TEJ VEER SINGH's Posts - Open Books Online2024-03-29T10:26:12ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGHhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991293363?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=2fcv6bk2jkr6t&xn_auth=noमेरे पिता मेरा गर्व - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2022-01-08:5170231:BlogPost:10766832022-01-08T07:30:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>मेरे पिता मेरा गर्व<span><span class="Apple-converted-space"> </span> -</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>सुरेखा जी समाज शास्त्र की अध्यापिका होने के कारण <span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> सातवीं कक्षा के बच्चों को <span>"</span>सामाजिक स्तर<span>"</span> क्या होता है। इस विषय पर पढ़ा रहीं थीं। कुछ छात्र सही तौर पर समझ नहीं पा रहे थे। अतः सुरेखा जी ने सभी छात्रों को…</p>
<p>मेरे पिता मेरा गर्व<span><span class="Apple-converted-space"> </span> -</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>सुरेखा जी समाज शास्त्र की अध्यापिका होने के कारण <span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> सातवीं कक्षा के बच्चों को <span>"</span>सामाजिक स्तर<span>"</span> क्या होता है। इस विषय पर पढ़ा रहीं थीं। कुछ छात्र सही तौर पर समझ नहीं पा रहे थे। अतः सुरेखा जी ने सभी छात्रों को<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> शीतकालीन अवकाश में अपने अपने पिता के विषय में एक निबंध लिख कर लाने का गृह कार्य दिया।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>साथ ही यह हिदायत भी दी कि यह निबंध काल्पनिक नहीं होना चाहिये। इसका आधार सत्यता और वास्तविकता को दर्शाता हुआ होना चाहिये।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>आज सुरेखा जी सभी बच्चों द्वारा लिख कर दिये निबंध पढ़ रहीं थीं। अधिकांश बच्चे संपन्न और शिक्षित परिवारों से थे। उनके निबंधों से भी यह प्रतीत हो रहा था। साथ ही यह भी स्पष्ट हो रहा था कि उन्होंने अपने परिवार के किसी सदस्य से मदद लेकर यह निबंध लिखा है। क्योंकि सुरेखा जी सभी छात्रों के बौद्धिक स्तर और क्षमता से पूर्ण रूप से वाक़िफ़ थीं।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>सभी बच्चों की कापियों को जाँचने के बाद सुरेखा जी ने कपिल को अपने पास बुलाया।</p>
<p>सुरेखा जी ने पूरी कक्षा को संबोधित करते हुए बताया कि कपिल ने सबसे अच्छा व प्रेरक<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> निबंध लिखा है। मेरी इच्छा है कि कपिल अपने पिता के बारे में सब को बतायें।</p>
<p><span>"</span>मेरे पिता एक मामूली डाकिया हैं। वे बहुत गरीब परिवार से हैं। इसलिये मेरे सहपाठी मेरा मजाक उड़ाते हैं।वे बहुत पढ़े लिखे हैं लेकिन उन्होंने एक डाकिया बनना पसंद किया। वे सेना में जाना चाहते थे। लेकिन मेरी दादी की इच्छा नहीं थी।<span>”<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>“</span>उनके एक मित्र सेना में थे। उनकी माँ गाँव में अकेली रहती थीं।मेरे पिता उनकी भी अपनी माँ की तरह ही देख भाल करते थे।उनके बेटे के मनीआर्डर भी पिताजी ही लाकर देते थे। पिछले साल उन दादी अम्मा की मृत्यु होने पर जब उनके बेटे को बुलाया गया तो यह भेद खुला कि उनके बेटे की मृत्यु तो एक युद्ध में पांच साल पहले ही हो चुकी थी। मेरे पिताजी अपनी अल्प आय में से अपने मित्र की बूढ़ी माँ को सदमे से बचाने के कारण कुछ रुपये मनीआर्डर के रूप में देते रहते थे।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>इसी सराहनीय कार्य हेतु उनको<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> विभागीय अनुशंसा पर राज्य सरकार द्वारा सम्मानित किया गया।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>अधिकांश बच्चों के सिर झुके हुए थे लेकिन कपिल का सिर गर्व से उठा हुआ था।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>समय का पहिया - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2021-12-11:5170231:BlogPost:10750202021-12-11T07:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>समय का पहिया<span><span class="Apple-converted-space"> </span> -</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>सुशीला ने घर परिवार और समाज के विरोध के बावजूद एक राजपूत लड़के को अपना हमसफ़र बनाने का निर्णय किया। समूचा वैश्य समाज हतप्रभ था उसके इस फ़ैसले पर। लड़का राजपूत वह भी फ़ौज में अफ़सर। सारी बिरादरी लड़की के भाग्य को कोस रही थी। माँ ने तो रो रो कर घर आँसुओं से भर दिया था। उनकी एक ही चिंता थी कि एक बनिये की बेटी राजपूत परिवार में कैसे निभा…</p>
<p>समय का पहिया<span><span class="Apple-converted-space"> </span> -</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>सुशीला ने घर परिवार और समाज के विरोध के बावजूद एक राजपूत लड़के को अपना हमसफ़र बनाने का निर्णय किया। समूचा वैश्य समाज हतप्रभ था उसके इस फ़ैसले पर। लड़का राजपूत वह भी फ़ौज में अफ़सर। सारी बिरादरी लड़की के भाग्य को कोस रही थी। माँ ने तो रो रो कर घर आँसुओं से भर दिया था। उनकी एक ही चिंता थी कि एक बनिये की बेटी राजपूत परिवार में कैसे निभा पायेगी।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>अंततः समाज ने लड़की का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। लड़के ने तो जैसे तैसे अपने घर वालों को राजी कर लिया क्योंकि लड़की एक डाक्टर थी। लेकिन अभी वह इस विवाद के चलते प्रैक्टिस<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> नहीं कर रही थी।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>होनी बड़ी बलवान होती है। उसको कौन टाल सकता है।शादी को अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए थे कि लड़का युद्ध में एक विमान हादसे में शहीद हो गया। लड़की की सासु माँ ने सारा दोष लड़की पर मढ़ दिया। यह अभागी है जो मेरे बेटे को खा गई। इसे अभी इसी वक्त घर से निकाल दो।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>सुशीला का मन इन बातों से तार तार हो गया। उसे घर से निकाला जाए इससे पहले ही वह अपने थोड़े बहुत सामान के साथ निकल पड़ी।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>माँ बाप को जैसे ही जानकारी मिली वे बेटी को लेने पहुँच गये।</p>
<p><span>"</span>चल बेटी सुशीला<span>,</span> अपने घर चल। हम तुझे लेने आये हैं।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>माँ , आप लोगों ने जब मेरा सामाजिक बहिष्कार किया था<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> तभी मेरा बेटी होने का रिश्ता<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> समाप्त हो गया था।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>कैसी बात करती है<span>?</span> वह तेरा घर है।हम तेरा ब्याह अपनी बिरादरी में कर देंगे।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>शादी का तो प्रश्न ही नहीं उठता। मेरे पास मेरे प्यार की निशानी है। अब मैं अपना घर खुद बनाऊंगी।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>रहीम काका - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2021-12-04:5170231:BlogPost:10746132021-12-04T03:57:55.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>रहीम काका <span>-</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p><span>"</span>गोविन्द<span>,</span> यार कहाँ है तू<span>?<span class="Apple-converted-space"> </span></span> बस चलने वाली है।हम<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> बार बार बस वालों को निवेदन कर रुकवा रहे हैं। अब उन्होंने केवल दस मिनट का समय दिया है।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>मैं पांच मिनट में पहुंच रहा हूँ।<span>"…</span></p>
<p>रहीम काका <span>-</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p><span>"</span>गोविन्द<span>,</span> यार कहाँ है तू<span>?<span class="Apple-converted-space"> </span></span> बस चलने वाली है।हम<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> बार बार बस वालों को निवेदन कर रुकवा रहे हैं। अब उन्होंने केवल दस मिनट का समय दिया है।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>मैं पांच मिनट में पहुंच रहा हूँ।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>कालेज की तरफ़ से देहरादून<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> टूर पर दिल्ली के एक कालेज के दो बसों में छात्र और छात्रायें आये थे। आज अंतिम दिन था अतः घूमने<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> की छूट<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> मिली थी।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>सब लोग बसों में सामान लाद कर तैयार हो चुके थे। तभी गोविंद पांच मिनट का बोल कर आधे घंटे से गायब था। उसके दोस्त बार बार मोबाइल मिला रहे थे। कुछ साथी असमंजस में थे कि कहीं कोई लड़की का चक्कर तो नहीं है।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>उसी समय एक दोस्त चिल्लाया<span>,"</span>आ गया गोविंद।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>सबकी निगाहें उधर ही उठ गईं।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>सबने गोविंद को घेर लिया<span>,"</span> क्या मामला है गुरू<span>?</span> कहाँ गये थे<span>?”</span></p>
<p><span>"</span>कुछ नहीं भाई<span>,</span> काका के लिये कुछ गर्म कपड़े लेने थे।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>कौनसे काका<span>?</span> क्यों पागल बना रहा है।तेरे पिताजी का तो दूर तक कोई भाई नहीं है।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>तुम लोग नहीं जानते।गाँव के ही हैं। पापा उनको भाई मानते हैं।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>अबे हम भी तो उसी गाँव में रहते हैं। हमने तो नहीं सुनी ऐसी कोई बात।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>मैं रहीम काका की बात कर रहा हूँ। उनकी पिछली तीन पीढ़ियाँ हमारे खेतों में काम करती आ रहीं हैं। पापा उन्हें अपना भाई मानते हैं।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>अबे वह बूढ़ा मुल्ला तुम्हारा काका कब से हो गया है।वह तो तुम्हारा नौकर है।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>यार प्लीज<span>,</span> वे हमारे बुजुर्ग हैं<span>,<span class="Apple-converted-space"> </span></span> उन्होंने मुझे गोद में खिलाया है।किसी की इज्जत नहीं कर सकते हो तो कोई बात नहीं लेकिन उनकी बेइज्जती तो मत करो।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>रद्दी - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2021-10-30:5170231:BlogPost:10724772021-10-30T13:35:16.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>रद्दी <span>-</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p><span>"</span>अरे<span>,</span> ये क्या<span>,</span> सारी की सारी पुस्तकें वापस<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> लेकर आ गये।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>क्या करूं पुष्पा<span>,</span> तुम ही बताओ<span>?</span> पूरा दिन बाजार में घूमता रहा इतना भारी इतनी कीमती पुस्तकों का बैग लेकर<span>,</span> लेकिन कोई दुकानदार…</p>
<p>रद्दी <span>-</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p><span>"</span>अरे<span>,</span> ये क्या<span>,</span> सारी की सारी पुस्तकें वापस<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> लेकर आ गये।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>क्या करूं पुष्पा<span>,</span> तुम ही बताओ<span>?</span> पूरा दिन बाजार में घूमता रहा इतना भारी इतनी कीमती पुस्तकों का बैग लेकर<span>,</span> लेकिन कोई दुकानदार खरीदने को तैयार नहीं।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>ऐसे कैसे<span>,</span> कितनी काम की पुस्तकें हैं। वर्मा जी तो आपके पुराने मित्र हैं। उनसे बात नहीं की।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>उसके पास भी गया था।दोस्ती की दुहाई भी दी। मैंने उसे बताया कि मेरे बेटे को<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> ऑन लाइन पढ़ाई के लिये मोबाइल दिलाना है। इन पुस्तकों की आधी कीमत ही दे दो तो मेरा काम चल जायेगा। अभी मेरी आर्थिक स्थिति ठीक नहीं है। लेखकों के बारे में तुमसे कुछ भी छिपा नहीं है।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>लेकिन एक जमाने में तो आपकी किताबें हाथों हाथ बिक जाती थीं।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>वह वक्त और था पुष्पा<span>,</span> जब पुस्तकों की मांग थी। आजकल सब कुछ इन्टर नैट पर मिल जाता है।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>अब क्या करोगे<span>?"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>कल<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> वर्मा का नौकर आयेगा। और सारी पुस्तकें तौल कर रद्दी के भाव ले जायेगा।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>हे राम (लघुकथा)-tag:openbooksonline.com,2021-10-07:5170231:BlogPost:10705672021-10-07T06:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>मोहन दास जब यमराज के सामने पहुंचे<span>,"</span>मोहन जी<span>,</span> जब आपको गोलियाँ लग गयीं और आप लगभग मरणासन्न हो गये तो उस वक्त राम को पुकारने का क्या तात्पर्य था<span>?”</span></p>
<p><span>"</span>महोदय<span>,</span> आप मेरे <span>"</span>हे राम<span>"</span> उच्चारण का अर्थ शायद समझ नहीं सके।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>क्या इसमें भी कोई गूढ़ रहस्य है<span>?</span> मेरे विचार से तो यह एक मरते हुए व्यक्ति द्वारा अपने इष्ट देव से अपनी रक्षा हेतु मात्र एक याचना…</p>
<p>मोहन दास जब यमराज के सामने पहुंचे<span>,"</span>मोहन जी<span>,</span> जब आपको गोलियाँ लग गयीं और आप लगभग मरणासन्न हो गये तो उस वक्त राम को पुकारने का क्या तात्पर्य था<span>?”</span></p>
<p><span>"</span>महोदय<span>,</span> आप मेरे <span>"</span>हे राम<span>"</span> उच्चारण का अर्थ शायद समझ नहीं सके।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>क्या इसमें भी कोई गूढ़ रहस्य है<span>?</span> मेरे विचार से तो यह एक मरते हुए व्यक्ति द्वारा अपने इष्ट देव से अपनी रक्षा हेतु मात्र एक याचना है।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>नहीं मान्यवर<span>,</span> ऐसा नहीं है। मृत्यु तो सभी की कभी ना कभी अवश्य ही होनी<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> है । मुझे उसका कोई भय नहीं था।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>तो फिर वह आर्तनाद<span><span class="Apple-converted-space"> </span> ?”</span></p>
<p><span>“</span>वह आर्तनाद नहीं था। वह मेरी जीवन शैली का प्रतीक था। राम तो मेरे आदर्श हैं। राम मेरा जीवन <span>,</span>मेरी प्रेरणा <span>,</span> मेरी आस्था हैं।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> उन्होंने मुझे जीवन में जो कुछ दिया उसके प्रति आभार प्रकट करने के लिये यह राम के प्रति मेरा अंतिम विदाई संदेश था।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>आत्म घाती लोग - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2021-07-23:5170231:BlogPost:10643222021-07-23T04:28:55.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>आत्म घाती लोग <span>-</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p></p>
<p>मेरे मोबाइल की<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> घंटी बजी। स्क्रीन पर दीन दयाल का नाम था। मगर दीन दयाल का स्वर्गवास हुए तो दो साल हो गये।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> उसके परिवार ने तो<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> कभी भी याद ही नहीं किया। आज अचानक कैसे याद आ गई।…</p>
<p>आत्म घाती लोग <span>-</span> लघुकथा <span>-<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p></p>
<p>मेरे मोबाइल की<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> घंटी बजी। स्क्रीन पर दीन दयाल का नाम था। मगर दीन दयाल का स्वर्गवास हुए तो दो साल हो गये।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> उसके परिवार ने तो<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> कभी भी याद ही नहीं किया। आज अचानक कैसे याद आ गई।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>मैंने मोबाइल उठाया।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>हैलो अंकल<span>,</span> मैं<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> पवन बोल रहा हूँ।<span>”</span></p>
<p><span>“</span>हाँ बोल पवन<span>,</span> आज कैसे याद किया<span>?"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p><span>"</span>कुछ नहीं अंकल<span>,</span> आपकी याद आ गयी। कैसे हैं आप<span>?”</span></p>
<p><span>"</span>मैं ठीक हूँ बेटा। तुम लोग कैसे हो<span>?”</span></p>
<p><span>"</span>सब ठीक हैं अंकल। आपसे एक मदद चाहिये थी।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>कैसी मदद बेटा<span>?”</span></p>
<p><span>"</span>कुछ पैसे चाहिये थे।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>उसकी बात सुनते ही मेरे दिमाग में कुछ साल पुरानी एक घटना याद आ गयी। दीन दयाल भी अकसर पैसे मांगता रहता था।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>हम दोनों एक ही विभाग में थे। तनख्वाह भी बराबर ही थी। मेरा परिवार<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span> बड़ा था। इसके बावजूद भी मैंने कभी किसी के आगे हाथ नहीं पसारे ।मेरा मानना था कि उधार प्रेम की कैंची होती है। उधार लेना और देना दोनों ही संबंध बिगाड़ते हैं।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>दीन दयाल का परिवार तो बहुत छोटा था। पति पत्नी और एक बेटा। कुल तीन सदस्य। लेकिन उसको शराब पीने की बुरी लत थी।वह भी रोज। इसलिये हमेशा हाथ पसारता रहता था।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>एक दिन मैंने उसे समझाने के उद्देश्य से सलाह देने की कोशिश की<span>,"</span>देख भाई दीन दयाल<span>,</span> रोज रोज उधार लेकर दारू पीना ठीक नहीं है।यह सेहत भी खराब कर देगी और आर्थिक रूप से भी कमजोर करेगी।<span>”</span></p>
<p>मेरी बात पर वह उखड़ गया<span>,"</span>देख भाई<span>,</span> तू मेरा दोस्त है इसका मतलब यह नहीं कि तू मेरे हर मामले में टाँग अड़ाये।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>अरे यार तू तो बुरा मान गया।<span>”</span></p>
<p><span>"</span>नहीं भाई<span>,</span> मैं तेरी चिंता समझता हूँ। तुझे अपने पैसों की चिंता है। मैंने सब हिसाब मेरी डायरी में लिख रखा है। और मैंने अपने बेटे पवन से भी कह रखा है कि मुझे कुछ हो जाए तो तेरे पैसे जिम्मेदारी से लौटा दे।<span>"<span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>आखिरकार वही हुआ जिसका मुझे डर था। एक दिन नशे में स्कूटर किसी की कार से टकरा दिया। और वह चल बसा।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>हम सब ने भाग दौड़ कर उसके बेटे को उसकी जगह नौकरी दिला दी।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>बाद में मुझे पता चला कि उसके नशेबाज दोस्तों ने उसके बेटे को भी अपनी मंडली में शामिल कर लिया।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>मैंने तब से उससे दूरी बना ली।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p>आज उसका फोन आने पर सोचा कि इसे भी कुछ नसीहत देने की कोशिश करूं<span>,</span> शायद सुधर जाए<span>, "</span>पवन<span>,</span> तुम्हारे पापा ने भी मुझसे कुछ उधार लिया था। तुम्हें कुछ बताया था क्या<span>?”</span></p>
<p>उधर से कोई उत्तर नहीं मिला तो मैंने बात आगे बढ़ाई<span>,"</span>पवन<span>,</span> मैंने सुना है कि तुम भी दीन दयाल के पद चिन्हों पर चल रहे हो<span>?"</span></p>
<p>उधर से तुरंत फोन कट गया।<span><span class="Apple-converted-space"> </span></span></p>
<p></p>
<p>मौलिक<span>,</span> अप्रकाशित एवं अप्रसारित</p>प्रेम - लघुकथाtag:openbooksonline.com,2021-03-27:5170231:BlogPost:10574502021-03-27T14:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>"बाबा, गौर से सुनो, आज फिर मेरे कान्हा की बांसुरी की मधुर स्वर लहरी गूंज रही है।"</p>
<p>बाबा ने अपने दाँये कान के पास हथेली से ओट बनाते हुए सुनने की कोशिश की।</p>
<p>"राधा बेटी मुझे तो कुछ नहीं सुनाई पड़ा ? तू तो बावरी हो गई है उस बहुरूपिया कान्हा के लिये।"</p>
<p>"आप बूढ़े हो गये हो। आपके कान कमजोर हो गये हैं।"</p>
<p>"बिटिया तू क्यों खुद को झूठी तसल्ली दे रही है।अब वह कभी नहीं आने वाला।"</p>
<p>"मेरा कान्हा अवश्य आयेगा।"</p>
<p>"अब वह केवल तेरा कान्हा नहीं है।अब वह द्वारिका का राजा…</p>
<p>"बाबा, गौर से सुनो, आज फिर मेरे कान्हा की बांसुरी की मधुर स्वर लहरी गूंज रही है।"</p>
<p>बाबा ने अपने दाँये कान के पास हथेली से ओट बनाते हुए सुनने की कोशिश की।</p>
<p>"राधा बेटी मुझे तो कुछ नहीं सुनाई पड़ा ? तू तो बावरी हो गई है उस बहुरूपिया कान्हा के लिये।"</p>
<p>"आप बूढ़े हो गये हो। आपके कान कमजोर हो गये हैं।"</p>
<p>"बिटिया तू क्यों खुद को झूठी तसल्ली दे रही है।अब वह कभी नहीं आने वाला।"</p>
<p>"मेरा कान्हा अवश्य आयेगा।"</p>
<p>"अब वह केवल तेरा कान्हा नहीं है।अब वह द्वारिका का राजा है।"</p>
<p>"वह जो भी हो गया हो पर अपनी राधा को कभी नहीं भूलेगा।"</p>
<p>"बेटी, उसका एक नाम छलिया भी है।"</p>
<p>"बाबा, आपको जो भी कहना स्पष्ट कह दो।"</p>
<p>"मैं तो केवल इतना चाहता हूँ कि तू अब उसे भूल जा।"</p>
<p>"बाबा, क्या आपको लगता है कि यह इतना सरल है।"</p>
<p>"तो क्या जीवन भर ऐसे ही सुलगती रहेगी?"</p>
<p>"बाबा, यही तो प्रेम है।"</p>
<p> </p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>बलात्कार - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2021-01-01:5170231:BlogPost:10408122021-01-01T13:06:39.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>बलात्कार - लघुकथा –</p>
<p>चौबीस पच्चीस साल की युवती रोशनी पुलिस स्टेशन के गेट पर एक अनिर्णय और असमंजस की स्थिति में खड़ी थी।कभी एक कदम अंदर की ओर बढ़ाती लेकिन अगले ही पल पुनः उस कदम को पीछे कर लेती।</p>
<p>उसकी इस मनोदशा को उसका मस्तिष्क तुरंत ताड़ गया,"क्या हुआ? इतने जोश में निकल कर आईं थी।सब जोश ठंडा पड़ गया थाने तक आते आते।"</p>
<p>"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।मैं कुछ आगे पीछे की ऊँच नीच के बारे में सोच रही हूँ।"</p>
<p>"कमाल है, इसमें सोचना क्या है? बलात्कार हुआ है तुम्हारे साथ।"</p>
<p>तभी…</p>
<p>बलात्कार - लघुकथा –</p>
<p>चौबीस पच्चीस साल की युवती रोशनी पुलिस स्टेशन के गेट पर एक अनिर्णय और असमंजस की स्थिति में खड़ी थी।कभी एक कदम अंदर की ओर बढ़ाती लेकिन अगले ही पल पुनः उस कदम को पीछे कर लेती।</p>
<p>उसकी इस मनोदशा को उसका मस्तिष्क तुरंत ताड़ गया,"क्या हुआ? इतने जोश में निकल कर आईं थी।सब जोश ठंडा पड़ गया थाने तक आते आते।"</p>
<p>"नहीं ऐसी तो कोई बात नहीं है।मैं कुछ आगे पीछे की ऊँच नीच के बारे में सोच रही हूँ।"</p>
<p>"कमाल है, इसमें सोचना क्या है? बलात्कार हुआ है तुम्हारे साथ।"</p>
<p>तभी दिल बीच में बोल पड़ा,"क्यों जी, क्या यह पहली बार हुआ है ये बलात्कार?"</p>
<p>"नहीं भाई ऐसी बात नहीं है, तुम्हारी बात में भी थोड़ा दम तो है लेकिन पहले जो दो बार बलात्कार हुआ था, उसमें और इस बार के बलात्कार में बहुत फ़र्क़ है।"</p>
<p>"कैसा फ़र्क़ भाई, बलात्कार तो बलात्कार ही होता है।"</p>
<p>"तुम नहीं समझोगे? पहली बार जब बलात्कार हुआ था, ये दस साल की थीं। गाँव के खेत में एक अज्ञात लड़के ने ऐसा किया था। दूसरी बार जब शहर में दसवीं कक्षा की परीक्षा देने गई थीं तब एक अपरिचित शिक्षक ने ऐसा किया था। पहले जो कुछ हुआ अजनबी लोगों ने किया था।कोई पता ठिकाना ज्ञात नहीं था| लेकिन यह तो परिचित मित्र था।सहकर्मी था| मित्र क्या प्रेमी कहो। पिछले एक साल से प्रेम के गीत गुनगुना रहा था।"</p>
<p>"इससे तो यही प्रमाणित होगा कि सब कुछ मर्जी से हुआ।"</p>
<p>"अरे नहीं भाई, उसने धोखे से जन्म दिन मनाने के बहाने बुलाया था और यह सब कर दिया।"</p>
<p>"तो क्या जन्म दिन नहीं मनाया।"</p>
<p>"उसने कहा कि यह भी तो सेलीब्रेशन ही है।"</p>
<p>"अच्छा मेरे भाई एक बात बताओ, तुम तो बहुत ज्ञानी हो, जब पहले दो बार बलात्कार हुआ था तब तुमने थाने जाने की सलाह क्यों नहीं दी थी?"</p>
<p>"उस समय तो नाबालिग थी ना और फिर परिवार वालों ने डरा दिया था कि बदनामी होगी।"</p>
<p>"तो क्या अब बदनामी नहीं होगी।"</p>
<p>"अब तो उस लक्ष्मण रेखा को पार कर लिया है।"</p>
<p>"क्या मतलब? बात कुछ गले नहीं उतरी?"</p>
<p>"अरे यार समझा कर, अब ये अपने शहर से, परिवार से दूर हैं, बालिग हैं और अपने पैरों पर खड़ी हैं।सब कुछ अकेले झेलने को तैयार हैं।"</p>
<p>लड़की दिल और दिमाग की इस ऊबाऊ बहस से उकता गई और उसके कदम थाने की चार दीवारी के अंदर बढ़ गये।</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>कब तक - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2020-11-28:5170231:BlogPost:10375742020-11-28T04:22:58.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>कब तक - लघुकथा –</p>
<p>"अम्मा, ये सारी टोका टोकी, रोकथाम केवल मेरे लिये ही क्यों है?"</p>
<p>"यह सब तेरी भलाई के लिये ही है बिटिया।"</p>
<p>"क्या अम्मा?, मेरी भलाई के अलावा कभी भैया के बारे में भी सोच लिया करो।"</p>
<p>"अरे उसका क्या सोचना? मर्द मानुष है, जैसा भी है सब चल जायेगा।"</p>
<p>"इसलिये उसके किसी काम में रोकटोक नहीं।रात को बारह बजे आये तो भी चलेगा।और मैं दिन में भी अकेली कहीं नहीं जा सकती।"</p>
<p>“तू समझती क्यों नहीं मेरी बच्ची?"</p>
<p>"क्या समझूं अम्मा? भैया बारहवीं में तीन साल…</p>
<p>कब तक - लघुकथा –</p>
<p>"अम्मा, ये सारी टोका टोकी, रोकथाम केवल मेरे लिये ही क्यों है?"</p>
<p>"यह सब तेरी भलाई के लिये ही है बिटिया।"</p>
<p>"क्या अम्मा?, मेरी भलाई के अलावा कभी भैया के बारे में भी सोच लिया करो।"</p>
<p>"अरे उसका क्या सोचना? मर्द मानुष है, जैसा भी है सब चल जायेगा।"</p>
<p>"इसलिये उसके किसी काम में रोकटोक नहीं।रात को बारह बजे आये तो भी चलेगा।और मैं दिन में भी अकेली कहीं नहीं जा सकती।"</p>
<p>“तू समझती क्यों नहीं मेरी बच्ची?"</p>
<p>"क्या समझूं अम्मा? भैया बारहवीं में तीन साल से फेल हो रहा है लेकिन उसकी पढ़ाई चालू है। मैंने दसवीं में प्रथम श्रेणी में अस्सी प्रतिशत अंक पाये फिर भी मेरी पढ़ाई छुड़ा दी।"</p>
<p>"अरे तू भी क्या क्या सोचती रहती है। तुझे पराये घर जाना है। चूल्हा चौका संभालना है। क्या करेगी ज्यादा पढ़ लिख कर?"</p>
<p>"क्यों ज्यादा पढ़ी लिखी चूल्हा चौका करना भूल जाती हैं क्या?"</p>
<p>"क्यों बात का बतंगड़ बना रही है बिटिया? तू खुद ही सोच यहाँ का माहौल कैसा है।दिन दहाड़े छोरियों को उठा ले जाते हैं।“</p>
<p>"यह सब तो घर बैठी लड़कियों के साथ भी हो रहा है।"</p>
<p>"इसीलिये तो सावधानी बरत रहे हैं।"</p>
<p>"पर ये जो कुकर्म करते हैं उन लड़कों पर बंदिश क्यों नहीं लगाते।"</p>
<p>"बिटिया रानी, लड़कियाँ काँच की मूर्ति होती हैं। जरा सी खरोंच भी लग जाय तो जीवन बेकार हो जाता है।"</p>
<p>“बस करो अम्मा, कब तक ये दलीलों की तसल्ली दोगी।इनसे कुछ नहीं बदलने वाला। अब वक्त आ गया है कि मुझे ही पत्थर बनने दो”</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>मुझे भी पढ़ना है - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2020-11-20:5170231:BlogPost:10372572020-11-20T12:52:01.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>मुझे भी पढ़ना है - लघुकथा –</p>
<p>"ऐ सुमन, मुन्ना नहीं दिखाई दे रहा?"</p>
<p>"काहे परेशान हो? अभी आ जायेगा।"</p>
<p>"अरे तू समझती काहे नहीं है। यह गाँव देहात नहीं है।शहर का मामला है। एक मिनट में बच्चा गायब हो जाता है।"</p>
<p>"हम सब जानते हैं इसलिये उसकी दादी माँ भी साथ गयी हैं।"</p>
<p>"अरे मगर गये कहाँ हैं वे दोनों?"</p>
<p>"और कहाँ जायेंगे? दो साल से स्कूल जाने का सपना मन में पाल रखा है। स्कूल की प्रार्थना की घंटी सुनते ही दौड़ जाता है।"</p>
<p>"अब क्या करें सुमन? घर की माली हालत तो तुम…</p>
<p>मुझे भी पढ़ना है - लघुकथा –</p>
<p>"ऐ सुमन, मुन्ना नहीं दिखाई दे रहा?"</p>
<p>"काहे परेशान हो? अभी आ जायेगा।"</p>
<p>"अरे तू समझती काहे नहीं है। यह गाँव देहात नहीं है।शहर का मामला है। एक मिनट में बच्चा गायब हो जाता है।"</p>
<p>"हम सब जानते हैं इसलिये उसकी दादी माँ भी साथ गयी हैं।"</p>
<p>"अरे मगर गये कहाँ हैं वे दोनों?"</p>
<p>"और कहाँ जायेंगे? दो साल से स्कूल जाने का सपना मन में पाल रखा है। स्कूल की प्रार्थना की घंटी सुनते ही दौड़ जाता है।"</p>
<p>"अब क्या करें सुमन? घर की माली हालत तो तुम देख ही रही हो। काम धंधा सब इस कोरोना बीमारी ने चौपट कर दिया।"</p>
<p>"तो क्या हमारा मुन्ना कभी स्कूल नहीं जायेगा? दो साल से टालमटोल हो रही है। पूरे पाँच साल का हो गया। उसके साथ के सब बच्चे स्कूल जाते हैं।"</p>
<p>"तुम खुद देख रही हो कि कैसे सब्जी का ठेला लगा कर घर चला रहे हैं।अब अगले साल ही कुछ हो पायेगा।"</p>
<p>तभी मुन्ना और दादी आ गये।दादी ने सब बातें सुन लीं| दादी ने अपने चाँदी के कड़े और पाजेब मुरली के हाथ में थमाते हुए कहा,"जाओ मुरली इन्हें बेच कर मुन्ना को स्कूल में भर्ती करा दो।हमसे मुन्ना की तक़लीफ़ नहीं देखी जाती।"</p>
<p>"अम्मा, यह क्या कर रही हो? हमारे ऊपर पाप क्यों चढ़ा रही हो?"</p>
<p>"यह पाप पुन्य का ज्ञान हमें मत सिखाओ। हमने तुम से ज्यादा दुनियाँ देखी है।हम जो कुछ कर रहे हैं अपने नाती के भविष्य के लिये कर रहे हैं।"</p>
<p>“अम्मा, इससे दाखिला तो हो जायेगा लेकिन हर महीने फ़ीस,कॉपी, किताब और स्कूल की वर्दी यह सब कैसे होगा?"</p>
<p>"देख बेटा, यह काम कल पर टालना भारी भूल है।बच्चों की पढ़ाई लिखाई पहली जरूरत है। रही खर्च की बात तो सुमन के लिये मैंने दो तीन घरों में काम की बात कर ली है।"</p>
<p>"अम्मा सुमन बाहर काम करेगी तो घर का काम कौन करेगा?"</p>
<p>"मुरली, तेरी माँ के हाथ पैर अभी सही सलामत हैं। हम सब कर लेंगे।"</p>
<p>"नहीं अम्मा, इस उम्र में आपसे हम काम नहीं करायेंगे।आपकी आराम करने की उम्र है।"</p>
<p>"नहीं मुरली, जो गलती तेरे बापू ने की। वही गलती हम तुझे नहीं करने देंगे।"</p>
<p>"अम्मा आप समझती काहे नहीं हो।अभी समय खराब है| सही समय आने पर सब ठीक हो जायेगा।"</p>
<p>"मुरली , सही समय के चक्कर में तू मुन्ना से भी अपनी तरह सब्जी का ठेला चलवायेगा।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>खंडित मूर्ति - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2020-10-23:5170231:BlogPost:10352862020-10-23T07:44:43.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>खंडित मूर्ति - लघुकथा –</p>
<p>"सुमित्रा, यह लाल पोशाक वाली लड़की तो वही है ना जिसकी खबर कुछ महीने पहले अखबार में छपी थी।"</p>
<p>"हाँ माँ यह वही है।"</p>
<p>"इसके साथ स्कूल के चपरासी ने जबरदस्ती की थी ना।"</p>
<p>"हाँ माँ,वही है। आप क्या कहना चाहती हो?"</p>
<p>"मैं यह कहना चाहती हूँ कि इसे पूजा में किसने बुलाया?"</p>
<p>"माँ यह मेरी बेटी के साथ पढ़ती है। उसकी दोस्त है। उसने इसे मुझसे पूछ कर ही बुलाया है।"</p>
<p>"यानी यह तुम्हारी मर्जी से यहाँ आयी है। सब कुछ जानते बूझते हुए।"</p>
<p>“माँ , वह…</p>
<p>खंडित मूर्ति - लघुकथा –</p>
<p>"सुमित्रा, यह लाल पोशाक वाली लड़की तो वही है ना जिसकी खबर कुछ महीने पहले अखबार में छपी थी।"</p>
<p>"हाँ माँ यह वही है।"</p>
<p>"इसके साथ स्कूल के चपरासी ने जबरदस्ती की थी ना।"</p>
<p>"हाँ माँ,वही है। आप क्या कहना चाहती हो?"</p>
<p>"मैं यह कहना चाहती हूँ कि इसे पूजा में किसने बुलाया?"</p>
<p>"माँ यह मेरी बेटी के साथ पढ़ती है। उसकी दोस्त है। उसने इसे मुझसे पूछ कर ही बुलाया है।"</p>
<p>"यानी यह तुम्हारी मर्जी से यहाँ आयी है। सब कुछ जानते बूझते हुए।"</p>
<p>“माँ , वह बच्ची है। जो भी कुछ उसके साथ हुआ, उसमें उसका क्या कसूर?"</p>
<p>"लेकिन अब वह क्वारी कन्या नहीं है।"</p>
<p>"कैसी बात करती हो माँ। पहली बात तो यह कि उसके साथ वह सब कुछ हो ही नहीं पाया जो आप समझ रही हो।दूसरी बात वह खुद भी नहीं जानती कि उसके साथ क्या होने जा रहा था।"</p>
<p>"मगर सुमित्रा पूजा में खंडित मूर्तियाँ नहीं रखी जातीं।इसे तुरंत यहाँ से निकालो"</p>
<p>"माँ इंसान और मूर्ति में फ़र्क़ होता है।यह पूजा में अवश्य शामिल होगी।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>छोटू - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2020-10-17:5170231:BlogPost:10326662020-10-17T05:28:58.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>छोटू - लघुकथा –</p>
<p>पत्रकार सम्मेलन से लौटते हुए एक ढावे पर चाय पीने रुक गया।ढावे पर एक नौ दस साल के बच्चे को काम करते देख मेरे अंदर की पत्रकारिता जनित मानवता जाग उठी।मैंने उसे इशारे से बुलाया,"क्या नाम है तुम्हारा?"</p>
<p>वह मेरे चेहरे को टुकुर टुकुर देख रहा था। मैंने पुनः वही प्रश्न दोहराया।वह तो फिर भी वैसे ही गुमसुम खड़ा रहा लेकिन ढावे का मालिक आगया,"साहब, इसका नाम छोटू है।यह गूंगा बहरा है।"</p>
<p>"इसके माँ बाप कहाँ हैं?"</p>
<p>"ये अनाथ है।"</p>
<p>"मैं इसकी एक फोटो ले…</p>
<p>छोटू - लघुकथा –</p>
<p>पत्रकार सम्मेलन से लौटते हुए एक ढावे पर चाय पीने रुक गया।ढावे पर एक नौ दस साल के बच्चे को काम करते देख मेरे अंदर की पत्रकारिता जनित मानवता जाग उठी।मैंने उसे इशारे से बुलाया,"क्या नाम है तुम्हारा?"</p>
<p>वह मेरे चेहरे को टुकुर टुकुर देख रहा था। मैंने पुनः वही प्रश्न दोहराया।वह तो फिर भी वैसे ही गुमसुम खड़ा रहा लेकिन ढावे का मालिक आगया,"साहब, इसका नाम छोटू है।यह गूंगा बहरा है।"</p>
<p>"इसके माँ बाप कहाँ हैं?"</p>
<p>"ये अनाथ है।"</p>
<p>"मैं इसकी एक फोटो ले लूँ।"</p>
<p>"वह किसलिये?"</p>
<p>"मेरा अखबार निकलता है।इसकी फोटो उसमें छाप दूंगा। शायद कोई रिश्तेदार निकल आये।"</p>
<p>"अरे साहब ऐसा मत करो।नकली रिश्तेदार बनकर लोग आ जायेंगे और इसे बंधुआ बनाकर रखेंगे।"</p>
<p>"आप भी तो वही कर रहे हो।"</p>
<p>"क्या बात कर रहे हो साहब? अपने बेटे की तरह पाल रहा हूँ।"</p>
<p>"क्या स्कूल जाता है यह?"</p>
<p>"क्या मज़ाक करते हो साहब? यह तो गूँगा बहरा है।"</p>
<p>"आजकल इन लोगों के लिये भी स्कूल खुल गये हैं। वहाँ इनके रहने खाने की भी व्यवस्था होती है। शिक्षा भी निशुल्क है।"</p>
<p>"ठीक है साहब मैं पता करूंगा।"</p>
<p>"आप कहो तो मैं आपकी मदद कर सकता हूँ।"</p>
<p>"अरे नहीं साहब। बहुत बहुत शुक्रिया।मैं कर लूंगा।"</p>
<p>फिर भी चलने से पहले मैंने अपना विजिटिंग कार्ड निकाल कर उसे दे दिया,"यदि आप से नहीं हो तो मुझे फोन कर लेना।"</p>
<p>इतना बोल मैं अपनी कार की ओर बढ़ गया।मैं कार आगे बढ़ाने ही वाला था कि वह छोटू कार की ओर दौड़ता दिखा।</p>
<p>"साहब आपका पर्स।"मैं चकित रह गया।</p>
<p>"अरे छोटू तुम तो बोल लेते हो।"</p>
<p>"साहब मैं गूंगा बहरा नहीं हूँ।मुझे इसी शर्त पर नौकरी मिली है।"</p>
<p>इतना बोल छोटू वापस भाग गया।</p>
<p>और मैंने भी एक संकल्प के साथ कार आगे बढ़ा दी।</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>सत्य की तलाश - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2020-10-07:5170231:BlogPost:10263342020-10-07T06:10:24.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>सत्य की तलाश - लघुकथा –</p>
<p>आधी रात का वक्त था। गाँव से दूर पूर्व की ओर एक खाली पड़े खेत में एक चिता सजाई जा रही थी। चारों ओर से पुलिस उस खेत को घेरे हुए थी।ऐसा लग रहा था जैसे पूरे देश की पुलिस यहाँ एकत्र कर रखी हो।पुलिस के अलावा कोई भी नज़र नहीं आ रहा था।</p>
<p>हाँ पुलिस के घेरे से बाहर अवश्य एक भीड़ जुटी हुई थी।भीड़ में कुछ लोग रो रहे थे। कुछ हँस भी रहे थे।कुछ नारे लगा रहे थे।</p>
<p>इसी बीच एक सौ साल से ऊपर का वृद्ध पुरुष सफेद धोती से अपना जर्जर शरीर लपेटे हुए हाथ में एक लाठी लिए भीड़ को…</p>
<p>सत्य की तलाश - लघुकथा –</p>
<p>आधी रात का वक्त था। गाँव से दूर पूर्व की ओर एक खाली पड़े खेत में एक चिता सजाई जा रही थी। चारों ओर से पुलिस उस खेत को घेरे हुए थी।ऐसा लग रहा था जैसे पूरे देश की पुलिस यहाँ एकत्र कर रखी हो।पुलिस के अलावा कोई भी नज़र नहीं आ रहा था।</p>
<p>हाँ पुलिस के घेरे से बाहर अवश्य एक भीड़ जुटी हुई थी।भीड़ में कुछ लोग रो रहे थे। कुछ हँस भी रहे थे।कुछ नारे लगा रहे थे।</p>
<p>इसी बीच एक सौ साल से ऊपर का वृद्ध पुरुष सफेद धोती से अपना जर्जर शरीर लपेटे हुए हाथ में एक लाठी लिए भीड़ को चीरते हुए पुलिस के समक्ष जा पहुँचा।</p>
<p>"कौन हो बाबा? क्या चाहिये?"</p>
<p>"मैं गाँधी हूँ। मुझे सच्चाई की तलाश है।"</p>
<p>"आप क्या करोगे सच्चाई का?"</p>
<p>"मैं तो सत्य और अहिंसा का पुजारी हूँ।"</p>
<p>"आप थोड़ा देर से आये बापू।"</p>
<p>"क्या मतलब?"</p>
<p>"सच्चाई की मौत हो गयी।"</p>
<p>"तो इस चिता में क्या है?"</p>
<p>"यह तो उसकी लाश है।"</p>
<p>"मुझे उसकी लाश ही दे दो। मैं विधि विधान से उसका अंतिम संस्कार कर दूंगा।"</p>
<p>"वह तो जल चुकी बापू।"</p>
<p>"यहाँ इतनी पुलिस होते हुए भी ऐसा कैसे होने दिया आप लोगों ने?"</p>
<p>"हम लोग तो आपके ही उसूलों का पालन कर रहे हैं।"</p>
<p>"मेरे उसूल, कौन से उसूल?"</p>
<p>"ना देख बुरा, ना सुन बुरा ना बोल बुरा।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>अवसरवादी - लघुकथा –tag:openbooksonline.com,2020-10-02:5170231:BlogPost:10235592020-10-02T13:55:51.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>अवसरवादी - लघुकथा –</p>
<p>आज शहर के लोक प्रिय नेताजी का जन्मदिन बड़े जोर शोर से मनाया जा रहा था। इस बार इतने सालों बाद बहुत खोज बीन के बाद ये पता चला कि नेताजी की असली जन्म तिथि दो अक्टूबर ही है।किसी को कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ क्योंकि नेताजी जिस जमाने में पैदा हुए थे उस वक्त स्कूल में दाखिले के समय कोई जन्म तिथि का प्रमाण पत्र माँगता भी नहीं था।बनवाने का रिवाज़ भी नहीं था।मुँह जुबानी जो भी तारीख बोल दी वही लिख दी जाती थी।</p>
<p>कैसा विचित्र संयोग था कि नेता जी का जन्म दिन भी बापू जी और…</p>
<p>अवसरवादी - लघुकथा –</p>
<p>आज शहर के लोक प्रिय नेताजी का जन्मदिन बड़े जोर शोर से मनाया जा रहा था। इस बार इतने सालों बाद बहुत खोज बीन के बाद ये पता चला कि नेताजी की असली जन्म तिथि दो अक्टूबर ही है।किसी को कोई आश्चर्य भी नहीं हुआ क्योंकि नेताजी जिस जमाने में पैदा हुए थे उस वक्त स्कूल में दाखिले के समय कोई जन्म तिथि का प्रमाण पत्र माँगता भी नहीं था।बनवाने का रिवाज़ भी नहीं था।मुँह जुबानी जो भी तारीख बोल दी वही लिख दी जाती थी।</p>
<p>कैसा विचित्र संयोग था कि नेता जी का जन्म दिन भी बापू जी और शास्त्री जी के जन्म दिन के साथ था। लेकिन हमारे नेताजी की विचारधारा इन दोनों विभूतियों से कोई मेल नहीं खाती थीं। एक कहावत है हाथी के दाँत दिखाने के और खाने के और होते हैं। वह हमारे नेताजी पर सटीक बैठती थी। वैसे भी हमारे नेताजी किसी हाथी से कम थोड़े ही थे| </p>
<p>खाने पीने के शौकीन नेता जी आज गाँधी जयंती पर आर्य समाज मंदिर में बापू के आदर्शों का ढिंढोरा पीटते हुए शहर के तमाम गरीबों को दान पुन्य कर रहे थे।चुनाव के माहौल को सामने देखते हुए अच्छा खासा खर्चा किया था।जैसे कपड़े,खाने के पॉकिट,मिठाई के डब्बे और फ़ल इत्यादि।</p>
<p>सभी को नेताजी अपने हाथों से सम्मान पूर्वक वितरित कर रहे थे।</p>
<p>तभी उनकी नज़र भीड़ से अलग कोने में बैठे कुछ लोगों पर पड़ी।जो कि ढंग से तन भी ढके हुए नहीं थे। अंदर धंसे हुए पेट और पसलियाँ दिख रही थीं | देखने से ऐसा लगता था जैसे कई दिनों से भूखे हों।</p>
<p>नेताजी ने अपने सचिव से पूछा,"ये लोग कौन हैं और ये अलग क्यों बैठे हैं?"</p>
<p>"साहब ये लोग अछूत हैं।“</p>
<p>"यहाँ कैसे आ गये ये लोग?"</p>
<p>"सर आपने ही बुलाया था| कल जिस बस्ती में आप गये थे उसी बस्ती के लोग हैं।“</p>
<p>नेता जी को तुरंत याद आ गया कि कल ही तो इन लोगों को शराब और नोट बाँट कर आये थे। ये बात अलग है कि यह सब चोरी छिपे उनकी झोली में दूर से डाल रहे थे। "</p>
<p>उसी वक्त नेताजी की नज़र वहाँ मौजूद एक दो पत्रकारों पर पड़ी। नेताजी ने तुरंत पैतरा बदल लिया।</p>
<p>"क्या कहा अछूत? अरे तुम लोग पगला गये हो? ये तो सही माने में प्रभु के बंदे हैं। इन्हीं की बदौलत यह देश चल रहा है।"</p>
<p>और अचानक नेता जी उन लोगों की तरफ़ दौड़ पड़े,"अरे मंगलू तुमने तो हद कर दी।हमारे खास आदमी होकर तुम यहाँ अलग से बैठे हो। हमसे कोई भूल हो गयी क्या? चलो आओ हमारे साथ।"</p>
<p>और अगले क्षण नेताजी ने मंगलू को गले लगा लिया।</p>
<p>वे सभी लोग हैरान थे | क्योंकि मंगलू को मरे हुए दो साल हो गये थे |मगर नेताजी की बात कौन काटे ।</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>बहुरूपिया - लघुकथा -----tag:openbooksonline.com,2020-07-23:5170231:BlogPost:10127892020-07-23T12:46:19.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>बहुरूपिया - लघुकथा -----</p>
<p>"अरे अरे उधर देखो, वह कौन आ रहा है। कितना विचित्र पहनावा पहन रखा है। और तो और चेहरा भी तरह तरह के रंगो से बेतरतीब पोत रखा है।चलो उससे बात करते हैं कि उसने ऐसा क्यों किया।"</p>
<p>"नहीं नहीं, पागल मत बनो। कोई मानसिक रोगी हुआ तो? पता नहीं क्या कर बैठे?"</p>
<p>"तुम तो सच में बहुत डरपोक हो सीमा|"</p>
<p>इतने में पास से गुजरते एक बुजुर्ग ने उन बालिकाओं का वार्तालाप सुना तो बोल पड़े,"डरो नहीं, ये हमारे मुल्क के बादशाह हैं। यह इनका देश की गतिविधियों को जाँचने परखने…</p>
<p>बहुरूपिया - लघुकथा -----</p>
<p>"अरे अरे उधर देखो, वह कौन आ रहा है। कितना विचित्र पहनावा पहन रखा है। और तो और चेहरा भी तरह तरह के रंगो से बेतरतीब पोत रखा है।चलो उससे बात करते हैं कि उसने ऐसा क्यों किया।"</p>
<p>"नहीं नहीं, पागल मत बनो। कोई मानसिक रोगी हुआ तो? पता नहीं क्या कर बैठे?"</p>
<p>"तुम तो सच में बहुत डरपोक हो सीमा|"</p>
<p>इतने में पास से गुजरते एक बुजुर्ग ने उन बालिकाओं का वार्तालाप सुना तो बोल पड़े,"डरो नहीं, ये हमारे मुल्क के बादशाह हैं। यह इनका देश की गतिविधियों को जाँचने परखने का तरीका है। यह भेष बदल कर समूचे देश में भ्रमण करते हैं।"</p>
<p>"इससे क्या हांसिल होगा?"</p>
<p>"बहुत कुछ।"</p>
<p>"जैसे?"</p>
<p>"लोगों द्वारा किये गये वार्तालाप से चोरों, बेईमानों और शासन के खिलाफ़ साजिश करने वालों का खुलासा होता है।"</p>
<p>"लेकिन हमने तो सुना है कि बादशाह खुद ही दुराचारी और घमंडी है।"</p>
<p>"हो सकता है कि यह मिथ्या प्रचार उसके विरोधी फैला रहे हों।"</p>
<p>"बादशाह तो आये दिन विरोधियों को कारागार में डलवा रहा है।कितनों को तो मरवा डाला।"</p>
<p>"शासन को सुचारु और व्यवस्थित रखने के लिये कुछ कठोर कदम तो उठाने ही पड़ते हैं।"</p>
<p>"लेकिन सुशासन तो कहीं भी नज़र नहीं आ रहा?"</p>
<p>"ऐसा किस आधार पर कह रहे हो?"</p>
<p>"हर तरफ़ गरीबी, भुखमरी, बीमारी, बेरोजगारी खून खराबा, लूटपाट, हत्या, चोरी डकैती, बलात्कार और ना जाने क्या क्या हो रहा है |"</p>
<p>"ऐसी विसंगतियाँ और बीमारियाँ तो देवीय प्रकोपों से भी संभव हैं|"</p>
<p>"देश की प्रजा त्राहि त्राहि कर रही है | फिर भी बादशाह जनता पर नये नये कर लगा रहा है।"</p>
<p>"यह भी शासन की एक आवश्यकता और मजबूरी है।"</p>
<p>"हमने अपने बुजुर्गों से जो कहावत सुनी है, वह इस माहौल पर सटीक बैठ रही है?"</p>
<p>"कौन सी कहावत?"</p>
<p>"राजा के कर्मों का दंड प्रजा को भुगतना पड़ता है।"</p>
<p>मौलिक,अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>अच्छे दिन - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-07-17:5170231:BlogPost:10123352020-07-17T05:56:54.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>अच्छे दिन - लघुकथा -</p>
<p>"गुड्डू, लो देखो मैं तुम्हारे लिये कितनी सारी ज्ञान वर्धक जानकारी की पुस्तकें लाया हूँ।"</p>
<p>"दादा जी, आप कहाँ से लाये और कैसी पुस्तकें हैं? आप तो पार्क में टहलने गये थे।"</p>
<p>"हाँ बेटा, वहीं पार्क के गेट के बाहर फुटपाथ पर एक लड़का पुस्तकें, पत्रिकायें, समाचार पत्र आदि बेचता है। शिक्षाप्रद कहाँनियों की पुस्तकें हैं|"</p>
<p>"क्या इससे उसका गुजारा हो जाता है?"</p>
<p>"बेटा, वह एम ए, बी एड है, लेकिन नौकरी नहीं है। अतः इसके साथ ही वह लोगों के पानी, बिजली और…</p>
<p>अच्छे दिन - लघुकथा -</p>
<p>"गुड्डू, लो देखो मैं तुम्हारे लिये कितनी सारी ज्ञान वर्धक जानकारी की पुस्तकें लाया हूँ।"</p>
<p>"दादा जी, आप कहाँ से लाये और कैसी पुस्तकें हैं? आप तो पार्क में टहलने गये थे।"</p>
<p>"हाँ बेटा, वहीं पार्क के गेट के बाहर फुटपाथ पर एक लड़का पुस्तकें, पत्रिकायें, समाचार पत्र आदि बेचता है। शिक्षाप्रद कहाँनियों की पुस्तकें हैं|"</p>
<p>"क्या इससे उसका गुजारा हो जाता है?"</p>
<p>"बेटा, वह एम ए, बी एड है, लेकिन नौकरी नहीं है। अतः इसके साथ ही वह लोगों के पानी, बिजली और टेलीफोन के बिल भी जमा कराता है। रात को ट्यूशन भी देता है|"</p>
<p>"क्या इतना समय मिल जाता है उसे?"</p>
<p>"बेटा, समय तो निकालना पड़ता है। सुबह शाम किताब बेचता है।दोपहर में बाकी काम करता है।लोग सुबह बिल और पैसे दे जाते हैं और शाम को ले जाते हैं।"</p>
<p>"दादा जी,क्या यही अच्छे दिन हैं? कितनी बेरोजगारी, मंहंगाई और भ्रष्टाचार बढ़ रहा है?"</p>
<p>"बेटा इन हालात को देखते हुए तो लगता नहीं कि निकट भविष्य में अच्छे दिन की कोई संभावना है।"</p>
<p>"आपको ऐसा क्यों लग रहा है?"</p>
<p>"बेटा अभी अच्छे दिन नेताओं के हैं,डाक्टरों के हैं। क्योंकि इनके ही द्वारा देश में शिक्षा और चिकित्सा का व्यवसायीकरण हो चुका है।"</p>
<p>"इसमें सुधार नहीं होगा क्या?"</p>
<p>"हाल फिलहाल तो ऐसे आसार दिखाई नहीं पड़ते।इस देश में शिक्षा के स्तर का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि पुस्तकें फुटपाथ पर बिक रही हैं और जूते वातानुकूलित शो रूम में।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>मंत्री का कुत्ता - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-07-14:5170231:BlogPost:10121972020-07-14T05:32:43.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>मंत्री का कुत्ता - लघुकथा -</p>
<p>मेवाराम अपने बेटे की शादी का कार्ड देने मंत्री शोभाराम जी की कोठी पहुंचा। दोनों ही जाति भाई थे तथा रिश्तेदार भी थे। मेवाराम यह देख कर चौंक गया कि मंत्री जी के बरामदे में शुक्ला जी का पालतू कुत्ता बंधा हुआ था।अचंभे की बात यह थी कि शुक्ला और मंत्री जी एक ही पार्टी में होते हुए भी दोनों एक दूसरे के कट्टर विरोधी थे।</p>
<p>मेवाराम को यह बात हज़म नहीं हुई। उसके पेट में गुड़्गुड़ होने लगी।इस राज को जानने को वह उतावला सा हो गया।</p>
<p>आखिरकार चलते चलते उसने मंत्री…</p>
<p>मंत्री का कुत्ता - लघुकथा -</p>
<p>मेवाराम अपने बेटे की शादी का कार्ड देने मंत्री शोभाराम जी की कोठी पहुंचा। दोनों ही जाति भाई थे तथा रिश्तेदार भी थे। मेवाराम यह देख कर चौंक गया कि मंत्री जी के बरामदे में शुक्ला जी का पालतू कुत्ता बंधा हुआ था।अचंभे की बात यह थी कि शुक्ला और मंत्री जी एक ही पार्टी में होते हुए भी दोनों एक दूसरे के कट्टर विरोधी थे।</p>
<p>मेवाराम को यह बात हज़म नहीं हुई। उसके पेट में गुड़्गुड़ होने लगी।इस राज को जानने को वह उतावला सा हो गया।</p>
<p>आखिरकार चलते चलते उसने मंत्री जी का मन टटोलने की ठान ली,"भाई जी ऐसा लगे है कि यह कुत्ता शुक्ला जी का है?"</p>
<p>मंत्री जी भी पूरे घाघ निकले,"क्यूं भाई, इस पर शुक्ला का नाम छपा है क्या?"</p>
<p>"मैंने उसके छोरे को इसे घुमाते देखा था।"</p>
<p>"देख भाई मेवाराम, आजकल के कुत्ते अब पहले जैसे वफ़ादार नहीं रहे।जो भी उसे बढिया खिलाता है, उसी के लिये दुम हिलाते हैं और भौंकते हैं।"</p>
<p>"बात कुछ पल्ले नहीं पड़ी?"</p>
<p>"शुक्ला उसे दूध रोटी देता था और हम उसे गोस्त खिलाते हैं।"</p>
<p>"लेकिन भाई जी इसके बावजूद भी वह आपके लिये दुम नहीं हिलाये और नहीं भौंके तो?"</p>
<p>"तो साले को गोली मरवा देंगे।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित।</p>विकास - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-07-06:5170231:BlogPost:10117002020-07-06T13:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>विकास - लघुकथा -</p>
<p>दद्दू अखबार पढ़ रहे थे। दादी स्टील के गिलास में चाय लेकर आगयीं,</p>
<p>"सुनो जी, विकास की कोई खबर छपी है क्या?"</p>
<p>"कौनसे विकास की खबर चाहिये तुम्हें?"</p>
<p>"कमाल की बात करते हो आप भी? कोई दस बीस विकास हैं क्या?"</p>
<p>"हो भी सकते हैं। दो को तो हम ही जानते हैं।"</p>
<p>"दो कौन से हो गये। हम तो एक को ही जानते हैं।"</p>
<p>"तुम किस विकास को जानती हो?"</p>
<p>"अरे वही जिसको पूरे प्रदेश की पुलिस खोज रही है।और आप किस विकास की बात कर रहे हो?"</p>
<p>"हम उस विकास की…</p>
<p>विकास - लघुकथा -</p>
<p>दद्दू अखबार पढ़ रहे थे। दादी स्टील के गिलास में चाय लेकर आगयीं,</p>
<p>"सुनो जी, विकास की कोई खबर छपी है क्या?"</p>
<p>"कौनसे विकास की खबर चाहिये तुम्हें?"</p>
<p>"कमाल की बात करते हो आप भी? कोई दस बीस विकास हैं क्या?"</p>
<p>"हो भी सकते हैं। दो को तो हम ही जानते हैं।"</p>
<p>"दो कौन से हो गये। हम तो एक को ही जानते हैं।"</p>
<p>"तुम किस विकास को जानती हो?"</p>
<p>"अरे वही जिसको पूरे प्रदेश की पुलिस खोज रही है।और आप किस विकास की बात कर रहे हो?"</p>
<p>"हम उस विकास की बात कर रहे हैं जिसको पूरे देश की जनता पिछले छह साल से खोज रही है।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>
<p></p>पिता (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2020-06-26:5170231:BlogPost:10107722020-06-26T03:30:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>रघुनाथ ट्यूर से लौटा तो पिताजी दिखाई नहीं दिये। वे बरामदे में ही बैठे अखबार पढ़ते रहते थे। उनके कमरे में भी नहीं थे।रघुनाथ का नियम था कि वह कहीं से आता था तो पिता के चरण स्पर्श करता था।</p>
<p>"शीला, पिताजी नहीं दिख रहे। कहीं गये हैं क्या?"</p>
<p>"मुझे कौनसा बता कर जाते हैं? तुम हाथ मुंह धोलो। चाय पकोड़े लाती हूँ।" शीला के लहजे से रघुनाथ को कुछ शंका हुई।</p>
<p>इतने में उसका सात वर्षीय बेटा बिल्लू भी आगया।</p>
<p>"बिल्लू, बाबा तुम्हारे साथ गये थे क्या?"</p>
<p>"बाबा तो गाँव वापस चले…</p>
<p>रघुनाथ ट्यूर से लौटा तो पिताजी दिखाई नहीं दिये। वे बरामदे में ही बैठे अखबार पढ़ते रहते थे। उनके कमरे में भी नहीं थे।रघुनाथ का नियम था कि वह कहीं से आता था तो पिता के चरण स्पर्श करता था।</p>
<p>"शीला, पिताजी नहीं दिख रहे। कहीं गये हैं क्या?"</p>
<p>"मुझे कौनसा बता कर जाते हैं? तुम हाथ मुंह धोलो। चाय पकोड़े लाती हूँ।" शीला के लहजे से रघुनाथ को कुछ शंका हुई।</p>
<p>इतने में उसका सात वर्षीय बेटा बिल्लू भी आगया।</p>
<p>"बिल्लू, बाबा तुम्हारे साथ गये थे क्या?"</p>
<p>"बाबा तो गाँव वापस चले गये। बाबा उस दिन बहुत रो रहे थे।"</p>
<p>"तुमने कैसे जाना कि वे गाँव ही गये हैं?"</p>
<p>"वे रास्ते में मुझे मिले थे तो उनके हाथ में लाठी और थैला था तथा कंधे पर कंबल पड़ा था।इसलिये मैंने पूछ लिया था।"</p>
<p>तभी शीला चाय और पकोड़े लेकर आगयी।आते ही उसने बिल्लू को निर्देश दिया कि तुम्हारी चाय और पकोड़े तुम्हारे कमरे में रखे हैं।बिल्लू चला गया ।</p>
<p>चाय पीकर रघुनाथ बिल्लू के कमरे में चला गया," हाँ तो बिल्लू बेटा, तुम क्या बता रहे थे बाबा के बारे में?"</p>
<p>"पापा, ये माँ अच्छी नहीं है।"</p>
<p>"नहीं बिल्लू, ऐसा नहीं बोलते अपनी माँ के लिये।"</p>
<p>"वह तो खुद ही कहती हैं कि तू मेरा सौतेला बेटा है, असली नहीं।"</p>
<p>"चलो अच्छा यह बताओ बाबा गाँव क्यों चले गये?"</p>
<p>"पापा, माँ बाबा को बहुत सताती थीं। चाय मांगते थे तो डाँट देती थी।खाना भी समय पर नहीं देती थी। ठंडा खाना देती थीं जबकि बाबा को ठंडी रोटी नहीं भाती थी।"</p>
<p>"यह तुम्हें बाबा ने बताया|"</p>
<p>"नहीं पापा, बाबा कुछ नहीं बताते थे।मैंने खुद देखा।एक दिन तो बाबा पूरे दिन भूखे रहे।"</p>
<p>"ऐसा क्यूं?"</p>
<p>"उस दिन बाबा ने बोला,"दाल में नमक तेज है" तो माँ उनकी थाली उठा ले गयीं और बोलीं कि, "आपको भूख नहीं है इसलिये नखरे कर रहे हो।"</p>
<p>"बाबा गाँव गये थे उस दिन भी कुछ हुआ था क्या?"</p>
<p>"हाँ बाबा के बिस्तर पर माँ ने पानी डाल दिया और उन्हें बुलाकर भला बुरा कहा कि आपको शर्म नहीं आती इस उम्र में भी बिस्तर गीला करते हो।"बाबा ने मना किया तो माँ बोलती हैं कि, झूठ भी बोलते हो।"</p>
<p>शीला दरवाजे पर खड़ी यह सब सुन रही थी,"देखो कितना झूठा है ये। इतनी सी उम्र में कैसे कहांनियाँ गढ़ लेता है?"</p>
<p>"नहीं शीला, मैं बिल्लू को तुमसे बेहतर जानता हूँ। मीरा ने उसे बहुत अच्छे संस्कार दिये हैं | तुम पिताजी के मित्र की बेटी हो और वे तुम्हारी बहुत तारीफ़ करते थे।इसलिये उन्हीं के दवाब में मैंने तुमसे दूसरी शादी की थी क्योंकि मेरा ट्यूरिंग जॉब था।लेकिन तुम हमारी अपेक्षाओं पर खरी नहीं उतरीं|"</p>
<p>"रघु ये तुम कैसी बातें कर रहे हो?"</p>
<p>"शीला मैं तुम्हें आखिरी मौका दे रहा हूँ।मैं पिताजी को लेने जा रहा हूँ।तुम अगर उनके साथ नहीं रहना चाहो तो अपना ठिकाना देखो, कोई नहीं रोकेगा।"</p>
<p>मौलिक,अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>बाप (लघुकथा) -(पितृ दिवस के उपलक्ष में)tag:openbooksonline.com,2020-06-22:5170231:BlogPost:10106502020-06-22T14:30:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>सुलेखा दौड़ती हांफ़ती घर में घुसी।</p>
<p>"क्या हुआ बिटिया? क्यों ऐसे हांफ़ रही हो?"</p>
<p>"कुछ नहीं पापा। एक कुत्ता पीछे लग गया था।"</p>
<p>"तो इसमें इतने परेशान होने की क्या बात है? तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो।"</p>
<p>"पापा आप नहीं समझोगे।ये दो पैर वाले कुत्ते बहुत गंदी फ़ितरत वाले होते हैं।"</p>
<p>"दो पैर वाले कुत्ते? तुम ये क्या ऊल जलूल बोल रही हो।"</p>
<p>तभी सुलेखा का भाई सूरज हाथ में हॉकी लेकर बाहर की ओर लपका,"अरे बेटा सूरज इतनी रात को यह हॉकी लेकर.......?"</p>
<p>"पापा मैं उस कुत्ते को…</p>
<p>सुलेखा दौड़ती हांफ़ती घर में घुसी।</p>
<p>"क्या हुआ बिटिया? क्यों ऐसे हांफ़ रही हो?"</p>
<p>"कुछ नहीं पापा। एक कुत्ता पीछे लग गया था।"</p>
<p>"तो इसमें इतने परेशान होने की क्या बात है? तुम तो मेरी बहादुर बेटी हो।"</p>
<p>"पापा आप नहीं समझोगे।ये दो पैर वाले कुत्ते बहुत गंदी फ़ितरत वाले होते हैं।"</p>
<p>"दो पैर वाले कुत्ते? तुम ये क्या ऊल जलूल बोल रही हो।"</p>
<p>तभी सुलेखा का भाई सूरज हाथ में हॉकी लेकर बाहर की ओर लपका,"अरे बेटा सूरज इतनी रात को यह हॉकी लेकर.......?"</p>
<p>"पापा मैं उस कुत्ते को सबक़ सिखा कर अभी आता हूँ।"</p>
<p>सूरज और सुलेखा के पिता असमंजस और बेचैनी में चहल कदमी करने लगे| वे कुछ सोच और समझ पाते तब तक सूरज वापस भी आगया।</p>
<p> हॉकी के ऊपरी सिरे पर खून लगा हुआ था।</p>
<p>"ये क्या कर डाला तुमने सूरज? कल तुम्हें सरकारी नौकरी ज्वॉइन करनी है और आज? अभी थोड़ी देर में पुलिस आयेगी।"</p>
<p>"पापा मैं रोज रोज मेरी बहिन की तक़लीफ बर्दास्त नहीं कर सकता।"</p>
<p>"मगर बेटा यह तरीका माकूल नहीं है।तुमने तो अपनी ही जिंदगी दॉव पर लगा दी।"</p>
<p>"पापा मुझे जो उचित लगा, कर दिया।"</p>
<p>"ठीक है, अब जो मुझे करना है, करने दो।"</p>
<p>"अरे पापा , आप इस उम्र में क्या करोगे?"</p>
<p>"बेटा अभी इतना भी बूढ़ा नहीं हूँ। लाओ अपनी ये कमीज मुझे दे दो और तुम अंदर घर पर ही रहना।"</p>
<p>बूढ़ा बाप बेटे की कमीज पहन कर और खून से सनी हॉकी लेकर थाने चला गया।</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>खंडित नसीब - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-06-13:5170231:BlogPost:10096852020-06-13T13:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>खंडित नसीब - लघुकथा -</p>
<p>बिंदू का तीन साल का इकलौता बेटा नंदू सुबह से चॉकबार आइसक्रीम खाने की रट लगाये हुए था। पता नहीं किसको देख लिया था चॉकबार आइसक्रीम खाते। इंदू के पास पैसे नहीं थे इसलिये वह बार बार उसे आइसक्रीम खाने के नुकसान समझा रही थी। लेकिन बिना बाप का बच्चा जिद्दी हो चला था। किसी भी तरह बहल नहीं रहा था।</p>
<p>इंदू को बाबू लोगों के घर झाड़ू पोंछा बर्तन का काम करने जाना था लेकिन नंदू उसे जाने नहीं दे रहा था ।</p>
<p>इंदू कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे।फिर उसे याद आया कि…</p>
<p>खंडित नसीब - लघुकथा -</p>
<p>बिंदू का तीन साल का इकलौता बेटा नंदू सुबह से चॉकबार आइसक्रीम खाने की रट लगाये हुए था। पता नहीं किसको देख लिया था चॉकबार आइसक्रीम खाते। इंदू के पास पैसे नहीं थे इसलिये वह बार बार उसे आइसक्रीम खाने के नुकसान समझा रही थी। लेकिन बिना बाप का बच्चा जिद्दी हो चला था। किसी भी तरह बहल नहीं रहा था।</p>
<p>इंदू को बाबू लोगों के घर झाड़ू पोंछा बर्तन का काम करने जाना था लेकिन नंदू उसे जाने नहीं दे रहा था ।</p>
<p>इंदू कुछ समझ नहीं पा रही थी कि क्या करे।फिर उसे याद आया कि नंदू जब गोद में था तो वह उसे अफ़ीम चटा कर काम पर चली जाती थी।नंदू पांच छह घंटे सोता रहता था। इंदू ने ढूंढ कर अफ़ीम की पुड़िया निकाली और एक कप दूध में मिला दी।इस बार इंदू ने थोड़ी ज्यादा अफ़ीम ली थी क्योंकि अब नंदू बड़ा भी तो हो गया था।क्या पता असर करे या ना करे।</p>
<p>"ले नंदू अभी थोड़ा दूध पीले। मैं तेरे लिये आइसक्रीम लेकर आती हूँ।"</p>
<p>"मैं भी चलूंगा माई।" नंदू फिर मचल गया।</p>
<p>"नहीं बेटा मेरे पास पैसे नहीं हैं।किसी के घर से लूंगी।पता नहीं किससे मिलेंगे। तू परेशान हो जायेगा।"</p>
<p>"नहीं माई, मुझे कोई परेशानी नहीं होगी।"</p>
<p>"पर बेटा कुछ बाबू लोग को तेरा आना अच्छा नहीं लगता।"</p>
<p>"माई मैं बाहर ही तेरा इंतज़ार कर लूंगा।"</p>
<p>"तू इतना अच्छा बेटा होकर कैसी ज़िद की बात करता है।बाहर कितनी तेज धूप है।"</p>
<p>बार बार समझाने से नंदू मान गया और दूध पीकर घर पर ही रुक गया।</p>
<p>इंदू सब का काम खत्म करके, किसी से कुछ पैसों का इंतज़ाम कर एक चॉकबार आइसक्रीम खरीद कर जल्दी से घर पहुंची।नंदू चारौ खाने चित्त पड़ा था। इंदू उसे झकझोर रही थी क्योंकि आइसक्रीम पिघलती जा रही थी।</p>
<p>धीरे धीरे आइसक्रीम एक एक बूंद टपक रही थी। इंदू बेटे के सिरहाने बैठी बेटे के उठने का बेसब्री से इंतज़ार कर रही थी।</p>
<p>आइसक्रीम की आखिरी बूंद भी जमीन पर टपक गयी। बिंदू के हाथ में अब केवल आइसक्रीम की लकड़ी बची थी। लेकिन नंदू अभी भी नहीं उठा।</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>अपराध बोध - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-06-05:5170231:BlogPost:10095132020-06-05T06:59:52.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>अपराध बोध - लघुकथा -</p>
<p>"सपना, यह क्या कर करने जा रही थी?"</p>
<p>रश्मि ने सपना के कमरे का जो द्दृश्य देखा तो चकित हो गयी। सपना पंखे में फंदा डाल कर स्टूल पर चढ़ी हुई थी।रश्मि अगर चंद पल देर से पहुंचती तो अनर्थ हो जाता। रश्मि ने झपट कर सपना को सहारा देकर नीचे उतारा।सपना रोये जा रही थी।</p>
<p>"सपना मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि तुम जैसी शिक्षित, सुशील और शांत लड़की ऐसा अविवेक पूर्ण कदम भी उठा सकती है।"</p>
<p>रश्मि ने उसे पानी दिया और उसे गले लगा कर ढांढस बधाने की चेष्टा की।सपना के…</p>
<p>अपराध बोध - लघुकथा -</p>
<p>"सपना, यह क्या कर करने जा रही थी?"</p>
<p>रश्मि ने सपना के कमरे का जो द्दृश्य देखा तो चकित हो गयी। सपना पंखे में फंदा डाल कर स्टूल पर चढ़ी हुई थी।रश्मि अगर चंद पल देर से पहुंचती तो अनर्थ हो जाता। रश्मि ने झपट कर सपना को सहारा देकर नीचे उतारा।सपना रोये जा रही थी।</p>
<p>"सपना मुझे तो विश्वास ही नहीं हो रहा कि तुम जैसी शिक्षित, सुशील और शांत लड़की ऐसा अविवेक पूर्ण कदम भी उठा सकती है।"</p>
<p>रश्मि ने उसे पानी दिया और उसे गले लगा कर ढांढस बधाने की चेष्टा की।सपना के संयमित होने पर रश्मि ने पुनः उसे पूछा," सपना मैं तुम्हारी सबसे अच्छी दोस्त हूँ।और तुम तो मुझे अपनी बड़ी बहिन की तरह मानती हो। अपना दुख दर्द मुझे नहीं बताओगी?"</p>
<p>"दीदी, मेरे जीवन में अब कुछ बाकी नहीं बचा।"</p>
<p>"आखिर ऐसा हुआ क्या?"</p>
<p>"दीदी गोपाल ने मुझे धोखा दिया।प्यार का नाटक किया और अब अपने गाँव जाकर माँ बाप की पसंद से शादी कर ली।"</p>
<p>"बस इतनी सी बात? हद कर दी तुमने सपना।"</p>
<p>"दीदी, आपके लिये यह मामूली बात है।पिछले दो साल से हम रिलेशनशिप में थे।हमारे शारीरिक संबंध भी थे। सारे होस्टल को मालूम है।अब मेरा क्या भविष्य है?"</p>
<p>"पगला गयी हो क्या? तुम्हारे विचार सुन कर कोई मानेगा कि तुम एक शिक्षिका हो और स्त्री स्वतंत्रता जैसे विषय पर पी एच डी कर रही हो।"</p>
<p>"लेकिन दीदी क्या आप सामजिक वर्जनाओं और मान्यताओं को नकार सकती हो?"</p>
<p>"वह गोपाल भी तो इसी समाज का हिस्सा है। उसने क्या किया?"</p>
<p>"दीदी वह तो मर्द है।समाज में मर्दों के लिये अलग सोच है।"</p>
<p>"उस सोच को ही बदलने की आवश्यकता है। दोषी तुम नहीं गोपाल है।अपराधी तुम नहीं गोपाल है। उठो और अपनी शिक्षा से नयी सोच और नयी विचारधारा को जन्म दो।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>कीमत - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-05-08:5170231:BlogPost:10058022020-05-08T06:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>कॉल बेल बजी।शुभ्रा ने द्वार खोला।बाबा को देख वह सकते में आ गयी।वह एक अनिर्णय की स्थिति में फ़ंस गयी थी।अजीब कशमकश थी। वह बाबा को अंदर आने के लिये कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी क्योंकि अंदर का दृश्य बाबा बर्दास्त नहीं कर पायेंगे|</p>
<p>शुभ्रा ने जैसे तैसे खुद को संयमित किया और चरण स्पर्श कर उसने भर्राई आवाज में पूछ ही लिया,</p>
<p>"बाबा आप यहाँ अचानक, बिना कोई पूर्व सूचना?"</p>
<p>घोष बाबू ने बेटी के प्रश्न को अनसुना करते हुए अपना सवाल दाग दिया,</p>
<p>"ये अंदर से कैसी आवाजें आ रही हैं?…</p>
<p>कॉल बेल बजी।शुभ्रा ने द्वार खोला।बाबा को देख वह सकते में आ गयी।वह एक अनिर्णय की स्थिति में फ़ंस गयी थी।अजीब कशमकश थी। वह बाबा को अंदर आने के लिये कहने का साहस नहीं जुटा पा रही थी क्योंकि अंदर का दृश्य बाबा बर्दास्त नहीं कर पायेंगे|</p>
<p>शुभ्रा ने जैसे तैसे खुद को संयमित किया और चरण स्पर्श कर उसने भर्राई आवाज में पूछ ही लिया,</p>
<p>"बाबा आप यहाँ अचानक, बिना कोई पूर्व सूचना?"</p>
<p>घोष बाबू ने बेटी के प्रश्न को अनसुना करते हुए अपना सवाल दाग दिया,</p>
<p>"ये अंदर से कैसी आवाजें आ रही हैं? मर्द लोगों के ठहाके और अट्टहास?"</p>
<p>"बाबा मीटिंग चल रही है।"</p>
<p>"कैसी मीटिंग?"</p>
<p>"नयी फ़िल्मके प्रमोशन के लिये।"</p>
<p>"ये शराब और सिगरेट की बदबू?"</p>
<p>"जी बाबा, इसके बिना ये मीटिंग नहीं होतीं।"</p>
<p>"क्या तुम भी?"</p>
<p>"नहीं बाबा, अभी तक तो नहीं।"</p>
<p>"लेकिन तुम्हारे घर में यह सब।एक ब्राह्मण परिवार में?"</p>
<p>"बाबा इस क्षेत्र में यह सब अनिवार्य है।मैं अभी यह सब होटल में अफोर्ड नहीं कर सकती इसलिये घर पर।"</p>
<p>"कौन लोग हैं ये?"</p>
<p>"फ़िल्म के निर्देशक, फोटोग्राफर,पत्रकार,सह कलाकार आदि हैं।"</p>
<p>"मुझे कुछ अच्छा नहीं लग रहा?"</p>
<p>"बाबा अभी आप जाइये अपने होटल।मैं कल आपको सब समझा दूंगी।"</p>
<p>"मेरी सुबह पाँच बजे की फ़्लाइट है।"</p>
<p>"बाबा आपका और माँ का ही यह सपना था कि मैं इस क्षेत्रमें अपना भाग्य आजमाऊं।"</p>
<p>"हाँ मानता हूँ।तुम्हारे टेलेंट और रुचि को देखते हुए, तुम्हें एन एस डी भेजा।नृत्य सिखाया,घुड़ सवारी, तैरना क्या क्या नहीं सिखाया। इसके बाद भी यह सब करना?"</p>
<p>"बाबा मैं तो फिर भी लकी हूँ।इससे भी अधिक करना पड़ता है।"</p>
<p>"मतलब?"</p>
<p>"यहाँ लोग नये कलाकारों का शारीरिक शोषण तक करते हैं।"</p>
<p>"नहीं शुभ्रा, मेरा मन तुम्हें यहाँ एक पल भी छोड़ने को नहीं कर रहा।तुम अभी मेरे साथ वापस चलो।"</p>
<p>"बाबा ये तो अब एकदम असंभव बात है।मेरे लिये तो ये जीवन मरण का प्रश्न बन चुका है।अब तो शीघ्र ही वह समय आने वाला है जब लोग मुझे पलकों पर बिठायेंगे| मैं बुलंदियों को छूने वाली हूँ।"</p>
<p>"लेकिन इस कीमत पर?"</p>
<p>"बाबा कीमत का आँकलन खरीददार नहीं करता।कीमत का निर्धारण विक्रेता ही करता है।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>राष्ट्र धर्म - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-04-18:5170231:BlogPost:10046252020-04-18T04:18:42.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>राष्ट्र धर्म - लघुकथा -</p>
<p>परिवार के सभी लोग शाम सात बजे का महाभारत का टी वी पर प्रसारण देख रहे थे।तभी मोबाइल बज उठा।सभी का ध्यान बंट गया।मैं मोबाइल लेकर मेरे कमरे में चला आया।</p>
<p>मोबाइल कान पर लगाया।"हल्लो सिंह साहब, वर्मा बोल रहा हूँ।"</p>
<p>"बोलिये वर्मा जी, कैसे मिजाज हैं?"</p>
<p>"क्या बतायें सर, इस लॉक डाउन ने सब गुड़ गोबर कर रखा है।"</p>
<p>"हाँ थोड़ी परेशानी तो है ही।बोलो कैसे याद किया?"</p>
<p>"भोजन हो गया क्या?"</p>
<p>"आजकल रात्रि का भोजन तो महाभारत के पश्चात ही होता…</p>
<p>राष्ट्र धर्म - लघुकथा -</p>
<p>परिवार के सभी लोग शाम सात बजे का महाभारत का टी वी पर प्रसारण देख रहे थे।तभी मोबाइल बज उठा।सभी का ध्यान बंट गया।मैं मोबाइल लेकर मेरे कमरे में चला आया।</p>
<p>मोबाइल कान पर लगाया।"हल्लो सिंह साहब, वर्मा बोल रहा हूँ।"</p>
<p>"बोलिये वर्मा जी, कैसे मिजाज हैं?"</p>
<p>"क्या बतायें सर, इस लॉक डाउन ने सब गुड़ गोबर कर रखा है।"</p>
<p>"हाँ थोड़ी परेशानी तो है ही।बोलो कैसे याद किया?"</p>
<p>"भोजन हो गया क्या?"</p>
<p>"आजकल रात्रि का भोजन तो महाभारत के पश्चात ही होता है।"</p>
<p>"मतलब अभी थोड़ी देर फ़्री हैं ना?"</p>
<p>"हाँ क्यों बोलो?"</p>
<p>"अभी आता हूँ पाँच दस मिनट में।"</p>
<p>मैं एक अजीब से असमंजस में आ गया। क्या समस्या आ गयी वर्मा जी को।हमारी ही सोसाइटी की बिल्डिंग बी-टू में रहते थे।अगले पाँच दस मिनट मेरे बड़ी बेचेनी से कटे।आजकल हमेशा एक ही डर होता था कि किसी के कोरोना होने की खबर ना मिले।</p>
<p>मैं इसी उधेड़्बुन में उलझा था कि वर्मा जी आ गये।सीधे उन्हें मेरे ही कमरे में ले आया।</p>
<p>आते ही उन्होंने कंधे पर लटका बैग उतार कर कंप्यूटर टेबल पर रखा।</p>
<p>जैसे ही वे बैग खोलने लगे,"इसमें क्या है वर्मा जी?"</p>
<p>"अरे सर बड़ी मुश्किल से जुगाड़ किया है।कितने दिन हो गये साथ बैठे हुए।"</p>
<p>इतना बोलते ही वर्मा जी ने बैग से पीटर स्कॉच की बोतल और तंदूरी चिकन का पॉकेट निकाला।</p>
<p>"नहीं वर्मा जी, अभी इस सब के लिये यह उचित समय नहीं है।"</p>
<p>"क्या कह रहे हैं सर ? कितनी भाग दौड़ करनी पड़ी है।"</p>
<p>"आप खुद ही सोचो वर्मा जी, सारा देश भीषण कोरोना वाइरस से त्राहि त्राहि कर रहा है। कितनी बड़ी विपदा से जूझ रहा है।।देश की आधी आबादी भूखी सो रही है और इन हालात में हम पार्टी करें। इंसान होने के थोड़े तो प्रमाण दो। हैवान मत बनो।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>संस्कार - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-04-09:5170231:BlogPost:10042082020-04-09T05:17:43.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>संस्कार - लघुकथा -</p>
<p>"रोहन यह क्या हो रहा है सुबह सुबह?"</p>
<p>"भगवान ने इतनी बड़ी बड़ी आँखें आपको किसलिये दी हैं?"</p>
<p>रोहन का ऐसा बेतुका उत्तर सुनकर मीना का दिमाग गर्म हो गया। उसने आव देखा न ताव देखा तड़ातड़ दो तीन तमाचे धर दिये रोहन के मुँह पर।सात साल का रोहन माँ से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं कर रहा था।</p>
<p>वह फ़ट पड़ा और जोर जोर से दहाड़ मार कर रोने लगा। उसका बाप दौड़ा दौड़ा आया।</p>
<p>रोहन को गोद में उठाकर पूछा,"क्या हुआ?"</p>
<p>"माँ ने मारा।"</p>
<p>रोहन के पिता ने मीना…</p>
<p>संस्कार - लघुकथा -</p>
<p>"रोहन यह क्या हो रहा है सुबह सुबह?"</p>
<p>"भगवान ने इतनी बड़ी बड़ी आँखें आपको किसलिये दी हैं?"</p>
<p>रोहन का ऐसा बेतुका उत्तर सुनकर मीना का दिमाग गर्म हो गया। उसने आव देखा न ताव देखा तड़ातड़ दो तीन तमाचे धर दिये रोहन के मुँह पर।सात साल का रोहन माँ से इस तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद नहीं कर रहा था।</p>
<p>वह फ़ट पड़ा और जोर जोर से दहाड़ मार कर रोने लगा। उसका बाप दौड़ा दौड़ा आया।</p>
<p>रोहन को गोद में उठाकर पूछा,"क्या हुआ?"</p>
<p>"माँ ने मारा।"</p>
<p>रोहन के पिता ने मीना को जलती निगाहों से घूरते हुए पूछा,"मीना,उसके दोनों गाल लाल हो रहे हैं।इतने छोटे बच्चे को ऐसे मारता है कोई?"</p>
<p>"मैं कोई नहीं हूँ, उसकी माँ हूँ। उसकी गलती को सुधारने का मेरा अधिकार है।"</p>
<p>"बच्चे को समझाकर भी सुधारा जा सकता है।"</p>
<p>"उसकी यह गलती मार खाने लायक ही थी।"</p>
<p>"ऐसा क्या किया था? मुझे भी तो पता चले।"</p>
<p>"पूछलो अपने लाड़ले से|राम जाने कहाँ से सीख रहा है ऐसी बेहूदी तमीज?"</p>
<p>दोनों पति पत्नी इसी बहस में उलझे थे कि रोहन बोल उठा,</p>
<p>"माँ,कल दादी ने आपसे पूछा था कि "बहू क्या कर रही हो?" तब आपने भी तो यही उत्तर दिया था कि, "भगवान ने ये बटन सी आँखें किसलिये दी हैं।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>एक पंथ दो काज - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-04-03:5170231:BlogPost:10037542020-04-03T12:25:23.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>एक पंथ दो काज - लघुकथा -</p>
<p>"हल्लो, मिश्रा जी, गुप्ता बोल रहा हूँ।"</p>
<p>"अरे यार नाम बताने की आवश्यकता नहीं है।मेरे मोबाइल में आपका नाम आ गया। बोलो सुबह सुबह कैसे याद किया?"</p>
<p>"आज आपकी थोड़ी मदद चाहिये।"</p>
<p>"कैसी बात करते हो मित्र।आपके लिये तो आधी रात को तैयार हैं।हुकम करो।"</p>
<p>"अरे भाई आज राम नवमी है।कुछ बच्चे बच्चियों को जिमाना है।मैडम का आदेश हुआ कि सोसाइटी में से अपने दोस्तों के बच्चे बुलालो।"</p>
<p>"ये तो बहुत टेढ़ा मामला है।लॉक डाउन का सरकारी आदेश है।उसकी अवहेलना तो…</p>
<p>एक पंथ दो काज - लघुकथा -</p>
<p>"हल्लो, मिश्रा जी, गुप्ता बोल रहा हूँ।"</p>
<p>"अरे यार नाम बताने की आवश्यकता नहीं है।मेरे मोबाइल में आपका नाम आ गया। बोलो सुबह सुबह कैसे याद किया?"</p>
<p>"आज आपकी थोड़ी मदद चाहिये।"</p>
<p>"कैसी बात करते हो मित्र।आपके लिये तो आधी रात को तैयार हैं।हुकम करो।"</p>
<p>"अरे भाई आज राम नवमी है।कुछ बच्चे बच्चियों को जिमाना है।मैडम का आदेश हुआ कि सोसाइटी में से अपने दोस्तों के बच्चे बुलालो।"</p>
<p>"ये तो बहुत टेढ़ा मामला है।लॉक डाउन का सरकारी आदेश है।उसकी अवहेलना तो अपराध की श्रेणी में आता है।"</p>
<p>"मिश्रा जी, यह तो सोसाइटी के अंदर का मामला है।और आपका फ्लैट तो हमारी ही बिल्डिंग में है।दो माले ही तो नीचे आना है।कौनसा लॉक डाउन टूट जायेगा।"</p>
<p>"गुप्ता जी, आप जैसे पढ़े लिखे और समझदार इंसान से ऐसी उम्मीद नहीं थी।"</p>
<p>"ऐसा क्या कह दिया मैंने?"</p>
<p>"मित्र, यह कायदे कानून से ज्यादा अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा की बात है।"</p>
<p>"मिश्रा जी, जितना आप सोच रहे हो वैसा कुछ भी नहीं है।मेरे घर का वातावरण आपके घर की तरह ही साफ सुथरा और स्वच्छ है।"</p>
<p>"बात केवल घरों की नहीं है।घर के बाहर लिफ़्ट में कितने लोग आते जाते हैं।अखवार वाला, दूध वाला, कचरेवाला, झाड़ू पोंछावाली,दवाईवाले, सिक्योरिटी वाले।क्या पता कौन कैसे माहौल से होकर आया हो?"</p>
<p>"मिश्रा जी, बहानेवाजी मत करो।हमारे बच्चे तो बड़ी खुशी मना रहे थे कि इस बहाने आज कैरम भी खेल लेंगे। एक पंथ दो काज हो जाते।"</p>
<p>"गुप्ता जी, इसमें एक पंथ दो काज नहीं एक पंथ तीन काज हो जायेंगे।"</p>
<p>"तीसरा काज कौनसा?"</p>
<p>"करोना का प्रसार।"</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>प्रेम पत्र - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2020-02-15:5170231:BlogPost:10008722020-02-15T06:00:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>प्रेम पत्र - लघुकथा -</p>
<p>आज वीरेंद्र पिता की मृत्योपरांत तेरहवीं की औपचारिकतायें संपन्न करने के पश्चात पिताजी के कमरे की अलमारी से पिता के पुराने दस्तावेज निकाल कर कुछ काम के कागजात छाँट रहा था।</p>
<p>तभी उसकी नज़र एक गुलाबी कपड़े की पोटली पर पड़ी।उसने उत्सुकता वश उसे खोल लिया।वह अचंभित हो गया।वह जिस पिता को एक आदर्श और सदाचारी पिता समझता था उनकी चरित्र हीनता का एक दूसरा ही चेहरा आज उसके सामने था।उस पोटली में पिता के नाम लिखे प्रेम पत्र और एक सुंदर सी महिला के साथ तस्वीरें…</p>
<p>प्रेम पत्र - लघुकथा -</p>
<p>आज वीरेंद्र पिता की मृत्योपरांत तेरहवीं की औपचारिकतायें संपन्न करने के पश्चात पिताजी के कमरे की अलमारी से पिता के पुराने दस्तावेज निकाल कर कुछ काम के कागजात छाँट रहा था।</p>
<p>तभी उसकी नज़र एक गुलाबी कपड़े की पोटली पर पड़ी।उसने उत्सुकता वश उसे खोल लिया।वह अचंभित हो गया।वह जिस पिता को एक आदर्श और सदाचारी पिता समझता था उनकी चरित्र हीनता का एक दूसरा ही चेहरा आज उसके सामने था।उस पोटली में पिता के नाम लिखे प्रेम पत्र और एक सुंदर सी महिला के साथ तस्वीरें थीं।</p>
<p>वीरेंद्र के चेहरे पर पिता के प्रति क्रोध और घृणा के भाव तेजी से उभर रहे थे।</p>
<p>उसी वक्त वीरेंद्र की माँ ने कक्ष में प्रवेश किया।वीरेंद्र ने पहले तो उस पोटली को छिपाने की असफल कोशिश की लेकिन जब उसे लगा कि माँ ने सबकुछ देख लिया है तो अब सब कुछ उजागर कर देना ही ठीक है।</p>
<p>"माँ,बापू ने हम लोगों के साथ बहुत बड़ा धोखा किया।खासतौर पर तुम्हारे साथ।"</p>
<p>"कैसी ऊलजलूल बात कर रहे हो वीरेंद्र।आज के समय में तुम्हारे पिता जैसा निष्ठावन और कर्तव्य परायण व्यक्ति मिलना मुश्किल ही नहीं असंभव है।"</p>
<p>"आज से पहले मेरी भी सोच यही थी माँ लेकिन आज उनका एक घिनौना रूप मुझे देखने को मिला है।"</p>
<p>"कुछ तो शर्म करो वीरेंद्र।अपने स्वर्गवासी पिता के लिये ये कैसी भाषा प्रयोग कर रहे हो?"</p>
<p>"यह देखो माँ।यह है बापू का असली चेहरा।उनके जीवन में कोई और भी स्त्री थी।"</p>
<p>"यह सच है। लेकिन यह हमारी शादी से पूर्व का सच है।"</p>
<p>"क्या मतलब है आपका माँ?"</p>
<p>"वीरेंद्र, तुम्हारे पिता ने मुझसे कभी कुछ नहीं छिपाया।वह किसी से प्रेम करते थे लेकिन उन्होंने मुझसे शादी अपने परिवार के दबाव में की थी।उन्होंने यह खत और फोटो शादी की पहली ही रात मुझे दे दिये थे और कहा था कि इन्हें जला देना। मेरे जीवन से यह प्रसंग समाप्त। और वे उस पर कायम भी रहे।"</p>
<p>"पर आपने जलाये क्यों नहीं माँ?"</p>
<p>"मैं इतना साहस कभी भी एकत्र नहीं कर सकी।"</p>
<p>मौलिक,अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>त्रिशंकु (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2020-01-04:5170231:BlogPost:9987362020-01-04T05:30:00.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>त्रिवेदी जी अपने समय के ख्याति प्राप्त व्यापारी, समाज सेवक, राज नेता, मंत्री और ना जाने किस किस पद को शोभायमान कर चुके थे।</p>
<p>आज वृद्धावस्था के कारण जर्जर शरीर को लेकर अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में मरणासन्न स्थिति में पड़े थे। दवाओं का शरीर पर कोई अनुकूल प्रभाव नहीं हो रहा था। लेकिन अस्पताल वाले अति आशावादी होने का नाटक कर रहे थे। वहाँ के डॉक्टरों का दावा था कि वे पूर्व में मृत प्रायः लोगों में भी जान डाल चुके हैं| वे इतनी मोटी मुर्गी को तबियत से हलाल करना चाहते थे।यमदूत बार बार आकर…</p>
<p>त्रिवेदी जी अपने समय के ख्याति प्राप्त व्यापारी, समाज सेवक, राज नेता, मंत्री और ना जाने किस किस पद को शोभायमान कर चुके थे।</p>
<p>आज वृद्धावस्था के कारण जर्जर शरीर को लेकर अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में मरणासन्न स्थिति में पड़े थे। दवाओं का शरीर पर कोई अनुकूल प्रभाव नहीं हो रहा था। लेकिन अस्पताल वाले अति आशावादी होने का नाटक कर रहे थे। वहाँ के डॉक्टरों का दावा था कि वे पूर्व में मृत प्रायः लोगों में भी जान डाल चुके हैं| वे इतनी मोटी मुर्गी को तबियत से हलाल करना चाहते थे।यमदूत बार बार आकर दस्तक दे रहे थे। लेकिन अस्पताल का प्रबंधन उन्हें छोड़ने को तैयार ही नहीं था। हालांकि त्रिवेदी जी कोमा में जा चुके थे। कुछ विशेषज्ञों की राय में वे ब्रह्म विलीन हो चुके थे। लेकिन उनका परिवार उनके इस दृष्टिकोण से सहमत नहीं था। उनकी कामना थी कि दद्दा एक बार होश में आ जांय तो कुछ अनिवार्य दस्तावेजों जैसे वसीयत एवम अन्य कानूनी कागजात पर हस्ताक्षर करा लिये जांय। उनकी इसी सोच का लाभ अस्पताल वाले भुनाने में लगे थे।अस्पताल वाले नित्य नये नये आश्वासन देकर अपना बिल दिन दूना रात चौगुना करने में लगे थे।</p>
<p>अंततः समय सीमा में बंधे यमदूतों का सब्र का बाँध टूट गया और वे त्रिवेदी जी की आत्मा को लेकर चल दिये। तोता तो उड़ चला लेकिन परिवार और अस्पताल अभी भी उस पिंजर को लेकर रस्साकसी में लगे थे।</p>
<p>.</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>ठूंठ - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2019-12-28:5170231:BlogPost:9980012019-12-28T08:07:32.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>ठूंठ - लघुकथा -</p>
<p>राम दयाल अपनी घर वाली की जिद के आगे झुक गया। हालांकि उसकी दलील इतनी मजबूत तो नहीं थी लेकिन वह घर में किसी प्रकार की क्लेश नहीं चाहता था। उसकी घर वाली का मानना था कि उसके सासु और ससुर की वजह से उसके बेटे की शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था।</p>
<p>अतः वह चाहती थी कि सासु ससुर जी को वृद्धाश्रम भेज दो।</p>
<p>आज मजबूरन राम दयाल उन दोनों को वृद्धाश्रम छोड़ कर घर वापस जा रहा था।लेकिन उसका मन इस कृत्य के लिये उसे धिक्कार रहा था।</p>
<p>वृद्धाश्रम से बाहर जैसे ही वह मुख्य सड़क…</p>
<p>ठूंठ - लघुकथा -</p>
<p>राम दयाल अपनी घर वाली की जिद के आगे झुक गया। हालांकि उसकी दलील इतनी मजबूत तो नहीं थी लेकिन वह घर में किसी प्रकार की क्लेश नहीं चाहता था। उसकी घर वाली का मानना था कि उसके सासु और ससुर की वजह से उसके बेटे की शिक्षा पर बुरा प्रभाव पड़ रहा था।</p>
<p>अतः वह चाहती थी कि सासु ससुर जी को वृद्धाश्रम भेज दो।</p>
<p>आज मजबूरन राम दयाल उन दोनों को वृद्धाश्रम छोड़ कर घर वापस जा रहा था।लेकिन उसका मन इस कृत्य के लिये उसे धिक्कार रहा था।</p>
<p>वृद्धाश्रम से बाहर जैसे ही वह मुख्य सड़क पर मुड़ा, उसकी नज़र सड़क किनारे कुछ कटे हुए वृक्षों के ठूंठों पर पड़ी।</p>
<p>उन ठूंठों की बगल में उन पेड़ों के ऊपरी अवशेष पड़े हुए थे। जो कि सूख चुके थे।क्योंकि उन्हें उनकी जड़ों से जुदा कर दिया गया था।</p>
<p>थोड़ा आगे निकलते ही राम दयाल को अपने माँ बाप उन कटे हुए पेड़ों की मानिंद नज़र आये।राम दयाल का हृदय चीत्कार कर उठा।</p>
<p>उसकी गाड़ी के ब्रेक अपने आप लग गये। कुछ पल वह ऊहापोह की स्थिति में उलझा रहा।लेकिन उस स्थिति से उबरने मेंउसे कुछ क्षण लगे।</p>
<p>अब उसकी गाड़ी पुनः वृद्धाश्रम जा रही थी।</p>
<p>मौलिक, अप्रकाशित एवम अप्रसारित</p>उसूल - लघुकथा -tag:openbooksonline.com,2019-11-16:5170231:BlogPost:9960602019-11-16T07:12:18.000ZTEJ VEER SINGHhttp://openbooksonline.com/profile/TEJVEERSINGH
<p>उसूल - लघुकथा -</p>
<p>"क्या बात है सर, आज पहली बार आपको व्हिस्की लेते देख रहा हूँ?"</p>
<p>"हाँ घोष बाबू, आज मैं भी कई साल बाद तनाव मुक्त महसूस कर रहा हूँ।"</p>
<p>"मगर सर मैंने आपको कभी हार्ड ड्रिंक लेते नहीं देखा।"</p>
<p>"आप सही कह रहे हैं। मैंने जिस दिन यह कुर्सी संभाली थी, अपने पिता को वचन दिया था कि मैं सेवा निवृत होने तक ड्रिंक नहीं करूंगा। आज रिटायर होने के साथ ही उस बंधन से मुक्त हो गया।"</p>
<p>"लेकिन सर, खैर छोड़िये...........?"</p>
<p>"क्यूँ छोड़िये, आज सब बंधन तोड़ दो। जो भी मन…</p>
<p>उसूल - लघुकथा -</p>
<p>"क्या बात है सर, आज पहली बार आपको व्हिस्की लेते देख रहा हूँ?"</p>
<p>"हाँ घोष बाबू, आज मैं भी कई साल बाद तनाव मुक्त महसूस कर रहा हूँ।"</p>
<p>"मगर सर मैंने आपको कभी हार्ड ड्रिंक लेते नहीं देखा।"</p>
<p>"आप सही कह रहे हैं। मैंने जिस दिन यह कुर्सी संभाली थी, अपने पिता को वचन दिया था कि मैं सेवा निवृत होने तक ड्रिंक नहीं करूंगा। आज रिटायर होने के साथ ही उस बंधन से मुक्त हो गया।"</p>
<p>"लेकिन सर, खैर छोड़िये...........?"</p>
<p>"क्यूँ छोड़िये, आज सब बंधन तोड़ दो। जो भी मन में है बोल दो।"</p>
<p>"सर आप बुरा मान जायेंगे।"</p>
<p>"पिछले सालों में इतना सुनने और सहने की आदत हो गयी है कि अब कुछ बुरा नहीं लगता।"</p>
<p>"आप सही कह रहे हैं।पर मेरा मन आपकी आत्मा को दुखाना नहीं चाहता।"</p>
<p>"दिल खोल कर पूछो, अब उन सारी परिस्थितियों को पार कर चुका हूँ।और वैसे भी तुम तो अपने ही हो।"</p>
<p>"सर मुझे आपके पिछले दिनों लिये गये निर्णयों पर हैरत हो रही है।ये फ़ैसले आपकी विचारधारा, उसूल और चरित्र से मेल नहीं खाते।"</p>
<p>"घोष बाबू, धारा के विरुद्ध तैरने के लिये जिस शारीरिक शक्ति और मानसिक क्षमता की आवश्यकता होती है।वह अब मुझमें नहीं बची।"</p>
<p>"कहीं ऐसा तो नहीं कि आप समझौतावादी विचारधारा को स्वीकार कर लिये।"</p>
<p>"सेवा निवृति के बाद के भविष्य की चिंता तो सभी को होती है।"</p>
<p>मौलिक एवम अप्रकाशित</p>