Mala Jha's Posts - Open Books Online2024-03-28T10:46:40ZMala Jhahttp://openbooksonline.com/profile/MalaJhahttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991294127?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=1z4ycls6qb04m&xn_auth=noसोचtag:openbooksonline.com,2015-05-02:5170231:BlogPost:6499192015-05-02T04:00:00.000ZMala Jhahttp://openbooksonline.com/profile/MalaJha
<p>चाहा है तुमने मुझे हर रंग में, हर रूप में ।</p>
<p>साथ दिया है तुमने हर छाँव में, हर धूप में ।<br></br> सोचती हूँ लेकिन कभी यूँ ही बैठकर , ..<br></br> जब जिंदगी की गोधूली बेला आएगी,<br></br> चेहरे पर झुर्रियां और बालो में सफ़ेदी छायेगी,<span class="text_exposed_show"><br></br> जब मेरे अधर न होंगे गुलाबों जैसे,<br></br> आँखें न होंगी गहरी झील जैसी ,<br></br> क्या तुम तब भी इन आँखों में खो जाओगे?<br></br> क्या अधरों पर प्रेम चिन्ह दे पाओगे ?<br></br> क्या कई दिनों से उलझी जुल्फों को सुलझा पाओगे ?<br></br> सोचती हूँ बस यूँ ही…</span></p>
<p>चाहा है तुमने मुझे हर रंग में, हर रूप में ।</p>
<p>साथ दिया है तुमने हर छाँव में, हर धूप में ।<br/> सोचती हूँ लेकिन कभी यूँ ही बैठकर , ..<br/> जब जिंदगी की गोधूली बेला आएगी,<br/> चेहरे पर झुर्रियां और बालो में सफ़ेदी छायेगी,<span class="text_exposed_show"><br/> जब मेरे अधर न होंगे गुलाबों जैसे,<br/> आँखें न होंगी गहरी झील जैसी ,<br/> क्या तुम तब भी इन आँखों में खो जाओगे?<br/> क्या अधरों पर प्रेम चिन्ह दे पाओगे ?<br/> क्या कई दिनों से उलझी जुल्फों को सुलझा पाओगे ?<br/> सोचती हूँ बस यूँ ही बैठकर ,<br/> क्या उम्र भर मेरा साथ निभाओगे ? ????</span></p>
<p></p>
<p><span class="text_exposed_show">माला झा "खुशबू"</span></p>
<p><span class="text_exposed_show">(मौलिक एवम् अप्रकाशित)</span></p>गुज़रा ज़मानाtag:openbooksonline.com,2015-05-01:5170231:BlogPost:6491052015-05-01T06:26:36.000ZMala Jhahttp://openbooksonline.com/profile/MalaJha
<p>वो ज़माना ही कुछ और था<br></br> हौसलों और उम्मीदों का दौर था !</p>
<div class="text_exposed_show"><p>आसमां के सितारे भी पास नज़र आते थे!<br></br> हर हद से गुज़र जाने का दौर था!!</p>
<p>माना कि मुफलिसी भरी थी वो ज़िन्दगी!<br></br> उस ज़िन्दगी में जीने का, मज़ा ही कुछ और था!!</p>
<p>नींद आती नही महलों के नर्म गद्दों पर!<br></br> झोपडी के चीथड़ों पर सोने का, मज़ा ही कुछ और था!!</p>
<p>न जाने क्यों हर वो शख़्स ख़फ़ा ख़फ़ा सा नज़र आता है!<br></br> मुस्कुराकर कर जिनसे गले लग जाने का,मज़ा ही कुछ और था!!</p>
<p>अब तो दिल की बातें दिल…</p>
</div>
<p>वो ज़माना ही कुछ और था<br/> हौसलों और उम्मीदों का दौर था !</p>
<div class="text_exposed_show"><p>आसमां के सितारे भी पास नज़र आते थे!<br/> हर हद से गुज़र जाने का दौर था!!</p>
<p>माना कि मुफलिसी भरी थी वो ज़िन्दगी!<br/> उस ज़िन्दगी में जीने का, मज़ा ही कुछ और था!!</p>
<p>नींद आती नही महलों के नर्म गद्दों पर!<br/> झोपडी के चीथड़ों पर सोने का, मज़ा ही कुछ और था!!</p>
<p>न जाने क्यों हर वो शख़्स ख़फ़ा ख़फ़ा सा नज़र आता है!<br/> मुस्कुराकर कर जिनसे गले लग जाने का,मज़ा ही कुछ और था!!</p>
<p>अब तो दिल की बातें दिल में ही रह जाती हैं!<br/> बड़ी बेबाकी से हर बात कह देने का, ज़ज़्बा ही कुछ और था!!</p>
<p>(मौलिक एवम् अप्रकाशित)</p>
<p>माला झा "खुशबू"</p>
</div>काला पानी (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2015-04-25:5170231:BlogPost:6449602015-04-25T04:30:00.000ZMala Jhahttp://openbooksonline.com/profile/MalaJha
<p>"अरे राधेलाल,फिर चाय का ठेला! तुम तो अपना धंधा समेटकर अपने बेटे और बहू के घर चले गए थे।"<br></br> "अरे सिन्हा साब!वो घर नही,काला पानी है काला पानी!सभी अपने ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हैं कि न कोई मुझसे बात करता और न कोई मेरी बात सुनता।बस सारा दिन या तो टी वी देखो या फिर छत और दीवारों को ताको।भाग आया।यहाँ आपलोगों के साथ बतियाते और चाय पिलाते बड़ा अच्छा समय बीत जाता है।अरे,आप किस सोच में पड़ गए?"<br></br> "सोच रहा हूँ कि मै तो तुम्हारी तरह चाय का ठेला भी नही लगा सकता।बेटा बहुत बड़ा अफ़सर जो ठहरा।"फीकी हँसी…</p>
<p>"अरे राधेलाल,फिर चाय का ठेला! तुम तो अपना धंधा समेटकर अपने बेटे और बहू के घर चले गए थे।"<br/> "अरे सिन्हा साब!वो घर नही,काला पानी है काला पानी!सभी अपने ज़िन्दगी में इतने व्यस्त हैं कि न कोई मुझसे बात करता और न कोई मेरी बात सुनता।बस सारा दिन या तो टी वी देखो या फिर छत और दीवारों को ताको।भाग आया।यहाँ आपलोगों के साथ बतियाते और चाय पिलाते बड़ा अच्छा समय बीत जाता है।अरे,आप किस सोच में पड़ गए?"<br/> "सोच रहा हूँ कि मै तो तुम्हारी तरह चाय का ठेला भी नही लगा सकता।बेटा बहुत बड़ा अफ़सर जो ठहरा।"फीकी हँसी के साथ चाय का प्याला होठों से लगा लिया।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>नक़ाब (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2015-04-23:5170231:BlogPost:6445442015-04-23T13:30:00.000ZMala Jhahttp://openbooksonline.com/profile/MalaJha
<p>" अब्बू ,ये नकाब और ये बुर्का? मैं नहीं पहनूंगी बस। "कहते हुए नीलोफर बाहर निकल गयी।<br/> "क्या आप भी नीलोफर के अब्बा।ज़माना बदल गया है।आप भी बदल जाइए न।"<br/> "कैसे बताऊँ तुमलोगों को बेग़म। ज़माना बिलकुल भी नहीं बदला है।बल्कि और भी बदतर हो गया है लड़कियों के लिए।"<br/> कहते हुए हुए सिद्दकी साहब के जहन में वे सारी एक्स रे जैसी निगाहें घूमने लगीं जो कल बाज़ार में उनकी मासूम बच्ची के शरीर को छेदती हुई उनके दिल में सुई की तरह चुभ रही थीं।</p>
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<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>
<p>" अब्बू ,ये नकाब और ये बुर्का? मैं नहीं पहनूंगी बस। "कहते हुए नीलोफर बाहर निकल गयी।<br/> "क्या आप भी नीलोफर के अब्बा।ज़माना बदल गया है।आप भी बदल जाइए न।"<br/> "कैसे बताऊँ तुमलोगों को बेग़म। ज़माना बिलकुल भी नहीं बदला है।बल्कि और भी बदतर हो गया है लड़कियों के लिए।"<br/> कहते हुए हुए सिद्दकी साहब के जहन में वे सारी एक्स रे जैसी निगाहें घूमने लगीं जो कल बाज़ार में उनकी मासूम बच्ची के शरीर को छेदती हुई उनके दिल में सुई की तरह चुभ रही थीं।</p>
<p>.</p>
<p>(मौलिक व अप्रकाशित)</p>