Dipak Mashal's Posts - Open Books Online2024-03-29T11:31:37ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashalhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991275367?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=2lw8snddoipvk&xn_auth=noलघुकथा: अधार्मिकtag:openbooksonline.com,2012-12-26:5170231:BlogPost:3035952012-12-26T01:07:23.000ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashal
<p>देश के प्रतिष्ठित सरकारी हस्पतालों में से एक में गर्मियों की दोपहर को डॉक्टरों के विश्राम कक्ष में बैठकर लस्सी पीते हुए, वे चारों डॉक्टर आपस में देश-दुनिया की 'गंभीर' चर्चा में लगे हुए थे। अचानक उनमे से एक की नज़र अपनी कलाई घड़ी पर घूम गई, जिसकी सुइयां उनके लिए निर्धारित विश्राम के समय से कुछ ज्यादा ही आगे घूम गईं थीं। उसने हड़बड़ाते हुए अपनी कुर्सी छोड़ी और बाकी के साथियों को घड़ी की तरफ इशारा करते हुए बोला-<br></br>- जरा टाइम देखो डियर, तुम लोगों का भी राउंड का वक़्त हो गया है।<br></br>- अबे बैठ…</p>
<p>देश के प्रतिष्ठित सरकारी हस्पतालों में से एक में गर्मियों की दोपहर को डॉक्टरों के विश्राम कक्ष में बैठकर लस्सी पीते हुए, वे चारों डॉक्टर आपस में देश-दुनिया की 'गंभीर' चर्चा में लगे हुए थे। अचानक उनमे से एक की नज़र अपनी कलाई घड़ी पर घूम गई, जिसकी सुइयां उनके लिए निर्धारित विश्राम के समय से कुछ ज्यादा ही आगे घूम गईं थीं। उसने हड़बड़ाते हुए अपनी कुर्सी छोड़ी और बाकी के साथियों को घड़ी की तरफ इशारा करते हुए बोला-<br/>- जरा टाइम देखो डियर, तुम लोगों का भी राउंड का वक़्त हो गया है।<br/>- अबे बैठ जा आराम से यहाँ कोई देखने वाला नहीं है, हमें तीन साल हो गए यहाँ, यहाँ के सिस्टम की नस-नस मालूम है।<br/>पर उस नए डॉक्टर को जल्दी हार नहीं माननी थी <br/>- पर यार कुछ तो ईमानदारी रखो, क्यों भूल जाते हो कि चिकित्सा हमारा पेशा ही नहीं धर्म भी है।<br/>- ओ हरिश्चंदर की औलाद, बैठ जा चुप्पी साध के धर्म होगा तेरा... हम तो नास्तिक लोग हैं।<br/>और कमरे में तीन दिशाओं से निकले ठहाकों के स्वर गूँज पड़े।</p>लघुकथा: नाक और पेटtag:openbooksonline.com,2012-12-17:5170231:BlogPost:3012782012-12-17T14:17:42.000ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashal
<p>एक तो उसके पिता जी के वकालत के दिनों में ही घर की माली हालत ठीक नहीं थी, तिस पर अचानक हुई उस दुर्घटना ने गरीबी में आटा गीला करने का काम किया। घर-गहने बिका देने वाले इलाज़ ने किसी तरह पिता जी की जान तो बचा ली गई लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी टूटने ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि घर की अर्थव्यवस्था को ही अपाहिज बना दिया। खेलने-खाने के दिनों में जब उसने सिर पर घर के छः सदस्यों की जिम्मेवारी को मह्सूस किया तो गेंद-बल्ला सब भूल गया। पढ़ाई के साथ-साथ ही कुछ काम करने के बारे में सोचा। वामन पुत्र था और…</p>
<p>एक तो उसके पिता जी के वकालत के दिनों में ही घर की माली हालत ठीक नहीं थी, तिस पर अचानक हुई उस दुर्घटना ने गरीबी में आटा गीला करने का काम किया। घर-गहने बिका देने वाले इलाज़ ने किसी तरह पिता जी की जान तो बचा ली गई लेकिन उनकी रीढ़ की हड्डी टूटने ने ना सिर्फ उन्हें बल्कि घर की अर्थव्यवस्था को ही अपाहिज बना दिया। खेलने-खाने के दिनों में जब उसने सिर पर घर के छः सदस्यों की जिम्मेवारी को मह्सूस किया तो गेंद-बल्ला सब भूल गया। पढ़ाई के साथ-साथ ही कुछ काम करने के बारे में सोचा। वामन पुत्र था और देखने-सुनने में भी ठीक था सो ज्यादा भाग-दौड़ न करनी पड़ी, कस्बे की प्रमुख रामलीला में राम की मूर्ति (पात्र) के लिए उसका चयन हो गया। वह खुश था कि चलो कुछ दिनों के लिए तो गुज़ारे का प्रबंध हो गया।<br/>महीने भर की रामलीला में उसने आगे के कुछ महीनों के लिए बचत कर ली। ऊपर से रामलीला समिति ने रामलीला के दौरान उसके द्वारा पहना गया चांदी का मुकुट भी उसे उपहार में दे दिया। पर अगले महीनों में कुछ और काम न मिला। किस्मत की बात कि उसके मोहल्ले में होने वाली एक दूसरी छोटी रामलीला के लिए भी उसके पास राम बनने का प्रस्ताव आया। उसने सहर्ष स्वीकार कर लिया।<br/>जब यह खबर प्रमुख रामलीला के आयोजकों तक पहुँची तो यह उन्हें नागवार गुज़रा। आयोजन समिति के महामंत्री ने आकर उसे समझाया <br/>- देखो नासमझी मत दिखाओ, आप एक बार चांदी में पुज चुके हो अब गिलट(के मुकुट) में कैसे पुज सकते हो भला? यह हमारी नाक का सवाल है, उनकी पेशगी लौटा दो, वो कोई नया लड़का ढूंढ लेंगे।<br/>- मगर मैं इस स्थिति में नहीं कि इस प्रस्ताव को नकार सकूँ। यह मेरे पूरे परिवार के पेट का भी सवाल है।<br/>- मुझे समिति ने जो कहने को कहा था सो मैंने कह दिया, इतना बताये देता हूँ कि यहाँ मूर्ति बन गए तो अगली बार हमारे यहाँ दोबारा मौका नहीं मिलेगा। अच्छे से सोच-विचार कर लो। अब चलता हूँ, जय सियाराम। <br/>कुछ दिन पहले जो सारे कस्बे के लिए राम था, अब वो असल जीवन में नाक और पेट के युद्ध में फंसा था, न लक्ष्मण साथ थे और न हनुमान।</p>चर्चा के विषयtag:openbooksonline.com,2012-12-15:5170231:BlogPost:3006272012-12-15T18:00:00.000ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashal
<p>ज्यादा क्या कोई फर्क नहीं मिलता<br></br> हुक्के की गुड़गुड़ाहटों की आवाज़ में<br></br> चाहे वो आ रही हों फटी एड़ियों वाले ऊंची धोती पहने मतदाता के आँगन से<br></br> या कि लाल-नीली बत्तियों के भीतर के कोट-सूट से...<br></br> नहीं समझ आता ये कोरस है या एकल गान<br></br> जब अलापते हैं एक ही आवाज़ पाषाण युग के कायदे क़ानून की पगड़ियां या टाई बांधे<br></br> हाथ में डिग्री पकड़े और लाठी वाले भी<br></br> किसी बरगद या पीपल के गोल चबूतरे पर विराजकर<br></br> तो कोई आवाजरोधी शीशों वाले ए सी केबिन में..</p>
<p>गरियाना तालिबान को,…</p>
<p>ज्यादा क्या कोई फर्क नहीं मिलता<br/> हुक्के की गुड़गुड़ाहटों की आवाज़ में<br/> चाहे वो आ रही हों फटी एड़ियों वाले ऊंची धोती पहने मतदाता के आँगन से<br/> या कि लाल-नीली बत्तियों के भीतर के कोट-सूट से...<br/> नहीं समझ आता ये कोरस है या एकल गान<br/> जब अलापते हैं एक ही आवाज़ पाषाण युग के कायदे क़ानून की पगड़ियां या टाई बांधे<br/> हाथ में डिग्री पकड़े और लाठी वाले भी<br/> किसी बरगद या पीपल के गोल चबूतरे पर विराजकर<br/> तो कोई आवाजरोधी शीशों वाले ए सी केबिन में..</p>
<p>गरियाना तालिबान को, पाकिस्तान को शगल है<br/> या वैसा ही जैसे खैनी फांकना या चबाना पान रोज़ शाम<br/> कूट देने की बातें सरहद के उस तरफ के आसमान के नीचे पनपे कट्टरपंथियों को<br/> जिससे कि बना रहे मुगालता दुनिया के आकाओं को<br/> हमारे सच में विकासशील होने का<br/> सच में 'ब्रौड माइंडेड' हो जाने का, बड़े दिल वाले तो पहले ही मानते हैं सब..<br/> कभी पबों से रात के दूसरे-तीसरे पहर में दौड़ा दी गई आधी दुनिया को दौड़ाते कैक्टसों को सींचना<br/> खुद को सांस्कृतिक मूल्यों के तथाकथित पहरेदार मानकर..<br/> फिर जताना अफ़सोस, करना घोर निंदा, पानी पी-पीकर कोसना<br/> पड़ोसी हठधर्मियों द्वारा चौदह साला बच्ची को भूनने पर गोली से...</p>
<p>कभी अमर-उजाला या आजतक में<br/> नाबालिग के संग अनाचार की ख़बरें पढ़-सुन<br/> चिल्ला कर देना गालियाँ कुकर्मियों की मम्मियों को, अम्मियों को, बहनों को<br/> और उनके अब्बों को, पप्पों, बब्बों को बख्श देना<br/> इधर घिनयाना और अपने यार-व्यवहार-रिश्तेदार के लड़के को<br/> धौला कुआं जैसी किसी जगह 'उस मनहूस रात' हादसे की शिकार हुई लड़की संग<br/> ब्याहने से समझाना-रोकना..</p>
<p>या अभी आरोपों की बारिश में नील के रंग के उतरने से डरे<br/> एक खिसियाये वजीर का हुआ-हुआ करना<br/> और बिन इम्तिहान अर्श पर पहुंचे जनाबों का कहना फर्श वालों को जाहिल-गंवार..<br/> दिन-दहाड़े पब्लिकली सगा होना मीडिया का<br/> जबकि रात के हमप्याला बनाते गिलास<br/> चश्मदीद हों रिहर्सल के</p>
<p>सब खूब हैं, अच्छे विषय हैं चर्चा के<br/> उबले अंडे, प्याज, नमकीन, बेसनवाली मूंगफली, पकौड़ी,<br/> चखना या मुर्ग और चालीस प्रतिशत से ऊपर वाले किसी भी अल्कोहल के साथ..<br/> कोई 'जहाँ चार यार...' भी लगा दे तो क्या बात..<br/> दीपक मशाल</p>तुम्हें चुप रहना हैtag:openbooksonline.com,2012-12-14:5170231:BlogPost:2998712012-12-14T09:33:21.000ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashal
<p>तुम्हें चुप रहना है <br></br>सीं के रखने हैं होंठ अपने <br></br>तालू से चिपकाए रखना है जीभ <br></br>लहराना नहीं है उसे <br></br>और तलवे बनाए रखना है मखमल के <br></br>इन तलवों के नीचे नहीं पहननी कोई पनहियाँ <br></br>और न चप्पल <br></br>ना ही जीभ के सिरे तक पहुँचने देनी है सूरज की रौशनी</p>
<p>सुन लो ओ हरिया! ओ होरी! ओ हल्कू! <br></br>या कलुआ, मुलुआ, लल्लू जो भी हो! <br></br>चुप रहना है तुम्हें <br></br>जब तक नहीं जान जाते तुम <br></br>कि इस गोल दुनिया के कई दूसरे कोनों में <br></br>नहीं है ज्यादा फर्क कलम-मगज़ और तन घिसने वालों को…</p>
<p>तुम्हें चुप रहना है <br/>सीं के रखने हैं होंठ अपने <br/>तालू से चिपकाए रखना है जीभ <br/>लहराना नहीं है उसे <br/>और तलवे बनाए रखना है मखमल के <br/>इन तलवों के नीचे नहीं पहननी कोई पनहियाँ <br/>और न चप्पल <br/>ना ही जीभ के सिरे तक पहुँचने देनी है सूरज की रौशनी</p>
<p>सुन लो ओ हरिया! ओ होरी! ओ हल्कू! <br/>या कलुआ, मुलुआ, लल्लू जो भी हो! <br/>चुप रहना है तुम्हें <br/>जब तक नहीं जान जाते तुम <br/>कि इस गोल दुनिया के कई दूसरे कोनों में <br/>नहीं है ज्यादा फर्क कलम-मगज़ और तन घिसने वालों को <br/>मिलने वाली रोटियों में <br/>न गिनती में और ना ही स्वाद में</p>
<p>चुप रहना है तुम्हें जब तक नहीं जान जाते तुम <br/>कि तुम्हें परजीवियों की तरह देखने वालों और तुम्हारे बीच <br/>असलियत में रिश्ता है एक सहजीवी का <br/>ना तुम्हारे बिना उनके सैंडविच बनेंगे <br/>न उनके बिना चढ़ेगी तुम्हारी दाल</p>
<p>जब तक पांच सालों में एक-दो बार ठर्रा-मुर्गा या कम्बल के बदले <br/>'कोऊ नृप होए हमें का हानि...' जपने से नहीं ऊबते तुम <br/>जब तक नहीं हो जाता तुम्हें भरोसा कि <br/>ना सिर्फ अकेले बल्कि भुने हुए चने होकर भी <br/>तुम फोड़ सकते हो भाड़ <br/>झुलसा सकते हो तुम्हें उसमें झोंकने वाले को...</p>
<p>या तुम्हें करना होगा इंतज़ार तब तक <br/>जब तक तुम्हारे कुछ और बच्चे <br/>नहीं बन जाते डॉक्टर <br/>नहीं बन जाते इंजीनियर <br/>नहीं बन जाते अफसर नहीं बन जाते नेता <br/>और बनने के बाद तक नहीं आती उन्हें शर्म <br/>हरिया, हल्कू, कलुआ, मुलुआ या लल्लू की संतान कहाने में...</p>
<p>जब तक नहीं भरते वो आवश्यक जगहों में तुम्हारे मूल नामों की जगह <br/>हरीचंद, हल्केराम, कालनाथ, मूलचंद या लालबिहारी <br/>तब तक चुप ही रहना तुम</p>
<p>वरना तोड़ लेना फिर आस की डोर <br/>अपनी साँसों के संग <br/>या छोड़ देना होने को <br/>होनी के ऊपर <br/>फिर से अपने साथ होते आजन्म अन्याय के लिए <br/>अपने ताउम्र शोषण के लिए...</p>
<p>और फेंक देना अपनी-अपनी जुबानें काल-कोठरी में <br/>बस पहन लेना कोल्हू के बैल जैसे हाथ<br/>धोबी के गधे जैसे पैर....<br/>दीपक मशाल</p>लघुकथा: हराम-हलालtag:openbooksonline.com,2012-12-11:5170231:BlogPost:2990242012-12-11T17:15:40.000ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashal
<p>मुझे थोड़ा बुरा तो लगा जब उसकी थाली में खाना परोसते वक़्त उसने मुझसे पूछा <br></br>- ये चिकन किस दूकान से खरीदा था तुमने?<br></br>- वही पिकाडेली सर्कस स्टेशन के बाहर निकलते ही सीधे हाथ पर जो शॉप है ना, वहीं से<br></br>- ओत्तेरे की! यार मुझे कुछ वेज हो तो खाने को दे दो, वो स्साला गोरा हलाल मीट नहीं बेचता और तुम जानते ही हो कि मैं हराम नहीं खा सकता.. <br></br>खैर कैसे भी मैंने जल्द-फल्द उसके लिए आलू-मटर की सब्जी तैयार कर दी थी। लेकिन अगले दिन जब ऑफिस में बॉस के गैरहाजिर होने पर उसे कम्प्युटर पर ताश का कोई गेम…</p>
<p>मुझे थोड़ा बुरा तो लगा जब उसकी थाली में खाना परोसते वक़्त उसने मुझसे पूछा <br/>- ये चिकन किस दूकान से खरीदा था तुमने?<br/>- वही पिकाडेली सर्कस स्टेशन के बाहर निकलते ही सीधे हाथ पर जो शॉप है ना, वहीं से<br/>- ओत्तेरे की! यार मुझे कुछ वेज हो तो खाने को दे दो, वो स्साला गोरा हलाल मीट नहीं बेचता और तुम जानते ही हो कि मैं हराम नहीं खा सकता.. <br/>खैर कैसे भी मैंने जल्द-फल्द उसके लिए आलू-मटर की सब्जी तैयार कर दी थी। लेकिन अगले दिन जब ऑफिस में बॉस के गैरहाजिर होने पर उसे कम्प्युटर पर ताश का कोई गेम खेलते देखा तो पिछली रात को उसका बताया गया उसूल मैंने उसे याद दिला दिया। वो अगला-पिछला सब भूल हाथापाई पर कुछ यूं उतरा कि मेरी नज़र से उतर गया। तब से न वो मेरी सुनना पसंद करता है और न मैं उसे कुछ कहना।<br/>दीपक मशाल</p>अर्द्धनास्तिक (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2012-12-09:5170231:BlogPost:2979272012-12-09T14:09:11.000ZDipak Mashalhttp://openbooksonline.com/profile/DipakMashal
<p>आस्तिक के आ को ना में बदलने में उसे काफी वक़्त लगा था, ऐसा होने के लिए सिर्फ विज्ञान का विद्यार्थी होना ही सबकुछ नहीं होता। कई बार उसने खुद बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान पत्रों को जर्नल्स में प्रकाशित होने के लिए भेजते समय, कभी गणेश, कभी जीसस तो कभी वैष्णोदेवी की तस्वीरों के आगे आँखें मूँदते देखा था। कुछ उसका मनन था, कुछ चिंतन, कुछ किताबें, कुछ संगत और कुछ दुनिया से उस अलौकिक शक्ति की ढीली पड़ती पकड़, जिन्होंने मिलजुलकर उसे दुनिया में तेज़ी से बढ़ रही इंसानी उपप्रजाति 'नास्तिक' बना…</p>
<p>आस्तिक के आ को ना में बदलने में उसे काफी वक़्त लगा था, ऐसा होने के लिए सिर्फ विज्ञान का विद्यार्थी होना ही सबकुछ नहीं होता। कई बार उसने खुद बड़े-बड़े वैज्ञानिकों को अपने अनुसंधान पत्रों को जर्नल्स में प्रकाशित होने के लिए भेजते समय, कभी गणेश, कभी जीसस तो कभी वैष्णोदेवी की तस्वीरों के आगे आँखें मूँदते देखा था। कुछ उसका मनन था, कुछ चिंतन, कुछ किताबें, कुछ संगत और कुछ दुनिया से उस अलौकिक शक्ति की ढीली पड़ती पकड़, जिन्होंने मिलजुलकर उसे दुनिया में तेज़ी से बढ़ रही इंसानी उपप्रजाति 'नास्तिक' बना दिया था।<br/>कल शाम जब वह जिम पहुंचा तो अत्याधुनिक व्यायाम मशीनों के बीच उसने खुद को अकेले पाया, कारण था कि आज वह थोड़ा जल्दी आ गया था। इससे पहले कि वह अपनी सारी एक्सरसाइज निपटाता उसने हॉल में किसी और को आते देखा। आने वाली एक स्थानीय गोरी लड़की थी। वह पहले से थोड़ा अधिक सतर्क दिखने लगा और चारों ओर की दीवारों में जड़े आइनों में से एक के सामने अपनी व्यायाम कुर्सी जमाकर बैठ गया, साथ ही बाहों के डोले मजबूत करने के लिए भारी डम्बलों को गिनती सिखाने लगा। <br/>अचानक नज़र सामने गई तो जाना कि लड़की दो हल्के डम्बलों को हाथ में ले आगे की ओर झुककर व्यायाम कर रही थी। उसने लड़की के झुकने में अपना आनंद ढूंढ लिया और फिर जब भी वह आगे की तरफ झुकती वह सामने लगे आईने के सहारे चोर नज़रों से अपनी इन्द्रियों को तृप्त करने में लगा होता। <br/>अचानक उसने महसूस किया कि कोई उसे देख रहा है। वह सकपका गया, पल भर को उसने डर महसूस किया। लड़की का ध्यान अभी भी उसकी तरफ न था, कमरे में भी कोई नहीं था, तभी उसे ध्यान आया कि वह आईने के सामने बैठा है। वह विद्रूप हंसी हंसने को हुआ, लेकिन एकाएक वह अपना पहचान पत्र और पानी की बोतल समेटता हुआ वहां से बाहर निकल गया।</p>
<p>दीपक मशाल </p>