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January 2018 Blog Posts (128)

ग़ज़ल "ऐसे भी माहौल बनाया जाता है"

22 22 22 22 22 2



रिश्ता जो इक बार बनाया जाता है।

वो फिर सारी उम्र निभाया जाता है।।

ऐसे भी माहौल बनाया जाता है।

कुछ होता कुछ और दिखाया जाता है।।

ऐसा देखा यार सियासत में अक्सर।

इक दूजे को चोर बताया जाता है।।

सच हो पाए जो न किसी भी सूरत में।

क्यों अक्सर वो ख़्वाब दिखाया जाता है।।

 रंग बदलते गिरगिट सा कुछ लोग यहाँ।

मतलब हो तो प्यार जताया जाता है।।

ये सच्चाई तो जग जाहिर है यारो।

जो…

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Added by surender insan on January 12, 2018 at 2:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल - तेरी आँखों में अभी तक है अदावत बाकी

2122 1122 1122 22



तेरी आँखों में अभी तक है अदावत बाकी ।

है तेरे पास बहुत आज भी तूुहमत बाकी ।।

इस तरह घूर के देखो न मुझे आप यहाँ ।

आपकी दिल पे अभी तक है हुकूमत बाकी ।।

तोड़ सकता हूँ मुहब्बत की ये दीवार मगर।

मेरे किरदार में शायद है शराफत बाकी ।।

ऐ मुहब्बत तेरे इल्जाम पे क्या क्या न सहा ।

बच गई कितनी अभी और फ़ज़ीहत बाकी ।।

मुस्कुरा कर वो गले…

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Added by Naveen Mani Tripathi on January 12, 2018 at 10:00am — 7 Comments

बुलाऊँ नींद, तेरा आना अब ज़रूरी है-ग़ज़ल

1212 1122 1212 22

तुम्हारे दीद की ख़ाहिश अभी अधूरी है

इसीलिए तो निगाहें खुली ही छोड़ी है

तमाम ख़ाब हैं आँखों में तेरी ही ख़ातिर

बुलाऊँ नींद, तेरा आना अब ज़रूरी है

किसी अज़ीज़ नें आख़िर मुझे सिखाया तो

यूँ रोज़ रोज़ ग़ज़ल लिखना बेवकूफ़ी है

जहाँ के लोगों के दुःख दर्द का गरल अपने

उतारा सीने में तब ही कलम ये पकड़ी है

बताऊँ कैसे उन्हें शायरी जुनून हुई

नसों में दौड़ती पंकज के, ये बीमारी है

मौलिक…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 11, 2018 at 5:41pm — 7 Comments

***नामर्द*** राहिला (लघुकथा)

"लगता है एक तारीख है।" बस्ती में रोने -पीटने की आवाज सुनकर उसने मर्दानी आवाज में कहा।

"अब महीने के लगभग दस दिन यही चीख पुकार मची रहेगी।"दूसरी, ढोलक कसते हुए बोली।

"हाँ... सही कह रही हो...,मन तो करता है निकम्मों के हाथ पैर तोड़ दूँ।"

"तूने तो मेरे दिल की बात कह दी।"

"बेचारी ये औरतें सारा-सारा दिन दूसरों के चूल्हें -चौके समेटती फिरती है।और अंत में ये ईनाम मिलता है।"

"क़िस्मत तो देखो इन जुआरियों ,शराबियों की, निकम्मो को कैसी सोने के अंडे देने वाली मुर्गियां हाथ लगी…

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Added by Rahila on January 11, 2018 at 11:23am — 13 Comments

मुझसे ऐ जान-ए-जानाँ क्या हो गई ख़ता है -SALIM RAZA REWA

 221 2122 221 2122

मुझसे ऐ जान-ए-जानाँ क्या हो गई ख़ता है

जो यक-ब-यक ही मुझसे तू हो गया ख़फ़ा है

-

कुछ भी नहीं है शिकवा कुछ भी नहीं शिकायत

क़िस्मत में जो है मेरे  वो मुझको मिल रहा है

-

आंखों में नींद रुख़ पर गेसू बिखर रहे हैं

हिज्र-ए-सनम में शायद वो जागता रहा है

-

शाख़-ए-शजर हैं सूखी मुरझा गई हैं कलियाँ

गुलशन हुआ है वीरां कैसा ग़ज़ब हुआ है

-

इक पल में रूठ जाना इक पल में मान जाना 

उसकी इसी अदा ने दीवाना कर दिया है…

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Added by SALIM RAZA REWA on January 10, 2018 at 11:30pm — 11 Comments

लघुकथा -गठबंधन की गाँठें

“नेता जी ,अब तो मेरे बारे में कुछ सोचिये। कितना काम किया चुनाव में दिन-रात जागा। विपक्षी नेता के विरुद्ध धरना दिया ।झंडा ,पोस्टर ,बैनर सब ले घुमा ।अब आप जीत गए तो हमारा भी नोकरी का जुगाड़ कर दीजिये।”

कार्यकर्त्ता कई दिन चक्कर लगाने के बाद आज बोल ही पड़ा ।पंचायत चुनाव के बाद नेता जी उसकी बात ही न सुन रहे थे ।

नेता जी ....” हाँ हाँ ठीक है ।देखते हैं ..पहले विधानसभा चुनाव होने दो । बहुत बिजी है अभी ।”

नेता जी कुछ रुके ।आँखों को मीचते हुए बोले --

“अच्छा कुछ काम करो ।खाना ,भत्ता…

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Added by डॉ संगीता गांधी on January 10, 2018 at 12:00pm — 12 Comments

बस तेरा वादा निभाना हो गया ।

2122 2122 212

जख्म पर मरहम लगाना हो गया ।

आदमी कितना सयाना हो गया ।।

इस तरह दिल से न तुम खेला करो ।

खेल यह अब तो पुराना हो गया ।।

इश्क भी क्या हो गया है आपसे ।

घर मेरा भी शामियाना हो गया ।।

बाद मुद्दत के मिले हो जब से तुम ।

तब से मौसम आशिकाना हो गया ।।

बात पूरी हो गई नजरों से तब ।

आपका जब मुस्कुराना हो…

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Added by Naveen Mani Tripathi on January 10, 2018 at 10:30am — No Comments

ग़ज़ल

1212 1122 1212 22



कफ़स को तोड़ बहारों में आज ढल तो सही ।।

तू इस नकाब से बाहर कभी निकल तो सही ।।

तमाम उम्र गुजारी है इश्क में हमने ।

करेंगे आप हमें याद एक पल तो सही ।।

सियाह रात में आये वो चाँद भी कैसे ।

अदब के साथ ये लहज़ा ज़रा बदल तो सही ।।

बड़े लिहाज़ से पूंछा है तिश्नगी उसने ।

आना ए हुस्न पे इतरा के कुछ उबल तो सही…

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Added by Naveen Mani Tripathi on January 10, 2018 at 1:30am — 3 Comments

एक जुगनू भी है दीपक तीरगी में- गजल



2122 2122 2122

इश्क में, व्यापार में या दोस्ती में

दिल दिया है हमने अपना पेशगी में

बूँद भर भी आब काफी तिश्नगी में

एक जुगनू भी है दीपक तीरगी में

ठोकरें खाकर नहीं सीखा सँभलना

क्या मज़ा आएगा  ऐसी जिन्दगी में

दर्द,आंसू,बेबसी के बाद भी क्यों

मन रमा रहता हमेशा आशिकी में

किस जमाने…

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Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 9, 2018 at 8:30pm — 10 Comments

जाने सूरज कब निकले है वक्त अभी रुसवाई का------गज़ल

22 22 22 22 22 22 22 2

नैन में रैन गँवाए जाऊँ, वक्त पहाड़ जुदाई का

जाने सूरज कब निकले, है वक्त अभी रुसवाई का

उनको कोई ग़रज़ नहीं जो पूछें हाल हमारा भी

कोई दूजी वज्ह नहीं, परिणाम है कान भराई का…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 9, 2018 at 4:30pm — 14 Comments

मत्त सवैया (वीर रस की कविता)

क्षमाशीलता की इक सीमा, जब कोई उसको पार करे

शस्य श्यामला धरती का भी, पामर कोई प्रतिकार करे

काँप उठे धरती अम्बर तब, अरु महाप्रलय अवतार धरे

क़फ़न तिरंगे का पहने फिर, हर हाथ खड्ग तलवार धरे।1।



कुछ अधम उतारू करने को, भारत माँ के टुकड़े टुकड़े

ऐसी बातें सुनकर भी क्यों, हैं शस्त्र तुम्हारे मौन पड़े

जो देश धरा को गाली देते, उनके तुम क्यों हो साथ खड़े

रूप नहीं क्यों रौद्र दिखाते, शीश उड़ाते चिथड़े चिथड़े।2।



शत्रु सामने बलशाली हो, सम्मुख उसके तुम झुको… Continue

Added by नाथ सोनांचली on January 9, 2018 at 11:22am — 9 Comments

कविता

शरद ऋतु गीत

झम झम रिमझिम पावस बीता

अब गीले पथ सब सूख गए

गगन छोर सब सूने सूने

परदेश मेघ जा बिसर गए

हरियावल पर चुपके चुपके

पीताभा देखो पसर गई

हौले हौले ठसक दिखा कर

चंचल चलती पुरवाई है -

लो! शरद ऋतु उतर आई है I

दशहरा, नवरात्र, दीवाली

छठ, दे दे खुशियाँ बीत गए

पक कट गए मकई बाजरा

पीले पीले भी हुए धान

रातें भी बढ़ कर हुईं लम्बी

घटते घटते गए दिनमान

विरहन का तन मन डोल रहा

खुद खुद से ही कुछ बोल…

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Added by कंवर करतार on January 8, 2018 at 10:00pm — 11 Comments

प्रतिबंधित मुलाकात हुई है-ग़ज़ल

22 22 22 22

उनसे मेरी बात हुई है
प्रतिबंधित मुलाक़ात हुई है

सारे स्वप्न तरल हैं मेरे
देखो तो बरसात हुई है

स्याही बन कर भस्म्है बिखरी
यूँ न अधेरी रात हुई है

मन खुद में ही खोज खुदी से
शांति कहाँ, आयात हुई है

दिल वो जीते दर्द मग़र हम
मत समझो बस मात हुई है

मौलिक अप्रकाशित

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 8, 2018 at 9:00pm — 18 Comments

स्वप्न धुंध ...

स्वप्न धुंध... 

असहनीय शीत के बावज़ूद

मैं देर तक

उसे महसूस करती रही

अपने हाथों में बंद

गीले रुमाल को भींचे हुए

धुंध को चीरती हुई

बेरहम ट्रेन आई

मेरे स्वप्न को

साथ लिए

धुंध में खो गई

मैं दूर तक

ट्रेन के साथ साथ

उसका हाथ पकड़े

दौड़ती रही,दौड़ती रही

आंखें

विछोह का भार न सकी

सागर बन छलक पड़ी

बॉय-बॉय करते उसके हाथ से

उसका रुमाल गिर गया

मैं दौड़ी

रुमाल उठाया

चौंकी

उसका…

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Added by Sushil Sarna on January 8, 2018 at 6:34pm — 10 Comments

माँ के हाथों से जब खाया जाता है (ग़ज़ल)

अरकान-फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फेलुन फ़ा

ऐसे रिश्ता यार निभाया जाता है

वक़्त पड़े तो ग़म भी खाया जाता है ।।

भूख लगी हो और न हो कुछ खाने को

बच्चे का फिर दिल बहलाया जाता है।।

लाख छुपाने से भी जब ये छुप न सके

फिर क्यों यारो इश्क़ छुपाया जाता है।।

तब होती है घर में बरकत ही बरकत

मुफ़लिस को महमान बनाया जाता है ।।

रुखा सूखा खाना लज़्ज़त दार लगे

माँ के हाथों से जब खाया जाता है ।।

चुंगल में सेठों के…

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Added by नाथ सोनांचली on January 8, 2018 at 2:03pm — 11 Comments

ग़ज़ल -चहरा छुपा रखा है’ सनम ने नकाब में- कालीपद 'प्रसाद'

काफिया : आब ; रदीफ़ : में

बहर : २२१  २१२१  १२२१  २१२

चहरा छुपा रखा है’ सनम ने नकाब में

मुहँ बंद किन्तु भौंहे’ चड़ी हैं इताब में |

इंसान जो अज़ीम है’ बेदाग़ है यहाँ  

है आग किन्तु दाग नहीं आफताब में |

जाना नहीं है को’ई भी सच और झूठ को

इंसान जी रहे हैं यहाँ’ पर सराब में  |

इंसां में’ कर्म दोष है’, जीवात्मा’ में नहीं

है दाग चाँद में, नहीं’ वो ज्योति ताब में |

मदहोश जिस्म और नशीले…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on January 8, 2018 at 10:00am — 8 Comments

गजल(क्या क्या बदलोगे...)

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क्या क्या बदलोगे बाबूजी, जान रहे सब ,बोलो तो

छोड़ो औरों की बातें अब खुद अपने को तोलो तो।1

बोल रहे सब बोल बढ़ाकर,लगता हो तुमको जो ऐसा

अपनी करनी का खाता अब,मत शरमाओ,खोलो तो।2



पहुँचा देते लोग कहाँ तक ,बजा-बजाकर ताली भी

जन-सेवा करते-करते अब ठौर मिला है, सो लो तो।3



रंज हुईं मजबूर हवाएँ रह-रह आज बताती हैं

धुलता दामन,दाग चढ़े हैं,और जहर मत घोलो तो।4



चिट्ठी आई है चंदू की,चाचा और भतीजों…

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Added by Manan Kumar singh on January 8, 2018 at 10:00am — 10 Comments

शीत के दोहे - लक्ष्मण धामी ' मुसाफिर'

शीत के दोहे



बालापन सा हो गया, चहुँदिश तपन अतीत

यौवन सा ठिठुरन लिए, लो आ पहुँची शीत।१।



मौसम बैरी  हो  गया, धुंध ढके हर रूप

कैसै देखे अब भला, नित्य धरा को धूप।२।



शीत लहर के तीर नित, जाड़ा छोड़े खूब

नभ  के  उर  में  पीर  है, आँसू  रोती दूब।३।



हाड़  कँपाती  ठंड  से , सबका  ऐसा हाल

तनमन मागे हर समय, कम्बल स्वेटर शॉल।४।



शीत लहर फैला रही, जाने क्या क्या बात

दिन घूँघट  में  फिर रहा, थरथर काँपे रात।५।



लगी…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 8, 2018 at 7:27am — 8 Comments

बाकी मैं न रहूँ न मेरी खूबियां रहें

221 2121 1221 212

आबाद इस चमन में तेरी शेखियाँ रहें ।

बाकी न मैं रहूँ न मेरी खूबियां रहें ।।

नफ़रत की आग ले के जलाने चले हैं वे ।

उनसे खुदा करे कि बनीं दूरियां रहें ।।

दीमक की तर्ह चाट रहे आप देश को ।

कायम तमाम आपकी वैसाखियाँ रहें ।।

बैठे जहां हैं आप वही डाल काटते ।

मौला नजर रखे कि बची पसलियां रहें ।।



अंधा है लोक तन्त्र यहां कुछ भी मांगिये ।

बस शर्त…

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Added by Naveen Mani Tripathi on January 8, 2018 at 2:30am — 7 Comments

जो अपने माँ-बाप के - सलीम रज़ा

22 22 22 22 22 2

जो अपने माँ-बाप के दिल को दुखाएगा

चैन-ओ- सुकूँ वो जीवन भर ना पाएगा

-

हक़ बातें तू हरगिज़ ना कह पाएगा

अहसानों के तले  अगर दब जाएगा

-

उस दिन दुनिया ख़ुशिओं से भर जाएगी

जिस दिन प्रीतम लौट के घर को आएगा

-

भूँखा -प्यासा जब देखेगी बेटों को

माँ का दिल टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा

-

उसकी मुरादें सब पूरी हो जाएंगी

दर पे उसके जो दामन फैलाएगा

-

मेरी…

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Added by SALIM RAZA REWA on January 7, 2018 at 6:00pm — 12 Comments

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