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February 2015 Blog Posts (174)

एक प्रश्न (दोहे)



1.    

पावन पवित्र प्रेम को, करते क्यों बदनाम ।

स्वार्थ मोह में क्यों भला, देकर प्रेमी जान ।।

2.    

एक प्रश्न मैं पूछती, देना मुझे जवाब ।

छोरा छोरी क्यो भला, करते प्रेम जनाब ।।

3.    

तेरा सच्चा प्यार है, मेरा है बेकार ।

माॅ की ममता क्यों भला, होती है लाचार ।।

4.    

सोलह हजार आठ में, मिले न राधा नाम ।

सारा जग फिर क्यो भला, जपते राधे श्याम ।।

5.    

मातु पिता के बात पर, जिसने किया विवाह ।

होते उनके भी प्रबल, इक दूजे…

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Added by रमेश कुमार चौहान on February 25, 2015 at 9:30pm — 8 Comments

''साल दंगों का''

लुट रही है फसल-ए-बहार दंगो में..

आराम फरमा रहे हैं वो जंगों में...

दिया किसने ये हक़ इन्हें ए-ख़ुदा

ख़ुदी है सो रही खिश्त-ओ-संगों में..

किसने बनाये हैं ये सनमकदे...

ख़ुदा भी बंट गया बन्दों में...

मेरी इन्ही आँखों ने,नजर में तेरी ए-सनम

देखा है खुद को कई रंगों में..

है किसे तौफ़ीक जो गैरों के चाक सिले?

मै भी नंगा हो गया नंगों में....

‘’मौलिक व अप्रकाशित’’

२०१४ में उ.प्र. में फैले दंगों के…

Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 25, 2015 at 9:00pm — 2 Comments

कारवां देखते रहे

उम्मीद तो 

मुझे अपने आप से भी थी 

उम्मीद तो 

मुझे अपनों से भी थी ... 

सोचता तो 

अपने के लिए भी था 

सोचता तो 

दूसरों के लिए भी था 

सुधार की गुंजाईश 

अपने आप से भी थी 

सुधार की गुंजाईश 

दूसरों से भी थी 

इन्हीं ... 

उहापाहो में

सफर काटता रहा ... 

जब उम्मीद 

अपनी पूरी नहीं हुयी 

सोच अपनी न रही 

सुधार खुद को न पाया 

तो शिकायत 

अब किससे 

और…

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Added by Amod Kumar Srivastava on February 25, 2015 at 8:58pm — 11 Comments

''कलमा''

तू मेहरबां है के खफा है मुझे पता तो लगे..

गुलशन में बातें सुलग रहीं है..जरा हवा तो लगे..

मोहब्बतों में ऐसा जलना भी क्या?बुझना भी क्या?

जले तो आंच न आये,बुझे तो न धुँआ लगे..

अजब हो गया है अब तो चलन मुहब्बतों का..

मै वफ़ा करूँ तो है उसको बुरा लगे...

वो चाहता है के मै उसके जैसा बन जाऊ...

है जो हमारे दरमियाँ न किसी को पता लगे..

इस साल भी बेटी न ब्याही जाएगी...

गन्ने/गल्ले का दाम देख किसान थका-थका सा…

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Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on February 25, 2015 at 8:00pm — 14 Comments

नए कल्प में सागर मंथन

फिर हुआ सागर-मंथन

नए कल्प में

इस बार रत्न निकले तेरह   

देवता व्यग्र ! विष्णु हैरान !

कहाँ गया अमृत-घट ?

 

समुद्र ने कहा

अब वह जल कहाँ

जिसमे होता था अमृत

जिसे मेरी गोद में

डालती थी गंगा

जिससे भरता था घट

 

अब तो शिव ने भी

दो टूक कह दिया है 

नहीं…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 25, 2015 at 5:00pm — 6 Comments

जला बैठे

न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे

खता कुछ हो गई मुझसे तभी तुझको गवा बैठे

सजा कर माँग तेरी मैं तुझे अपना बनाया था

तुम्हारे साथ मिल कर मैं घरौंदा इक बसाया था

खिले जब फूल आँगन में हुआ पूरा सभी सपना

तुम्हारे बिन नहीं कोई जमाने में लगे अपना

मगर ये भूल थी मेरी जो तुम से दिल लगा बैठे

ख़ता कुछ हो गई मुझसे तभी तुझको गवा बैठे

न देखी थी कभी सूरत मगर अपना बना बैठे

बना कर सेज़ फूलों की उसे सबने सजाया था

उठा कर मैं जमीं से फिर…

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Added by Akhand Gahmari on February 25, 2015 at 2:05pm — 6 Comments

ग़ज़ल--१२२२--१२२२--१२२२--१२२२...मुझे मालूम है यारों

मेरा देहात क्यूँ रोटी से भी महरूम है यारों

कहाँ अटका है रिज़्के-हक़ मुझे मालूम है यारों

 

उठा पेमेंट उसका क्यूँ नरेगा की मज़ूरी से

घसीटाराम तो दो साल से मरहूम है यारों

करें किससे शिकायत हम , कहाँ जायें गिला लेकर

व्यवस्था हो गई ज़ालिम बशर मज़लूम है यारों

सिखाओ मत इसे बातें सियासत की विषैली तुम

मेरा देहात का दिल तो बड़ा मासूम है यारों

लिए फिरता है वो कानून अपनी जेब में हरदम

जो कायम कायदों पर है बशर वो बूम…

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Added by khursheed khairadi on February 25, 2015 at 12:49pm — 22 Comments

ग़ज़ल : मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

माना मिट जाते हैं अक्षर कलम नहीं मिटती

मारो बम गोली या पत्थर कलम नहीं मिटती

 

जितने रोड़े आते उतना ज़्यादा चलती है

लुटकर, पिटकर, दबकर, घुटकर कलम नहीं मिटती

 

इसे मिटाने की कोशिश करते करते इक दिन

मिट जाते हैं सारे ख़ंजर कलम नहीं मिटती

 

पंडित, मुल्ला और पादरी सब मिट जाते हैं

मिट जाते मज़हब के दफ़्तर कलम नहीं मिटती

 

जब से कलम हुई पैदा सबने ये देखा है

ख़ुदा मिटा करते…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 25, 2015 at 12:30pm — 29 Comments

ग़ज़ल - निर्मल नदीम

गिरा के अपनी ही आँखों से खून काग़ज़ पर,

तलाश करता रहा दिल सुकून काग़ज़ पर.



जला के खाक ही कर दे जहान को आशिक़,

अगर उतार दे अपना जुनून काग़ज़ पर..

ग़ज़ल का एक भी मिसरा नहीं कहा मैनें,

थिरक रहा है किसी का फुसून काग़ज़…

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Added by Nirmal Nadeem on February 25, 2015 at 12:00pm — 24 Comments

फागुनी दोहे २

 

लहकी कलियाँ डाल पर ,आँगन छिटकी धूप

चौपाले रौशन हुईं ,बाल बृंद सुर भूप ॥

 

सगुन  चिरैया भोर में, देती शुभ संदेश

पीहर आवे लाडली…

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Added by kalpna mishra bajpai on February 25, 2015 at 11:30am — 9 Comments

ग़ज़ल--122--122 / 122 --122 चमन की कहानी

कहूँ आपसे क्या थकन की कहानी

न समझोगे गाफ़िल बदन की कहानी

 

बनाती है ज़र्रे को रोशन सितारा

लुभाती बहुत है लगन की कहानी

 

समझ लो य’ अश्कों का सावन निरख कर

लबों से कहूँ क्या नयन की कहानी

 

जली उँगलियों से ज़रा पूछ आओ

कहेंगे फफोले हवन की कहानी

 

हर इक गम को ढाला ग़ज़ल में मुसल्सल

है झूठी अदीबों ग़बन की कहानी

 

सुनाते मिलेंगे चहकते चहकते

कफ़स में परिंदे चमन की कहानी

 

किरन दर…

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Added by khursheed khairadi on February 25, 2015 at 11:00am — 8 Comments

शेरों की दुनियाँ---डा० विजय शंकर

शेरों की दुनियाँ अजीब ,

जमाना अजीब होता है,

हर शेर अज़ब होता है,

हर शेर गज़ब होता है,

शेर सवाल, शेर जवाब होता है

शेर का जवाब भी शेर होता है

शेर पर शेर , सवा सेर होता है |



हमको भी शौक चर्राया,

हम भी आ गए शेरों के बीच ,

अपने चूहे बिल्ली लेकर ,

उन्होंने वो हंगमा बरपाया

कि शेर शेर घबड़ाया , बोला ,

अरे ,ये कौन शेर के जंगल में चला आया |



शेरों की अपनी एक तहजीब होती है ,

एक अदब , एक तमीज होती है ,

क़यामत होती है , एक… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on February 25, 2015 at 10:55am — 24 Comments

राष्ट्रधर्म: छन्द- दोहा

राष्ट्रधर्म ही सार है, राष्ट्रधर्म ही मूल ,

लेशमात्र सन्देह भी, कर देगा सब धूल !

 

रहे राष्ट्र के प्यार में, मानव का हर कृत्य,

रोम–रोम में राष्ट्रहित, क्या अफसर क्या भृत्य !

 

राष्ट्रघात या द्रोह से, जग में प्रलय दिखाय,

राष्ट्रप्रेम वह शक्ति है, विश्वविजय हो जाय !

 

राष्ट्र इतर अस्तित्व सब, समझो है बेजान ,

राष्ट्र रहे तो सब रहे, आन बान औ शान !

 

लहू बहा दो राष्ट्रहित, और बहा दो स्वेद,

प्राण जाय गर…

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Added by Hari Prakash Dubey on February 25, 2015 at 9:30am — 13 Comments

धुंध का परदा हटाओ - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'

2122    2122    2122    212

*******************************

झील के पानी  को  फिर से बादलों ताजा करो

नीर हो  झरते  रहो तुम मत कभी ठहरा करो

***

सिर्फ गर्जन  के लिए  कब  धूप जनती है तुम्हें

प्यास  खेतों  की  बुझाओ  खेल  से  तौबा करो

***

जान का भय  किसलिए है परहितों की बात जब

धुंध  का  परदा   हटाओ   दूर   तक   देखा   करो

***

सूर्य  के  तुम  वंशजों  में  छोड़   दो  मायूसियाँ

त्याग दो  जीवन भले ही तम को मत पूजा करो

***

यूँ अँधेरों की  तिजारत …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 25, 2015 at 6:00am — 14 Comments

ऐ मौला

जीवन कठिनाईयों मे 

गुजर रहा है ऐ मौला 

रात गुजर रही है 

बगैर नींद के ऐ मौला 

बेपरवाह एक जुगनू 

खलल डाल रहा ऐ मौला 

सफर मे चला जा रहा हूँ 

मंजिल की तलाश मे ऐ मौला

कहता बहुत हूँ, चीखता बहुत हूँ 

सुनता कोई नहीं ऐ मौला 

काली रात कटेगी, सुबह तो होगी 

इंतजार मे हूँ ऐ मौला 

जख्म इतना दिया कि 

इंतहा कि हद कर दी 

जख्म के दर्द का अहसास न रहा ऐ मौला

खारा हो गया हूँ जैसे समंदर का पानी 

अब…

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Added by Amod Kumar Srivastava on February 24, 2015 at 8:07pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल

122 122 122 122



ये अकुलाहटें मेरे मन की कहूँ क्या

तड़प बेकरारी नयन की कहूँ क्या



उठे है धुआँ सा दिलो जाँ से मेरे

जली है ज़मीं भी चमन की कहूँ क्या



चला जा रहा हूँ सफ़र में मैं पैहम

नहीं इंतिहा है थकन की कहूँ क्या



तरसता रहा उम्र भर फूल को वो

ये आराइशें इस कफ़न की कहूँ क्या



मुझे लूटकर घर तलक छोडा़ उसने

वफ़ा देखिये राहजन की कहूँ क्या



निशां बह गया वक्त की मौज के साथ

अदा रह गई बांकपन की कहूँ… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on February 24, 2015 at 7:36pm — 14 Comments


प्रधान संपादक
कामवाली (लघुकथा)

"अरी भागवान, क्यों हमेशा कामवाली के पीछे हाथ धोकर पडी रहती हो ?"

"आजकल इसका दिमाग बहुत ख़राब हो गया है।"  

"आखिर बात क्या हुई?"  

"एक हो तो बताऊँ। बिना बताये छुट्टी मार जाती है, काम करते हुए मौत पड़ती है इसे, पर एडवांस हर महीने चाहिए मुई को"

"अरे शान्त रहो, वो सुन रही है।"     

"सुनती है तो सुने, गर्मियों के बाद उठा कर बाहर फ़ेंक दूँगी इसको।"

"मगर कामवाली के बगैर घर के इतने सारे काम कौन करेगा ?"

"क्यों ? बेटे की शादी करके नई बहू किस लिए ला रहे हैं…

Continue

Added by योगराज प्रभाकर on February 24, 2015 at 12:48pm — 20 Comments

मैं एक हिंदुस्तानी औरत हूँ - परी ऍम. 'श्लोक'

आदमी क्या खूब कोशिश करते हैं

गम मिटाने के लिए...

ले कर जाम हाथों में अपने

रोज़ कहते हैं

कि वो टूटे हैं बिखरे हैं बेहाल बेहद हैं

रोज़ कहते हैं

करता हूँ नशा सबकुछ भूल जाने के लिए

फूंकता हूँ सिगरेट हर फ़िक्र धुंए में उड़ाने के लिए

सोचती हूँ कि

कितनी तरकीब हैं आदमी के पास

अपने आपको सुकून पहुँचाने के लिए

मगर

मेरे पास अपने दर्द में असीर रहने के सिवा

कोई राह राहत की नज़र नहीं आती

मैं ये शौक भी अता नहीं फरमा सकती

हाँ! मुझे अक्सर ये… Continue

Added by Pari M Shlok on February 24, 2015 at 11:07am — 19 Comments

हमको हमीं से छुपाता कौन है -- डॉ o उषा चौधरी साहनी

सुनते आये हैं, सारी नज़ाकत 

कायनात को हम नारियों से मिली है ,

बीर बहूटी को मखमल ,

गुलाब को लाली, हमीं से मिली है ,

कायनात खुद कहीं-कहीं बेइंतहा सख्त है ,

चट्टान है, आंधी है , धूल है , तूफ़ान है,

फिर भी गुलाब हैं, तितलियाँ हैं, चाँद है,

चाँदनी है, ठंडी हवाएँ हैं , नदियों में चढ़ाव है.

ये कठोर कायनात की ही करामात है ,

हमारी मासूमियत पर रोज़ ये ग्रहण लगाता कौन है.

हमारी मासूमियत हमसे चुराता कौन है,

बचपन से हमको हरदम डराता कौन है,

ये चेहरे पे…

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Added by Usha Choudhary Sawhney on February 24, 2015 at 10:45am — 18 Comments

कल और आज...(लघुकथा)

“बेटा!.. तुझे याद है न.. जब तू स्कूल में प्रथम श्रेणी  में आया था ,  मुझे कितनी ख़ुशी हुई थी . सभी लोग  यही कह रहे  थे  कि मेरा बेटा है" 

“ हाँ!..पर रात-दिन पढाई मैंने की थी, आपने जो किया था  वो आपका फर्ज था "

“ हाँ! बेटा यही समझ ले, बस मुझे इसी घर में रहने दे. अब गली-गली दरबदर फिरूंगा, तो लोग यही कहेंगे की तेरा बाप हूँ...”

    जितेन्द्र पस्टारिया

 (मौलिक व् अप्रकाशित )

 

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on February 24, 2015 at 10:39am — 27 Comments

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