Sushil Sarna's Posts - Open Books Online2024-03-29T13:49:43ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarnahttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991285674?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=3ddvn64pkd5dp&xn_auth=noदोहा पंचक. . . . .प्रेमtag:openbooksonline.com,2024-03-23:5170231:BlogPost:11172142024-03-23T09:15:13.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . . प्रेम</p>
<p></p>
<p>अधरों पर विचरित करे, प्रथम प्रणय आनन्द । <br></br>चिर जीवित अभिसार का, रहे मिलन मकरंद ।।</p>
<p></p>
<p>खूब हुआ अभिसार में, देह- देह का द्वन्द्व ।<br></br>जाने कितने प्रेम के, लिख डाले फिर छन्द ।।</p>
<p></p>
<p>मदन भाव झंकृत हुए, बढ़े प्रणय के वेग ।<br></br>अधरों के बैराग को, मिला अधर का नेग ।।</p>
<p></p>
<p>धीरे-धीरे रैन का , बढ़ने लगा प्रभाव ।<br></br>मौन चरम अभिसार के, मन में जले अलाव ।।</p>
<p></p>
<p>नैन समझते नैन के, अनबोले स्वीकार ।<br></br>स्पर्शों के दौर में, दम…</p>
<p>दोहा पंचक. . . . प्रेम</p>
<p></p>
<p>अधरों पर विचरित करे, प्रथम प्रणय आनन्द । <br/>चिर जीवित अभिसार का, रहे मिलन मकरंद ।।</p>
<p></p>
<p>खूब हुआ अभिसार में, देह- देह का द्वन्द्व ।<br/>जाने कितने प्रेम के, लिख डाले फिर छन्द ।।</p>
<p></p>
<p>मदन भाव झंकृत हुए, बढ़े प्रणय के वेग ।<br/>अधरों के बैराग को, मिला अधर का नेग ।।</p>
<p></p>
<p>धीरे-धीरे रैन का , बढ़ने लगा प्रभाव ।<br/>मौन चरम अभिसार के, मन में जले अलाव ।।</p>
<p></p>
<p>नैन समझते नैन के, अनबोले स्वीकार ।<br/>स्पर्शों के दौर में, दम तोड़ें इंकार ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 23-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>कुंडलिया .... गौरैयाtag:openbooksonline.com,2024-03-21:5170231:BlogPost:11171092024-03-21T10:38:23.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>कुंडलिया - गौरैया</p>
<p></p>
<p>गौरैया को देखने, हम आ बैठे द्वार ।<br/>गौरैया के झुंड का, सुंदर लगे संसार ।<br/>सुंदर लगे संसार , धरा पर दाना खाती ।<br/>लेकर तिनके साथ, घोंसला खूब बनाती ।<br/>कह ' सरना ' कविराय, धूप में ढूँढे छैया ।<br/>उसको उड़ते देख, कहें री आ गौरैया ।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 21-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p>कुंडलिया - गौरैया</p>
<p></p>
<p>गौरैया को देखने, हम आ बैठे द्वार ।<br/>गौरैया के झुंड का, सुंदर लगे संसार ।<br/>सुंदर लगे संसार , धरा पर दाना खाती ।<br/>लेकर तिनके साथ, घोंसला खूब बनाती ।<br/>कह ' सरना ' कविराय, धूप में ढूँढे छैया ।<br/>उसको उड़ते देख, कहें री आ गौरैया ।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 21-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . .tag:openbooksonline.com,2024-03-18:5170231:BlogPost:11167022024-03-18T10:33:25.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . . .</p>
<p></p>
<p>महफिल में तनहा जले, खूब हुए बदनाम । <br></br>गैरों को देती रही, साकी भर -भर जाम ।।</p>
<p></p>
<p>गज़ब हया की सुर्खियाँ, अलसाए अन्दाज़ । <br></br>सुर्खी सारे कह गई, बीती शब के राज़ ।।</p>
<p></p>
<p>साथी है अब वेदना, विरही मन की यार ।<br></br>विस्मृत होता ही नहीं, वो अद्भुत संसार ।।</p>
<p></p>
<p>उसे भुलाने के सभी, निष्फल हुए प्रयास ।<br></br>मदन भाव उन्नत हुए, मन में मचली प्यास ।।</p>
<p></p>
<p>कोई पागल हो गया, किसी ने खोये होश ।<br></br>आशिक को घायल करे, मदमाती आगोश…</p>
<p>दोहा पंचक. . . . .</p>
<p></p>
<p>महफिल में तनहा जले, खूब हुए बदनाम । <br/>गैरों को देती रही, साकी भर -भर जाम ।।</p>
<p></p>
<p>गज़ब हया की सुर्खियाँ, अलसाए अन्दाज़ । <br/>सुर्खी सारे कह गई, बीती शब के राज़ ।।</p>
<p></p>
<p>साथी है अब वेदना, विरही मन की यार ।<br/>विस्मृत होता ही नहीं, वो अद्भुत संसार ।।</p>
<p></p>
<p>उसे भुलाने के सभी, निष्फल हुए प्रयास ।<br/>मदन भाव उन्नत हुए, मन में मचली प्यास ।।</p>
<p></p>
<p>कोई पागल हो गया, किसी ने खोये होश ।<br/>आशिक को घायल करे, मदमाती आगोश ।।</p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p>सुशील सरना / 18-3-24</p>दोहा पंचक. . . . .tag:openbooksonline.com,2024-03-10:5170231:BlogPost:11165962024-03-10T09:43:35.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . .</p>
<p></p>
<p>कर्मों के परिणाम से, गाफिल क्यों इंसान ।<br></br>ऐसे जीता जिंदगी, जैसे हो भगवान ।।</p>
<p>भौतिक युग की सम्पदा, कब देती आराम ।<br></br>अर्थ पाश में जिंदगी , भटके चारों याम ।।</p>
<p>नश्वर तन को मानता, अजर -अमर परिधान ।<br></br>बस में समझे साँस को, यह दम्भी इंसान ।।</p>
<p>साथ चली किसके भला, अर्थ दम्भ की शान।<br></br>खाक चिता पर हो गई, इंसानी पहचान ।।</p>
<p>कहे स्वयंभू स्वयं को , माटी का इंसान ।<br></br>मुट्ठी भर अवशेष बस,मैं -मैं की पहचान ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना /…</p>
<p>दोहा पंचक. . . .</p>
<p></p>
<p>कर्मों के परिणाम से, गाफिल क्यों इंसान ।<br/>ऐसे जीता जिंदगी, जैसे हो भगवान ।।</p>
<p>भौतिक युग की सम्पदा, कब देती आराम ।<br/>अर्थ पाश में जिंदगी , भटके चारों याम ।।</p>
<p>नश्वर तन को मानता, अजर -अमर परिधान ।<br/>बस में समझे साँस को, यह दम्भी इंसान ।।</p>
<p>साथ चली किसके भला, अर्थ दम्भ की शान।<br/>खाक चिता पर हो गई, इंसानी पहचान ।।</p>
<p>कहे स्वयंभू स्वयं को , माटी का इंसान ।<br/>मुट्ठी भर अवशेष बस,मैं -मैं की पहचान ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 10-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . . . .नारीtag:openbooksonline.com,2024-03-09:5170231:BlogPost:11167782024-03-09T12:05:48.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . नारी</p>
<p></p>
<p>नर नारी से श्रेष्ठ है, हुई पुरानी बात । <br></br>जीवन के हर क्षेत्र में, नारी देती मात ।।</p>
<p></p>
<p>नर नारी के बीच अब, नहीं जीत अरु हार ।<br></br>बनी शक्ति पर्याय अब, वर्तमान की नार ।।</p>
<p></p>
<p>कंधे से कंधा मिला, दे जीवन को अर्थ ।<br></br>नारी अब हर क्षेत्र में, लगने लगी समर्थ ।।</p>
<p></p>
<p>अनुपम कृति है ईश की, इस जग का आधार ।<br></br>लगे अधूरा सृष्टि का , नारी बिन शृंगार ।।</p>
<p></p>
<p style="text-align: left;">आसमान छूने चली, कल की अबला नार ।<br></br>देख…</p>
<p>दोहा पंचक. . . नारी</p>
<p></p>
<p>नर नारी से श्रेष्ठ है, हुई पुरानी बात । <br/>जीवन के हर क्षेत्र में, नारी देती मात ।।</p>
<p></p>
<p>नर नारी के बीच अब, नहीं जीत अरु हार ।<br/>बनी शक्ति पर्याय अब, वर्तमान की नार ।।</p>
<p></p>
<p>कंधे से कंधा मिला, दे जीवन को अर्थ ।<br/>नारी अब हर क्षेत्र में, लगने लगी समर्थ ।।</p>
<p></p>
<p>अनुपम कृति है ईश की, इस जग का आधार ।<br/>लगे अधूरा सृष्टि का , नारी बिन शृंगार ।।</p>
<p></p>
<p style="text-align: left;">आसमान छूने चली, कल की अबला नार ।<br/>देख पराक्रम नार का, चकित हुआ संसार ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 9-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . . . .tag:openbooksonline.com,2024-03-05:5170231:BlogPost:11165912024-03-05T10:15:24.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक . . .</p>
<p></p>
<p>बातें करते प्यार की, करें न सच्चा प्यार ।<br></br>इस स्वार्थी संसार में, सब मतलब के यार ।।</p>
<p></p>
<p>सच्चे- झूठे सब यहाँ, कैसे हो पहचान ।<br></br>कई मुखौटों में छिपा,कलियुग का इंसान ।।</p>
<p></p>
<p>सच्चा मन का मीत वो, सच्ची जिसकी प्रीति ।<br></br>वो क्या जाने प्रीति जो, सिर्फ निभाये रीत ।।</p>
<p></p>
<p>छलते हैं क्यों आजकल, व्याकुल मन को मीत ।<br></br>सिर्फ देह को भोगना, समझें अपनी जीत ।।</p>
<p></p>
<p>कैसे यह अनुबंध हैं, कैसे यह संबंध ।<br></br>देह क्षुधा के दौर में,…</p>
<p>दोहा पंचक . . .</p>
<p></p>
<p>बातें करते प्यार की, करें न सच्चा प्यार ।<br/>इस स्वार्थी संसार में, सब मतलब के यार ।।</p>
<p></p>
<p>सच्चे- झूठे सब यहाँ, कैसे हो पहचान ।<br/>कई मुखौटों में छिपा,कलियुग का इंसान ।।</p>
<p></p>
<p>सच्चा मन का मीत वो, सच्ची जिसकी प्रीति ।<br/>वो क्या जाने प्रीति जो, सिर्फ निभाये रीत ।।</p>
<p></p>
<p>छलते हैं क्यों आजकल, व्याकुल मन को मीत ।<br/>सिर्फ देह को भोगना, समझें अपनी जीत ।।</p>
<p></p>
<p>कैसे यह अनुबंध हैं, कैसे यह संबंध ।<br/>देह क्षुधा के दौर में, प्रेम हुआ निर्गंध ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 5-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा सप्तक. . . जीवन तो अनमोल हैtag:openbooksonline.com,2024-03-03:5170231:BlogPost:11168542024-03-03T09:06:54.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा सप्तक - जीवन तो अनमोल है</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, इसके लाखों रंग ।<br></br>पहचाना जिसने इसे, उसने जीती जंग ।1।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, मिले न यह दो बार ।<br></br>कब आया यह लौट कर, जी भर जी लो यार ।2।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, बीत न जाए व्यर्थ ।<br></br>अच्छे कर्मों से इसे, देना शाश्वत अर्थ ।3।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, इसके अनगिन रूप ।<br></br>इसके आँचल में पले, निर्धन हो या भूप ।4।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, रखो इसे संभाल ।<br></br>बहुत कठिन है जानना , इसका अर्थ…</p>
<p>दोहा सप्तक - जीवन तो अनमोल है</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, इसके लाखों रंग ।<br/>पहचाना जिसने इसे, उसने जीती जंग ।1।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, मिले न यह दो बार ।<br/>कब आया यह लौट कर, जी भर जी लो यार ।2।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, बीत न जाए व्यर्थ ।<br/>अच्छे कर्मों से इसे, देना शाश्वत अर्थ ।3।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, इसके अनगिन रूप ।<br/>इसके आँचल में पले, निर्धन हो या भूप ।4।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, रखो इसे संभाल ।<br/>बहुत कठिन है जानना , इसका अर्थ विशाल ।5।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, रखना इसका मान ।<br/>देना इसकी गंध को, एक नई पहचान ।6।</p>
<p></p>
<p>जीवन तो अनमोल है, सुख - दुख इसके तीर ।<br/>एक तीर पर कहकहे, एक तीर पर पीर ।7।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 3-3-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा त्रयी .....tag:openbooksonline.com,2024-02-22:5170231:BlogPost:11163502024-02-22T08:01:22.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा त्रयी. . . . .</p>
<p></p>
<p>जीवन में ऐश्वर्य के, साधन हुए अनेक ।<br/>अर्थ दौड़ में खो गया, मानव धर्म विवेक ।।</p>
<p></p>
<p>चले न कोई साथ जब, साथ निभाता नाथ ।<br/>संचित कितना भी करो, खाली रहते हाथ ।।</p>
<p></p>
<p>गौण हुईं अनुभूतियाँ, क्षीण हुए सम्बंध ।<br/>नाम मात्र की रह गई, रिश्तों की बस गंध ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 23-2-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p>दोहा त्रयी. . . . .</p>
<p></p>
<p>जीवन में ऐश्वर्य के, साधन हुए अनेक ।<br/>अर्थ दौड़ में खो गया, मानव धर्म विवेक ।।</p>
<p></p>
<p>चले न कोई साथ जब, साथ निभाता नाथ ।<br/>संचित कितना भी करो, खाली रहते हाथ ।।</p>
<p></p>
<p>गौण हुईं अनुभूतियाँ, क्षीण हुए सम्बंध ।<br/>नाम मात्र की रह गई, रिश्तों की बस गंध ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 23-2-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा त्रयी. . . . . .tag:openbooksonline.com,2024-02-11:5170231:BlogPost:11161612024-02-11T08:36:45.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा त्रयी. . . .</p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p>मन के मधुबन से हुई , लुप्त नेह की गंध ।<br/>काई देती स्वार्थ की, रिश्तों में दुर्गन्ध ।।</p>
<p></p>
<p>बदल गया परिवार में, रिश्तों का अब रूप ।<br/>तीखी लगती स्वार्थ की, अब आँगन में धूप ।।</p>
<p></p>
<p>अर्थ रार में खो गए, रिश्ते सारे खास ।<br/>धन वैभव ने भर दिया, जीवन मैं संत्रास ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 11-2-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p>दोहा त्रयी. . . .</p>
<p style="text-align: left;"></p>
<p>मन के मधुबन से हुई , लुप्त नेह की गंध ।<br/>काई देती स्वार्थ की, रिश्तों में दुर्गन्ध ।।</p>
<p></p>
<p>बदल गया परिवार में, रिश्तों का अब रूप ।<br/>तीखी लगती स्वार्थ की, अब आँगन में धूप ।।</p>
<p></p>
<p>अर्थ रार में खो गए, रिश्ते सारे खास ।<br/>धन वैभव ने भर दिया, जीवन मैं संत्रास ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 11-2-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा सप्तक. . . .tag:openbooksonline.com,2024-02-06:5170231:BlogPost:11161482024-02-06T08:49:25.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p></p>
<p>दोहा सप्तक. . . . </p>
<p></p>
<p>बन कर ख़याल रह गया, जीवन का हर मोड़ ।<br></br>अपने सब कब चल दिये, तनहा हमको छोड़ ।1।</p>
<p></p>
<p>बदला जीवन आज का, बदली जीवन सोच ।<br></br>एक पेट भरपेट है, क्षुधित कहीं पर चोंच ।2।</p>
<p></p>
<p>पर धन की है लालसा, कुत्सित घृणित विचार ।<br></br>जीवन को मत दीजिए, दागदार उपहार ।3।</p>
<p></p>
<p>रह -रह कर मन मीत का,आता मधुर ख़याल ।<br></br>दिल की यह बेचैनियाँ, बदलें जीवन चाल ।4।</p>
<p></p>
<p>वैसा होता आचरण, जैसी होती सोच ।<br></br>रोटी तब अच्छी बने,जब आटे में…</p>
<p></p>
<p>दोहा सप्तक. . . . </p>
<p></p>
<p>बन कर ख़याल रह गया, जीवन का हर मोड़ ।<br/>अपने सब कब चल दिये, तनहा हमको छोड़ ।1।</p>
<p></p>
<p>बदला जीवन आज का, बदली जीवन सोच ।<br/>एक पेट भरपेट है, क्षुधित कहीं पर चोंच ।2।</p>
<p></p>
<p>पर धन की है लालसा, कुत्सित घृणित विचार ।<br/>जीवन को मत दीजिए, दागदार उपहार ।3।</p>
<p></p>
<p>रह -रह कर मन मीत का,आता मधुर ख़याल ।<br/>दिल की यह बेचैनियाँ, बदलें जीवन चाल ।4।</p>
<p></p>
<p>वैसा होता आचरण, जैसी होती सोच ।<br/>रोटी तब अच्छी बने,जब आटे में लोच।5।</p>
<p></p>
<p>नजरें दूषित हो गई , दूषित हुए विचार ।<br/>वर्तमान सन्दर्भ में, शर्मिन्दा शृंगार ।6।</p>
<p></p>
<p>वृद्धों का सन्तान जब,रखती पूर्ण ख़याल ।<br/>जीवन के हर क्षेत्र में , रहती वो खुशहाल ।7।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 6-2-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . . . नैनtag:openbooksonline.com,2024-02-03:5170231:BlogPost:11163102024-02-03T08:23:55.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p></p>
<p>दोहा पंचक. . . नैन</p>
<p></p>
<p>नैन द्वन्द्व में नैन ही , गए नैन से हार । <br></br>नैनों को अच्छी लगे, नैनों से तकरार ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों से तकरार का, लगे अजब आनन्द ।<br></br>हृदय पृष्ठ पर प्रीत के, अंकित होते छन्द ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों के संवाद की, अद्भुत होती नाद ।<br></br>नैन सुनें बस नैन के, अनबोले संवाद ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों से होती सदा, मौन सुरों में बात ।<br></br>नैनों की मनुहार में, बीते सारी रात ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों के संसार की, किसने पायी थाह ।<br></br>नैन तीर पर हो सदा, लक्षित…</p>
<p></p>
<p>दोहा पंचक. . . नैन</p>
<p></p>
<p>नैन द्वन्द्व में नैन ही , गए नैन से हार । <br/>नैनों को अच्छी लगे, नैनों से तकरार ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों से तकरार का, लगे अजब आनन्द ।<br/>हृदय पृष्ठ पर प्रीत के, अंकित होते छन्द ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों के संवाद की, अद्भुत होती नाद ।<br/>नैन सुनें बस नैन के, अनबोले संवाद ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों से होती सदा, मौन सुरों में बात ।<br/>नैनों की मनुहार में, बीते सारी रात ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों के संसार की, किसने पायी थाह ।<br/>नैन तीर पर हो सदा, लक्षित मन की चाह ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 3-2-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा त्रयी. . . . सन्तानtag:openbooksonline.com,2024-01-19:5170231:BlogPost:11151382024-01-19T07:30:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा त्रयी. . . सन्तान</p>
<p></p>
<p>सन्तानों के बन गए ,अपने- अपने नीड़ ।<br/> वृद्ध हुए माँ बाप अब, तन्हा बाँटें पीड़ ।।</p>
<p></p>
<p>अर्थ लोभ हावी हुए, भौतिक सुख विकराल ।<br/> क्षीण दृष्टि माँ बाप की, ढूँढे अपना लाल ।।</p>
<p></p>
<p>सन्तानों की आहटें , देखें अब माँ बाप ।<br/> वृद्ध काल में बन गई, ममता जैसे श्राप ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 19-1-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p>दोहा त्रयी. . . सन्तान</p>
<p></p>
<p>सन्तानों के बन गए ,अपने- अपने नीड़ ।<br/> वृद्ध हुए माँ बाप अब, तन्हा बाँटें पीड़ ।।</p>
<p></p>
<p>अर्थ लोभ हावी हुए, भौतिक सुख विकराल ।<br/> क्षीण दृष्टि माँ बाप की, ढूँढे अपना लाल ।।</p>
<p></p>
<p>सन्तानों की आहटें , देखें अब माँ बाप ।<br/> वृद्ध काल में बन गई, ममता जैसे श्राप ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 19-1-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा त्रयी. . . शंकाtag:openbooksonline.com,2024-01-17:5170231:BlogPost:11152322024-01-17T09:29:02.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा त्रयी. . . शंका</p>
<p></p>
<p>शंका व्यर्थ न कीजिए, यह दुख का आधार ।<br/>मन का छीने चैन यह , शूलों का संसार ।।</p>
<p></p>
<p>शंका का संसार में, कोई नहीं निदान ।<br/>इसके चलते हों सदा, रिश्ते लहू लुहान ।।</p>
<p></p>
<p>शंका बैरी चैन की, नफरत का यह द्वार ।<br/>प्यार भरे संसार में, यह भरती अंगार ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 17-1-24</p>
<p style="text-align: center;">मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p>दोहा त्रयी. . . शंका</p>
<p></p>
<p>शंका व्यर्थ न कीजिए, यह दुख का आधार ।<br/>मन का छीने चैन यह , शूलों का संसार ।।</p>
<p></p>
<p>शंका का संसार में, कोई नहीं निदान ।<br/>इसके चलते हों सदा, रिश्ते लहू लुहान ।।</p>
<p></p>
<p>शंका बैरी चैन की, नफरत का यह द्वार ।<br/>प्यार भरे संसार में, यह भरती अंगार ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 17-1-24</p>
<p style="text-align: center;">मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . . . .tag:openbooksonline.com,2024-01-10:5170231:BlogPost:11148182024-01-10T09:59:18.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . .</p>
<p></p>
<p>कितनी चंचल हो गई, बूंद ओस की आज ।<br></br>संग किरण के घास पर, नाचे बिन आवाज ।।</p>
<p></p>
<p>मौसम आया पोष का, लगे भयंकर शीत ।<br></br>मुख से निकले प्रीत के, कंपित सुर में गीत ।।</p>
<p></p>
<p>लो धरती पर हो गया , शीत धुंध का राज ।<br></br>भानु धुंधला सा हुआ, छुपा ताप का ताज।।</p>
<p></p>
<p>हरित पर्ण पर ओस ज्यों , लगती जीवन आस।<br></br>बूँद- बूँद में कल्पना, कवि की भरे उजास ।।</p>
<p></p>
<p>शीत भगाने के लिए, जलने लगे अलाव ।<br></br>धीमी-धीमी आँच में, चली प्रेम की नाव…</p>
<p>दोहा पंचक. . .</p>
<p></p>
<p>कितनी चंचल हो गई, बूंद ओस की आज ।<br/>संग किरण के घास पर, नाचे बिन आवाज ।।</p>
<p></p>
<p>मौसम आया पोष का, लगे भयंकर शीत ।<br/>मुख से निकले प्रीत के, कंपित सुर में गीत ।।</p>
<p></p>
<p>लो धरती पर हो गया , शीत धुंध का राज ।<br/>भानु धुंधला सा हुआ, छुपा ताप का ताज।।</p>
<p></p>
<p>हरित पर्ण पर ओस ज्यों , लगती जीवन आस।<br/>बूँद- बूँद में कल्पना, कवि की भरे उजास ।।</p>
<p></p>
<p>शीत भगाने के लिए, जलने लगे अलाव ।<br/>धीमी-धीमी आँच में, चली प्रेम की नाव ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 10-1-24</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . . . क्रोधtag:openbooksonline.com,2023-12-24:5170231:BlogPost:11140312023-12-24T07:19:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . क्रोध</p>
<p></p>
<p>जितना संभव हो सके, वश में रखना क्रोध । <br></br>घातक होते हैं बड़े, क्रोध जनित प्रतिरोध ।।</p>
<p></p>
<p>देना अपने क्रोध को, पल भर का विश्राम ।<br></br>टल जाएंगे शूल से, क्रोध जनित परिणाम ।।</p>
<p></p>
<p>शमन क्रोध का कीजिए, मिटता बैर समूल ।<br></br>प्रेम भाव की जिंदगी, माने यही उसूल ।।</p>
<p></p>
<p>रिश्ते होते खाक जब, जले क्रोध की आग ।<br></br>प्रेम विला में गूँजते, फिर नफरत के राग ।।</p>
<p></p>
<p>क्रोध बैर का मूल है, क्रोध घृणा की आग ।<br></br>क्रोध अनल के कब मिटे,…</p>
<p>दोहा पंचक. . . क्रोध</p>
<p></p>
<p>जितना संभव हो सके, वश में रखना क्रोध । <br/>घातक होते हैं बड़े, क्रोध जनित प्रतिरोध ।।</p>
<p></p>
<p>देना अपने क्रोध को, पल भर का विश्राम ।<br/>टल जाएंगे शूल से, क्रोध जनित परिणाम ।।</p>
<p></p>
<p>शमन क्रोध का कीजिए, मिटता बैर समूल ।<br/>प्रेम भाव की जिंदगी, माने यही उसूल ।।</p>
<p></p>
<p>रिश्ते होते खाक जब, जले क्रोध की आग ।<br/>प्रेम विला में गूँजते, फिर नफरत के राग ।।</p>
<p></p>
<p>क्रोध बैर का मूल है, क्रोध घृणा की आग ।<br/>क्रोध अनल के कब मिटे, अन्तर्मन से दाग ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 24-12-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा सप्तक ..tag:openbooksonline.com,2023-12-21:5170231:BlogPost:11139492023-12-21T06:54:53.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा - सप्तक...</p>
<p></p>
<p>गाफिल क्यों अंजाम से, तू आखिर नादान ।<br></br>तेरे इस अस्तित्व की, मिट्टी है पहचान ।।</p>
<p>धू -धू कर यह जिस्म जला, जले साथ अरमान ।<br></br>इच्छाओं की रुक गई, मैं - मैं भरी उड़ान ।।</p>
<p>ढह जाएंगे सब यहाँ, पत्थर के प्रासाद ।<br></br>मलबे होगे दंभ के, रोयेंगे उन्माद ।।</p>
<p>साँसों का चप्पू चले, धड़कन करती नाद ।<br></br>चित्रित अधरों पर हुए, अधरों के अनुवाद ।।</p>
<p>और -और की लालसा, मिटी न मिटे शरीर ।<br></br>भौतिक युग का आदमी , रहता सदा फकीर ।।</p>
<p>साथी वो किस काम के ,दें…</p>
<p>दोहा - सप्तक...</p>
<p></p>
<p>गाफिल क्यों अंजाम से, तू आखिर नादान ।<br/>तेरे इस अस्तित्व की, मिट्टी है पहचान ।।</p>
<p>धू -धू कर यह जिस्म जला, जले साथ अरमान ।<br/>इच्छाओं की रुक गई, मैं - मैं भरी उड़ान ।।</p>
<p>ढह जाएंगे सब यहाँ, पत्थर के प्रासाद ।<br/>मलबे होगे दंभ के, रोयेंगे उन्माद ।।</p>
<p>साँसों का चप्पू चले, धड़कन करती नाद ।<br/>चित्रित अधरों पर हुए, अधरों के अनुवाद ।।</p>
<p>और -और की लालसा, मिटी न मिटे शरीर ।<br/>भौतिक युग का आदमी , रहता सदा फकीर ।।</p>
<p>साथी वो किस काम के ,दें न वक्त पर साथ ।<br/>वक्त पड़े तो छोड़ दें, साथी का जो हाथ ।।</p>
<p>मुँह बोली संवेदना, मुँह बोला व्यवहार ।<br/>मुँह बोले संसार में, मुँह बोला है प्यार ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 21-12-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा त्रयोदशीtag:openbooksonline.com,2023-12-17:5170231:BlogPost:11139322023-12-17T06:00:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . .</p>
<p></p>
<p>साथ श्वांस के रुक गया, जीवन का संघर्ष ।<br></br> आँचल अंक विषाद के, मौन हुआ हर हर्ष ।।</p>
<p></p>
<p>जैसे-जैसे दिन ढले, लम्बी होती छाँव ।<br></br> काल समेटे जिन्दगी, थमते चलते पाँव ।।</p>
<p></p>
<p>इच्छाओं की आँधियाँ, आशाओं के ढेर ।<br></br> क्या समझेगी जिन्दगी, साँसों का यह फेर ।।</p>
<p></p>
<p>पगडंडी पक्की हुई, क्षीण हुए सम्बंध ।<br></br> अर्थ क्षुधा में खो गई, एक चूल्हे की गंध ।।</p>
<p></p>
<p>पत्थर सारे मील के, सड़क किनारे मौन ।<br></br> अपने अन्तिम अंक को, पढ़ पाया है कौन…</p>
<p>दोहा पंचक. . . .</p>
<p></p>
<p>साथ श्वांस के रुक गया, जीवन का संघर्ष ।<br/> आँचल अंक विषाद के, मौन हुआ हर हर्ष ।।</p>
<p></p>
<p>जैसे-जैसे दिन ढले, लम्बी होती छाँव ।<br/> काल समेटे जिन्दगी, थमते चलते पाँव ।।</p>
<p></p>
<p>इच्छाओं की आँधियाँ, आशाओं के ढेर ।<br/> क्या समझेगी जिन्दगी, साँसों का यह फेर ।।</p>
<p></p>
<p>पगडंडी पक्की हुई, क्षीण हुए सम्बंध ।<br/> अर्थ क्षुधा में खो गई, एक चूल्हे की गंध ।।</p>
<p></p>
<p>पत्थर सारे मील के, सड़क किनारे मौन ।<br/> अपने अन्तिम अंक को, पढ़ पाया है कौन ।।</p>
<p></p>
<p>नैनों की मनुहार को, नैन करें स्वीकार ।<br/> मौन आग्रह शीत में, कौन करे इंकार ।।</p>
<p></p>
<p>देह काँपती शीत में, मुख से निकले भाप ।<br/> अधरों के अनुरोध पर, अधर मिलें फिर आप ।।</p>
<p></p>
<p>वर्तमान सन्दर्भ में, न्यून हुए परिधान ।<br/> पीढ़ी समझे आज की, इसको अपनी शान ।।</p>
<p></p>
<p>सर्व विदित संसार में, कुछ भी गया न साथ ।<br/>फिर भी बन्दा अर्थ को, माने अपना नाथ ।।</p>
<p></p>
<p>दाता तेरे खेल को, जान सका है कौन ।<br/>अभिमानी हर शोर को, पल में करता मौन ।।</p>
<p></p>
<p>काया का अभिमान जब, मिले मृदा के संग ।<br/>साथ चिता के भस्म हों, नकली जीवन रंग ।।</p>
<p></p>
<p>हम जानें संसार में, सबको अपने साथ ।<br/>संचित सब छूटे यहाँ, खाली रहते हाथ।।</p>
<p></p>
<p>कब लौटा है अर्श से, जाने वाला मित्र ।<br/>यादों का बस फलसफा,बनता उसका चित्र ।।</p>
<p></p>
<p></p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>दोहा पंचक. . . . .tag:openbooksonline.com,2023-11-05:5170231:BlogPost:11116102023-11-05T14:16:33.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक . . . .</p>
<p></p>
<p>लुप्त हुई संवेदना, कड़वी हुई मिठास ।<br></br>अर्थ रार में खो गए , रिश्ते सारे खास ।।<br></br>*<br></br>पहले जैसे अब कहाँ, मिलते हैं इन्सान ।<br></br>शेष रहा इंसान में, बड़बोला अभिमान ।।<br></br>*<br></br>प्रीत सरोवर में खिले, क्यों नफरत के फूल ।<br></br>तन मन को छिद्रित करें, स्वार्थ भाव के शूल ।।<br></br>*<br></br>किसको अपना हम कहें, किसको मानें गैर ।<br></br>भूल -भाल कर दुश्मनी , सबकी माँगें खैर ।।<br></br>* <br></br>शर्तों पर यह जिंदगी , काटे अपनी राह ।<br></br>सुध-बुध खो कर सो रही, शूल नोक पर चाह…</p>
<p>दोहा पंचक . . . .</p>
<p></p>
<p>लुप्त हुई संवेदना, कड़वी हुई मिठास ।<br/>अर्थ रार में खो गए , रिश्ते सारे खास ।।<br/>*<br/>पहले जैसे अब कहाँ, मिलते हैं इन्सान ।<br/>शेष रहा इंसान में, बड़बोला अभिमान ।।<br/>*<br/>प्रीत सरोवर में खिले, क्यों नफरत के फूल ।<br/>तन मन को छिद्रित करें, स्वार्थ भाव के शूल ।।<br/>*<br/>किसको अपना हम कहें, किसको मानें गैर ।<br/>भूल -भाल कर दुश्मनी , सबकी माँगें खैर ।।<br/>* <br/>शर्तों पर यह जिंदगी , काटे अपनी राह ।<br/>सुध-बुध खो कर सो रही, शूल नोक पर चाह ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 5-11-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>जीवन ...... दोहेtag:openbooksonline.com,2023-10-17:5170231:BlogPost:11109102023-10-17T16:00:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>जीवन ....दोहे </p>
<p></p>
<p>झुर्री-झुर्री पर लिखा, जीवन का संघर्ष । <br></br> जरा अवस्था देखती, मुड़ कर बीते वर्ष ।।</p>
<p></p>
<p>क्या पाया क्या खो दिया, कब समझा इंसान ।<br></br> जले चिता के साथ ही, जीवन के अरमान ।।</p>
<p></p>
<p>कब टलता है जीव का, जीवन से अवसान ।<br></br>जीव देखता रह गया, जब फिसला अभिमान ।।</p>
<p></p>
<p>देर हुई अब उम्र की, आयी अन्तिम शाम ।<br></br> साथ न आया काम कुछ ,बीती उम्र तमाम ।।</p>
<p></p>
<p>जीवन लगता चित्र सा, दूर खड़े सब साथ ।<br></br> संचित सब छूटा यहाँ, खाली दोनों हाथ…</p>
<p>जीवन ....दोहे </p>
<p></p>
<p>झुर्री-झुर्री पर लिखा, जीवन का संघर्ष । <br/> जरा अवस्था देखती, मुड़ कर बीते वर्ष ।।</p>
<p></p>
<p>क्या पाया क्या खो दिया, कब समझा इंसान ।<br/> जले चिता के साथ ही, जीवन के अरमान ।।</p>
<p></p>
<p>कब टलता है जीव का, जीवन से अवसान ।<br/>जीव देखता रह गया, जब फिसला अभिमान ।।</p>
<p></p>
<p>देर हुई अब उम्र की, आयी अन्तिम शाम ।<br/> साथ न आया काम कुछ ,बीती उम्र तमाम ।।</p>
<p></p>
<p>जीवन लगता चित्र सा, दूर खड़े सब साथ ।<br/> संचित सब छूटा यहाँ, खाली दोनों हाथ ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 17-10-23<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>लेबल्ड मच्छर. . . . ( लघु कथा )tag:openbooksonline.com,2023-10-15:5170231:BlogPost:11106012023-10-15T14:35:10.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>लेबल्ड मच्छर ......(लघु कथा ) </p>
<p></p>
<p>"रामदयाल जी ! हमें तो पता ही नही था कि हमारे मोहल्ले से मच्छर गायब हो गए हैं सिर्फ पार्षद के घर के अलावा ।" दीनानाथ जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा ।</p>
<p>"वो कैसे ।" रामदयाल जी बोले ।</p>
<p>"वो क्या है रामदयाल जी । आज सवेरे में छत पर पौधों को पानी दे रहा था कि अचानक मुझे नीचे कोई मशीन चलने की आवाज सुनाई दी । नीचे देखा तो देख कर दंग रह गया ।"</p>
<p>"क्यों? क्या देखा दीनानाथ जी । पहेलियाँ मत बुझाओ ।साफ साफ बताओ यार ।" रामदयाल जी बोले…</p>
<p>लेबल्ड मच्छर ......(लघु कथा ) </p>
<p></p>
<p>"रामदयाल जी ! हमें तो पता ही नही था कि हमारे मोहल्ले से मच्छर गायब हो गए हैं सिर्फ पार्षद के घर के अलावा ।" दीनानाथ जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा ।</p>
<p>"वो कैसे ।" रामदयाल जी बोले ।</p>
<p>"वो क्या है रामदयाल जी । आज सवेरे में छत पर पौधों को पानी दे रहा था कि अचानक मुझे नीचे कोई मशीन चलने की आवाज सुनाई दी । नीचे देखा तो देख कर दंग रह गया ।"</p>
<p>"क्यों? क्या देखा दीनानाथ जी । पहेलियाँ मत बुझाओ ।साफ साफ बताओ यार ।" रामदयाल जी बोले ।</p>
<p>"हाँ हाँ बता रहा हूँ यार । नीचे देखा तो पार्षद जी के घर के आग फागिंग मशीन मच्छर भगाने के लिए धुंआ उड़ा रही थी ।"</p>
<p>"ये तो अच्छी बात है । वो मोहल्ले का कितना ध्यान रखते हैं । इसमें आश्चर्य की क्या बात है ।" रामदयाल जी बोले ।</p>
<p>"आगे सुनो रामदयाल जी । अचानक पार्षद जी अन्दर से आये और मोबाइल से फागिंग मशीन से धुंए की फोटोग्राफी करने लगे । बाद में फागिंग मशीन वाली वैन को जाने के लिए इशारा कर दिया । वैन चली गई बिना कहीं भी धुंआ फैंके । अब एक तो जन सुविधाओं से खिलवाड़ हुआ दूसरे इस पर होने वाली व्यय राशि को शालीनता से डकार गए ।" दीनानाथ जी बोले ।</p>
<p>यह तो खुलेआम भ्रष्टाचार है । हाथ पर बैठे मच्छर को मारते हुए रामदयाल जी बोले और चाय का प्याला रखा और सोचा कि हवा के मच्छरों से तो मुकाबला कर लें मगर इन सेवक लेबल्ड मच्छरों से जनता कैसे बचेगी । इनसे बचने का कौन सा धुंआ बनेगा । यही सोचते सोचते वो अपने घर को चल दिये ।</p>
<p>सुशील सरना / 15-10-23<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित <br/><br/></p>
<p></p>
<p></p>दोहा पंचक. . . . .tag:openbooksonline.com,2023-10-09:5170231:BlogPost:11104782023-10-09T08:00:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . . .</p>
<p></p>
<p>तर्पण को रहता सदा, तत्पर सारा वंश ।<br></br> दिये बुजुर्गो को कभी, कब मिटते हैं दंश ।।</p>
<p></p>
<p>तर्पण देने के लिए, उत्सुक है परिवार ।<br></br> बंटवारे के आज तक, बुझे नहीं अंगार ।।</p>
<p></p>
<p>लगा पुत्र के कक्ष में, मृतक पिता का चित्र ।<br></br> दम्भी सिर को झुका रहा, उसके आगे मित्र ।।</p>
<p></p>
<p>देह कभी संसार में, अमर न होती मित्र ।<br></br> महकें उसके कर्म ज्योँ , महके पावन इत्र ।।</p>
<p></p>
<p>तर्पण अर्पण कीजिए, सच्चे मन से यार ।<br></br> चला गया वो आपका,…</p>
<p>दोहा पंचक. . . . .</p>
<p></p>
<p>तर्पण को रहता सदा, तत्पर सारा वंश ।<br/> दिये बुजुर्गो को कभी, कब मिटते हैं दंश ।।</p>
<p></p>
<p>तर्पण देने के लिए, उत्सुक है परिवार ।<br/> बंटवारे के आज तक, बुझे नहीं अंगार ।।</p>
<p></p>
<p>लगा पुत्र के कक्ष में, मृतक पिता का चित्र ।<br/> दम्भी सिर को झुका रहा, उसके आगे मित्र ।।</p>
<p></p>
<p>देह कभी संसार में, अमर न होती मित्र ।<br/> महकें उसके कर्म ज्योँ , महके पावन इत्र ।।</p>
<p></p>
<p>तर्पण अर्पण कीजिए, सच्चे मन से यार ।<br/> चला गया वो आपका, सच्चा था संसार ।।</p>
<p><br/> सुशील सरना / 9-10-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>ईमानदारी. . . . . (लघु कथा )tag:openbooksonline.com,2023-10-08:5170231:BlogPost:11107262023-10-08T08:00:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>ईमानदारी ....</p>
<p></p>
<p>"अरे भोलू ! क्या हुआ तेरे पापा 4-5 दिन से दूध देने नहीं आ रहे ।"सविता ने भोलू के बेटे को दूध का भगोना देते हुए पूछा ।</p>
<p>"वो बीवी जी, पापा की साइकिल कुछ खराब हो गई इसलिए मैं दूध देने आ गया ।" भोलू के बेटे ने भगोने में दूध डालते हुए कहा ।</p>
<p>"अच्छा , अच्छा यह बता जब से तुम दूध दे रहे हो दूध इतना पतला क्यों है ? पापा तो दूध गाढ़ा लाते थे ।"<br></br> सविता ने कहा ।</p>
<p>"बीवी जी, यह साइकिल नहीं फटफटिया है । अगर दूध गाढ़ा बेचेंगे तो फटफटिया कैसे चलायेंगे…</p>
<p>ईमानदारी ....</p>
<p></p>
<p>"अरे भोलू ! क्या हुआ तेरे पापा 4-5 दिन से दूध देने नहीं आ रहे ।"सविता ने भोलू के बेटे को दूध का भगोना देते हुए पूछा ।</p>
<p>"वो बीवी जी, पापा की साइकिल कुछ खराब हो गई इसलिए मैं दूध देने आ गया ।" भोलू के बेटे ने भगोने में दूध डालते हुए कहा ।</p>
<p>"अच्छा , अच्छा यह बता जब से तुम दूध दे रहे हो दूध इतना पतला क्यों है ? पापा तो दूध गाढ़ा लाते थे ।"<br/> सविता ने कहा ।</p>
<p>"बीवी जी, यह साइकिल नहीं फटफटिया है । अगर दूध गाढ़ा बेचेंगे तो फटफटिया कैसे चलायेंगे ।" भोलू के बेटे ने हंसते हुए कहा और बाइक स्टार्ट करके चल दिया।</p>
<p>सविता देखती रह गई बइमानी भी कितनी ईमानदारी से करते हैं लोग ।</p>
<p>सुशील सरना / 8-10-23<br/> मौलिक एवं अप्रकाशित</p>भिखारी छंदtag:openbooksonline.com,2023-10-05:5170231:BlogPost:11104612023-10-05T09:08:25.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>भिखारी छंद - <br></br>24 मात्रिक - 12 पर यति - पदांत-गा ला</p>
<p></p>
<p>मन से मन की बातें, मन करता मतवाला ।<br></br>मन में हरदम जलती , इच्छाओं की ज्वाला ।<br></br>भोगी मन तो चाहे , बाला की मधुशाला ।<br></br>पी कर मन ये नाचे , नैन नशीली हाला ।<br></br> ××××××<br></br>उल्फ़त की सौगातें, आँखों की बरसातें ।<br></br>तन्हा - तन्हा बीती , भीगी - भीगी रातें ।<br></br>जाकर फिर कब आते , बीते दिन मतवाले ।<br></br>दिल को बहुत सताते , खाली-खाली प्याले ।</p>
<p>सुशील सरना /5-10-23…</p>
<p>भिखारी छंद - <br/>24 मात्रिक - 12 पर यति - पदांत-गा ला</p>
<p></p>
<p>मन से मन की बातें, मन करता मतवाला ।<br/>मन में हरदम जलती , इच्छाओं की ज्वाला ।<br/>भोगी मन तो चाहे , बाला की मधुशाला ।<br/>पी कर मन ये नाचे , नैन नशीली हाला ।<br/> ××××××<br/>उल्फ़त की सौगातें, आँखों की बरसातें ।<br/>तन्हा - तन्हा बीती , भीगी - भीगी रातें ।<br/>जाकर फिर कब आते , बीते दिन मतवाले ।<br/>दिल को बहुत सताते , खाली-खाली प्याले ।</p>
<p>सुशील सरना /5-10-23</p>
<p style="text-align: right;">मौलिक एवं अप्रकाशित </p>मनका छंदtag:openbooksonline.com,2023-10-03:5170231:BlogPost:11106202023-10-03T07:54:53.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>मनका / वर्णिका छंद - तीन चरण, पाँच-पाँच वर्ण प्रत्येक चरण,दो चरण या तीनों चरण समतुकांत</p>
<p></p>
<p>मस्त जवानी <br/> फिर न आनी <br/> हसीं कहानी !<br/>*<br/>आई बहार <br/> अलि गुँजार <br/> पुष्प शृंगार !<br/>*<br/>झड़ते पात<br/> अन्तिम रात <br/> एक यथार्थ !<br/>*<br/>मुक्त विहार <br/> काम विकार <br/> देह व्यापार! <br/>*<br/>घोर अँधेरा <br/> छुपा सवेरा <br/> स्वप्न का डेरा !</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना 3-10-23<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>
<p>मनका / वर्णिका छंद - तीन चरण, पाँच-पाँच वर्ण प्रत्येक चरण,दो चरण या तीनों चरण समतुकांत</p>
<p></p>
<p>मस्त जवानी <br/> फिर न आनी <br/> हसीं कहानी !<br/>*<br/>आई बहार <br/> अलि गुँजार <br/> पुष्प शृंगार !<br/>*<br/>झड़ते पात<br/> अन्तिम रात <br/> एक यथार्थ !<br/>*<br/>मुक्त विहार <br/> काम विकार <br/> देह व्यापार! <br/>*<br/>घोर अँधेरा <br/> छुपा सवेरा <br/> स्वप्न का डेरा !</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना 3-10-23<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>दोहा पंचक. . . . .राजनीतिtag:openbooksonline.com,2023-09-26:5170231:BlogPost:11098132023-09-26T08:30:00.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा पंचक. . . राजनीति</p>
<p></p>
<p>राजनीति के जाल में, जनता है बेहाल ।<br></br> मतदाता पर लोभ का, नेता डालें जाल ।।</p>
<p></p>
<p>राजनीति में आजकल, धन का है व्यापार ।<br></br> भ्रष्टाचारी की यहाँ , होती जय जयकार ।।</p>
<p></p>
<p>राजनीति में अब नहीं , सत्य निष्ठ प्रतिमान ।<br></br> श्वेत तिजोरी मांगती , जनता से बलिदान ।।</p>
<p></p>
<p>भ्रष्टाचारी पंक में, नेता करते ठाठ।<br></br> कीच नीर में यूँ रहें, जैसे तैरे काठ ।।</p>
<p></p>
<p>राजनीति के तीर पर, बगुले करते ध्यान ।<br></br> मीन…</p>
<p>दोहा पंचक. . . राजनीति</p>
<p></p>
<p>राजनीति के जाल में, जनता है बेहाल ।<br/> मतदाता पर लोभ का, नेता डालें जाल ।।</p>
<p></p>
<p>राजनीति में आजकल, धन का है व्यापार ।<br/> भ्रष्टाचारी की यहाँ , होती जय जयकार ।।</p>
<p></p>
<p>राजनीति में अब नहीं , सत्य निष्ठ प्रतिमान ।<br/> श्वेत तिजोरी मांगती , जनता से बलिदान ।।</p>
<p></p>
<p>भ्रष्टाचारी पंक में, नेता करते ठाठ।<br/> कीच नीर में यूँ रहें, जैसे तैरे काठ ।।</p>
<p></p>
<p>राजनीति के तीर पर, बगुले करते ध्यान ।<br/> मीन नीर में काँपती, ध्यानी तो शैतान ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 26-9-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>
<p></p>बेटी दिवस पर दोहा ग़ज़ल. . . .tag:openbooksonline.com,2023-09-25:5170231:BlogPost:11095472023-09-25T06:26:08.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>बेटी दिवस पर दोहा ग़ज़ल ....</p>
<p></p>
<p>बेटी घर की आन है, बेटी घर की शान ।<br></br>दो दो कुल संवारती, बेटी की मुस्कान ।।</p>
<p></p>
<p>बेटी को मत जानिए, बेटे से कमजोर ,<br></br>जग में बेटी आज है, उन्नति की पहचान ।</p>
<p></p>
<p>बेटे को जग वंश का, समझे दावेदार,<br></br>बेटे से कम आंकता, बेटी के अरमान ।।</p>
<p></p>
<p>धरती अरु आकाश पर , लिख दी अपनी जीत,<br></br>बेटी ने अब छू लिया , धरा से आसमान ।।</p>
<p></p>
<p>बेटी अबला अब हुई, अतुल शक्ति पर्याय ,<br></br>उसके साहस को करे, नमन सारा जहान…</p>
<p>बेटी दिवस पर दोहा ग़ज़ल ....</p>
<p></p>
<p>बेटी घर की आन है, बेटी घर की शान ।<br/>दो दो कुल संवारती, बेटी की मुस्कान ।।</p>
<p></p>
<p>बेटी को मत जानिए, बेटे से कमजोर ,<br/>जग में बेटी आज है, उन्नति की पहचान ।</p>
<p></p>
<p>बेटे को जग वंश का, समझे दावेदार,<br/>बेटे से कम आंकता, बेटी के अरमान ।।</p>
<p></p>
<p>धरती अरु आकाश पर , लिख दी अपनी जीत,<br/>बेटी ने अब छू लिया , धरा से आसमान ।।</p>
<p></p>
<p>बेटी अबला अब हुई, अतुल शक्ति पर्याय ,<br/>उसके साहस को करे, नमन सारा जहान ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 25-9-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>मधुमालती छंद. . . .tag:openbooksonline.com,2023-09-21:5170231:BlogPost:11093822023-09-21T14:42:21.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>मधुमालती छंद ....<br></br>1<br></br>डर कर कभी, रोना नहीं ।<br></br>विश्वास को, खोना नहीं ।<br></br>तूफान में, सोना नहीं ।<br></br>नफरत कभी , बोना नहीं ।<br></br>***<br></br>2<br></br>क्षण- क्षण बड़ा, बलवान है ।<br></br>संग्राम की, पहचान है ।<br></br>हर पल यहाँ, संघर्ष है ।<br></br>पल भर यहाँ , बस हर्ष है ।<br></br>***<br></br>3<br></br>सपने कभी ,मरते नहीं <br></br>दीपक सभी , जलते नहीं ।<br></br>थोड़ी यहाँ, मुस्कान है ।<br></br>ढेरों यहाँ , व्यवधान है ।<br></br>***<br></br>4<br></br>हर वक्त ही,बस काम है।<br></br>जीवन इसी का नाम है ।<br></br>थोड़ी यहाँ, पर…</p>
<p>मधुमालती छंद ....<br/>1<br/>डर कर कभी, रोना नहीं ।<br/>विश्वास को, खोना नहीं ।<br/>तूफान में, सोना नहीं ।<br/>नफरत कभी , बोना नहीं ।<br/>***<br/>2<br/>क्षण- क्षण बड़ा, बलवान है ।<br/>संग्राम की, पहचान है ।<br/>हर पल यहाँ, संघर्ष है ।<br/>पल भर यहाँ , बस हर्ष है ।<br/>***<br/>3<br/>सपने कभी ,मरते नहीं <br/>दीपक सभी , जलते नहीं ।<br/>थोड़ी यहाँ, मुस्कान है ।<br/>ढेरों यहाँ , व्यवधान है ।<br/>***<br/>4<br/>हर वक्त ही,बस काम है।<br/>जीवन इसी का नाम है ।<br/>थोड़ी यहाँ, पर जीत है ।<br/>जीना यहाँ , बस रीत है ।<br/>***<br/>5<br/>आभास का , विश्वास नहीं ।<br/>पतझड़ यहाँ, मधुमास नहीं ।<br/>ये जिंदगी बस प्यास है ।<br/>हर आस का बनवास है।<br/>***<br/>6<br/>बरसात का तूफान है ।<br/>मौसम बड़ा हैरान है।<br/>विध्वंस की पहचान है।<br/>भयभीत अब , इंसान है ।<br/>***</p>
<p>सुशील सरना / 21-9-23<br/>मौलिक एवं अप्रकाशित</p>दोहा सप्तक. . . संसारtag:openbooksonline.com,2023-09-11:5170231:BlogPost:11091662023-09-11T08:30:17.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>दोहा सप्तक. . . संसार</p>
<p></p>
<p>औरों को देखा मगर, कब समझा इंसान ।<br></br>संचित सब कुछ छोड़ता, जब होता अवसान ।।</p>
<p></p>
<p>कहते हैं लगती नहीं, कभी कफन में जेब।<br></br>फिर भी धन की लालसा, देती उसे फरेब ।।</p>
<p></p>
<p>आने पर जैसे करें, जीव रूप सत्कार ।<br></br>पुष्पों से ढकते कफन ,जब छूटे संसार ।।</p>
<p></p>
<p>जीत क्षुधा मिटती नहीं, मिट जाती यह देह ।<br></br>नश्वर तन से जीव का, कब मिटता है नेह ।।</p>
<p></p>
<p>कर्मों का करता सदा, पीछे जगत बखान ।<br></br>रह जाती बस जीव की, अमिट यही पहचान…</p>
<p>दोहा सप्तक. . . संसार</p>
<p></p>
<p>औरों को देखा मगर, कब समझा इंसान ।<br/>संचित सब कुछ छोड़ता, जब होता अवसान ।।</p>
<p></p>
<p>कहते हैं लगती नहीं, कभी कफन में जेब।<br/>फिर भी धन की लालसा, देती उसे फरेब ।।</p>
<p></p>
<p>आने पर जैसे करें, जीव रूप सत्कार ।<br/>पुष्पों से ढकते कफन ,जब छूटे संसार ।।</p>
<p></p>
<p>जीत क्षुधा मिटती नहीं, मिट जाती यह देह ।<br/>नश्वर तन से जीव का, कब मिटता है नेह ।।</p>
<p></p>
<p>कर्मों का करता सदा, पीछे जगत बखान ।<br/>रह जाती बस जीव की, अमिट यही पहचान ।।</p>
<p></p>
<p>साथी अनगिन साथ थे, जब छूटा संसार ।<br/>उसके कर्मों से किया, फिर उसका शृंगार ।।</p>
<p></p>
<p>छोड़- छाड़ संसार को, जीव गया उस पार ।<br/>चार दिनों का शोक फिर, भूल गया संसार ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 11-9-23</p>
<p style="text-align: center;">मौलिक एवं अप्रकाशित </p>वरिष्ठ नागरिक दिवस पर चन्द दोहे .....tag:openbooksonline.com,2023-08-21:5170231:BlogPost:11080722023-08-21T09:15:46.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>वरिष्ठ नागरिक दिवस के अवसर पर चन्द दोहे : ....</p>
<p></p>
<p>दृग जल हाथों पर गिरा, टूटा हर अहसास ।<br></br>काया ढलते ही लगा, सब कुछ था आभास ।।</p>
<p></p>
<p>जीवन पीछे रह गया, छूट गए मधुमास ।<br></br>जर्जर काया क्या हुई, टूट गई हर आस ।।</p>
<p></p>
<p>गिरी लार परिधान पर, शोर हुआ घनघोर ।<br></br>काया पर चलता नहीं, जरा काल में जोर ।।</p>
<p></p>
<p>लघु शंका बस में नहीं, थर- थर काँपे हाथ ।<br></br>जरा काल में खून ही , छोड़ चला फिर साथ ।।</p>
<p></p>
<p>वृद्धों को बस दीजिए , थोड़ा सा सम्मान । <br></br>अवसादों को…</p>
<p>वरिष्ठ नागरिक दिवस के अवसर पर चन्द दोहे : ....</p>
<p></p>
<p>दृग जल हाथों पर गिरा, टूटा हर अहसास ।<br/>काया ढलते ही लगा, सब कुछ था आभास ।।</p>
<p></p>
<p>जीवन पीछे रह गया, छूट गए मधुमास ।<br/>जर्जर काया क्या हुई, टूट गई हर आस ।।</p>
<p></p>
<p>गिरी लार परिधान पर, शोर हुआ घनघोर ।<br/>काया पर चलता नहीं, जरा काल में जोर ।।</p>
<p></p>
<p>लघु शंका बस में नहीं, थर- थर काँपे हाथ ।<br/>जरा काल में खून ही , छोड़ चला फिर साथ ।।</p>
<p></p>
<p>वृद्धों को बस दीजिए , थोड़ा सा सम्मान । <br/>अवसादों को छीन कर, उनको दो मुस्कान ।।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 21-8-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>लघुकथा -सीखtag:openbooksonline.com,2023-08-19:5170231:BlogPost:11079692023-08-19T11:19:49.000ZSushil Sarnahttp://openbooksonline.com/profile/SushilSarna
<p>सीख ......</p>
<p></p>
<p>"पापा ! फिर क्या हुआ" । सुशील ने रात को सोने से पहले पापा की टाँगें दबाते हुए पूछा ।</p>
<p>"कुछ मत पूछ बेटा । हर तरफ मार काट, भागम-भाग , हर तरफ चीखें ही चीखें थी । हमने थोड़े से गहने और सामान बाँधा और सब कुछ छोड़ कर निकल लिए ।" पापा ने कहा ।</p>
<p>"आप सुरक्षित कैसे निकले "। सुशील ने पूछा ।</p>
<p>"ह्म्म । बेटे!सन् 1947 के विभाजन में सम्भव नहीं था वहाँ से सुरक्षित निकलना । उसी कौम का एक इंसान फरिश्ता बन कर हमारी मदद को आया और किसी तरीके से बचते बचाते…</p>
<p>सीख ......</p>
<p></p>
<p>"पापा ! फिर क्या हुआ" । सुशील ने रात को सोने से पहले पापा की टाँगें दबाते हुए पूछा ।</p>
<p>"कुछ मत पूछ बेटा । हर तरफ मार काट, भागम-भाग , हर तरफ चीखें ही चीखें थी । हमने थोड़े से गहने और सामान बाँधा और सब कुछ छोड़ कर निकल लिए ।" पापा ने कहा ।</p>
<p>"आप सुरक्षित कैसे निकले "। सुशील ने पूछा ।</p>
<p>"ह्म्म । बेटे!सन् 1947 के विभाजन में सम्भव नहीं था वहाँ से सुरक्षित निकलना । उसी कौम का एक इंसान फरिश्ता बन कर हमारी मदद को आया और किसी तरीके से बचते बचाते हिन्दुस्तान की ट्रेन में बिठाया और हम बचकर हिन्दुस्तान पहुंचे" । पापा ने कहा ।</p>
<p>"वो नेक इंसान कौन था पापा "।</p>
<p>"मेरा कार्यालय अधिकारी। वो मेरी काम के प्रति वफादारी, मेरा उसके प्रति समर्पित मधुर व्यवहार से बहुत प्रभावित था । बस उस अधिकारी के प्रति मेरे इस समर्पण भाव और ईमानदारी ने हमें उस हृदय विदारक स्थिति से निकाला" ।</p>
<p>"बेटे ! एक बात जिन्दगी में हमेशा याद रखना कि मजहबी भाव को अलग रखते हुए कार्य के प्रति ईमानदारी, समर्पण और मधुर व्यवहार कभी बेकार नहीं जाता और विषम परिस्थिति में इसके सकारात्मक परिणाम मिलते हैं । अच्छा चल रात बहुत हो गई है अब सो जा" । यह कहकर पापा करवट बदल कर सो गए ।</p>
<p>सुशील भी पापा की सीख को सोचते सोचते सोने <br/>के लिए अपने कक्ष में चल दिया ।</p>
<p></p>
<p>सुशील सरना / 19-8-23</p>
<p>मौलिक एवं अप्रकाशित </p>