Mohan Begowal's Posts - Open Books Online2024-03-28T23:03:29ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowalhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/986210709?profile=original&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=2yl3mj5mz3sax&xn_auth=noजिंदगी की उधेड़बुन (लघुकथा )tag:openbooksonline.com,2018-07-08:5170231:BlogPost:9388762018-07-08T07:30:00.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p>सुबह आठ बजे से उसका साईकल इस एवन्यु में घूम रहा था । उसके भोंपू की आवाज़ एवन्यु के हर कोने तक पहुंच चुकी थी। <br></br> मगर न कोठी से कोई भी औरत न ही माँ के साथ बच्चा बाहर आया। उसके साईकल पर लगे बड़े, छोटे गुबारे, छोटी बड़ी कार या कोई बजाने वाले खिलौने सभी उस की तरफ झाक रहे थे । दो घंटे हो गए थे इस एवन्यु दाखल हुए। साईकल की रफ्तार भी धीमी हो चली थी। चेहरा उदास और आँखों में नमी बढने लगी अचानक ही उस ने इक कोठी के आगे साईकल आ लगाई, इक बार बेल्ल बजाई कोई जवाब नहीं आया। उसने फिर बेल्ल बजाई। थोड़ी देर बाद…</p>
<p>सुबह आठ बजे से उसका साईकल इस एवन्यु में घूम रहा था । उसके भोंपू की आवाज़ एवन्यु के हर कोने तक पहुंच चुकी थी। <br/> मगर न कोठी से कोई भी औरत न ही माँ के साथ बच्चा बाहर आया। उसके साईकल पर लगे बड़े, छोटे गुबारे, छोटी बड़ी कार या कोई बजाने वाले खिलौने सभी उस की तरफ झाक रहे थे । दो घंटे हो गए थे इस एवन्यु दाखल हुए। साईकल की रफ्तार भी धीमी हो चली थी। चेहरा उदास और आँखों में नमी बढने लगी अचानक ही उस ने इक कोठी के आगे साईकल आ लगाई, इक बार बेल्ल बजाई कोई जवाब नहीं आया। उसने फिर बेल्ल बजाई। थोड़ी देर बाद इक बाऊ जी बाहर आये। <br/> “सर जी, आप कोई खिलौना खरीद लें, कोई ग्राहक अभी नहीं मिला, दो घंटे हो गए हैं।", खिलौने बेचने वाले बच्चे ने कहा ।<br/> “मगर हमारे तो कोई बच्चा ही नहीं किस लिए हम”, लेंगे, बाऊ जी ये कह गेट बंद करने लगे। <br/> “सर जी, खरीद लीजिए न, मेरी माँ बीमार है, बच्चे ने फिर कहा ।“ <br/> बाऊ जी ने धीरे से गेट बंद किये बिना अंदर दाखिल हुए और थोड़ी देर बाद बाऊ जी ने उस के हाथ में कुछ पकड़ा दिया। <br/> “ये क्या, बाऊ जी ने खुद से सवाल किया, क्या ऐसे हल हो जायेगा उसकी समस्या का।“<br/> बच्चा साईकल चला आगे बढ़ गया और बाऊ जी इसी उधेड़बुन गुम हुआ उसके साईकल चलाते पैरों की तरफ देखता रहा।</p>
<p>"मौलिक व अप्रकाशित"</p>ग़ज़लtag:openbooksonline.com,2018-07-07:5170231:BlogPost:9387622018-07-07T09:37:44.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p> </p>
<p>चाहा ये दिल तेरा पाना हम को।<br/>महका के राहों को जाना हम को।</p>
<p></p>
<p>कहते कोई तो अफ़साना हम भी,<br/>कैसे बुनता ताना बाना हम को।</p>
<p></p>
<p>आये जाये मिलकर बैठे बिछड़ें,<br/>कहना जो भी होता पाना हम को।</p>
<p></p>
<p>कैसा होगा अब ये हम का जीना,<br/>जब राहों इन आना जाना हम को।</p>
<p></p>
<p>औरत बन के तुझको भी आना होगा,<br/>क्यूँ होता इलजाम निभाना हम को।</p>
<ol>
<li><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></li>
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<p>चाहा ये दिल तेरा पाना हम को।<br/>महका के राहों को जाना हम को।</p>
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<p>कहते कोई तो अफ़साना हम भी,<br/>कैसे बुनता ताना बाना हम को।</p>
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<p>आये जाये मिलकर बैठे बिछड़ें,<br/>कहना जो भी होता पाना हम को।</p>
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<p>कैसा होगा अब ये हम का जीना,<br/>जब राहों इन आना जाना हम को।</p>
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<p>औरत बन के तुझको भी आना होगा,<br/>क्यूँ होता इलजाम निभाना हम को।</p>
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<li><strong>मौलिक व अप्रकाशित</strong></li>
</ol>जुआ (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2018-07-04:5170231:BlogPost:9382052018-07-04T18:00:00.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p><span> </span>ड्यूटी के बाद मैं घर को पैदल चल पड़ा। ऐसा आजकल मैं अकसर ही करता हूँ। क्यूँ कि डाक्टर ने मुझे ज्यादातर पैदल चलने को कहा है। कुछ कदम चलते ही मेरे साथ रिक्शा इक रिक्शा भी चलने लगा।<br></br>चलते हुए बार बार रिक्शे वाला रिकशे पर बैठने को कहता रहा।<br></br>“बाऊ जी,दस दे देना,मगर मैं चलता रहा, फिर उसने पास आकर कहा,चलो पाँच ही दे देना।"<br></br>“अरे भाई, बात पाँच या दस की नहीं, मैंने कहा। मैं बैठना नहीं चाहता।"<br></br>मगर इस बार उस के कहने में एक तरला सा लगा, “बाऊ जी, बैठ जाओ न।“<br></br>आखिर, मैं रिक्शे…</p>
<p><span> </span>ड्यूटी के बाद मैं घर को पैदल चल पड़ा। ऐसा आजकल मैं अकसर ही करता हूँ। क्यूँ कि डाक्टर ने मुझे ज्यादातर पैदल चलने को कहा है। कुछ कदम चलते ही मेरे साथ रिक्शा इक रिक्शा भी चलने लगा।<br/>चलते हुए बार बार रिक्शे वाला रिकशे पर बैठने को कहता रहा।<br/>“बाऊ जी,दस दे देना,मगर मैं चलता रहा, फिर उसने पास आकर कहा,चलो पाँच ही दे देना।"<br/>“अरे भाई, बात पाँच या दस की नहीं, मैंने कहा। मैं बैठना नहीं चाहता।"<br/>मगर इस बार उस के कहने में एक तरला सा लगा, “बाऊ जी, बैठ जाओ न।“<br/>आखिर, मैं रिक्शे पर बैठ कर घर की ओर चल पड़ा। <br/>“बाऊ जी, अब ये तो जुआ है, अगर सवारी मिल गई तो जीत,वरना हार और ये हार कहाँ ले जाए, कुछ पता नहीं।<br/>गेट पर खड़ी बीवी ने पूछा, "ठीक तो हो आप ।"<br/>मैंने जेब से इक नोट निकाल कर उस को दिया।<br/>गेट अंदर जाते हुए, सोच रहा हूँ कि जुआ हार जीत जाने की तरह, क्या रिक्शे वाला भी जीत गया कि हार गया इस खेल में ?</p>
<p><span><strong>मौलिक व अप्रकाशित"</strong></span></p>बड़ा सवाल(लघुकथा )tag:openbooksonline.com,2018-07-03:5170231:BlogPost:9384292018-07-03T17:30:00.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p>गीता पाठशाला से अभी घर पहुंची, उसने आते ही माँ से सवाल किया, “ प्रोजेक्ट पर काम तो हम सब बच्चों ने किया था।” <br></br> “हाँ, प्रोजेक्ट तो होता ही है कि सभी बच्चे एक साथ काम करें।” मम्मी ने गीता को समझाने के अंदाज़ में कहा <br></br> “तो प्रोजेक्ट हम सभी बच्चों की मेहनत से पूरा हुआ ” गीता ने फिर कहा।<br></br> "हाँ " ।<br></br> “इस का क्रेडिट भी हम बच्चों को मिलना चाहिए ”, गीता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा <br></br> “मगर इनाम तो हमें नहीं मिला", ये तो प्रिंसिपल को मिला” गीता ने कहा <br></br> “हाँ, बच्चे ऐसा ही होता है,…</p>
<p>गीता पाठशाला से अभी घर पहुंची, उसने आते ही माँ से सवाल किया, “ प्रोजेक्ट पर काम तो हम सब बच्चों ने किया था।” <br/> “हाँ, प्रोजेक्ट तो होता ही है कि सभी बच्चे एक साथ काम करें।” मम्मी ने गीता को समझाने के अंदाज़ में कहा <br/> “तो प्रोजेक्ट हम सभी बच्चों की मेहनत से पूरा हुआ ” गीता ने फिर कहा।<br/> "हाँ " ।<br/> “इस का क्रेडिट भी हम बच्चों को मिलना चाहिए ”, गीता ने बात को आगे बढ़ाते हुए कहा <br/> “मगर इनाम तो हमें नहीं मिला", ये तो प्रिंसिपल को मिला” गीता ने कहा <br/> “हाँ, बच्चे ऐसा ही होता है, घर में सारा काम कौन करता है ?<br/> “मुख्य तौर पर तुम और हम भी कभी कभी कम या ज्यादा ।”, गीता ने कहा <br/> “मगर क्रेडिट किस को जाता है”<br/> “पिता जी को”, गीता की जबान से झट निकल गया। <br/> और वह माँ की तरफ़ देखते हुए सोचने लगी, करने वाले से कंट्रोल करने वाला बड़ा कैसे, यहां बिना किये ही क्यूँ बहुत कुछ ले जाता है।</p>
<p>ये इक बड़ा सवाल गीता के सामने खड़ा हो गया जिस का जवाब कहीं दूर लगा ।</p>
<p></p>
<p>"मौलिक व अप्रकाशित"</p>ग़ज़लtag:openbooksonline.com,2018-07-01:5170231:BlogPost:9378982018-07-01T16:43:38.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
खेल कैसे बनाते मिटाते रहे<br />
जिंदगी को वो हम से चुराते रहे<br />
<br />
भीड़ के संग़ रिशता बनाते रहे<br />
पास कुछ तो रहे दूर जाते रहे<br />
<br />
रंग बदले जमाने कई बार हैं<br />
ये मगर साथ दुनिया दिखाते रहे<br />
<br />
रौशनी साथ कुछ तो निभाना मिरा<br />
अब तलक ये अँधेरे सताते रहे<br />
<br />
देख कर मुझ को वो मुस्कराता हुआ<br />
क्या कहें ग़म धुएं से उड़ाते रहे<br />
"मौलिक व अप्रकाशित"
खेल कैसे बनाते मिटाते रहे<br />
जिंदगी को वो हम से चुराते रहे<br />
<br />
भीड़ के संग़ रिशता बनाते रहे<br />
पास कुछ तो रहे दूर जाते रहे<br />
<br />
रंग बदले जमाने कई बार हैं<br />
ये मगर साथ दुनिया दिखाते रहे<br />
<br />
रौशनी साथ कुछ तो निभाना मिरा<br />
अब तलक ये अँधेरे सताते रहे<br />
<br />
देख कर मुझ को वो मुस्कराता हुआ<br />
क्या कहें ग़म धुएं से उड़ाते रहे<br />
"मौलिक व अप्रकाशित"अधूरी जिंदगी(लघु कथा)tag:openbooksonline.com,2018-06-02:5170231:BlogPost:9324592018-06-02T18:30:00.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p><span style="font-size: 10pt;">कुछ लोग दार जी के पास चुपचाप बैठे,अफ़सोस जता रहे थे। छोटी बहू हर आने वाले को चाय पानी प्रदान कर रही थी। इस मोहल्ले में दार जी ही पुराने रहने वाले हैं,बाकी लोग यहाँ दंगों के बाद आ कर अस्थाई तौर से रह रहे हैं। मगर मानवता के रिश्ते से अब ये लोग यहाँ आ कर बैठे हैं।</span> <br></br> <span style="font-size: 10pt;">"बाऊ जी अब कैसा महसूस कर रहे हो" राम प्रकाश ने पास बैठते हुए कहा।</span><br></br> <span style="font-size: 10pt;">“किस के बारे”, दार जी ने कहा।…</span><br></br></p>
<p><span style="font-size: 10pt;">कुछ लोग दार जी के पास चुपचाप बैठे,अफ़सोस जता रहे थे। छोटी बहू हर आने वाले को चाय पानी प्रदान कर रही थी। इस मोहल्ले में दार जी ही पुराने रहने वाले हैं,बाकी लोग यहाँ दंगों के बाद आ कर अस्थाई तौर से रह रहे हैं। मगर मानवता के रिश्ते से अब ये लोग यहाँ आ कर बैठे हैं।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">"बाऊ जी अब कैसा महसूस कर रहे हो" राम प्रकाश ने पास बैठते हुए कहा।</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">“किस के बारे”, दार जी ने कहा।</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">"कल जो डाक्टर साहिब ने बताया कि ब्लड प्रेशर की तकलीफ है आप को”।</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">भाई राम, भला ये भी कोई तकलीफ होती है, इस उम्र तक तो हम ने़ ऐसी कई………… ।</span><br/> <span style="font-size: 10pt;">दार जी, कुछ देर के लिए चुप हो गए और जमीन की तरफ देखने लगे।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">फिर बोले में तो नहीं मानता के ये भी कोई तकलीफ है।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">डाक्टर कहता है तो उसे ये तकलीफ लगती होगी।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">“डाक्टर क्या जाने अकेलेपन में रहने की तकलीफ क्या होती है?", ये कहते हुए दार जी इक बार फिर चुप हो गए।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">"दार जी कहते हैं, इस दुनिया से हर किसी ने तो जाना है, आज भाभी नहीं, कल को हम भी नहीं होंगे " , राम प्रकाश ने कहा।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">"ऐसा ही तो दुनिया का दस्तूर है,सदियों से ऐसा ही होता रहा है", साथ बैठे जगत ने कहा ।</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">"आहो भाई, जाना होता है। मगर आदमी कोई चीज़ थोड़़ी है, जो फिर मिल जाएगी, इस के साथ कितने रिशते जुड़े होते हैं, जिंदगी का साथ ही तो जिंदगी होती है, साथी के जाने बाद अकेलेपन में कैसे गुजरेगी कोई मामूली बात थोड़ी है।"</span> <br/> <span style="font-size: 10pt;">"क्या बताऊं, कह ?", दार जी टिकटिकी लगा आस पास बैठे लोगों की तरफ देखने लगा।</span></p>
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<p><span style="font-size: 10pt;">मौलिक व अप्रकाशित"</span></p>अँधेरे का डर (लघुकथा )tag:openbooksonline.com,2018-06-01:5170231:BlogPost:9324382018-06-01T14:30:00.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p><br></br> जब भी सुरेन्द्र बात करता हौसला उसकी बातों से अकसर झलकता, काम करवाने के लिए जब भी कोई उसके दफ्तर में आता उसी का हो कर रह जाता |<br></br> मुश्किल पलों में भी वह मजाक को साथ नहीं छोड़ने देता, और जिन्दगी का हिस्सा बना लिया |<br></br> जब सुरेन्द्र सफर में होता तो ऐसा कभी न होता कि सफर करते हुए कोई आकह्त महसूस होती हो उसे, वह तो साथ बैठे से ऐसी बात शुरू करता कि सफर खत्म होने तक वह शख्स उसी का हो जाता |<br></br> मगर आज ऐसा नहीं था, बस उस के लिए अनजान सफर में जा रही थी, जिस पर वह सवार था |<br></br> जो कुछ…</p>
<p><br/> जब भी सुरेन्द्र बात करता हौसला उसकी बातों से अकसर झलकता, काम करवाने के लिए जब भी कोई उसके दफ्तर में आता उसी का हो कर रह जाता |<br/> मुश्किल पलों में भी वह मजाक को साथ नहीं छोड़ने देता, और जिन्दगी का हिस्सा बना लिया |<br/> जब सुरेन्द्र सफर में होता तो ऐसा कभी न होता कि सफर करते हुए कोई आकह्त महसूस होती हो उसे, वह तो साथ बैठे से ऐसी बात शुरू करता कि सफर खत्म होने तक वह शख्स उसी का हो जाता |<br/> मगर आज ऐसा नहीं था, बस उस के लिए अनजान सफर में जा रही थी, जिस पर वह सवार था |<br/> जो कुछ उसने सुना था, इस लिए वह पास बैठे शख्स से बात करने से कन्नी कतरा रहा था| <br/> मगर उसको ये बात तसल्ली देती कि आदमी जब अकेला हो तो अच्छा होता है, भीड़ का हिस्सा हो तो भीड़ उसे बुरा बना देती है |<br/> “ये क्या बात हुई, अच्छा आदमी कैसे भीड़ में जा कर बुरा हो जाता है”, सुरेन्द्र फिर खुद से ही सवाल करता |<br/> फिर हौसले के साथ खुद को कहा, "इस से बात तो हो सकती, जैसा मैं सोच रहा हूँ, अगर ये अकेला है तो अच्छा ही होगा" |<br/> तभी अचानक ही उस ने सुरेन्द्र के विचारों की लड़ी को तोड़ते हुए कहा "लग रहा कि आप पहली बार इस तरफ आए हो"|<br/> “हाँ” |<br/> “क्या आप पहले यहाँ नहीं आना चाहते थे या आ नहीं सके, उसने फिर पूछा |<br/> “हाँ, कह कर सुरेन्द्र चुप हो गया, मगर बातों का सिलसिला चल पढ़ा, जैसे बातें का दौर चल रहा सुरेन्द्र की सोच में था कुछ कुछ कम होना शुरू हो गया |<br/> बस रुकी दोनों नीचे उतर कर चलने लगे, कोई लेने आ रहा है , रफीक ने पूछा| <br/> सुरेन्द्र ने कहा, "कोई नहीं , अँधेरा होने लगा" |<br/> "कहाँ जाना है",<br/> सुरेन्द्र ने मौहला का नाम लिया, चलो में छोड़ देता हूँ अँधेरा हो गया है| <br/> दोनों थ्री -वीलर में बैठ गए और थ्री – वीलर चल पढ़ा, सुरेन्द्र को लगा रौशनी अँधेरे के डर चीर आगे बढ़ रही है|</p>
<p>"मौलिक व अप्रकाशित"</p>
<p> </p>किराये के रिशते (लघुकथा)tag:openbooksonline.com,2018-05-23:5170231:BlogPost:9315172018-05-23T16:30:00.000ZMohan Begowalhttp://openbooksonline.com/profile/MohanBegowal
<p>किराये के रिश्ते <br></br> रात भर नींद नहीं आई, और सुबह होते ही वह पार्क में आ गया। कल शाम को आए फोन से पैदा हुई समस्या अभी सुलझ नहीं रही थी । चाहे कोई हल नज़र नहीं आ रहा, मगर इस समस्या को हल किये बिना छोड़ा भी नहीं जा सकता। आख़र उनका है भी कौन है,जो सात समंदर पार हैं, मगर इस बार महिंदरो उसकी बात से सहमत नहीं हो रही थी । उसका कहना कि “क्या करेंगे वहाँ जा कर हम, आप तो फिर भी यहाँ वहाँ घूम आते हो,मगर मैं ........",कह कर महिंदरो चुप हो गई।<br></br>"मैं तो वहाँ अकेली अंदर बैठी कैसे रह सकती हूँ, न कोई…</p>
<p>किराये के रिश्ते <br/> रात भर नींद नहीं आई, और सुबह होते ही वह पार्क में आ गया। कल शाम को आए फोन से पैदा हुई समस्या अभी सुलझ नहीं रही थी । चाहे कोई हल नज़र नहीं आ रहा, मगर इस समस्या को हल किये बिना छोड़ा भी नहीं जा सकता। आख़र उनका है भी कौन है,जो सात समंदर पार हैं, मगर इस बार महिंदरो उसकी बात से सहमत नहीं हो रही थी । उसका कहना कि “क्या करेंगे वहाँ जा कर हम, आप तो फिर भी यहाँ वहाँ घूम आते हो,मगर मैं ........",कह कर महिंदरो चुप हो गई।<br/>"मैं तो वहाँ अकेली अंदर बैठी कैसे रह सकती हूँ, न कोई बात करने को न कोई मिलने आये, आदमी को खाना ही तो नहीं खाना खुरली में बंधे जानवर की तरह, यहाँ तो फिर भी .........।<br/> हमें उनके लिए नहीं अपने लिए भी जीना है, इस उम्र में ।"<br/> धीरे धीरे चारों तरफ़ रौशनी फैल गई, तब उसको महिंदरो ने आवाज़ लगाई सुनना, “टिकटें भेज दी हैं अब तो, तब वह महिंदरो के पास आ बैठ गया। दोनों इक दूसरे को और फिर जमीन की तरफ देखने लगे ।</p>
<p>मौलिक व अप्रकाशित</p>