D P Mathur's Posts - Open Books Online2024-03-29T10:43:11ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathurhttp://storage.ning.com/topology/rest/1.0/file/get/2991283829?profile=RESIZE_48X48&width=48&height=48&crop=1%3A1http://openbooksonline.com/profiles/blog/feed?user=3oj2emt46nkqh&xn_auth=noअभिव्यक्ति का एक प्रकार आलोचनाtag:openbooksonline.com,2013-09-30:5170231:BlogPost:4447062013-09-30T15:00:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>{सभी आदरणीय सजृनकर्ताओं को प्रणाम, एक माह तक भारतीय रेल सिगनल इंजीनियरी और दूरसंचार संस्थान , सिकन्दराबाद - आंध्र प्रदेश में नवीन तकनीकी ज्ञान अर्जन करने के कारण ओ बी ओ परिवार से दुर रहना पड़ा, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ । पुनः प्रथम रचना के रूप में यह आलेख प्रस्तुत है}</p>
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<p> हमारे जीवनयापन की आवश्यकताओं के बाद सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है हमारी अभिव्यक्ति अर्थात हमारी बोलने की जरूरत, जिसके बिना इंसान का जीवन कष्टमय हो जाता है । यदि किसी को कठोर सजा देनी होती है तो उसे…</p>
<p>{सभी आदरणीय सजृनकर्ताओं को प्रणाम, एक माह तक भारतीय रेल सिगनल इंजीनियरी और दूरसंचार संस्थान , सिकन्दराबाद - आंध्र प्रदेश में नवीन तकनीकी ज्ञान अर्जन करने के कारण ओ बी ओ परिवार से दुर रहना पड़ा, इसके लिए क्षमा चाहता हूँ । पुनः प्रथम रचना के रूप में यह आलेख प्रस्तुत है}</p>
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<p> हमारे जीवनयापन की आवश्यकताओं के बाद सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता होती है हमारी अभिव्यक्ति अर्थात हमारी बोलने की जरूरत, जिसके बिना इंसान का जीवन कष्टमय हो जाता है । यदि किसी को कठोर सजा देनी होती है तो उसे चुप रहने के लिए कहा जाता है। <br/> </p>
<p> जैसा कि हम जानते हैं कि प्रत्येक आयु वर्ग के इंसानों में ज्यादातर अलग अलग विषयों पर बातचीत की जाती है। छात्रों में अपने स्कूल, खेल आदि की बात की जाती है तो घरेलू महिलाओं में ज्यादातर घर परिवार या टी वी सीरियल तथा पास पड़ौस का विषय मुख्य होता है। इसी प्रकार कामकाजी महिलाओं, पुरूषों तथा बुजुर्गो के बातचीत के विषय अलग अलग होते हैं। ऐसा होेना स्वाभाविक भी है क्योंकि हम सभी का मानसिक ज्ञान , कार्य स्थली, संगी साथी तथा हमारे आस पड़ौस का वातावरण भिन्न भिन्न होता है।</p>
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<p> लेकिन क्या आपने ध्यान दिया है कि एक ऐसा सामान्य विषय है जिसका प्रयोग लगभग सभी आयुवर्ग और प्रोफेशन के लोगों द्वारा कभी कभी अपनी बातचीत में किया जाता है ! जी हाँ आप सही समझ रहे हैं हम यहां आलोचना के अनेक रूपों यथा व्याख्यात्मक ,सैद्धान्तिक ,निर्णयात्मक ,प्रभाविक आदि में से एक व्यवहारिक रूप की ही चर्चा कर रहे हैं।</p>
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<p> आलोचना करना या परनिन्दा करना एक ऐसा विषय है जिसकी अपनी कोई सीमा या परिभाषा नही होती वो प्रत्येक इंसान और स्थिती में बदल जाता है पर सदा मौजुद रहता है । किसी के बारे में विश्लेषण के लिये समालोचना की जाती है तब तक तो अच्छा है पर जब यह परनिन्दा का रूप ले लेती है तो बुराई की श्रैणी में आ जाती है। आलोचना के इस रूप को जाने अनजाने हम सभी अपनी वार्तालाप में स्थान दे ही देते हैं।</p>
<p><br/> दरअसल आलोचना का अर्थ है किसी भी इंसान या वस्तु के सभी अच्छे बुरे गुण एवं दोषों को अच्छी तरह परख कर उसकी विवेचना या समीक्षा करना। इस विधा का उपयोग करने से जिसकी आलोचना की जाती है उसे अपनी कला में और सुधार करने की प्रेरणा मिलती है किन्तु यह बीते जमाने की बात हो गई प्रतीत होती है आजकल की आधुनिक आलोचना तो बस व्यक्तिगत निन्दा का ही रूप धारण कर चुकि है एवं पहले की भाँति अब किसी की आलोचना करना प्रोत्साहित करने की बजाय उसके दिल को ठेस पहुँचाने का कार्य करता है। इतना ही नही आज धन का उपयोग कर कुछ धनाढ़य अन्य साहित्यकारों की रचनाओं को अपनी रचना घोषित करवा कर अपने पक्ष में प्रशंसा वाली व्याख्या और विश्लेषण करवाने में भी कामयाब हो जाते हैं।</p>
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<p> महिलाओं के बारे में यह किवंदती है कि वे निन्दा अधिक करती हैं लेकिन सच में ऐसा नही है। पुरूषों द्वारा भी समान रूप से निन्दा की जाती है लेकिन उनकी निन्दा दिखाई नही दे पाती क्योंकि पुरूष कम बोलते हैं और महिलाएं अधिक बोलती हैं। यदि दोनो के बोलने के अनुपात में निंदा का आकलन किया जाये तो प्रतिशत में रेश्यो लगभग समान ही आयेगा।</p>
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<p> एक कारण और है निन्दा सदैव कुछ औपचारिक बातों को करने के बाद वार्ता को आगे बढ़ाने के रूप में प्रारम्भ होती है चूंकि पुरूष ज्यादा बातें नही करके मात्र औपचारिक बातें ही करते हैं अतः निन्दा प्रारम्भ होने से पूर्व ही उनकी बात खत्म हो जाती है इससे यह भ्रम बनता है कि पुरूष निन्दा नही करते । यदि पुरूषों को लम्बी बातें करनी पड़ती है तो वहां भी निन्दा आ ही जाती है।<br/> इंसान निन्दा क्यूं करता है यदि हम इसका विश्लेषण करने की कोशिश करें तो अनेकों तथ्य सामने आते है जैसेः</p>
<p><br/> प्रथम- वार्ता को लगातार आगे बढ़ाने के लिए कोई ना काई विषय चाहिए होता है और वार्ता करने वाले दो व्यक्ति जिस तीसरे को जानते हैं उसके बारे में बात करना काफी आसान होता है।</p>
<p><br/> द्वितीय- व्यवसाय या कार्य क्षेत्र में यदि कोई लगनपूर्वक कार्य करता है तो अन्यों की नजर में उसकी पैठ विकसित होने लगती है क्योंकि कार्य सभी को प्यारा होता है अतः उसके साथियों द्वारा उसकी निन्दा प्रारम्भ हो जाती है।</p>
<p><br/> तृतीय- इंसानी प्रवृति है कि कोई आपका घरेलू या जानकार सदस्य आपसे ज्यादा उन्नति कर रहा है तो उससे ईर्ष्या भाव पैदा होने लगता है अब चूंकि उसके सामने उसकी निन्दा करके उससे सम्बन्ध खराब नही करना चाहते हैं अतः उसके पीछे से निन्दा करके मन का असंतोष निकाला जाता है।</p>
<p><br/> चतुर्थ- आज के जमाने में इंसानी हैसियत मात्र पैसे के दम पर आँकी जाती है जो जितना धनाढ़य उसकी उतनी ही इज्जत और हैसियत समझी जाती है एवं उसके नजदीक के लोगो के लिये उसकी निन्दा अपनी हैसियत नीचे ना दिखें इसलिए कि जाती है।</p>
<p><br/> धनाढ़य वर्ग द्वारा गरीब की निन्दा उसकी हँसी उड़ाने के लिए की जाती है। इसी प्रकार सभी की चहेती घरेलू महिला की अन्य बराबर वाली महिलाओं द्वारा निन्दा किया जाना भी आम रूप से देखा जाता है। और भी अनेक कारण आपकी नजर में होंगे लेकिन मुख्य बात ये है कि क्या हमें अपनी इस बुरी आदत पर लगाम लगाने की पहल नही करनी चाहिए ? जब भी हमें आलोचना करने का मौका मिले जरूर करें लेकिन उस आलोचना में सामाजिक स्थिति, वातावरण, आलोचित होने वाला साहित्य या व्यक्ति तथा परिस्थितियों को देखते हुए अपनी बुद्धि का सही रूप से उपयोग करते हुए यह ध्यान रखें कि इस आलोचना का उस पर सकारात्मक प्रभाव पड़े। यदि ऐसा हो सका तो इन पंक्तियों को लिखने का उद्देश्य पूर्ण व सार्थक हो पायेगा।</p>
<p><br/> डी पी माथुर</p>
<p><br/> ! मौलिक एवं अप्रकाशित !</p>कुछ स्वतंत्र लाइनेंtag:openbooksonline.com,2013-08-14:5170231:BlogPost:4131512013-08-14T06:30:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>आगे बढ़ती भारत माँ के, पैरों में चुभ रहे काँटे !<br></br> आओ हम मिल कर उसके, एक एक दर्द को बाँटे !<br></br> <br></br> समता, करूणा, वैभवशाली, भारत माँ की शान निराली !<br></br> धर्म ,प्रांत , जाति में बँटकर, हमने इसकी आभा बिगाड़ी !<br></br> <br></br> जिस किसी ने भारत माँ पर, बुरी निगाह गड़ाई है ।<br></br> हमारे सपूतों ने हिम्मत से, उन्हें गर्त दिखाई है।<br></br> <br></br> हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई, इन नामों को बदलो भाई।<br></br> हम सब तो बस बन्दे है, इस झंझट में क्यूं पड़ते हैं।<br></br> <br></br> कोई ना रहेगा पराया तब, सब अपने बन जायेंगे…</p>
<p>आगे बढ़ती भारत माँ के, पैरों में चुभ रहे काँटे !<br/> आओ हम मिल कर उसके, एक एक दर्द को बाँटे !<br/> <br/> समता, करूणा, वैभवशाली, भारत माँ की शान निराली !<br/> धर्म ,प्रांत , जाति में बँटकर, हमने इसकी आभा बिगाड़ी !<br/> <br/> जिस किसी ने भारत माँ पर, बुरी निगाह गड़ाई है ।<br/> हमारे सपूतों ने हिम्मत से, उन्हें गर्त दिखाई है।<br/> <br/> हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई, इन नामों को बदलो भाई।<br/> हम सब तो बस बन्दे है, इस झंझट में क्यूं पड़ते हैं।<br/> <br/> कोई ना रहेगा पराया तब, सब अपने बन जायेंगे !<br/> सब मिलकर जब अपना मजहब, प्यार, भाईचारा बनायेगे !<br/> <br/> जब जब देष पर संकट आया, भाईचारा सबने दिखलाया ।<br/> चाहे रोग हो या आपदा, मिलकर सबने दूर भगाया ।<br/> <br/> हम सब भाई मिलकर ही, यह भ्रष्टाचार मिटायेंगे<br/> सारे भारतवंशी मिलकर, यह दहश्तवाद भगायेंगें !<br/> <br/> एक प्रण अब करना होगा, कभी नही अब झुकना होगा।<br/> हम आगे बढ़ते जोयेंगे, दुश्मन को धूल चटायेंगे।<br/> <br/> अनेक दर्द जब उसने सहे हैं, तब जाकर हम बड़े हुए हैं ।<br/> अब तो कर्ज चुकाना होगा, भाई चारा फैलाना होगा।<br/> <br/> अब ना होगा काई मजहब, ना होगा कोई क्षेत्रवाद !<br/> सबकी जाति प्रेम बनेगी, जब बढ़ेगा एक एक हाथ।<br/> <br/> कोई मजहब कोई क्षेत्र हो, सबका अब बस यही ध्येय हो,<br/> भारत माँ के कष्टों को अब, सदा के लिए मिटाना होगा !<br/> <br/> हमारी प्रगति की राह में आते, हर रोड़े को हटाना होगा !<br/> विश्व शान्ति का ध्वज फिर से, भारत माँ को थमाना होगा !<br/> <br/> गुरू और मार्गदर्शक का, ताज फिर हथियाना होगा,<br/> विज्ञान की नित नई खोज कर, विष्व जगत में छाना होगा !<br/> <br/> माँ के सपूतों का बलिदान, व्यर्थ में नही गंवाना होगा !<br/> औरो की भाषा में ही अब, उन्हें पाठ पढ़ाना होगा !<br/> <br/> भोली भाली भारत माँ, जो ना समझे हिंसा को !<br/> कुछ स्वार्थी लोगो ने मिलकर, लूटा पल पल इसको ।<br/> <br/> <strong>! मौलिक एवं अप्रकाशित !</strong><br/> <br/> </p>आलेख/ आधुनिकता बनाम पुश्तैनीtag:openbooksonline.com,2013-08-03:5170231:BlogPost:4067642013-08-03T03:53:51.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p><span class="font-size-3"> इस आधुनिक और भागमभाग जिंदगी में यदि किसी चीज़ का अकाल पड़ा है तो वो समय है कोई किसी से बिना मतलब मिलना नहीं चाहता यदि आप किसी से मिलना चाहो तो उसके पास टाइम नही है। और मजबूरी वश या अनजाने में यदि मिलना भी पड़ जायें तो मात्र दिखावटी प्यार व चन्द रटी रटाई बातें करने के बाद मौका मिलते ही “आओ ना कभी ” कह कर बात खत्म करने की कोशिश की जाती है और सामने वाला भी तुरन्त आपकी मंशा समझ कर टाइम ही नही मिलता का नपा तुला जवाब देकर इतिश्री कर लेता है। लगता है जैसे एक…</span></p>
<p><span class="font-size-3"> इस आधुनिक और भागमभाग जिंदगी में यदि किसी चीज़ का अकाल पड़ा है तो वो समय है कोई किसी से बिना मतलब मिलना नहीं चाहता यदि आप किसी से मिलना चाहो तो उसके पास टाइम नही है। और मजबूरी वश या अनजाने में यदि मिलना भी पड़ जायें तो मात्र दिखावटी प्यार व चन्द रटी रटाई बातें करने के बाद मौका मिलते ही “आओ ना कभी ” कह कर बात खत्म करने की कोशिश की जाती है और सामने वाला भी तुरन्त आपकी मंशा समझ कर टाइम ही नही मिलता का नपा तुला जवाब देकर इतिश्री कर लेता है। लगता है जैसे एक दूसरे से विदाई लेने का यह आधुनिक तरीका विकसित हो गया है। वो समय चला गया जब एक दूसरे से हाथ जोड़कर माफी मांगते हुए विदा ली जाती थी। प्रतिदिन की तेज रफतार जिंदगी में हम ना जाने कहाँ खोते जा रहे हैं।</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> यदि हम इसके पीछे छिपे कारण को तलाशना चाहे तो उसमें मुख्य रूप से आज के आधुनिक परिवेश को पायेंगे। इस विषय में आगे बात करने से पहले यह स्पष्ट करना जरूरी है कि आधुनिकता को सौ प्रतिशत खराब कह देना भी उचित नही है किसी का अच्छा या खराब होना मुख्य रूप से इस बात पर निर्भर करता है कि हम हमारे परिवेश में आधुनिकता के किस रूप को अपना रहे हैं।</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> अब वापस अपने मूल विषय पर आ जाते हैं यदि समयाभाव या एकल होने की बढ़ती प्रवृति का किसी से कारण जानने कि कोशिश कि जायें तो आधुनिकता को इसका कसूरवार बताया जाता है कुछ हद तक यह सच भी लगता है आज सभी की लाइफ स्टाइल कुछ ज्यादा ही आधुनिक हो गई है जिसमें संस्कारों का महत्व कम हो गया है ।</span><br/><span class="font-size-3"> पाश्चात्य बनने की होड़ ने हमारी तथाकथित पढ़े लिखे युवाओं के विचारों को बदल दिया है और यह बदलाव अब उनके द्वारा की जाने वाली आधुनिक टिप्पणियों जिनकी भाषा ज्यादातर अमर्यादित होती है, के रूप में सुनाई देने लगी है अर्थात सटीक वाणी के नाम पर जो जितने अधिक दिल को चोट पहुंचाने वाले शब्दों का इस्तेमाल करेगा उतना ही अधिक फारवर्ड और मार्डन कहलाने लगा है। जो संस्कारी युवा पढ़ लिख कर भी आदर सम्मान की भाषा बोलते है उन्हें पिछड़ा और कमजोर माना जाता है ।</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> इस आधुनिकता ने हमारे समाज के सबसे सुन्दर और हमारी पहचान समझे जाने वाले हमारे पौराणिक और सभ्य पहनावे पर भी गंभीर चोट की है और इसमें टी आर पी बढ़ाने के चक्कर में हमारे टी वी सीरियलों का भी महत्वपूर्ण योगदान है आज पढ़ा लिखा समाज अपने बच्चों को फैशन के नाम पर फूहड़पन लिये हुए कपड़े पहना रहा है और कुछ युवा स्वयं भी ऐसे ही कपड़े पहन रहे हैं वे समझते हैं कि जो जितने कम और फूहड़पन लिये कपड़े पहनेगा उतना ही आधुनिक और फैशनेबल कहलायेगा। सबका ध्यान उसकी तरफ आकर्षित होगा। ये अलग बात है कि लज्जा पहनने वाले को नही बल्कि देखने वाले को आती है। और सभी उसकी निंदा अपने अपने घर जाकर ही करते हैं, मार्डन दिखने वालों को इस बात का भान नही होता है कि देखने वाले लोग तुम्हारे फैशन को नही बल्कि बदन को देख कर तुम्हें ही बुरा समझ रहे हैं। क्यूं ना उसी समय ऐसे पढ़े लिखे पाश्चात्य के अंध भक्तो को उनके पहनावे की असलियत बता दी जायें हो सकता है आइंदा वो पहनावे का ध्यान रख सकें <span>।</span></span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> हम सभी जानते हैं कि आज के इस प्रतिस्पर्धा वाले युग में हमारे युवा कड़ी मेहनत व अधिक फीस देकर पढ़ाई पूर्ण करते हैं फिर दिन रात किसी मल्टी नेशनल कम्पनी में जी तोड़ मेहनत करते हैं और दिन रात काम के तनाव में अपने जीवन के स्वर्णीम समय को पुरा का पुरा धन कमाने में ही लगा रहे हैं और नित नये इलैक्ट्रोनिक गजेटस् , गाड़ियां और फर्निचर खरीदने में सिमट कर अपना सुख तलाश रहे है। आज की युवा पीढ़ी एकल रहकर इन्ही के भरोसे अपनी दुनिया रंगीन बनाने में लगी है लेकिन वास्तविकता में जब तक सब कुछ सही चलता रहा तो ठीक वर्ना बढ़ते तलाक और डिप्रेशन के मरीज खुद ब खुद बता रहें हैं कि हमारी युवा पीढ़ी अपनी दुनियां रंगीन बना रही है या रंग हीन बना रही है। काम का बढ़ता बोझ युवाओं को युवावस्था में ही बीपी शुगर आदि विभिन्न बिमारियों का शिकार बना रहा है। जिन भौतिक वस्तुओं को खरीद कर युवा उनके मद में स्वयं को महान और बड़ा आदमी समझने की भूल कर रहा है वे वस्तुएं सप्ताह के पाँच दिन घर में या तो बेकार पड़ी रहती हैं या उनके घरों में नौकर उन वस्तुओं का उपयोग कर रहे है। शायद वो मालिक से ज्यादा भाग्यशाली हैं।</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> अभी कुछ दिन पहले एक एस एम एस पढ़ने को मिला कि हमारे देश में पिज्जा पहले पहुंचता है और एम्बूलेंस बाद में पहूँचती है, पढ़कर शायद अच्छा नही लगे लेकिन खुले दिल से सोचा जाएं तो इसमें कहीं ना कहीं सच्चाई छिपी है।</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> आधुनिकता ने हमें कुछ लाभ अवश्य हुआ है जैसे हमारी युवा पीढ़ी की सोच पहले से ज्यादा व्यापक हुई है वह विश्व पटल पर ज्यादा सशक्त रूप से अपना परचम लहराने लगा है और अपनी सकारात्मक सोच व अर्जित क्षमता के कारण आगे बढ़ा है। बस उसे आवश्यकता तो आधुनिकता के साथ साथ अपने मूल स्वरूप, रहन सहन आदर्श, नैतिकता,मर्यादा का सही समावेश करने की है। आज आधुनिकता के कारण हम से मैं में बदलती सोच को त्यागने या सुधारने की जरूरत है, बेतहाशा होड़ में पड़कर ई एम आई रूपी सूदखोर से उपर उठने की है।<font size="2"> </font></span><span class="font-size-3">तथा ई एम आई के उपयोग को जीवन की अहम् आवश्यकताओं मकान, शिक्षा तक ही सीमित रखने की है उसे उपभेक्तावादी आधुनिक अल्प समय काल वाली वस्तुओं पर खर्च करने की नही है।</span></p>
<p><br/><span class="font-size-3"> अन्त में कहना चाहूँगा कि आधुनिकता के नाम पर रिश्तों को खोने की बुनियाद पर सुखी होने {वास्तव में नही} से अच्छा होगा रिश्तों के साथ परम सुख का आनन्द उठाना जो हमारे पूर्वज करते आये हैं। हमें अपनी जड़े अपनी संस्कृति के धरातल में ही रखकर आधुनिकता के फलों का आनन्द लेने की क्षमता अपने अन्दर विकसित करनी होगी तभी हम सही जीवन शैली का आनन्द उठा पायेंगे।</span><br/> <br/><span class="font-size-3"> डी पी माथुर</span><br/> <span class="font-size-3">! मौलिक एवं अप्रकाशित !</span></p>तुम कुछ बोल दोtag:openbooksonline.com,2013-07-12:5170231:BlogPost:3962672013-07-12T02:00:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>आज मन उदास है ,<br></br> तुम कुछ बोल दो !<br></br> अर्न्तमन की आँखों से मुस्कुरा,<br></br> प्रेम शब्द उकेर दो !<br></br> खिलते गुलाब की पंखुड़ी से,<br></br> गुलाबी अधर खोल दो !<br></br> आज मन उदास है , तुम कुछ बोल दो !</p>
<p>.<br></br> तुम्हारे स्वप्निल ख्यालों में ,<br></br> मन कहीं खो जाये !</p>
<p>तन स्पर्श ना सही ,<br></br> मन स्पर्श हो पायें !<br></br> स्वर कोकिला रूप में ,<br></br> श्वासों की सुगन्ध धोल दो !<br></br> आज मन उदास है तुम कुछ बोल दो !<br></br> <br></br> प्रेम का मधुपान करूं ,<br></br> अपना सा अहसास करूं !<br></br> मोहपाश में बाँध कर ,…</p>
<p>आज मन उदास है ,<br/> तुम कुछ बोल दो !<br/> अर्न्तमन की आँखों से मुस्कुरा,<br/> प्रेम शब्द उकेर दो !<br/> खिलते गुलाब की पंखुड़ी से,<br/> गुलाबी अधर खोल दो !<br/> आज मन उदास है , तुम कुछ बोल दो !</p>
<p>.<br/> तुम्हारे स्वप्निल ख्यालों में ,<br/> मन कहीं खो जाये !</p>
<p>तन स्पर्श ना सही ,<br/> मन स्पर्श हो पायें !<br/> स्वर कोकिला रूप में ,<br/> श्वासों की सुगन्ध धोल दो !<br/> आज मन उदास है तुम कुछ बोल दो !<br/> <br/> प्रेम का मधुपान करूं ,<br/> अपना सा अहसास करूं !<br/> मोहपाश में बाँध कर , <br/> नजरों से इजहार करूं !<br/> सर्द भरी इस रात में ,<br/> प्यार की किरणें बिखेर दो !!<br/> इठलाते हुए मुख खोल कर,<br/> बातों की मिश्री घोल दो !<br/> आज मन उदास है तुम कुछ बोल दो !<br/> <br/> <strong>! मौलिक एवं अप्रकाशित !</strong></p>पिता-मकसदtag:openbooksonline.com,2013-06-16:5170231:BlogPost:3787622013-06-16T03:30:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>सघन वृक्ष सा विशाल अडिग,<br></br>तपन में शीतलता देता !<br></br> तुफानों से हर पल लड़ता ,<br></br> फिर भी सदा सहज वो दिखता !<br></br> अपनी इन्हीं बातो के कारण ,<br></br> वो एक पिता कहलाता !</p>
<p>.<br></br>कठोर सा यह दिखने वाला ,<br></br>दिल से कोमलता दिखलाता !<br></br> बेटी के दर्द से विचलित ,<br></br> डान्ट वरी माई डॉटर कहता !<br></br> पर उसकी विदाई पर वो ,<br></br> खुद को असहाय है पाता !<br></br> लाख चाहकर भी वो अपने,<br></br> अनवरत आँसू रोक ना पाता !<br></br> अपनी इन्हीं बातो के कारण ,<br></br> वो एक पिता कहलाता !</p>
<p>.<br></br>बात बात पर डाँट…</p>
<p>सघन वृक्ष सा विशाल अडिग,<br/>तपन में शीतलता देता !<br/> तुफानों से हर पल लड़ता ,<br/> फिर भी सदा सहज वो दिखता !<br/> अपनी इन्हीं बातो के कारण ,<br/> वो एक पिता कहलाता !</p>
<p>.<br/>कठोर सा यह दिखने वाला ,<br/>दिल से कोमलता दिखलाता !<br/> बेटी के दर्द से विचलित ,<br/> डान्ट वरी माई डॉटर कहता !<br/> पर उसकी विदाई पर वो ,<br/> खुद को असहाय है पाता !<br/> लाख चाहकर भी वो अपने,<br/> अनवरत आँसू रोक ना पाता !<br/> अपनी इन्हीं बातो के कारण ,<br/> वो एक पिता कहलाता !</p>
<p>.<br/>बात बात पर डाँट लगाता ,<br/>सुरक्षा का बोध कराता !<br/> ममतामयी माँ भी जब डाँटे ,<br/> पिता बचा ले जाता !<br/> समाज की नित बंदिशों को ,<br/> पिता तोड़ है पाता !<br/> बेटी की एक चाहत पर वो ,<br/> समाज से लड़ जाता !<br/> बेटी को पढ़ा लिखा कर ,<br/> नया केरियर दिलवाता !<br/> अपनी इन्हीं बातो के कारण ,<br/> वो एक पिता कहलाता !<br/> <br/>“ मौलिक एवं अप्रकाशित ”</p>चाहत-मकसदtag:openbooksonline.com,2013-06-16:5170231:BlogPost:3789442013-06-16T03:00:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>पिता हूँ , शायद कह ना पाऊँ, </p>
<p>माँ सा प्यार ना दिखला पाऊँ ! <br></br>चाहत है पर मन में इतनी,</p>
<p>प्यार में नम्बर दो कहलाऊँ !</p>
<p></p>
<p>जीवन की हर कठिन डगर में,</p>
<p>साथ खड़ा हो पाऊँ !<br></br> जब जब तुम्हें धूप सताये ,<br></br> छॉव मैं बन जाऊँ !<br></br> माँ तो नम्बर एक रहेगी ,<br></br> मैं , नम्बर दो कहलाऊँ !</p>
<p>.</p>
<p>समुंद्र भले ही कोई कहे ,</p>
<p>आँसुओं से बह जाऊँ !<br></br> तुम्हारी एक आह पर ,<br></br> विचलित मैं हो जाऊँ !<br></br> पत्थर हूँ ,<br></br> पर ,सुनकर दर्द तुम्हारे ,<br></br> मोम सा पिघल जाऊँ…</p>
<p>पिता हूँ , शायद कह ना पाऊँ, </p>
<p>माँ सा प्यार ना दिखला पाऊँ ! <br/>चाहत है पर मन में इतनी,</p>
<p>प्यार में नम्बर दो कहलाऊँ !</p>
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<p>जीवन की हर कठिन डगर में,</p>
<p>साथ खड़ा हो पाऊँ !<br/> जब जब तुम्हें धूप सताये ,<br/> छॉव मैं बन जाऊँ !<br/> माँ तो नम्बर एक रहेगी ,<br/> मैं , नम्बर दो कहलाऊँ !</p>
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<p>समुंद्र भले ही कोई कहे ,</p>
<p>आँसुओं से बह जाऊँ !<br/> तुम्हारी एक आह पर ,<br/> विचलित मैं हो जाऊँ !<br/> पत्थर हूँ ,<br/> पर ,सुनकर दर्द तुम्हारे ,<br/> मोम सा पिघल जाऊँ !<br/>लड़ना पड़े चाहे तुफानों से ,<br/> तुम्हें बचा ले जाऊँ !<br/> चाहत है पर मन में इतनी,<br/> प्यार में नम्बर दो कहलाऊँ !</p>
<p></p>
<p> “ मौलिक एवं अप्रकाशित ”</p>क्यूंtag:openbooksonline.com,2013-06-15:5170231:BlogPost:3786062013-06-15T09:00:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>मुझे क्यूं लगता है , तुम्हे खो दुंगा ,<br></br> तुम्हें पा लिया है ,<br></br>ये भी तो मात्र एक भ्रम है !<br></br>जाने क्यूं लगता है ,रो दुंगा ,<br></br> ये भी तो मात्र एक भ्रम है !<br></br> नदी के किनारों सा,<br></br> साथ चलते चलते ,<br></br> क्यूं समझता हूँ ,मिलन होगा !<br></br> अनवरत साथ बह पा रहा हूँ , <br></br> ये भी तो मात्र एक भ्रम है !<br></br>जाने क्यूं समझता हूँ ,<br></br>तुम, ये, वो सब मेरा है !<br></br> शाशवत सच ये कहता है ,<br></br> जो भोग लिया वो सपना है ! , <br></br> जो उकेर दिया भाव ,वो अपना है ! <br></br> प्रकृति का मात्र यही एक क्रम…</p>
<p>मुझे क्यूं लगता है , तुम्हे खो दुंगा ,<br/> तुम्हें पा लिया है ,<br/>ये भी तो मात्र एक भ्रम है !<br/>जाने क्यूं लगता है ,रो दुंगा ,<br/> ये भी तो मात्र एक भ्रम है !<br/> नदी के किनारों सा,<br/> साथ चलते चलते ,<br/> क्यूं समझता हूँ ,मिलन होगा !<br/> अनवरत साथ बह पा रहा हूँ , <br/> ये भी तो मात्र एक भ्रम है !<br/>जाने क्यूं समझता हूँ ,<br/>तुम, ये, वो सब मेरा है !<br/> शाशवत सच ये कहता है ,<br/> जो भोग लिया वो सपना है ! , <br/> जो उकेर दिया भाव ,वो अपना है ! <br/> प्रकृति का मात्र यही एक क्रम है !<br/> भी तो मात्र एक भ्रम है !<br/>क्यूं यादों में खो जाते हैं ,<br/>याद उन्हें कर जाते हैं ,<br/> बगैर किसी के चाहे भी ,<br/> ख्वाबों में बसा जाते हैं !<br/> बिन उनके जी नही पायेंगे ,<br/> प्यार का , ये कैसा क्रम है ,<br/> जो सच ना होकर , <br/> मात्र मन का ही भ्रम है !<br/>जीवन का हर छोटा पल ,<br/>माँ की याद दिलाता है !<br/> साया सा हरदम उसका, <br/> निशछल अहसास कराता है !<br/> प्यार भरी ममता के आगे ,<br/> सब बौना रह जाता है,<br/> यही मात्र एक ऐसा क्रम है ,<br/> जो भ्रम नही , एक सच्चा क्रम है !<br/> <br/> (मौलिक एवं अप्रकाशित)<br/> हँस रहा हूँ ,</p>मकसदtag:openbooksonline.com,2013-06-07:5170231:BlogPost:3739962013-06-07T15:30:00.000ZD P Mathurhttp://openbooksonline.com/profile/DPMathur
<p>आदरणीय प्रबंधन टीम एवं सभी प्रबुद्ध सदस्यों को मेरा नमस्कार , अभी कुछ दिनों से ही मैं ओ बी ओ से जुड़ा हूँ अभी ज्यादा नही समझ पाया हूँ ! ऐसे ही कुछ ना कुछ लिखता रहता हूँ जो हमारे समाज के पाक्षिक अखबार में प्रकाशित हो जाता है और ना होता है तो अपने बनाये ब्लॉग पर लिख देता हूँ !<br></br> ओ बी ओ सदस्य बनने बाद लगता है मेरे जैसे नौसिखीये को यहाँ बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हो सकेगा !<br></br> आशा ही नहीं विश्वास है आप मेरी त्रुटियों को माफ करते हुए मेरा उचित मार्ग दर्शन करेंगे ।<br></br> मैं अपनी पहली रचना के रूप…</p>
<p>आदरणीय प्रबंधन टीम एवं सभी प्रबुद्ध सदस्यों को मेरा नमस्कार , अभी कुछ दिनों से ही मैं ओ बी ओ से जुड़ा हूँ अभी ज्यादा नही समझ पाया हूँ ! ऐसे ही कुछ ना कुछ लिखता रहता हूँ जो हमारे समाज के पाक्षिक अखबार में प्रकाशित हो जाता है और ना होता है तो अपने बनाये ब्लॉग पर लिख देता हूँ !<br/> ओ बी ओ सदस्य बनने बाद लगता है मेरे जैसे नौसिखीये को यहाँ बहुत कुछ ज्ञान प्राप्त हो सकेगा !<br/> आशा ही नहीं विश्वास है आप मेरी त्रुटियों को माफ करते हुए मेरा उचित मार्ग दर्शन करेंगे ।<br/> मैं अपनी पहली रचना के रूप में एक कविता यहाँ लिख रहा हूँ !</p>
<p>धन्यवाद</p>
<p></p>
<ul>
<li><span class="font-size-2" style="font-size: 16pt;"> आपको भावुक कर दूं , </span></li>
</ul>
<p><span class="font-size-2"> ऐसा मेरा मकसद नही !</span><br/> <span class="font-size-2"> आपसे बढ़ाई के दो बोल सुनु ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> ऐसी मेरी फितरत नही !</span><br/> <span class="font-size-2"> कोशिश मात्र इतनी है ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> मन के भाव बतला सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> दिल में छिपा है क्या ,</span><br/> <span class="font-size-2"> आपको भी दिखला सकूं !!</span></p>
<ul>
<li><span class="font-size-2" style="font-size: 16pt;"> कलम की रफतार दिखला सकूं , </span></li>
</ul>
<p><span class="font-size-2"> एक क्षण ही सही,</span> <br/> <span class="font-size-2"> आपकी चिंताएं मिटा सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> पढ़कर आप मुस्कुराएं ,</span><br/> <span class="font-size-2"> तो पीठ अपनी थपथपा सकूं !!</span><br/> <span class="font-size-2"> दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!</span></p>
<ul>
<li><span class="font-size-2" style="font-size: 16pt;"> मन की पीड़ा मिटा सकूं , </span></li>
</ul>
<p><span class="font-size-2"> कुछ राहत मन को दिला सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> चारों और खिंच गई ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> हर दीवार गिरा सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> सालों से जमती रही ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> मन की गर्त हटा सकूं !!</span><br/> <span class="font-size-2"> दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!</span></p>
<ul>
<li><span class="font-size-2" style="font-size: 16pt;"> चाहता हूँ ,मन को अपने,</span></li>
</ul>
<p><span class="font-size-2"> मस्ती में लहरा सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> विदाई में तुम्हारे ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> हाथ मैं भी हिला सकूं !</span> <br/> <span class="font-size-2"> सीने में क्या छिपा है ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> बिना चीरे ही दिखला सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!</span></p>
<ul>
<li><span class="font-size-2" style="font-size: 16pt;"> चाहता हूँ ,</span></li>
</ul>
<p><span class="font-size-2"> जीवन में लगी तमाम शर्तो को,</span> <br/> <span class="font-size-2"> एक ही पल में हटा सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> फिर से जीने के लिए,</span> <br/> <span class="font-size-2"> नई बुनियाद बना सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> अनजाने में बन गई ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> हर दूरी मिटा सकूं !</span><br/> <span class="font-size-2"> यादों में तुम्हारी खो, दो बोल गुनगुना सकूं !!</span><br/> <span class="font-size-2"> कोशिश मात्र इतनी है ,</span> <br/> <span class="font-size-2"> दिल में छिपा है क्या , आपको भी दिखला सकूं !!</span></p>
<blockquote><p><span class="font-size-2">मौलिक व अप्रकाशित</span></p>
</blockquote>