Satish mapatpuri's Posts - Open Books Online2024-03-29T11:35:48Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpurihttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991286527?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=3lqxx3xiwj0r8&xn_auth=noअगर पूर्वजों के सहारे न होते .tag:openbooksonline.com,2015-09-20:5170231:BlogPost:6997642015-09-20T16:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>अगर रंग - बिरंगे ये नारे न होते.<br/> तो फिर हम भी इतने बेचारे न होते .<br/>
बस बातों के मरहम से भर जाते शायद .<br/>
अगर ज़ख्म दिल के करारे न होते .<br/>
भला किसकी हिम्मत सितम ढा सके यूँ .<br/>
अगर हम जो आदत बिगाड़े न होते .<br/>
कहीं ना कहीं से तो शह मिल रहा है .<br/>
निर्भया के बसन यूँ उतारे न होते .<br/>
मिट जाती कब की ये रस्मोरिवाज़ें .<br/>
अगर पूर्वजों के सहारे न होते .<br/>
<br />
मौलिक और अप्रकाशित<br />
सतीश मापतपुरी</p>
<p>अगर रंग - बिरंगे ये नारे न होते.<br/> तो फिर हम भी इतने बेचारे न होते .<br/>
बस बातों के मरहम से भर जाते शायद .<br/>
अगर ज़ख्म दिल के करारे न होते .<br/>
भला किसकी हिम्मत सितम ढा सके यूँ .<br/>
अगर हम जो आदत बिगाड़े न होते .<br/>
कहीं ना कहीं से तो शह मिल रहा है .<br/>
निर्भया के बसन यूँ उतारे न होते .<br/>
मिट जाती कब की ये रस्मोरिवाज़ें .<br/>
अगर पूर्वजों के सहारे न होते .<br/>
<br />
मौलिक और अप्रकाशित<br />
सतीश मापतपुरी</p>गुरुवर तुम्हें नमन है ( शिक्षक दिवस पर विशेष )tag:openbooksonline.com,2012-09-04:5170231:BlogPost:2684582012-09-04T22:16:19.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p> </p>
<p><span class="userContent">जिसने बताया हमको , लिखना हमारा नाम . <br></br></span><span class="userContent">जिसने सिखाया हमको , कविता ,ग़ज़ल -कलाम .<br></br></span> <span class="userContent">समझाया जिसने हमको , दीने -धरम ,ईमान .<br></br></span> <span class="userContent">जिसने कहा कि एक है ,कह लो रहीम - राम .<br></br></span> <span class="userContent">भगवान से भी पहले ,करता नमन उन्हीं को .<br></br></span> <span class="userContent">मानों तो हैं खुदा वो , ना मानों तो हैं आम .…<br></br></span></p>
<p> </p>
<p><span class="userContent">जिसने बताया हमको , लिखना हमारा नाम . <br/></span><span class="userContent">जिसने सिखाया हमको , कविता ,ग़ज़ल -कलाम .<br/></span> <span class="userContent">समझाया जिसने हमको , दीने -धरम ,ईमान .<br/></span> <span class="userContent">जिसने कहा कि एक है ,कह लो रहीम - राम .<br/></span> <span class="userContent">भगवान से भी पहले ,करता नमन उन्हीं को .<br/></span> <span class="userContent">मानों तो हैं खुदा वो , ना मानों तो हैं आम .<br/></span> <span class="userContent">गुरुवर तुम्हें नमन है , गुरुवर तुम्हें प्रणाम .<br/></span> <span class="userContent">माटी के हम थे लोंदे .मूरत बनाया तुमने . <br/></span><span class="userContent">सूरत मिली खुदा से , सीरत सिखाया तुमने.<br/></span> <span class="userContent">माँ- बाप ने जना पर , हमको सजाया तुमने . <br/></span><span class="userContent">इंसान की शक्ल थी , इन्सां बनाया तुमने. <br/></span><span class="userContent">जीवन संवारा तुमने , तुमने हमें गढ़ा है . <br/></span><span class="userContent">यीशु कहूँ या मौला , वाहे गुरु या राम . <br/></span><span class="userContent"><span class="userContent">गुरुवर तुम्हें नमन है , गुरुवर तुम्हें प्रणाम . </span></span></p>
<p><span class="userContent"><span class="userContent"> <span class="userContent"><span class="userContent">...... सतीश मापतपुरी</span></span> <br/> <a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001462243?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001462243?profile=original" width="246"/></a></span></span></p>गुनाहगार बनाया क्यों ?tag:openbooksonline.com,2012-08-30:5170231:BlogPost:2664832012-08-30T20:45:46.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p> </p>
<p>ऐ मालिक ! बता दे तू , कि बहार बनाया क्यों ?<br></br> गर बहार बना था , तो उजाड़ बनाया क्यों ?<br></br> चमन में खिलती हैं कलियाँ , कली से नेह भौरों को .<br></br> पर भंवरे काँप उठे उस वक़्त , आखिर खार बनाया क्यों ?<br></br> जुदाई प्यार की मंजिल , तड़पना दिल को पड़ता है .<br></br> दिवाना कहती है दुनिया , तो फिर यह प्यार बनाया क्यों ?<br></br> मिलन की चाह होती है , मिलन होता मुकद्दर से .<br></br> तो मिलकर क्यों बिछड़ते हैं , आखिर दीदार बनाया क्यों ?<br></br> अगर मापतपुरी जालिम , तो उस पे कर करम मौला .<br></br> ख़ता…</p>
<p> </p>
<p>ऐ मालिक ! बता दे तू , कि बहार बनाया क्यों ?<br/> गर बहार बना था , तो उजाड़ बनाया क्यों ?<br/> चमन में खिलती हैं कलियाँ , कली से नेह भौरों को .<br/> पर भंवरे काँप उठे उस वक़्त , आखिर खार बनाया क्यों ?<br/> जुदाई प्यार की मंजिल , तड़पना दिल को पड़ता है .<br/> दिवाना कहती है दुनिया , तो फिर यह प्यार बनाया क्यों ?<br/> मिलन की चाह होती है , मिलन होता मुकद्दर से .<br/> तो मिलकर क्यों बिछड़ते हैं , आखिर दीदार बनाया क्यों ?<br/> अगर मापतपुरी जालिम , तो उस पे कर करम मौला .<br/> ख़ता अल्लाह तुम्हारी है , तू गुनाहगार बनाया क्यों ? </p>
<p> ---- सतीश मापतपुरी</p>कबीरा खड़ा बाजार मेंtag:openbooksonline.com,2012-08-02:5170231:BlogPost:2560462012-08-02T19:57:22.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p></p>
<p> [ एक ]</p>
<p>कठपुतली भी हँस रही, देख मनुज का हाल.<br></br> सबसे बड़ा मदारी वो , लिखे जो सबका भाल.<br></br> कौन नचाता है किसे, क्या इसका परमान.<br></br> सबकी डोर पे पकड़ जिसे, कहते कृपानिधान.<br></br> जिस उर में लालच बसे ,वहाँ कहाँ ईमान .<br></br> देय वस्तु पर नेह जिसे , सबसे बड़ा नादान.<br></br> जीवन गगरी माटी की , जिसका करम कोंहार .<br></br> सरग - नरक येही ठौर है , जिसका जस व्यवहार .<br></br> देने वाले ने दिया , एक सूर्य और सोम .<br></br> किन्तु मनुज ने बाँट ली , धरती नदियाँ व्योम .<br></br> कहत अभागा नियति का , नीयत नियत…</p>
<p></p>
<p> [ एक ]</p>
<p>कठपुतली भी हँस रही, देख मनुज का हाल.<br/> सबसे बड़ा मदारी वो , लिखे जो सबका भाल.<br/> कौन नचाता है किसे, क्या इसका परमान.<br/> सबकी डोर पे पकड़ जिसे, कहते कृपानिधान.<br/> जिस उर में लालच बसे ,वहाँ कहाँ ईमान .<br/> देय वस्तु पर नेह जिसे , सबसे बड़ा नादान.<br/> जीवन गगरी माटी की , जिसका करम कोंहार .<br/> सरग - नरक येही ठौर है , जिसका जस व्यवहार .<br/> देने वाले ने दिया , एक सूर्य और सोम .<br/> किन्तु मनुज ने बाँट ली , धरती नदियाँ व्योम .<br/> कहत अभागा नियति का , नीयत नियत ही होत .<br/> बिना बीज का फसल उगे , पुनि - पुनि जोते खेत .<br/>मनुज भाग्य में का बदा, विधि भी है अनजान .<br/> भाग्य बंद मुठ्ठी तले , खुद को लो पहचान .<br/> मिहनत कर जो पेट भरे , वही तो है इंसान.<br/> उठे तो हो भगवान् जो , गिरे तो हो शैतान.<br/> गुड्डा - गुड्डी खेलना , ये है बाल सुभाय.<br/> कितना सुन्दर बालपन, काहे को चली जाय.<br/> सुख और दुःख से क्यों डरें, सिक्के के दो छोर .<br/> जैसा जो करता करम , तैसा पावत छोर .<br/> सब दिन एक समान ना, समय घुमता चक्र . <br/>जस पूनम का चंद्रमा , दूज को होए बक्र. <br/>लोभी ,कपटी , धूर्त जो , वो है श्वान समान .<br/> दांत गड़ाये हाड़ में , करे जो निज लहू पान . <br/>जो बेटी माता बने , ममता देई लुटाय . <br/>सो बेटी पत्नी बने , कूल का वंश बढ़ाय .<br/> गर्भ में बेटी बध करे , कैसा धर्म - रिवाज ?<br/> जो बेटी होती नहीं , होत का पुरुष - समाज ?</p>
<p> ---- सतीश मापतपुरी</p>
<p></p>
<p></p>
<p> </p>ज़िन्दगी खुद में ही तो एक जंग का एलान है.tag:openbooksonline.com,2012-04-22:5170231:BlogPost:2171412012-04-22T22:28:27.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>ज़िन्दों और परिंदों का बस एक ही पहचान है.<br/> ना ही थकना, ना ही रुकना बस और बस उड़ान है. <br/>एक जगह जो रुक गया तो रुक गया उसका सफ़र.<br/> इसलिए ही अब तो मंजिल रोज़ एक मुकाम है. <br/>कौन कहता है जहां में ज़िंदा रहना है कठिन. <br/>आदमी में है ही क्या एक जिस्म और एक जान है.<br/> मौसमे बारिश गिरा देता है कितने आशियाँ .<br/> हिम्मते मरदा है जो कि हर तरफ मकान है.<br/> ज़िन्दगी में जंग ना तो क्या मज़ा मापतपुरी. <br/>ज़िन्दगी खुद में ही तो एक जंग का एलान है.<br/> ----- सतीश मापतपुरी</p>
<p>ज़िन्दों और परिंदों का बस एक ही पहचान है.<br/> ना ही थकना, ना ही रुकना बस और बस उड़ान है. <br/>एक जगह जो रुक गया तो रुक गया उसका सफ़र.<br/> इसलिए ही अब तो मंजिल रोज़ एक मुकाम है. <br/>कौन कहता है जहां में ज़िंदा रहना है कठिन. <br/>आदमी में है ही क्या एक जिस्म और एक जान है.<br/> मौसमे बारिश गिरा देता है कितने आशियाँ .<br/> हिम्मते मरदा है जो कि हर तरफ मकान है.<br/> ज़िन्दगी में जंग ना तो क्या मज़ा मापतपुरी. <br/>ज़िन्दगी खुद में ही तो एक जंग का एलान है.<br/> ----- सतीश मापतपुरी</p>बच्चों की फरियादtag:openbooksonline.com,2012-04-21:5170231:BlogPost:2167782012-04-21T21:15:05.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p><br></br>बंजर धरती दूषित हवा - जल, जंगल कटते जायेंगे.<br></br> ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.<br></br> हरी - भरी धरती को आपने, बिन सोचे वीरान किया.<br></br> मतलब की खातिर ही आपने, वन - जंगल सुनसान किया. <br></br>नहीं बचेगा इन्सां भी, गर जीव - जंतु मिट जायेंगे. <br></br>ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.<br></br> ऐसे पर्यावरण में कैसे, कोई राष्ट्र विकास करेगा. <br></br>अब भी गर बेखबर रहे तो, माफ नहीं इतिहास करेगा.<br></br> रहते समय नहीं चेते तो, कर मलते रह जायेंगे.<br></br> ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम…</p>
<p><br/>बंजर धरती दूषित हवा - जल, जंगल कटते जायेंगे.<br/> ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.<br/> हरी - भरी धरती को आपने, बिन सोचे वीरान किया.<br/> मतलब की खातिर ही आपने, वन - जंगल सुनसान किया. <br/>नहीं बचेगा इन्सां भी, गर जीव - जंतु मिट जायेंगे. <br/>ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे.<br/> ऐसे पर्यावरण में कैसे, कोई राष्ट्र विकास करेगा. <br/>अब भी गर बेखबर रहे तो, माफ नहीं इतिहास करेगा.<br/> रहते समय नहीं चेते तो, कर मलते रह जायेंगे.<br/> ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे. <br/>अब भी खास नहीं बिगड़ा है , अब भी वक़्त सम्हलने का है.<br/> कलियाँ कुम्हला गयी हैं फिर भी, अब भी मौसम खिलने का है<br/>पर्यावरण की रक्षा करके, ही उन्नति कर पायेंगे. <br/>ज़ख़्मी पर्यावरण आपसे , क्या हम बच्चे पायेंगे. </p>
<p> ---- सतीश मापतपुरी</p>जहाँ गंगा जैसी सरिता हैtag:openbooksonline.com,2012-04-14:5170231:BlogPost:2142552012-04-14T14:00:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div class="postbody"> असंख्य घड़े को जल देकर भी, तेरा कोष न रीता है.</div>
<div class="postbody">धन्य - धन्य वह भारत है , जहाँ गंगा जैसी सरिता है.</div>
<div class="postbody">तू सदैव निःस्वार्थ भाव से, हिंद - भूमि को सींचा है.</div>
<div class="postbody">श्यामा के अभिराम वक्ष पर, लक्ष्मण - रेखा खींचा है.</div>
<div class="postbody">भारत की मर्यादा की, यह रेखा एक निशानी है.</div>
<div class="postbody">शहीदों की कुर्बानी की, यह रेखा एक कहानी है.</div>
<div class="postbody">तेरी लहरों में…</div>
<div class="postbody"> असंख्य घड़े को जल देकर भी, तेरा कोष न रीता है.</div>
<div class="postbody">धन्य - धन्य वह भारत है , जहाँ गंगा जैसी सरिता है.</div>
<div class="postbody">तू सदैव निःस्वार्थ भाव से, हिंद - भूमि को सींचा है.</div>
<div class="postbody">श्यामा के अभिराम वक्ष पर, लक्ष्मण - रेखा खींचा है.</div>
<div class="postbody">भारत की मर्यादा की, यह रेखा एक निशानी है.</div>
<div class="postbody">शहीदों की कुर्बानी की, यह रेखा एक कहानी है.</div>
<div class="postbody">तेरी लहरों में विद्यापति, नानक - कबीर की कविता है.</div>
<div class="postbody">धन्य - धन्य वह भारत है , जहाँ गंगा जैसी सरिता है.</div>
<div class="postbody">हिमगिरि है तेरा ललाट, और केश सुन्दरवन है.</div>
<div class="postbody">श्री - कृष्णा हैं ललित पाँव,और कटि तेरा संगम है.</div>
<div class="postbody">राजीव लोचन - मुकुट गगन , बसन तेरा निर्मल जल है.</div>
<div class="postbody">ओक अब्धि - प्रहरी रवि और शशि, ध्रुवतारा कर्ण कुण्डल है.</div>
<div class="postbody">तेरी लहरों का कलकल, गुरुग्रंथ -कुरान और गीता है.</div>
<div class="postbody">धन्य - धन्य वह भारत है , जहाँ गंगा जैसी सरिता है.</div>
<div class="postbody">तेरे सम्मुख भेद नहीं है, राजा और भिखारी की.</div>
<div class="postbody">तेरे दर पर द्वेष नहीं है, मुल्ला और पुजारी की .</div>
<div class="postbody">सवर्ण और अंत्यज दोनों को , निज उर में स्थान दिया.</div>
<div class="postbody">मानव सभी बराबर हैं, यह अखिल विश्व को ज्ञान दिया.</div>
<div class="postbody">तेरे तट पर भव्य भवन, तेरे तट पर ही चिता है .</div>
<div class="postbody">धन्य - धन्य वह भारत है , जहाँ गंगा जैसी सरिता है.</div>
<div class="postbody">नि: संतानों को सुत दी, और निर्धन की भर दी झोली.</div>
<div class="postbody">पावन पवन दिया जग को, हे धुर्वनंदा ! तू है भोली.</div>
<div class="postbody">कोढ़ी पाए कंचन काया , याचक की हुई ईच्छा पूरी.</div>
<div class="postbody">हे विष्णुपदी ! तू है अनुपम , करते प्रणाम मापतपुरी .</div>
<div class="postbody">तेरा नीर नहीं कोरा जल , अमृतरूपी सिता है .</div>
<div class="postbody">धन्य - धन्य वह भारत है , जहाँ गंगा जैसी सरिता है.</div>
<div class="postbody"> ------ सतीश मापतपुरी</div>
<div class="postbody">सुलभ संकेतार्थ -- श्री - कृष्णा ( सरस्वती - यमुना ), ओक ( आवास ), अब्धि ( समुद्र ) , सिता ( चीनी )</div>मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है .tag:openbooksonline.com,2012-04-10:5170231:BlogPost:2134162012-04-10T19:12:06.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p></p>
<p> </p>
<p>जान ले लेगा वो तिल, लब पे जो बनाया है . <br></br>मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है .<br></br>मुस्कुराती हो जब तो गालों पे, जानलेवा भंवर सा बनता है.<br></br>खोलती हो अदा से जब पलकें , झील में दो कँवल सा खिलता है.<br></br>साथ जिसको नहीं मिला तेरा, क्यों यहाँ ज़िन्दगी गंवाया है.<br></br> मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है . <br></br>हुस्न की देवी तेरे ही दम से, खिलते हैं फूल दिल के गुलशन में.<br></br> देखकर तुमको ही ये हुरे ज़मीं , पलते हैं इश्क दिल की धड़कन में.<br></br> हर कोई देखता है तुमको ही, रब…</p>
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<p> </p>
<p>जान ले लेगा वो तिल, लब पे जो बनाया है . <br/>मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है .<br/>मुस्कुराती हो जब तो गालों पे, जानलेवा भंवर सा बनता है.<br/>खोलती हो अदा से जब पलकें , झील में दो कँवल सा खिलता है.<br/>साथ जिसको नहीं मिला तेरा, क्यों यहाँ ज़िन्दगी गंवाया है.<br/> मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है . <br/>हुस्न की देवी तेरे ही दम से, खिलते हैं फूल दिल के गुलशन में.<br/> देखकर तुमको ही ये हुरे ज़मीं , पलते हैं इश्क दिल की धड़कन में.<br/> हर कोई देखता है तुमको ही, रब तुम्हें आईना बनाया है.<br/> मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है .<br/> कल कहीं तुम जुदा ना हो जाओ , बात ये सोचकर मैं डरता हूँ.<br/> अपने गीतों में अब सदा के लिए , कैद तुमको मैं आज करता हूँ .<br/> आके छुप जाओ तुम ख्यालों में, मेरे शब्दों ने ही सजाया है. <br/>मेरी कलम ने तुम्हें , महबूबा बनाया है . </p>
<p> ----- सतीश मापतपुरी</p>मेरे गीतों को होठों से छू लो जराtag:openbooksonline.com,2012-04-05:5170231:BlogPost:2099322012-04-05T13:28:47.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p> </p>
<p>ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.</p>
<p>वक़्त बे वक़्त यूँ ना लो अंगड़ाइयां, देखने वाला बेमौत मर जायेगा.</p>
<p> होंठ तेरे गुलाबी ,शराबी नयन.</p>
<p> संगमरमर सा उजला है , तेरा बदन.</p>
<p>रूप यूँ ना सजाया - संवारा करो, टूट कर आईना भी बिखर जायेगा.</p>
<p>ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.</p>
<p> सारी दुनिया ही तुम पर, मेहरबान है.</p>
<p> देख तुमको…</p>
<p> </p>
<p>ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.</p>
<p>वक़्त बे वक़्त यूँ ना लो अंगड़ाइयां, देखने वाला बेमौत मर जायेगा.</p>
<p> होंठ तेरे गुलाबी ,शराबी नयन.</p>
<p> संगमरमर सा उजला है , तेरा बदन.</p>
<p>रूप यूँ ना सजाया - संवारा करो, टूट कर आईना भी बिखर जायेगा.</p>
<p>ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.</p>
<p> सारी दुनिया ही तुम पर, मेहरबान है.</p>
<p> देख तुमको फ़रिश्ते भी, हैरान हैं.</p>
<p>मुसकुरा कर अगर तुम इशारा करो , आदमी क्या - खुदा भी ठहर जायेगा.</p>
<p>ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.</p>
<p> तुम तसव्वुर की रंगीन, तस्वीर हो .</p>
<p> सच तो ये है कि लाखों कि, तकदीर हो.</p>
<p>मेरे गीतों को होठों से छू लो जरा, खुद ब खुद भाव उनका निखर जायेगा.</p>
<p>ज़ुल्फ बिखरा के छत पे ना आया करो , आसमाँ भी ज़मीं पर उतर आयेगा.</p>
<p> ............... सतीश मापतपुरी</p>होली मुबारकtag:openbooksonline.com,2012-03-09:5170231:BlogPost:1983882012-03-09T07:10:50.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459634?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459634?profile=original" width="551"></img></a></div>
<div><div>बरसा है रंगों का सावन , धरती के आँगन में.</div>
<div>अब ना होगा काँटा , होगा गुल ही गुल गुलशन में.</div>
<div>मैल दिलों का धुल जाते हैं , होते सब खुशहाल.</div>
<div>ये है होली का मस्त धमाल .</div>
<div>OBO परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभ कामनाएं</div>
<div> -------- सतीश मापतपुरी…</div>
</div>
<div><a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459634?profile=original" target="_self"><img class="align-full" src="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459634?profile=original" width="551"/></a></div>
<div><div>बरसा है रंगों का सावन , धरती के आँगन में.</div>
<div>अब ना होगा काँटा , होगा गुल ही गुल गुलशन में.</div>
<div>मैल दिलों का धुल जाते हैं , होते सब खुशहाल.</div>
<div>ये है होली का मस्त धमाल .</div>
<div>OBO परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभ कामनाएं</div>
<div> -------- सतीश मापतपुरी<a href="http://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/3001459634?profile=original" target="_self"></a></div>
</div>कटी पतंग (एक बलात्कार -पीड़िता का ग़म)tag:openbooksonline.com,2012-03-04:5170231:BlogPost:1956702012-03-04T11:50:19.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div> </div>
<div>ना मैं हंसी हूँ - ना मैं ख़ुशी हूँ, ना मैं रंग -उमंग हूँ.</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div>डोर से कटकर लटक गयी हूँ, मंजिल -पथ से भटक गयी हूँ.</div>
<div>कोई रंग चढ़े भी कैसे , मैं ऐसा बदरंग हूँ.</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div>तूफानों में जकड़ गयी हूँ, साहिल से मैं बिछड़ गयी हूँ.</div>
<div>किस मुँह से बाबुल से कहूँ मैं, रंज़ोग़म के संग हूँ.</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div>किस -किस…</div>
<div> </div>
<div>ना मैं हंसी हूँ - ना मैं ख़ुशी हूँ, ना मैं रंग -उमंग हूँ.</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div>डोर से कटकर लटक गयी हूँ, मंजिल -पथ से भटक गयी हूँ.</div>
<div>कोई रंग चढ़े भी कैसे , मैं ऐसा बदरंग हूँ.</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div>तूफानों में जकड़ गयी हूँ, साहिल से मैं बिछड़ गयी हूँ.</div>
<div>किस मुँह से बाबुल से कहूँ मैं, रंज़ोग़म के संग हूँ.</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div>किस -किस का मैं दोष गिनाऊं, किस -किस को शूली पे चढ़ाऊं.</div>
<div>मर्दों की नामर्दी देख के, सच कहती मैं दंग हूँ .</div>
<div>मेरा जीवन एक अफसाना , मैं एक कटी पतंग हूँ.</div>
<div> ........... सतीश मापतपुरी</div>मानसरोवर - 8tag:openbooksonline.com,2012-02-23:5170231:BlogPost:1920692012-02-23T20:35:58.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p> </p>
<div>रे मानव क्या सोच रहा, इस मरघट में क्या खोज रहा ?</div>
<div>यथार्थ नहीं - यह धोखा है, सार नहीं यह थोथा है.</div>
<div> यह जग माया का है बाज़ार.</div>
<div> जहाँ रिश्ता का होता व्यापार.</div>
<div>कोई मातु - पिता, कोई भाई है, कोई बेटी और जमाई है.</div>
<div>कोई प्यारा सुत बन आया है, कोई बहन और कोई जाया है.</div>
<div> ये रिश्ते हैं छल के प्राकार.</div>
<div> ये हैं माया के ही प्रकार.</div>
<div>इस माया को ही…</div>
<p> </p>
<div>रे मानव क्या सोच रहा, इस मरघट में क्या खोज रहा ?</div>
<div>यथार्थ नहीं - यह धोखा है, सार नहीं यह थोथा है.</div>
<div> यह जग माया का है बाज़ार.</div>
<div> जहाँ रिश्ता का होता व्यापार.</div>
<div>कोई मातु - पिता, कोई भाई है, कोई बेटी और जमाई है.</div>
<div>कोई प्यारा सुत बन आया है, कोई बहन और कोई जाया है.</div>
<div> ये रिश्ते हैं छल के प्राकार.</div>
<div> ये हैं माया के ही प्रकार.</div>
<div>इस माया को ही कहते जग, यह है मानव - जीवन का सर्ग.</div>
<div>माया से अलग - विलग होकर, पर जीवित नहीं रह सकता नर.</div>
<div> सृष्टि का मूल्य चुकाना है.</div>
<div> रिश्ते का फर्ज निभाना है.</div>
<div>पर मात्र स्वार्थ के बंधन में, रिश्ते - नातों के संगम में.</div>
<div>अपने - गैरों के चिंतन में, सुख के विचार को रख मन में.</div>
<div> जो मनुज आचरण करता है.</div>
<div> मानवता से ही लड़ता है.</div>
<div>वह है उस कुत्ते के समान, जो करता निज लहू का ही पान.</div>
<div>हड्डी में दाँत गड़ाता है, बदले में रक्त जो पाता है.</div>
<div> वह तप्त रक्त भी है उसका.</div>
<div> वह तृप्त भोज भी है उसका.</div>
<div>सुख पाने की अभिलाषा में, उत्तम भविष्य की आशा में.</div>
<div>जो वर्तमान को खो देता, जो होश - चैन को खो देता.</div>
<div> वह सबसे बड़ा भिखारी है.</div>
<div> दुर्दिन का ही अधिकारी है.</div>
<div>नभ छूती हुई अटारी हो, रत्नों से भरी पिटारी हो.</div>
<div>हाथी - घोड़े हों बेशुमार, भरा - पूरा हों परिवार.</div>
<div> फिर भी तन्हा ही जाना है.</div>
<div> सब कुछ यहाँ रह जाना है.</div>
<div>मरने पर सब मुँह मोड़ेंगे, निर्जन में संग सब छोड़ेंगे.</div>
<div><span id="6_TRN_7o"></span>ना बहन और माता होगी,ना पुत्र और कान्ता होगी .</div>
<div> अकेले ही जाना होगा.</div>
<div> कर्मों पर पछताना होगा.</div>
<div>भ्रष्ट आचरण को अपनाना , सहम -सहम कर जीना है.</div>
<div>हो मनुज मनुज से छल करना, निज हाथों से विष पीना है.</div>
<div>जो कुछ भी है सृष्टि का है, मात्र कर्म ही तेरा है.</div>
<div>प्रिय ! तुम्हारे कर - कमलों में, मानसरोवर मेरा है.</div>
<div> ................ सतीश मापतपुरी </div>एक लड़की ( हास्य)tag:openbooksonline.com,2012-02-14:5170231:BlogPost:1892822012-02-14T19:38:04.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div> </div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span>प्रेम - जाल मैं डाल के थक गया, पर कुड़ी नहीं फंसती है .</span></span></div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span>रहती है मेरे पड़ोस में वो, कुछ चंचल - कुछ शोख है वो.</span></span></div>
<div><span>ना गोरी - ना काली है,…</span></div>
<div> </div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span>प्रेम - जाल मैं डाल के थक गया, पर कुड़ी नहीं फंसती है .</span></span></div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span>रहती है मेरे पड़ोस में वो, कुछ चंचल - कुछ शोख है वो.</span></span></div>
<div><span>ना गोरी - ना काली है, सांवली है - मतवाली है.</span></div>
<div>झील सी गहरी आँखें हैं , ज़ुल्फ़ यूँ काली राते हैं.</div>
<div>लहरों जैसी बल खाती, दुल्हन जैसी शरमाती .</div>
<div>चेहरा चाँद है पूनम का, होंठ सुमन है उपवन का.</div>
<div>नाम है उसका नील कमल, वो है ज़िंदा ताजमहल.</div>
<div>साँसे मेरी थम जाती, जब थम - थम के वो चलती है .</div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span>आती है वो ख़्वाबों में, दिखती है वो किताबों में.</span></span></div>
<div><span>ख्यालों से मैं चिपट गया, सपनों से मैं लिपट गया.</span></div>
<div>अपना ही दिल जेल हुआ, इम्तहान में फेल हुआ.</div>
<div>छा गई दिल पर बादल सा, हो गया मैं कुछ पागल सा.</div>
<div>प्रेम- अस्त्र का वार किया, हाले दिल इज़हार किया.</div>
<div>ना सोचा - ना देर किया, ख़त खिड़की में फेंक दिया.</div>
<div>तब से वो खिड़की हरजाई , नहीं दुबारा खुलती है.</div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span>सुबह - सबेरे जागता हूँ , दिन भर पीछे भागता हूँ.</span></span></div>
<div><span>गली में उसकी घुमता हूँ, चौखट उसकी चूमता हूँ.</span></div>
<div><span>दिन भर मुँह चलाती है, पर कुछ तरस न खाती है.</span></div>
<div><span>एक दिन उसने बुलवाया, लाल लिफाफा पकड़ाया.</span></div>
<div>मन - मयूर मेरा झूम गया, पढ़ा तो माथा घूम गया.</div>
<div>सनम ने क्या एवार्ड दिया, अपनी शादी का कार्ड दिया.</div>
<div>अब जब मुझको देखती है तो, मुँह दबा कर हंसती है.</div>
<div>मुझे <span id="6_TRN_6"><span id="6_TRN_7"><span id="6_TRN_8">देख के एक लड़की, बस हौले -हौले हंसती है.</span></span></span></div>
<div><span><span><span> --------------- सतीश मापतपुरी</span></span></span></div>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.tag:openbooksonline.com,2011-12-31:5170231:BlogPost:1774512011-12-31T22:00:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>दिल खोल गायें, तराना नये साल का.<br></br>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>खुशियाँ ही खुशियाँ, दिवाली ही दिवाली हो.<br></br> हर दिन सुहाना हो, रात मतवाली हो.<br></br> शांति- सुकून हो, नज़राना नये साल का.<br></br>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>प्यार बिना यारों, ये ज़िन्दगी बेकार है.<br></br> मिल्लत औ चाहत, अमन का आधार है.<br></br> सुख - समृद्धि हो, खज़ाना नये साल का.<br></br>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>मापतपुरी सबको हो,जलवा सिंगार का.<br></br> सबको सौगात मिले, उसके सच्चे प्यार का.<br></br> ऐसा हसीन हो,…</p>
<p>दिल खोल गायें, तराना नये साल का.<br/>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>खुशियाँ ही खुशियाँ, दिवाली ही दिवाली हो.<br/> हर दिन सुहाना हो, रात मतवाली हो.<br/> शांति- सुकून हो, नज़राना नये साल का.<br/>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>प्यार बिना यारों, ये ज़िन्दगी बेकार है.<br/> मिल्लत औ चाहत, अमन का आधार है.<br/> सुख - समृद्धि हो, खज़ाना नये साल का.<br/>सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>मापतपुरी सबको हो,जलवा सिंगार का.<br/> सबको सौगात मिले, उसके सच्चे प्यार का.<br/> ऐसा हसीन हो, बहाना नये साल का.<br/> सबको मुबारक हो, आना नये साल का.</p>
<p>-गीतकार - सतीश मापतपुरी</p>बिहार (यश - गान )tag:openbooksonline.com,2011-12-11:5170231:BlogPost:1739772011-12-11T17:35:50.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div> </div>
<div>जय - जय बिहार की भूमि, तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>तेरी महिमा अतुलनीय , यश तेरा निर्मल - न्यारा.</div>
<div>तुम्हें शत नमन हमारा - तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>फली - फुली सभ्यता - मानवता , तेरी ही गोदी में.</div>
<div>बिखरी है चहुँओर सम्पदा , इस पावन माटी में.</div>
<div>जली यहीं से ज्योति ज्ञान की, चमका विश्व ये सारा.</div>
<div>तुम्हें शत नमन हमारा - तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>राजनीति या धर्मनीति हो, शास्त्रनीति या शस्त्रनीति हो.</div>
<div>उद्गम - स्थल यहीं…</div>
<div> </div>
<div>जय - जय बिहार की भूमि, तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>तेरी महिमा अतुलनीय , यश तेरा निर्मल - न्यारा.</div>
<div>तुम्हें शत नमन हमारा - तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>फली - फुली सभ्यता - मानवता , तेरी ही गोदी में.</div>
<div>बिखरी है चहुँओर सम्पदा , इस पावन माटी में.</div>
<div>जली यहीं से ज्योति ज्ञान की, चमका विश्व ये सारा.</div>
<div>तुम्हें शत नमन हमारा - तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>राजनीति या धर्मनीति हो, शास्त्रनीति या शस्त्रनीति हो.</div>
<div>उद्गम - स्थल यहीं है सबका, रीति - रिवाज़ या संस्कृति हो.</div>
<div>ज्ञान - विज्ञान , साहित्य - कला की, यहीं से फूटी धारा.</div>
<div>तुम्हें शत नमन हमारा - तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div>महावीर और गुरु गोविन्द की, जन्मभूमि यह धरती.</div>
<div>गौतम - गांधी - बाल्मीकि की, कर्मभूमि यह धरती.</div>
<div>गणतंत्र को सबसे पहले, इस धरती ने उतारा.</div>
<div>तुम्हें शत नमन हमारा - तुम्हें शत नमन हमारा.</div>
<div> गीतकार - सतीश मापतपुरी </div>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-12-06:5170231:BlogPost:1726162011-12-06T15:00:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:164411" target="_blank">अंक ९ पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>------------- अंक - 10 (अंतिम अंक) --------------</p>
<p>सुबह के तीन बजे रंजन की स्थिति में कुछ -कुछ सुधार होने लगा. ईलाज में लगे डॉक्टरों को थोड़ी सी राहत मिली. बेटे की हालत में सुधार देखकर प्रबल बाबू ने आँखें बंद कर उस ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया,…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:164411" target="_blank">अंक ९ पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>------------- अंक - 10 (अंतिम अंक) --------------</p>
<p>सुबह के तीन बजे रंजन की स्थिति में कुछ -कुछ सुधार होने लगा. ईलाज में लगे डॉक्टरों को थोड़ी सी राहत मिली. बेटे की हालत में सुधार देखकर प्रबल बाबू ने आँखें बंद कर उस ईश्वर के प्रति धन्यवाद ज्ञापित किया, जिसकी सत्ता का शायद कल तक उन्हें एहसास तक न था. कनीय डॉक्टरों को आवश्यक हिदायत एवं मंत्री जी को सांत्वना देकर बड़ा डॉक्टर नित्य <span id="6_TRN_75">क्रिया आदि के लिए घर चले गए. सब कुछ सामान्य हो चला था. चम्मन ने सिंह साहेब को घर जाकर आराम करने की सलाह दी, पर वह इसके <span id="6_TRN_8c"><span id="6_TRN_8e"></span>लिए तैयार नहीं हुए, सिंह साहेब का <span id="6_TRN_8j">कहना था कि रंजन को साथ लेकर ही घर जाऊँगा, मैंने उसकी माँ से <span id="6_TRN_g">उसे</span> अपने साथ लाने का वादा किया है. </span></span></span></p>
<p><span id="6_TRN_75"><span id="6_TRN_8c"><span id="6_TRN_8j">इंसान जैसा सोचता है, जैसा चाहता है जरुरी नहीं कि हमेशा वैसा ही हो.</span></span></span></p>
<p><span><span>प्रबल बाबू को लगने लगा था कि धीरे - धीरे सब कुछ सामान्य हो चला है. उन्हें क्या पता था कि नियति की सोच इंसानों की सोच से अलग भी हो सकती है. सुबह के सात बजे के करीब अचानक रंजन की हालत फिर से बिगड़ने लगी. बड़े डॉक्टर को तत्काल फोन पर कनीय डॉक्टर ने इसकी सूचना दी. बड़े डॉक्टर ने एक इंजेक्शन का नाम बताते हुए तुरंत इसे लगाने को कहा. वह इंजेक्शन अस्पताल में नहीं था. प्रबल बाबू ने आदमी दौड़ा कर बाहर से मंगवाया. इंजेक्शन लगते ही रंजन के शरीर में तीव्र कम्पन हुआ और देखते ही देखते शरीर शांत पड़ गया. ठीक उसी समय बड़े डॉक्टर अस्पताल पहुंचे. उन्होंने रंजन की नाड़ी और <span id="6_TRN_3d">आँखें</span> देखने के पश्चात उसे मृत घोषित कर दिया. प्रबल बाबू डॉक्टर को झिंझोड़ - झिंझोड़ कर सिर्फ एक ही बात कहते रहे - डॉक्टर .... मेरे बेटे को बचा लो . डॉक्टर ने इंजेक्शन को ध्यान से देखते हुए कहा - ' हम रंजन को अवश्य बचा लिए होते मंत्री जी.... ... पर अफसोस, यह इंजेक्शन नकली है.' बम सदृश धमाका हुआ</span></span></p>
<p><span><span>स्वास्थ्य मंत्री प्रबल प्रताप सिंह अपलक नकली इंजेक्शन को देखे जा रहे थे. प्रबल बाबू ने अपने रंजन के लिए क्या - क्या सपना देखा था, लेकिन नियति ने एक ऐसा झटका दियाथा कि सारे सपने चकनाचूर हो गए. मंत्री जी को दूर से आती एक क्षीण सी आवाज़ सुनाई पड़ रही थी - 'अपने लाल की मौत की क्या कीमत लगाते हो मंत्री जी ? .................. नकली दवाओं के कारण तो अब तक कई आँगन से लाशें उठ चुकी <span id="6_TRN_7a">हैं</span> ................. आज आपकी बारी है.</span></span></p>
<p><span><span>'सिंह साहेब कुछ पल शून्य में निहारते रहे फिर धीरे - धीरे चम्मन की बाहों में अचेत हो गए.</span></span></p>
<p>अध्यक्ष उमाकांत के सामने प्रबल बाबू ने अपना त्यागपत्र बढ़ा दिया. कहने - सुनने के लिए अब बचा ही क्या था. उमाकांत जी ने गौर से देखा ... त्यागपत्र स्याही से नहीं - खून से लिखा हुआ था.</p>
<p> समाप्त</p>
<p></p>ये बिहार है (गौरव गीत )tag:openbooksonline.com,2011-12-05:5170231:BlogPost:1721492011-12-05T11:30:45.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div>सब धर्मों का एक सा आदर , ऐसा यहाँ आचार है.</div>
<div>होते हैं भगवान अतिथि , ऐसा यहाँ विचार है.</div>
<div>ये बिहार है ................ ये बिहार है.</div>
<div>महावीर का सन्देश है - यहाँ बुद्ध का उपदेश है.</div>
<div>यहाँ आर्य भट्ट का खगोल है - यहाँ माटी भी अनमोल है.</div>
<div>नालंदा का यहाँ ज्ञान है - यहाँ सीता का सम्मान है.</div>
<div>अशोक का है शौर्य यहाँ - आम्रपाली का सौन्दर्य यहाँ.</div>
<div>यहाँ बाल्मीकि का सृजन है - यहाँ गुरु गोविन्द का जन्म है.</div>
<div>शेरशाह का जोश है -…</div>
<div>सब धर्मों का एक सा आदर , ऐसा यहाँ आचार है.</div>
<div>होते हैं भगवान अतिथि , ऐसा यहाँ विचार है.</div>
<div>ये बिहार है ................ ये बिहार है.</div>
<div>महावीर का सन्देश है - यहाँ बुद्ध का उपदेश है.</div>
<div>यहाँ आर्य भट्ट का खगोल है - यहाँ माटी भी अनमोल है.</div>
<div>नालंदा का यहाँ ज्ञान है - यहाँ सीता का सम्मान है.</div>
<div>अशोक का है शौर्य यहाँ - आम्रपाली का सौन्दर्य यहाँ.</div>
<div>यहाँ बाल्मीकि का सृजन है - यहाँ गुरु गोविन्द का जन्म है.</div>
<div>शेरशाह का जोश है - उस जोश में पर होश है.</div>
<div>यहाँ कुँअर का स्वाभिमान है - गंगा को दिया बलिदान है..</div>
<div>यहाँ गाँधी का आगाज़ है - जीने का एक अंदाज़ है.</div>
<div>शिक्षा यहीं से है शुरू - यह विश्व का आदि गुरु.</div>
<div>गणतंत्र का आधार है - गंगा की पावन धार है.</div>
<div>ये बिहार है ................ ये बिहार है.</div>
<div>विद्द्यापति का गान है - भिखारी की यहाँ तान है.</div>
<div>चैता यहाँ, यहाँ फाग है - कजरी, बिदेसिया राग है.</div>
<div>सोरठी का अपना अलग रंग - लोरिकायन का है धुन दबंग.</div>
<div>झिझिया पे थिरके हर कदम - यहाँ <span id="6_TRN_4z"><span id="6_TRN_51">ज्ञान</span> - कला का है संगम.</span></div>
<div><span>यहाँ यार के लिए प्यार है - अपनों का यह घर-बार है.</span></div>
<div>जो करते हम पर वार हैं - तो हर नज़र तलवार है.</div>
<div>ये बिहार है ................ ये बिहार है.</div>
<div> गीतकार - सतीश मापतपुरी</div>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-11-07:5170231:BlogPost:1644112011-11-07T14:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163891" target="_blank">अंक 8 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>------------- अंक - 9 --------------</p>
<p>रात्रि के 12 बज रहे थे. सिंह साहेब के सम्मान में एक बड़ी दवा कम्पनी ने राजधानी के एक शानदार होटल में भोज का आयोजन किया था. प्रबल बाबू उस दुनिया से बेखबर हो चुके थे, जहाँ गरीबी रेखा से भी नीचे लोग अपना जीवन बसर करते…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163891" target="_blank">अंक 8 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>------------- अंक - 9 --------------</p>
<p>रात्रि के 12 बज रहे थे. सिंह साहेब के सम्मान में एक बड़ी दवा कम्पनी ने राजधानी के एक शानदार होटल में भोज का आयोजन किया था. प्रबल बाबू उस दुनिया से बेखबर हो चुके थे, जहाँ गरीबी रेखा से भी नीचे लोग अपना जीवन बसर करते हैं. जहाँ ऐसे बच्चे भी हैं जिनका बचपन किसी न किसी होटल या ढाबा में गिरवी पड़ा है... . जहाँ ऐसी जवानी भी है जिसे अपनी नग्नता छिपाने के लिए प्रयाप्त वस्त्र नहीं है .... जहाँ ऐसी इंसानियत भी है जिसे सर छिपाने के लिए छत नहीं है. </p>
<p>पार्टी अपने यौवन पर थी कि चम्मन ने बीच में खलल डाल दी. चम्मन प्रबल बाबू का आप्त सचिव था. चम्मन ने धीरे से फुसफुसा कर जो बात कही उसे सुनकर प्रबल बाबू जोर से चीखे - 'क्या ?' फिर वे एक पल भी वहाँ नहीं ठहरे. रंजन की बीमारी की खबर सुनते ही वे सकते में आ गए थे. प्रबल बाबू के घर पहुँचने से पहले डॉक्टर पहुँच चुके थे. रंजन का शरीर तेज बुखार में तप रहा था. डॉक्टरों के अथक प्रयास के बाद भी जब रंजन की स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो उसे बड़े अस्पताल में भर्ती कराया गया. तेज बुखार के कारण रंजन <span id="6_TRN_6q">बड़बड़ाने लगा था. वह सिंह साहेब की तरफ देखकर बार -बार कहता था -' पापा मुझे बचा लो. सेव मी ............ मैं जीना चाहता हूँ '</span></p>
<p><span id="6_TRN_6q">अपने लख्तेजिगर की करुण पुकार</span> <span>सिंह साहेब का कलेजा बेध रही थी. मंत्री बनने के बाद प्रबल बाबू पहली बार अपने को असहाय महसूस कर रहे थे. शासन <span id="6_TRN_8h">के विधान पर तो उनका वश था, पर यह तो विधि का विधान था. ........</span></span></p>
<p><span><span id="6_TRN_8h">(क्रमश :)</span></span></p>
<p><span><span><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:172616" target="_blank">अंक 10 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></span></span></p>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-11-06:5170231:BlogPost:1638912011-11-06T09:00:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163983" target="_blank">अंक 7 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 8 --------------</p>
<p>प्रबल प्रताप सिंह अब पूरी तरह बदल चुके थे. उनकी ममता को नैतिकता की वेदी पर अपने बच्चों का भविष्य कुर्बान करना गंवारा नहीं था. जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. उत्थान से…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163983" target="_blank">अंक 7 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 8 --------------</p>
<p>प्रबल प्रताप सिंह अब पूरी तरह बदल चुके थे. उनकी ममता को नैतिकता की वेदी पर अपने बच्चों का भविष्य कुर्बान करना गंवारा नहीं था. जीवन एक चढ़ान का नाम है, जहाँ से इंसान एक बार फिसलता है तो गिरता ही चला जाता है. उत्थान से अवसान रंगीन होता है और यही रंगीनी मंजिल तक पहुँचने से रोकती है. सिंह साहेब को दौलत की तराजू में इंसानियत को तौलना आ चुका था. नकली दवाओं से लोग मरते रहे और प्रबल बाबू मुआवजा की घोषणा के साथ गहरी सहानुभूति व्यक्त करते रहे. कितनी अधखिली कलियाँ असमय कुम्हला गयी पर सिंह साहेब का गुलशन गुलज़ार होता रहा. अब वे जन - प्रतिनिधि नहीं, एक लोकप्रिय सरकार के मंत्री थे. कल तक सदन में सिंह की तरह दहाड़ने वाले सिंह साहेब को पांच सितारा होटल में ऐश करने का सलीका आ चुका था. सिंह ने मखमल का लिहाफ ओढ़ लिया था. दवा के नकली कारोबारियों के जेहन से जैसे ही प्रबल बाबू का खौफ ख़तम हुआ उनकी हिम्मत और बढ़ गयी. शासन का संरक्षण अपराधियों को दुस्साहसी बना देता है.</p>
<p> अपने पुत्र रंजन प्रताप सिंह को विदेश में पढ़ाने का सिंह साहेब ने दृढ़ निश्चय कर लिया था. उनका यह मानना था कि जब तक रंजन विदेश से ऊँची डिग्री लेकर लौटेगा तब तक सरकारी हलकों में उनका अच्छा दबदबा हो चुका रहेगा. उनकी तमन्ना थी कि एकदिन भारत के क्षितिज पर रंजन नक्षत्र के समान प्रकाशमान हो, पर उनकी तमाम कोशिशों के बाद भी रंजन का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता था. उसे यदि जुकाम होता तो डॉक्टरों की लम्बी कतार लग जाती. अपनी शान वो शौकत देखकर प्रबल बाबू को एक अज़ीब आनंद की अनुभूति होती. मनुष्य वर्त्तमान में जीने का आदी होता है और वर्त्तमान इतना स्वार्थी होता है कि भविष्य के बारे में सोचने तक की मोहलत नहीं देता. ........................................... (क्रमश:)</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:164411" target="_blank">अंक 9 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-11-05:5170231:BlogPost:1639832011-11-05T06:00:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163736" target="_blank">अंक 6 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 7 --------------</p>
<p> प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163736" target="_blank">अंक 6 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 7 --------------</p>
<p> प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ 'आज समाज में आपकी प्रतिष्ठा है, आपके पास बंगला - मोटर, नौकर - चाकर क्या नहीं है ? ' ............ उमाकांत जी को पता था कि सिंह साहेब के पास बाप -दादाओं की छोड़ी हुई कोई बड़ी सम्पति नहीं है. ................. उमाकांत जी ने अपना धाराप्रवाह व्याख्यान जारी रखा - ' प्रबल बाबू ! मैं जानता हूँ, आप निष्कपट, निश्छल और सरल ह्रदय के सज्जन व्यक्ति हैं. सच मानिए, मैं आपका शुभेच्छु हूँ .................... कल जब आप मंत्री नहीं होंगे, तो क्या ये आदर्श, ये विचार आपके परिवार को एक वक़्त का भोजन दे सकते हैं ?............यह दुनिया उसीके सामने झुकती है सिंह साहेब, जिसका समाज में स्टेटस होता है .............. मैं ये नहीं कहता कि लोगों की मदद न करें, जनहित एवं लोकहित की भावना न रखें ............. बस मैं ये कहना चाहता हूँ कि व्यावहारिक बनिए ................... नैतिकता अभाव की संतान है किन्तु, आपको तो किस्मत ने सब कुछ दिया है प्रबल बाबू. आप जन नेता होने के साथ एक पिता भी हैं, क्या आपको शौक नहीं होगा कि आपकी बेटी किसी रईस और सम्पन्न घराने की बहु हो ? ........... बेटा विदेश में उच्च शिक्षा प्राप्त करे ? मैं आपके बड़े भाई के समान हूँ, गलत सलाह नहीं दूंगा.' अध्यक्ष महोदय के व्यक्तिवादी भाषण की आशातीत प्रतिक्रया हुई. आज का इंसान इस कदर कमजोर हो चुका है कि स्वार्थ से टक्कर होते ही टूट जाता है. संगत से गुण होत है - संगत से गुण जात, ये कहावत एक बार फिर अपनी प्रासंगिकता सिद्ध करने जा रही थी. पता नहीं, वो लोग कैसे होते हैं, जिनके लिए कहा गया है कि चन्दन विष व्यापत नहीं लिपटे रहत भुजंग. प्रबल प्रताप सिंह का चरित्र - निर्माण करनेवाले तत्वों में ही शायद कोई खोट थी.</p>
<p> प्रबल प्रताप सिंह को अब यही सोचना हितकर लग रहा था कि उनका इकलौता पुत्र विदेशों में शिक्षा ग्रहण करके उनका नाम रौशन करे - बिटिया शीला किसी बड़े घराने की बहु बने और इन सपनों को मूर्त रूप देने के लिए नैतिकता की नहीं - संपदा की आवश्यकता होगी. इंसान जैसा सोचता है - स्थितियाँ वैसी ही नज़र आती हैं. गोस्वामी जी की कल्पना साकार हो रही थी कि - जाके ह्रदय भावना जैसी, प्रभु मूरत देखि तिन तैसी. इंसान के भीतर का शैतान अनुकूल वातावरण पाते ही अंगड़ाई लेकर जाग उठता है. .............. (क्रमश:)</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163891" target="_blank">अंक 8 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-11-03:5170231:BlogPost:1637362011-11-03T20:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div><br></br><p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163815" target="_blank">अंक 5 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 6 ---------------</p>
<p>दोषी लोगों को सज़ा दिलाने के लिए प्रबल प्रताप सिंह कृतसंकल्प थे, किन्तु राजनीतिक हलकों में उनकी पहुँच अच्छी थी. पार्टी अध्यक्ष उमाकांत ने सिंह साहेब से स्वयं मिलकर कहा - ' आपने जिन लोगों को दोषी करार दिया…</p>
</div>
<div><br/><p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163815" target="_blank">अंक 5 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 6 ---------------</p>
<p>दोषी लोगों को सज़ा दिलाने के लिए प्रबल प्रताप सिंह कृतसंकल्प थे, किन्तु राजनीतिक हलकों में उनकी पहुँच अच्छी थी. पार्टी अध्यक्ष उमाकांत ने सिंह साहेब से स्वयं मिलकर कहा - ' आपने जिन लोगों को दोषी करार दिया है, वे अपनी पार्टी के शुभचिंतक हैं.'</p>
<p>अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर प्रबल बाबू आवाक रह गए. खीज कर उन्होंने कहा - 'पार्टी के शुभचिंतकों को गैरकानूनी हरकतों की छूट है क्या? ' सिंह साहेब की बातों से उनके इरादों का स्पष्ट आभास हो रहा था. अध्यक्ष के बार-बार कहने के बावजूद जब प्रबल बाबू ने नरम रुख नहीं अपनाया तो उन्होंने भी अपना तेवर तल्ख़ कर लिया - ' आपको ये मालूम होना चाहिए कि उनलोगों की पहुँच आलाकमान तक है, यदि वहाँ से <span id="6_TRN_3q"><span id="6_TRN_3r"><span id="6_TRN_3s"><span id="6_TRN_3t">आपको</span></span></span></span> पदमुक्त करने का निर्देश आ जाय तो मैं चाहकर भी कुछ नहीं कर पाऊँगा.' </p>
<p>फिर भी प्रबल बाबू के रुख में कोई नरमी नहीं आई- ' मैं त्यागपत्र देने को प्रस्तुत हूँ. मुझे मंत्री-पद से अधिक उन वादों का ख्याल है, जो मैंने भोले-भाले लोगों से किया है.' अध्यक्ष उमाकांत ने कुर्सी पर पहलू बदलते हुए कहा - ' आप में जोश तो है प्रबल बाबू पर होश नहीं है. राजनीतिज्ञ को एक साथ दोहरी ज़िन्दगी जीनी पड़ती है, एक चौराहे की और एक घर की. चौराहे पर उसके सामने भोली-भाली जनता होती है, जहाँ तरह-तरह के वादे कर देने भर से काम निकल सकता है, किन्तु घर पर उसके सामने बीवी और बच्चे होते हैं, जहाँ वह मात्र पति और पिता होता है. सिंह साहेब, ज़िन्दगी उपदेशों से नहीं पैसों से आगे बढ़ती है. महाराणा प्रताप की दास्तान सब कह सकते हैं पर महाराणा प्रताप बन नहीं सकते. हकीक़त को झुठलाकर इंसान सिर्फ अपने को ही धोखा दे सकता है. आपके सामने आपके बच्चों का भविष्य है.' </p>
<p>प्रबल बाबू की खामोशी यह बता रही थी कि उनके भीतर विचारों का सैलाब उमड़ रहा है. कहीं नेक विचार उनके भीतर के जग रहे शैतान को पराजित न कर दे, यह सोचकर अध्यक्ष ने उनकी स्वार्थपरता को हवा देना जारी रखा. ........ <br/> (क्रमश:)</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163983" target="_blank">अंक 7 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
</div>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-11-02:5170231:BlogPost:1638152011-11-02T21:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163179" target="_blank">अंक 4 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 5 ---------------</p>
<p>... एक दिन सुबह-सुबह प्रबल बाबू ने समाचार पत्र उठाया ही था किउन्हें सांप सूंघ गया... " नकली दवा के कारण सात लोगों की मौत "</p>
<p>खबर ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया. समाचार के विस्तार में लिखा था -- " सरकारी अस्पताल…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163179" target="_blank">अंक 4 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 5 ---------------</p>
<p>... एक दिन सुबह-सुबह प्रबल बाबू ने समाचार पत्र उठाया ही था किउन्हें सांप सूंघ गया... " नकली दवा के कारण सात लोगों की मौत "</p>
<p>खबर ने तो उन्हें झकझोर कर रख दिया. समाचार के विस्तार में लिखा था -- " सरकारी अस्पताल में दवा उपलब्ध न होने के कारण उपभोक्ताओं को नजदीकी दवा-दुकानों से ही दवा खरीदनी पड़ी थी, जो यथार्थ में नकली थी"</p>
<p>प्रबल प्रताप सिंह आवाक रह गए. उन्हें यह समझ में नहीं आ रहा था कि वह स्वास्थ्य मंत्री हैं फिर इसकी जानकारी उनसे पहले अखबारनवीसों को कैसे हो गयी ? उन्हें लगा किसी ने उनके कलेजे को अपनी मुट्ठी में भींच लिया है. गुस्से में वह अध्यक्ष उमाकांत को फोन करने ही जा रहे थे कि उनका सचिव पी.के. माथुर ने उन्हें यह कहते हुए रोक लिया -- ' ये क्या करने जा रहे जा रहें हैं सर... ? ’</p>
<p>प्रबल बाबू ने अर्थपूर्ण निगाहों से माथुर की तरफ देखा. माथुर ने उन्हें समझाते हुए कहा - ' मंत्री- पद का यह ताज काँटों का ताज है सर.... अपने ही आपको बदनाम करने में लग गए हैं ... बाहर वालों से निपटना आसान होता है... अन्दर वालों से बचना भी मुश्किल होता है.. '</p>
<p>प्रबल बाबू को लगा कि माथुर उनका सचिव नहीं, भाई है. बिना सोचे-समझे उठे और माथुर के गले लग गए. मंत्री पी. पी. सिंह ने विभाग को ख़ास हिदायत दे रखी थी कि राज्य के सभी अस्पतालों में दवा का समुचित स्टॉक रखा जाय. मंत्री जी ने प्रभावित क्षेत्र का दौरा किया और जाँच के दौरान तीन डाक्टरों और दो दवा-विक्रताओं को इस घटना के लिए दोषी पाया. उन्होंने तत्काल प्रभाव से दोनों डाक्टरों को निलम्बित कर दिया और दोनों दवा-विक्रताओं के खिलाफ़ एफ़आइआर दर्ज करवा दिया.</p>
<p>(क्रमश:)</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163736" target="_blank">अंक 6 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-11-01:5170231:BlogPost:1631792011-11-01T20:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p>-------------- अंक - 4 --------------- '</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163232" target="_blank">अंक 3 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>मैं कुछ समझा नहीं ..' प्रबल बाबू के माथे <span>पर</span> बल पड़ गए थे. उनकी इस असहज स्थिति का लाभ उठाने में उमाकान्त जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने सपाट से चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उन्होंने तत्क्षण कहा -…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p>-------------- अंक - 4 --------------- '</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163232" target="_blank">अंक 3 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>मैं कुछ समझा नहीं ..' प्रबल बाबू के माथे <span>पर</span> बल पड़ गए थे. उनकी इस असहज स्थिति का लाभ उठाने में उमाकान्त जी ने कोई कसर नहीं छोड़ी. अपने सपाट से चेहरे पर कुटिल मुस्कान लाते हुए उन्होंने तत्क्षण कहा - 'यही तो मैं कहना चाह रहा हूँ. आप कुछ समझते ही नहीं.'</p>
<p>सिंह साहेब की उलझन और बढ़ गयी - 'जी.' बड़े ही आत्मीय ढंग से उमाकांत जी ने कहा - 'अरे साहेब, पार्टी ने अपने चुनावी-घोषणा पत्र में जो भी वादा किया है, उसको अमली जामा पहनाने के लिए, मैं आपका मंत्री के रूप में सहयोग चाहता हूँ.'</p>
<p>अध्यक्ष महोदय की पैनी निगाहें लगातार सिंह साहेब के चेहरे पर आ रहे रंगों का बारीकी से निरीक्षण कर रही थीं. अचानक प्रबल बाबू ने पूछ दिया- ' क्या यह पद ज़ुबान बंद रखने की कीमत है ?'</p>
<p>उमाकांत बाबू ने भी उसी लहजे में कहा - 'नहीं, ज़ुबान खोलने का पुरस्कार है .'</p>
<p>अध्यक्ष महोदय की बातों से प्रबल बाबू को लगा कि सचमुच प्रदेश को उनकी जरुरत आन पड़ी है. उन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन ही जन-कल्याण के लिए अर्पित कर दिया था. जनहित और राज्यहित के मद्देनज़र उन्होंने मंत्री-पद स्वीकार कर लिया, अन्यथा मंत्री बनने की उनकी कोई लालसा नहीं थी. प्रबल प्रताप सिंह को प्रदेश का स्वास्थ्य मंत्री बनाया गया. उन्हें क्या पता था कि श्वेत कुरता पहनने वाले उमाकांत जी की गंजी मैली है.</p>
<p>प्रबल प्रताप सिंह को स्वास्थ्य मंत्री का पद सम्हाले मात्र तीन माह ही बीते थे कि उनके मंत्रित्व काल में स्वास्थ्य विभाग के कार्यों में निःसंदेह एक चुस्ती आयी तथा सरकारी अस्पतालों की दवा की बाज़ार में बिक्री का प्रतिशत भी घटा. उन्होंने स्वयं को एक मंत्री के रूप में नहीं, जन सेवक के रूप में ढाला. उनकी छत्रछाया में कदाचार दम तोड़ने लगी और नैतिकता शैशवावस्था को छोड़कर जवानी की दहलीज़ पर कदम रखने लगी. प्रबल बाबू ने स्वस्थ प्रशासन का मानदण्ड प्रस्तुत करने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर दिया. उनका अधिकांश समय विभागीय कार्यवाहियों में ही जाया होता. एक दिन .................</p>
<p>(क्रमश:)</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163815" target="_blank">अंक 5 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-10-31:5170231:BlogPost:1632322011-10-31T20:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div><br></br><p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163128" target="_blank">अंक 2 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 3 ---------------</p>
<p>प्रबल बाबू को अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर कुछ खटका सा लगा और उन्होंने बीच में ही <span id="6_TRN_5n">उन्हें टोकते हुए कहा -</span><span id="6_TRN_5n"> 'शायद, इस प्रसंग पर बात करने के लिए यह उचित समय नहीं…</span></p>
</div>
<div><br/><p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163128" target="_blank">अंक 2 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>-------------- अंक - 3 ---------------</p>
<p>प्रबल बाबू को अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर कुछ खटका सा लगा और उन्होंने बीच में ही <span id="6_TRN_5n">उन्हें टोकते हुए कहा -</span><span id="6_TRN_5n"> 'शायद, इस प्रसंग पर बात करने के लिए यह उचित समय नहीं है.'</span></p>
<p><span id="6_TRN_5n">अध्यक्ष भी मंजे हुए व्यक्ति थे, उन्होंने सिंह साहेब को यह कहकर निरुत्तर कर दिया - 'शायद आपको भूख लगी है? .. मैं खाने के लिए कुछ यहीं मँगा लेता हूँ '.</span></p>
<p><span id="6_TRN_5n">प्रबल बाबू</span> को <span id="6_TRN_5n">तत्क्षण कोई सटीक जवाब सूझ नहीं पा रहा था. उमाकांत जी की अनुभवी निगाहें सिंह साहेब के चेहरे का सूक्ष्म निरीक्षण कर रही थीं. वो कुछ बोलते, इसके पहले उमाकांत जी ही बोल पड़े - 'प्रबल बाबू ! हमलोग जनता के सेवक हैं, मिल-बैठ कर बातें करने का अवसर भला मिलता कहाँ है? ... इसे तो एक संयोग ही मानिए कि हम इस तरह अकेले आमने-सामने बैठे हैं. मैं यहीं खाना मँगवा लेता हूँ, खाते भी रहेंगे और बातें भी होती.. ’</span></p>
<p><span id="6_TRN_5n">प्रबल बाबू समझ चुके थे कि वो जाल में फँस चुके हैं. अनमने ढंग से उन्होंने कहा - 'नहीं, इसकी कोई जरुरत नहीं है.'</span></p>
<p>अध्यक्ष महोदय ने कुर्सी पर पहलू बदलते हुए कहा - 'प्रबल बाबू, मुझे प्रशंसक नहीं आलोचक ही पसंद हैं, जो जाने-अनजाने हो रही गलतियों का एहसास करा सकें. मुझे फ़ख्र है कि मेरी पार्टी का एक विधायक अत्यंत ईमानदार है और उसे ज़िम्मेदार बनाने का मुझे पूरा अधिकार है.'</p>
<p>यह कहते हुए उमाकांत जी ने अपनी गिद्ध-दृष्टि प्रबल प्रताप के चेहरे पर गड़ा दी. प्रबल बाबू हा.. किये उनकी तरफ देख रहे थे. अध्यक्ष की पैनी निगाहें सिंह साहेब के चेहरे पर आ रही शिकन और भावों की पड़ताल कर रहीं थीं. अब अध्यक्ष ने अमोघ अस्त्र का वार करना ही उचित समझा. ......... </p>
<p>(क्रमश:)</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163179" target="_blank">अंक 4 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
</div>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-10-30:5170231:BlogPost:1631282011-10-30T18:00:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी.</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163072" target="_blank">अंक 1 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>.............. अंक -- 2 .....................</p>
<p>राज्य के विधायकों में पी. पी. सिंह का एक अलग ही स्थान था. अपनी स्पष्टवादिता एवं निर्भीकता के लिए वे विख्यात थे.सत्तापक्ष के विधायक होने के बावजूद भी सरकार की गलत नीतियों की आलोचना वे सार्वजनिक रूप में किया…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी.</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163072" target="_blank">अंक 1 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>
<p>.............. अंक -- 2 .....................</p>
<p>राज्य के विधायकों में पी. पी. सिंह का एक अलग ही स्थान था. अपनी स्पष्टवादिता एवं निर्भीकता के लिए वे विख्यात थे.सत्तापक्ष के विधायक होने के बावजूद भी सरकार की गलत नीतियों की आलोचना वे सार्वजनिक रूप में किया करते थे. जब पी.डब्लू. डी. मंत्री ने अपने एक रिश्तेदार को गलत ढंग से ठेका दे दिया था तो विधान सभा में विपक्ष के साथ-साथ प्रबल बाबू भी सरकार पर बरस पड़े थे. उनका यह तेवर देखकर पार्टी <br/> अध्यक्ष गहरी सोच में पड़ गए. उन्हें महसूस हुआ कि यदि इस शेर को पिंजड़े में बंद नहीं किया गया तो सरकार की सेहत को खतरा हो सकता है. इंसान को दुर्बल करने के लिए उसकी आत्मा को मारना होता है. पार्टी अध्यक्ष उमाकांत ने शेर के सामने माँस का लोथड़ा डालना ही उचित समझा. उमाकांत ने बड़ी ही आत्मीयता एवं प्यार से प्रबल बाबू को अपने आवास पर रात्रि भोज पर आमंत्रित किया. <span id="6_TRN_6w"><span id="6_TRN_6x"> </span>बमुश्किल दो वक़्त की रोटी कमाने वाले वे लोग, शायद इस तरह के भोज की प्रकृति एवं प्रवृति के सन्दर्भ में अनुमान भी नहीं लगा सकते, जो चुनाव के वक़्त जनता से जनार्दन बन जाते हैं. शिष्टाचार में दिए जाने वाले इस तरह के भोज में भोजन की प्रधानता होती ही नहीं है.</span></p>
<p><span id="6_TRN_6w">उमाकांत जी के यहाँ भी यही हुआ. उमाकांत जी की शारीरिक संरचना उनकी सम्पन्नता का मूक बखान करती थी. चेहरे पर सौम्यता लाने का <br/> वो लाख कोशिश करते थे..... फिर भी पारखी नज़र रखनेवालों की नज़र से उनके चेहरे के कोने में पसरी कुटिलता छिप नहीं पाती थी. उन्होंने प्रबल प्रताप सिंह की तारीफ़ के पुल बाँधते हुए कहा - '<span id="6_TRN_6w">आप जैसे निर्भीक एवं ईमानदार व्यक्ति ही लोकतंत्र के सच्चे प्रहरी हो सकते हैं. मुझे सख्त अफसोस है कि यह प्रदेश आज तक आपके सक्रिय योगदान से वंचित रहा.......' </span></span></p>
<p><span id="6_TRN_6w"><span id="6_TRN_6w">प्रबल बाबू को अध्यक्ष महोदय की बातें सुनकर कुछ खटका सा लगा और उन्होंने बीच में ही <span id="6_TRN_5n">अध्यक्ष महोदय को .....</span></span></span><span><span><span> <br/> (क्रमश:)</span></span></span></p>
<p><span><span><span><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163232" target="_blank">अंक 3 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></span></span></span></p>त्यागपत्र (कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-10-29:5170231:BlogPost:1630722011-10-29T21:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p>................ अंक -- एक ...................</p>
<p>'प्रबल प्रताप ज़िन्दावाद ' के नारे से पंडाल गूंज उठा. पी. पी.सिंह के नाम से जाने जानेवाले प्रबल प्रताप सिंह के मंत्री बनने के उपलक्ष में इस समारोह का आयोजन हुआ था. जनता - जनार्दन के बीच उनकी अच्छी -खासी लोकप्रियता थी. उनके दर्शनार्थ भीड़ उमड़ पड़ी थी. गिरधरपुर निर्वाचन -क्षेत्र की जनता - जनार्दन को नाज़ था कि वो प्रदेश को एक मंत्री देने का गौरव हासिल करने जा रहे हैं.सच ही तो है…</p>
<p>त्यागपत्र (कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p>................ अंक -- एक ...................</p>
<p>'प्रबल प्रताप ज़िन्दावाद ' के नारे से पंडाल गूंज उठा. पी. पी.सिंह के नाम से जाने जानेवाले प्रबल प्रताप सिंह के मंत्री बनने के उपलक्ष में इस समारोह का आयोजन हुआ था. जनता - जनार्दन के बीच उनकी अच्छी -खासी लोकप्रियता थी. उनके दर्शनार्थ भीड़ उमड़ पड़ी थी. गिरधरपुर निर्वाचन -क्षेत्र की जनता - जनार्दन को नाज़ था कि वो प्रदेश को एक मंत्री देने का गौरव हासिल करने जा रहे हैं.सच ही तो है .............. सिंह साहेब ही वे पहले व्यक्ति थे जिन्होनें गिरधरपुर को यह सम्मान दिया था . इकट्ठी भीड़ उन्हें माल्यार्पण करने को बेताब थी.लोग उनके सामने तरह -तरह की मांगे रख रहे थे................. कोई कह रहा था- ' इस एरिया में एगो हासपिटल होना चाहिए '.............. एक ने कहा - 'सरकार! खेती के लिए सिंचाई का परमानेंट कुछ होना चाहिए ' तो एक ने कहा - ' माई -बाप, सिक्युरिटी के लिए पुलिस चौकी तो चाहिए ही चाहिए ' .......................... भोले -भाले लोग तो यही समझ बैठे थे कि सिंह साहेब इस क्षेत्र का पिछड़ापन दूर कर ही देंगे ....................... जहां तक तक प्रबल प्रताप की ईमानदारी की बात है, उनकी समता करने वाला इस क्षेत्र में शायद और कोई नहीं था. आम लोग उनकी दरियादिली के कायल थे .................... उनका विशिष्ट आचरण औरो के लिए उदाहरण -स्वरूप था. जनता की नज़रों में तो वे अब और महान हो चुके थे क्योंकि पिछले स्वास्थ मंत्री को हटाकर पार्टी ने उन्हें यह सम्मान दिया था.................... लेकिन, उन्हें यह मंत्री-पद कैसे मिला था, ये राज़ सिर्फ वे ही जानते थे ........... क्रमश:</p>
<p><b><span style="color: #660000;"><a href="http://www.openbooksonline.com/profiles/blogs/5170231:BlogPost:163128" target="_blank">अंक 2 पढ़ने हेतु यहाँ क्लिक करे</a></span></b></p>दिवाली का रूप बदल गयाtag:openbooksonline.com,2011-10-26:5170231:BlogPost:1615902011-10-26T09:13:55.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से नियति मलिन हुई है, अर्द्धरात्रि में धूप निकल गया.</p>
<p>पर पीड़ा पर होने वाली, धड़कन जानें कहाँ गयी?</p>
<p>संवेदना- चेतना - निष्ठा, मानवता अब कहाँ गयी ?</p>
<p>जब से नफ़रत- क्रोध बसा है, इंसानों का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p>रीति - रिवाज़ में लोग बाग. अब छिपकर सेंध लगाते हैं.</p>
<p>पटाखों के बीच, गोलियों का भी शोर मिलाते हैं.</p>
<p>जब से इसका चलन हुआ है, पर्व - त्यौहार का रूप बदल…</p>
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से नियति मलिन हुई है, अर्द्धरात्रि में धूप निकल गया.</p>
<p>पर पीड़ा पर होने वाली, धड़कन जानें कहाँ गयी?</p>
<p>संवेदना- चेतना - निष्ठा, मानवता अब कहाँ गयी ?</p>
<p>जब से नफ़रत- क्रोध बसा है, इंसानों का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p>रीति - रिवाज़ में लोग बाग. अब छिपकर सेंध लगाते हैं.</p>
<p>पटाखों के बीच, गोलियों का भी शोर मिलाते हैं.</p>
<p>जब से इसका चलन हुआ है, पर्व - त्यौहार का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p>स्पंदन करने वाला दिल, क्यों संवेदनहीन हुआ?</p>
<p>प्यार के धन से जो अमीर था, क्यों अब इतना दीन हुआ?</p>
<p>निष्क्रियता - निष्ठुरता से, इस समाज का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p>इस दीपावली पर हम सबको, एक वचन देना होगा.</p>
<p>भ्रष्टाचारी - व्यभिचारी का, हर हिसाब लेना होगा.</p>
<p>फिर सब देखेंगे कि कैसे, गाँव - नगर का रूप बदल गया.</p>
<p>जब से दिल दिवाल हुआ है, दिवाली का रूप बदल गया.</p>
<p> गीतकार - सतीश मापतपुरी</p>दीपावली हार्दिक शुभकामनाएंtag:openbooksonline.com,2011-10-25:5170231:BlogPost:1615862011-10-25T21:23:04.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<div>कीजिये कामना सबके अपने मिले.</div>
<p>सबकी आँखों को सुन्दर से सपने मिले.</p>
<p>सारी धरती पे खुशियों की बरसात हो.</p>
<p>ईद का दिन - दिवाली की हर रात हो.</p>
<p>OBO परिवार के सभी सदस्यों को दीपावली हार्दिक शुभकामनाएं.</p>
<div>कीजिये कामना सबके अपने मिले.</div>
<p>सबकी आँखों को सुन्दर से सपने मिले.</p>
<p>सारी धरती पे खुशियों की बरसात हो.</p>
<p>ईद का दिन - दिवाली की हर रात हो.</p>
<p>OBO परिवार के सभी सदस्यों को दीपावली हार्दिक शुभकामनाएं.</p>होना चाहिएtag:openbooksonline.com,2011-10-24:5170231:BlogPost:1616702011-10-24T19:23:41.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p> </p>
<div>हुस्न है तो हुस्न का सिंगार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>है किसी से इश्क तो इज़हार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>गर क़यामत आ भी जाए तो भी कोई ग़म नहीं.</div>
<p> </p>
<div>बस नज़र में खुबसूरत प्यार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>जीतने के बाद गिरगिट सा बदलते रंग जो.</div>
<p> </p>
<div>उनको वापस लाने का अधिकार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>ताज़ और तख़्त का कब का ज़माना लद गया.</div>
<p> </p>
<div>आज तो जनहित का ही सरोकार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>चाहते हैं हमसे वो जुड़ना…</div>
<p> </p>
<div>हुस्न है तो हुस्न का सिंगार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>है किसी से इश्क तो इज़हार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>गर क़यामत आ भी जाए तो भी कोई ग़म नहीं.</div>
<p> </p>
<div>बस नज़र में खुबसूरत प्यार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>जीतने के बाद गिरगिट सा बदलते रंग जो.</div>
<p> </p>
<div>उनको वापस लाने का अधिकार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>ताज़ और तख़्त का कब का ज़माना लद गया.</div>
<p> </p>
<div>आज तो जनहित का ही सरोकार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>चाहते हैं हमसे वो जुड़ना मगर कहते न कुछ.</div>
<p> </p>
<div>कुछ भी हो रिश्ते का एक आधार होना चाहिए.</div>
<p> </p>
<div>गीतकार - सतीश मापतपुरी</div>नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)tag:openbooksonline.com,2011-09-26:5170231:BlogPost:1544022011-09-26T16:30:00.000Zsatish mapatpurihttp://openbooksonline.com/profile/satishmapatpuri
<p>नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p>---------------अंतिम अंक --------------------</p>
<p><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"कौन है?" मैंने हड़बड़ाकर पूछा .</font></p>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif"><br></br></font><div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"साहब ,दरवाजा खोलिए, गजब हो गया ." रामरतन के स्वर में घबड़ाहट थी. मैंने दौड़कर…</font></div>
</div>
<p>नहीं आऊंगी ( धारावाहिक कहानी)</p>
<p>लेखक - सतीश मापतपुरी</p>
<p>---------------अंतिम अंक --------------------</p>
<p><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"कौन है?" मैंने हड़बड़ाकर पूछा .</font></p>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif"><br/></font><div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"साहब ,दरवाजा खोलिए, गजब हो गया ." रामरतन के स्वर में घबड़ाहट थी. मैंने दौड़कर दरवाजा खोला...........</font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif"><br/></font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"क्या बात है रामू ?"</font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif"><br/></font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"गजब हो गया साहब ,शालू बीबी ने स्टोव से तेल छिड़क कर अपने को बूरी तरह जला लिया है "</font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif"><br/></font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">मेरा कलेजा मुंह को आ गया .</font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif"><br/></font></div>
<div><font color="#241E1E" face="'Helvetica Neue', Helvetica, Arial, sans-serif">"शालू कहां है?"</font></div>
<div>"अस्पताल में साहब ." मैं इसी तरह दौड़ा हुआ अस्पताल पंहुचा .शालू बूरी तरह जल चुकी थी . उसका सुन्दर एवं आकर्षक चेहरा विकृत एवं डरावना हो चुका था. वर्माजी , मधु एवं उसकी मां फफक-फफक कर रो रहे थे .</div>
<div>संजय और संजीव सहमे हुए एक कोने में खड़े थे. मैं सीधे शालू के पास पंहुचा .</div>
<div>"शालू ,यह क्या कर लिया तुमने? मुझे सोचने का मौका तो दिया होता ." मैं लगभग रो पड़ा था. मेरी आर्द आवाज सुनकर वह मुश्किल से आँखें खोल सकी थी---"तुम्हारे अन्दर सोचने की भी हिम्मत नहीं है प्रसून ." अटक-अटक के शालू ने कहा . वह जिंदगी और मौत के बीच झूल रही थी . उसकी स्थिति देखकर स्पष्ट आभास हो रहा था कि जिंदगी की अपेक्षा मौत की पकड़ कहीं मजबूत थी .</div>
<div>"प्रसून...." आखें खोलने की चेष्टा करते हुए उसने कहा .</div>
<div>"हां शालू मैं यहीं हूं ......बोलो." मैं बच्चों की तरह रो रहा था . </div>
<div>"तुमको मैंने काफी परेशान किया , माफ करना ." धीरे-धीरे उसने अपने झुलसे हुए हाथ से मेरा हाथ पकड़ते हुए कहा-- "वादा करती हूं.....नहीं....आऊं.... ." उसके झुलसे हुए हाथ झूल गये . "शालू... ." मैं चिल्ला उठा . पर मेरी आवाज उस तक नहीं पहुंची . अकारण , बेबात एक बहुत बड़ी बात हो गयी.</div>
<div>एक अप्रत्याशित घटना घट गयी . शालू को समाज ने शक की वेदी पर बलि चढ़ा दिया . जब यीशु को इंसानों का समाज शूली पर लटका सकता है तो फिर शालू की क्या बिसात ? बनी-बनाई लीक पीटने वाली शालू की मां अब सर पीट रही थी. मैं फिर वहाँ ठहर नहीं सका . अपने क़दमों को घसीटते हुए बाहर आ गया .</div>
<div>"अंकल...." मैं सन्न रह गया .</div>
<div>"शा.... ." मेरा मुंह खुला रह गया . सामने शालू नहीं एक छोटी लड़की हाथ में कागज़ का चिट लिये मुझसे कुछ पूछना चाह रही थी , किन्तु मैंने उस तरफ ध्यान नहीं दिया . बेजान क़दमों से आगे बढ़ गया .</div>
<div>आज भी मैं अपने आपको शालू का कातिल समझता हूं . ऐसा लगता है कि अब दरवाजे पर आकर शालू खड़ी हो जाएगी , किन्तु ये मेरा भ्रम है जो विगत कई वर्षो से मुझे छलावा देता आ रहा है ..............................................(समाप्त)</div>
</div>
<p> </p>