की वजह से</span><br/> <span>ठीक ढंग से पढ़ने को भी नहीं मिलता</span><br/> <span>वाह रे गांधी क्या यही सपना</span><br/> <span>हम नौनिहालों के लिय था तूने देखा|</span><br/> <br/> <span>महंगाई के सुरसा रूपी मुहं में</span><br/> <span>अब कोई कीमत ही नहीं रह गयी</span><br/> <span>सौ-पचास के नोटों की</span><br/> <span>तू फिर भी गर्व से छपा हैं उसमें</span><br/> <span>ऐसा लगता हैं खुद ही शर्मिंदा हैं</span><br/> <span>इस बढ़ती हुई महंगाई पर</span><br/> <span>और मुहं छुपा लेना चाहता हैं</span><br/> <span>सौ-पचास के मुड़े-तूड़े नोटों के बीच</span><br/> <span>खुद ही बाहर नहीं आना चाहता</span><br/> <span>कोसता रहता हैं खुद की ही तक़दीर को</span><br/> <span>भिचा हुआ किसी गरीब की मुट्ठी में रह|</span><br/> <br/> <span>अच्छा हुआ तूनें सिक्कों में</span><br/> <span>खुद को नहीं छपने दिया</span><br/> <span>उस पर भारत का गौरव छपा हैं</span><br/> <span>और किसी पर किसान का प्रतीक</span><br/> <span>वर्ना और भी शर्मिंदा होता</span><br/> <span>भिखमंगों के कटोरे में देख</span><br/> <span>नजरें ना मिला पाता</span><br/> <span>तब खुद से ही|</span><br/> <span>पर जब किसी पर्स से सिक्के निकल</span><br/> <span>गरीब के कटोरे में जाते होगें</span><br/> <span>कनखियों से उनकी गत</span><br/> <span>और भारत के गौरव को</span><br/> <span>गरीबों के कटोरे में खनखनाता देख</span><br/> <span>यकीं हैं हमें और भी शर्मिंदा होता होगा</span><br/> <span>सोचता होगा काश मैं सिक्के पर ही होता</span><br/> <span>नोटों पर भारत का गौरव होता</span><br/> <span>कम से कम हमारे देश में गौरव को</span><br/> <span>इतना तो शर्मिंदा ना होना होता|</span><br/> <br/> <span>मेरी उलाहोनों को सुन कर गांधी</span><br/> <span>बहुत ही शर्मिंदा हुए और बोले</span><br/> <span>हो सकें तो मेरी आवाज उप्पर तक पहुंचा दो</span><br/> <span>नोटों के बजाय मुझे सिक्के में ही ढलवा दो| सविता मिश्रा<br/> <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></span></span></p>दिल की सच्चाईtag:openbooksonline.com,2014-08-19:5170231:BlogPost:5685052014-08-19T08:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>हे प्रभु, सुन !<br></br> कर दें अँधेरा<br></br> चारों तरफ.. . <br></br> उजाले काटते हैं / छलते है !<br></br> लगता है अब डर<br></br> उजालें से<br></br> दिखती हैं जब<br></br> अपनी ही परछाई -<br></br> छोटी से बड़ी<br></br> बड़ी से विशालकाय होती हुई.<br></br> भयभीत हो जाती हूँ !<br></br> मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,<br></br> ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !<br></br> जब होगा अँधेरा चारों ओर<br></br> नहीं दिखेगा<br></br> आदमी को आदमी !<br></br> यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.<br></br> फिर तो मन की आँखें<br></br> स्वतः खुल जाएँगी !<br></br> देख…</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>हे प्रभु, सुन !<br/> कर दें अँधेरा<br/> चारों तरफ.. . <br/> उजाले काटते हैं / छलते है !<br/> लगता है अब डर<br/> उजालें से<br/> दिखती हैं जब<br/> अपनी ही परछाई -<br/> छोटी से बड़ी<br/> बड़ी से विशालकाय होती हुई.<br/> भयभीत हो जाती हूँ !<br/> मेरी ही परछाई मुझे डंस न ले,<br/> ख़त्म कर दे मेरा अस्तित्व !<br/> जब होगा अँधेरा चारों ओर<br/> नहीं दिखेगा<br/> आदमी को आदमी !<br/> यहाँ तक कि हाथ को हाथ भी.<br/> फिर तो मन की आँखें<br/> स्वतः खुल जाएँगी !<br/> देख सकेंगे फिर सभी...<br/> / और मैं भी /<br/> दिल की सच्चाई !</span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>............</span></span></span></p>
<p></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span>सविता मिश्रा<br/> <br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></p>'संस्कार' कहानीtag:openbooksonline.com,2014-08-15:5170231:BlogPost:5667212014-08-15T18:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>सुमन बदहवास सी घटना स्थल पर पहुंची, अपने बेटे प्रणव की हालत देख बिलखने लगी| भीड़ की खुसफुस सुन वह सन्न सी रह गयी, एक नवयुवती की आवाज सुमन को तीर सी जा चुभी "लड़की छेड़ रहा था उसके भाई ने कितना मारा, कैसा जमाना आ गया ......|" "अरे नहीं, 'भाई नहीं थे', देखो वह लड़की अब भी खड़ी हो सुबक रही है" बगल में खड़ी बुजुर्ग महिला बोली ....यह सुन सुमन का खून खौल उठा, और शर्म से नजरें नीची हो गयी| प्रणव पर ही बरस पड़ी "तुझे क्या ऐसे 'संस्कार' दिए थे हमने करमजले, अच्छा हुआ जो तेरे बहन नहीं है| प्राण ..."मम्मी…</p>
<p>सुमन बदहवास सी घटना स्थल पर पहुंची, अपने बेटे प्रणव की हालत देख बिलखने लगी| भीड़ की खुसफुस सुन वह सन्न सी रह गयी, एक नवयुवती की आवाज सुमन को तीर सी जा चुभी "लड़की छेड़ रहा था उसके भाई ने कितना मारा, कैसा जमाना आ गया ......|" "अरे नहीं, 'भाई नहीं थे', देखो वह लड़की अब भी खड़ी हो सुबक रही है" बगल में खड़ी बुजुर्ग महिला बोली ....यह सुन सुमन का खून खौल उठा, और शर्म से नजरें नीची हो गयी| प्रणव पर ही बरस पड़ी "तुझे क्या ऐसे 'संस्कार' दिए थे हमने करमजले, अच्छा हुआ जो तेरे बहन नहीं है| प्राण ..."मम्मी सुनो तो मैंने ....!" पर सुमन बड़बड़ाती उस लड़की की तरह जाकर बोली "बेटी माफ़ करना, ऐसा नहीं हैं वह, बस संगत आजकल गलत हो गयी है उसकी, बहुत शर्मिंदा ...." "नहीं नहीं आंटी जी उसकी कोई गलती नहीं वह तो मुझे बचा रहा था, उसके साथ जो लड़के थे उन्होंने ही आपके बेटे की यह हालत की, सब भीड़ देख भाग खड़े हुए वर्ना ना जाने क्या होता...!" लड़की सुबकते हुए बोली| <br/> <br/> <span><span class="UFICommentBody"><span><span>सुन अचानक गर्व हो आया अपने बेटे पर| बेटे के पास जा उसका सर गोद में रख "हमें माफ़ कर देना मेरे बच्चे, हमने कैसे समझ लिया कि मेरा आदर्श बेटा ऐसा कुछ कर सकता है" बिलखते हुए बोली "तुझे समझाती थी न कि संगत अच्छी र</span></span><span><span><span>ख, देखा अब|" "कोई अम्बुलेंस बुलाओ" चीखने लगी सुमन, अब उसकी आँखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे| "संस्कार चाहे जितने भी अच्छे हों बुरी संगत का फल तो भोगना ही पड़ता है" तेरी यह बात गाँठ बाँध ली मैंने, अब बुरी संगत छोड़ दूंगा माँ" .सुन <span><span class="UFICommentBody"><span><span><span>गर्व से <span><span class="UFICommentBody"><span><span><span>सुमन का </span></span></span></span></span>सर ऊँचा हो गया था|</span></span></span></span></span>...सविता मिश्रा</span></span></span></span></span>.....</p>
<p></p>
<p>.</p>
<p>सविता मिश्रा</p>
<p>"मौलिक व अप्रकाशित"</p>बलिदानी.....तुकांत कविताtag:openbooksonline.com,2014-08-13:5170231:BlogPost:5341102014-08-13T14:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span class="UFICommentBody"><span class="userContent">देख तेरे देश की हालत क्या हो गयी बलिदानी<br></br> कितना बदल गया है यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|<span class="text_exposed_show"><br></br><span><span class="UFICommentBody"><span class="userContent"><span class="text_exposed_show"><br></br>की क्यों तुने स्वदेश पर मर मिटने की नादानी<br></br>अपनों में ही खोया यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|<br></br><br></br>की क्यों तुने स्वदेश पर मर मिटने की नादानी<br></br>अपनों में ही खोया यहाँ हर एक…</span></span></span></span></span></span></span></span></p>
<p><span><span class="UFICommentBody"><span class="userContent">देख तेरे देश की हालत क्या हो गयी बलिदानी<br/> कितना बदल गया है यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|<span class="text_exposed_show"><br/><span><span class="UFICommentBody"><span class="userContent"><span class="text_exposed_show"><br/>की क्यों तुने स्वदेश पर मर मिटने की नादानी<br/>अपनों में ही खोया यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|<br/><br/>की क्यों तुने स्वदेश पर मर मिटने की नादानी<br/>अपनों में ही खोया यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|</span></span></span></span><br/><br/>जाये भाड़ में कहाँ हैं सोचता कोई देश के लिए यहाँ<br/>तुने किसके लिए लुटा दिया अपना सारा ही जहाँ|<br/><br/>धोखा-फरेब-छल तो सभी ने करने की हैं ठानी<br/>मर मिटा तू किसके लिए ओ मुरख बलिदानी|<br/><br/>मरा तू तिरंगे की शान में देख उसका निरादर<br/>होता जिन्दा गर तू तो झुक जाता तेरा भी सर|<br/><br/>उल्टा फहरा कभी, कभी अंगवस्त्र केक तिरंगा कभी काट देते <br/>बलिदानियों को भी यहाँ अब लोग मजहबो में बाँट देते |<br/><br/>सर झुकाना था जहाँ खानापूर्ति महज वहां कर आते है<br/>अमर-ज्योति को भी खण्डित अब बेशर्म कर जाते है|<br/><br/>जिसके लिए तुने जान कीमती <span><span class="UFICommentBody"><span class="userContent"><span class="text_exposed_show">अपनी</span></span></span></span> गँवाई<br/>वही अब कर रहा तैयार तेरे लिए गहरी खाई|<br/> <br/>तुझे कर याद आज फिर आंखे भर आयी<br/> सब के सब हुए है यहाँ आज आततायी|<br/> <br/> देख तेरे देश की हालत क्या हो गयी बलिदानी<br/> कितना बदल गया है यहाँ हर एक हिन्दुस्तानी|</span></span><br/> <span>++ सविता मिश्रा ++<br/></span></span></span> <br/> <span><span class="UFICommentBody"><span><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></p>स्व रक्षार्थ का भार भेजा है (तुकांत कविता )tag:openbooksonline.com,2014-08-07:5170231:BlogPost:5644812014-08-07T05:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>रक्षा सूत्र में पिरोकर अपना प्यार भेजा है <br></br> भैया तुझे मैंने स्व रक्षार्थ का भार भेजा है|<br></br> <br></br> माना मन में तेरे राखी का सम्मान नहीं <br></br> बड़े मान से हमने अपना दुलार भेजा है|<br></br> <br></br> रिश्ता भाई बहन का हैं एक अटूट बंधन<br></br> होता जार जार जो सब जोरजार भेजा है|<br></br> <br></br> ढुलक गया मोती जो मेरी नम आँखों से <br></br> पिरोकर मोती हमने उपहार भेजा है|<br></br> <br></br> गिले शिकवे भूल सारे फिर एक बार <br></br> सहेज कर यादें लिफ़ाफ़े में मधुर भेजा है|<br></br> <br></br> राखी दो पैसे की हो या हजारों की भैया…</p>
<p>रक्षा सूत्र में पिरोकर अपना प्यार भेजा है <br/> भैया तुझे मैंने स्व रक्षार्थ का भार भेजा है|<br/> <br/> माना मन में तेरे राखी का सम्मान नहीं <br/> बड़े मान से हमने अपना दुलार भेजा है|<br/> <br/> रिश्ता भाई बहन का हैं एक अटूट बंधन<br/> होता जार जार जो सब जोरजार भेजा है|<br/> <br/> ढुलक गया मोती जो मेरी नम आँखों से <br/> पिरोकर मोती हमने उपहार भेजा है|<br/> <br/> गिले शिकवे भूल सारे फिर एक बार <br/> सहेज कर यादें लिफ़ाफ़े में मधुर भेजा है|<br/> <br/> राखी दो पैसे की हो या हजारों की भैया <br/> चंद धागों में लिपटा प्यार बेशुमार भेजा है|<br/> <br/> मतलब के हो गये सारे ही रिश्तें नाते <br/> हो मधुर रिश्तें सन्देश दें मधुकर भेजा है|<br/> <br/> माना होता प्रगाढ़ बहुत खून का रिश्ता <br/> स्नेह अपार निहित राखी का तार भेजा है|<br/> <br/> क्रांति चेहरे की भैया हो ना फीकी कभी<br/> हरने सारे गम माँ का प्यार विधर भेजा है|</p>
<p>.</p>
<p>सविता मिश्रा</p>
<p><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"<br/> <br/></strong></span></p>अतुकांत कविता .....प्रवृत्ति.....tag:openbooksonline.com,2014-08-05:5170231:BlogPost:5318482014-08-05T04:31:02.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span class="userContent">एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं सुख-दुःख,<br></br> फिर क्यों लगता है - <br></br> -सापेक्ष सुख के नहले पर दहला सा दुःख ?<br></br> - सुख मानो ऊंट के मुहं में जीरा-सा ?<br></br> आखिर क्यों नहीं हम रख पाते निरपेक्ष भाव ? <br></br> <br></br> प्यार-नफ़रत तो हैं सामान्य मानवी प्रवृत्ति ! <br></br> फिर भी - <br></br> प्यार पर नफ़रत लगती सेर पर सवा सेर ,<span class="text_exposed_show"><br></br> प्यार कितना भी मिले दाल में नमक-सा लगता ! <br></br> थोड़ी भी नफ़रत पहाड़ सी क्यों दिखती है आखिर ?<br></br> <br></br> होते हैं…</span></span></p>
<p><span class="userContent">एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं सुख-दुःख,<br/> फिर क्यों लगता है - <br/> -सापेक्ष सुख के नहले पर दहला सा दुःख ?<br/> - सुख मानो ऊंट के मुहं में जीरा-सा ?<br/> आखिर क्यों नहीं हम रख पाते निरपेक्ष भाव ? <br/> <br/> प्यार-नफ़रत तो हैं सामान्य मानवी प्रवृत्ति ! <br/> फिर भी - <br/> प्यार पर नफ़रत लगती सेर पर सवा सेर ,<span class="text_exposed_show"><br/> प्यार कितना भी मिले दाल में नमक-सा लगता ! <br/> थोड़ी भी नफ़रत पहाड़ सी क्यों दिखती है आखिर ?<br/> <br/> होते हैं मान-अपमान एक थाली के चट्टे-बट्टे ! <br/> मिले मान तो होता गर्व, होती छाती चौड़ी ,<br/> और अपमान पर तिलमिला जातें हैं क्रोध से !<br/> पढ़ा है पर भूल जाते हैं पाठ सहिष्णुता का ! <br/> क्यों नहीं दोनों को समरूप ग्रहण कर पाते हम ? <br/> <br/> जीवन-संगीत के दो सुर हैं हार-जीत ! <br/> एक की हार में होती दूजे की जीत निहित ! <br/> जीतते हैं तो आसमान महसूसते हैं मुट्ठी में , <br/> मिले हार तो चाहते हैं धरती में समा जाना ! <br/> आखिर क्यों - <br/> हार-जीत की कसौटी पर उतर जाता रंग हमारा ?<br/> <br/> कोई नही होता सिर्फ अच्छा या सिर्फ बुरा ! <br/> अच्छाई और बुराई - <br/> एक म्यान में समायी रहतीं हैं दो तलवारों सी ! <br/> लेकिन सुन बड़ाई अपनी असीमित होता है आनंद ,<br/> हो बुराई तो हो जाती है <strong>प्रज्ज्वलित</strong> क्रोधाग्नि !<br/> आखिर क्यों प्रशंसा पर भारी पड़ जाती हैं निंदा ?</span></span><br/> सविता मिश्रा <br/> १४/२/२०१२<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>चोकाtag:openbooksonline.com,2014-08-04:5170231:BlogPost:5643602014-08-04T06:51:30.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>मेघ निबह<br></br>श्याम श्वेत निर्मोही<br></br>भ्रम फैलाये<br></br>उड़ती घटा छाये<br></br>सूर्य आछन्न<br></br>दुविधा में फंसाए<br></br>काम बढाए<br></br>अकस्मात बरखा<br></br>बाहर डाले<br></br>कपड़े निकालते<br></br>फिर डालते<br></br>गृहलक्ष्मी दुचित्ता<br></br>क्रोध बढ़ाए<br></br>उलझौआ पयोद<br></br>वक्त कीमती<br></br>दुरुपयोग होता<br></br>वक्त भागता<br></br>सुना था कभी कही<br></br>खुद पे बीती<br></br>खीझ दुघडिया पे <br></br>भुनभुनाती<br></br>काम है निपटाने<br></br>प्रावृट् बदरा<br></br>तुझे सूझे नौटंकी<br></br>घुंघट ओढ़ <br></br>हुई तू तो बावरी| <br></br>तंग गृहणी<br></br>मेघ निरंग निस्तारा <br></br>भ्रान्ति…</p>
<p>मेघ निबह<br/>श्याम श्वेत निर्मोही<br/>भ्रम फैलाये<br/>उड़ती घटा छाये<br/>सूर्य आछन्न<br/>दुविधा में फंसाए<br/>काम बढाए<br/>अकस्मात बरखा<br/>बाहर डाले<br/>कपड़े निकालते<br/>फिर डालते<br/>गृहलक्ष्मी दुचित्ता<br/>क्रोध बढ़ाए<br/>उलझौआ पयोद<br/>वक्त कीमती<br/>दुरुपयोग होता<br/>वक्त भागता<br/>सुना था कभी कही<br/>खुद पे बीती<br/>खीझ दुघडिया पे <br/>भुनभुनाती<br/>काम है निपटाने<br/>प्रावृट् बदरा<br/>तुझे सूझे नौटंकी<br/>घुंघट ओढ़ <br/>हुई तू तो बावरी| <br/>तंग गृहणी<br/>मेघ निरंग निस्तारा <br/>भ्रान्ति से छुटकारा| सविता मिश्रा<br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/><br/></p>अतुकांत कविताtag:openbooksonline.com,2014-07-30:5170231:BlogPost:5632422014-07-30T10:00:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span><span><span><span>सोचा था आईने की तरह<br></br> साफ़ <strong>रखूँगी</strong> अपना चेहरा<br></br> पर कुछ तो है जो छिपा जाती हूँ<br></br> यूँ भाव चेहरे के बदल लेती हूँ<br></br> कि कहीं प्रतीयमान न हो जाये| <br></br> <br></br> बोलती थी कभी बेधड़क हो<br></br> कुछ तो है जो किसी कोने में<br></br> मौनव्रत रख बैठ जाती हूँ<br></br> कि कही कुछ प्रतीप न हो जाये|<span><br></br> <br></br> आँखों में भी दिखता था कभी<br></br><strong>दूसरे</strong> की गलत बातो का <strong>प्रतिकार</strong> <br></br> पर किसी का तो डर है जो<br></br> अब आँखों को झुका लेती हूँ…<br></br></span></span></span></span></span></p>
<p><span><span><span><span>सोचा था आईने की तरह<br/> साफ़ <strong>रखूँगी</strong> अपना चेहरा<br/> पर कुछ तो है जो छिपा जाती हूँ<br/> यूँ भाव चेहरे के बदल लेती हूँ<br/> कि कहीं प्रतीयमान न हो जाये| <br/> <br/> बोलती थी कभी बेधड़क हो<br/> कुछ तो है जो किसी कोने में<br/> मौनव्रत रख बैठ जाती हूँ<br/> कि कही कुछ प्रतीप न हो जाये|<span><br/> <br/> आँखों में भी दिखता था कभी<br/><strong>दूसरे</strong> की गलत बातो का <strong>प्रतिकार</strong> <br/> पर किसी का तो डर है जो<br/> अब आँखों को झुका लेती हूँ<br/> कि कही कोई प्रतिलोम ना हो जाये| <br/> <br/> किसी भी घटना पर कुछ कह ना दूँ<br/> इसी कारण खुद को परे कर लेती हूँ<br/> सुनने की आदत नहीं है अतः<br/> झगड़े से खुद को ही परे रख<br/> अपने उद्वेलित भाव छुपा लेती हूँ<br/> कि कही कोई प्रतिवाद ना हो जाये|<br/> <br/> किसी भी अंगप्रत्यंग से<br/> प्रतिबोध झलक ना जाये <br/> इसी डर से अब मैं अक्सर<br/> लोगो से कतराने लगी हूँ<br/> भीड़ से परे रखती हूँ खुद को<br/> कि कोई कही प्रतिघाती न हो जाये|| </span></span></span></span></span></p>
<p></p>
<p><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span><span>सविता मिश्रा<br/> <span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/></span></span></span></span></span></span></span></span></span></span></span></p>हायकुtag:openbooksonline.com,2014-07-01:5170231:BlogPost:5546852014-07-01T15:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span>भूख</span><br></br> <span>====</span><br></br> <br></br> <span>भूख हायकु</span><br></br> <span>विचलित है मन</span><br></br> <span>शब्द मनन|</span><br></br> <br></br> <span>पत्तल झूँठा</span><br></br> <span>चाट भरता पेट</span><br></br> <span>अमीर शेष|</span><br></br> <br></br> <span>झूठन चाट</span><br></br> <span>शांत की उदराग्नि</span><br></br> <span>कुत्तों के संग|</span><br></br> <br></br> <span>भृत्य लाड़ले ...सेवक</span><br></br> <span>अवशेष भोजन</span><br></br> <span>भूख मिटाते|</span><br></br> <br></br> <span>सगाई-शादी</span><br></br> <span>क्यों भोजन…</span></p>
<p><span>भूख</span><br/> <span>====</span><br/> <br/> <span>भूख हायकु</span><br/> <span>विचलित है मन</span><br/> <span>शब्द मनन|</span><br/> <br/> <span>पत्तल झूँठा</span><br/> <span>चाट भरता पेट</span><br/> <span>अमीर शेष|</span><br/> <br/> <span>झूठन चाट</span><br/> <span>शांत की उदराग्नि</span><br/> <span>कुत्तों के संग|</span><br/> <br/> <span>भृत्य लाड़ले ...सेवक</span><br/> <span>अवशेष भोजन</span><br/> <span>भूख मिटाते|</span><br/> <br/> <span>सगाई-शादी</span><br/> <span>क्यों भोजन बर्बादी</span><br/> <span>बिलखे तन|</span><br/> <br/> <span>भोज्य बर्बाद</span><br/> <span>शादी समारोह</span><br/> <span>गरीब टूटे| सविता मिश्रा<br/> <br/> <strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong><br/></span></p>उफ़ गर्मी बहुत है रे ....tag:openbooksonline.com,2014-06-18:5170231:BlogPost:5496932014-06-18T05:51:58.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p><span class="userContent">उफ़ गर्मी बहुत है रे <br></br> पैसे कौड़ी रह रह दिखाए <br></br> पास खड़ी खूब इतराए <br></br> महंगी से महंगी साड़ी पहने <br></br> गले में हीरो के लादे गहने <br></br> उफ़ गर्मी बहुत है रे ....<br></br> <br></br> मंहगे पार्लर में जा के आये <br></br> कृतिम सुन्दरता पर भी इतराए <br></br> बालों की सफेदी मंहगे कलर से छुपाये <span class="text_exposed_show"><br></br> पैडी-मैनी क्योर न जाने क्या क्या करवाए <br></br> दात भी डाक्टर से चमकवाये <br></br> अपनी हर कुरूपता छुपाये <br></br> उफ़ गर्मी बहुत है रे.....<br></br> <br></br> पति की नौकरी…</span></span></p>
<p><span class="userContent">उफ़ गर्मी बहुत है रे <br/> पैसे कौड़ी रह रह दिखाए <br/> पास खड़ी खूब इतराए <br/> महंगी से महंगी साड़ी पहने <br/> गले में हीरो के लादे गहने <br/> उफ़ गर्मी बहुत है रे ....<br/> <br/> मंहगे पार्लर में जा के आये <br/> कृतिम सुन्दरता पर भी इतराए <br/> बालों की सफेदी मंहगे कलर से छुपाये <span class="text_exposed_show"><br/> पैडी-मैनी क्योर न जाने क्या क्या करवाए <br/> दात भी डाक्टर से चमकवाये <br/> अपनी हर कुरूपता छुपाये <br/> उफ़ गर्मी बहुत है रे.....<br/> <br/> पति की नौकरी पर इठलाये <br/> रह रह बड़ा अफसर बतलाये <br/> भले पति देता न हो रत्ती भर भाव <br/>कहती जमीं पर रखने नहीं देता पाँव <br/> कहती फिरे फूलों की सेज पर सोये <br/> पति करता खूब प्यार मुनादी करवाए <br/> अपने प्रेम की झूठी तस्वीरें दिखलाये <br/> उफ़ गर्मी बहुत है रे.....<br/> <br/> बच्चो की बडाई करते नहीं अघाए <br/> रह रह उनकी कमायाबी बतलाये <br/> फेल हुए को भी पास दिखाए<br/> उनकी नौकरी पर भी इतराए <br/> असंस्कारी को संस्कारी जतलाये <br/> अच्छी खासी आई शादी भी ठुकराए <br/> उफ़ गर्मी बहुत है रे .....<br/> <br/> जताती सास ससुर की करती सेवा <br/> पर चुप्पे-चुप्पे खाती रहती मेवा <br/> सुखी रोटी परोस कहती ला जेवा <br/> पति सामने हो तो मुस्काती रहे <br/> पीठ पीछे सास ससुर को आँख दिखाए<br/> बुजुर्ग त्रिया चरित्र इसी को कह गये <br/> उफ़ गर्मी बहुत है रे.....सविता मिश्रा <br/><br/><span style="text-decoration: underline;"><strong>"मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span><br/><br/></span></span></p>हथियारtag:openbooksonline.com,2013-12-19:5170231:BlogPost:4888862013-12-19T04:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>हथियार<br></br> ==========<br></br> क्या नारी ने <br></br> सारी शक्तिया <br></br> समाहित कर ली हैं<br></br> खुद में ही <br></br> या इस्तेमाल हो रही हैं <br></br> हथियार की तरह<br></br> या हथियार बन <br></br> उठ खड़ीं हो गयी हैं<br></br> खुद ही संघार <br></br> करने के लिए<br></br> पापियों का <br></br> क्या अच्छे लोग भी <br></br> फंस रहे हैं इस<br></br> मकड़जाल में <br></br> खूब की हमने भी <br></br> माथा पच्ची पर <br></br> भगवान् ना थे हम <br></br> कि सुन-समझ-देख पाए <br></br> आखिर मांजरा क्या हैं <br></br> समझ पाए कि कौन <br></br> इस्तेमाल हो रहा हैं <br></br> कौन किया जा रहा हैं…</p>
<p>हथियार<br/> ==========<br/> क्या नारी ने <br/> सारी शक्तिया <br/> समाहित कर ली हैं<br/> खुद में ही <br/> या इस्तेमाल हो रही हैं <br/> हथियार की तरह<br/> या हथियार बन <br/> उठ खड़ीं हो गयी हैं<br/> खुद ही संघार <br/> करने के लिए<br/> पापियों का <br/> क्या अच्छे लोग भी <br/> फंस रहे हैं इस<br/> मकड़जाल में <br/> खूब की हमने भी <br/> माथा पच्ची पर <br/> भगवान् ना थे हम <br/> कि सुन-समझ-देख पाए <br/> आखिर मांजरा क्या हैं <br/> समझ पाए कि कौन <br/> इस्तेमाल हो रहा हैं <br/> कौन किया जा रहा हैं <br/> और कौन खुद ही<br/> अनजाने में ही सही <br/> इस्तेमाल हो चुका हैं <br/> साक्षात् भगवान् भी <br/> आ जाये आज तो <br/> ना समझा पाए हमें<br/> कारक कर्म और कर्ता<br/> के बीच की कड़ी <br/> असमंजस में हैं हम <br/> किसे कहें सही <br/> मरने वालों को या <br/> जिन्दा रह <br/> सारे आरोपों को <br/> झेलने वालो को<br/> इस असमंजस से <br/> ये नारी तू ही हैं बस <br/> जो उबार सकती हैं हमें <br/> पर अफ़सोस तू <br/> खामोश हैं|.<br/> <br/> <br/> सविता मिश्रा<br/> "मौलिक व अप्रकाशित"</p>अतुकांत कविता .... लड़ूँगी प्रभु सेtag:openbooksonline.com,2013-12-07:5170231:BlogPost:4837002013-12-07T06:30:00.000Zsavitamishrahttp://openbooksonline.com/profile/savitamisra
<p>सोच रही हूँ<br/>लड़ूँगी प्रभु से<br/>जब मिलूँगी पर वह भी<br/>डर से<br/>छुपा बैठा है , आता ही नहीं<br/>बुलाने पर हमारे हमारी जिन्दगी को<br/>तबाह किये बैठा है , जिस दिन भी<br/>मिलेगा सुनाउँगी<br/>उसे बहुत जानता हैं<br/>वह भी शायद<br/>इसी लिए मेरी जिन्दगी<br/>की डोर को<br/>ढील दिए<br/>बैठा है ....<br/>. <br/>सविता मिश्रा<br/>"मौलिक व अप्रकाशित"<br/><br/></p>
<p>सोच रही हूँ<br/>लड़ूँगी प्रभु से<br/>जब मिलूँगी पर वह भी<br/>डर से<br/>छुपा बैठा है , आता ही नहीं<br/>बुलाने पर हमारे हमारी जिन्दगी को<br/>तबाह किये बैठा है , जिस दिन भी<br/>मिलेगा सुनाउँगी<br/>उसे बहुत जानता हैं<br/>वह भी शायद<br/>इसी लिए मेरी जिन्दगी<br/>की डोर को<br/>ढील दिए<br/>बैठा है ....<br/>. <br/>सविता मिश्रा<br/>"मौलिक व अप्रकाशित"<br/><br/></p>