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May 2018 Blog Posts (139)

संतुलन - लघुकथा

'संतुलन'

"चाय ठंडी हो गयी छोटे, ले न।" भैया के शब्दों से हमारे बीच पसरी ख़ामोशी भंग हो गयी।

हाँ! लेता हूँ भाई साहब, आपको तो पता हैं कि मैं आपकी तरह चाय 'कड़क गर्म' नहीं बल्कि बिलकुल ठंडी करके पीता हूँ।" मैं हल्का सा मुस्करा दिया।

बरसों पहले अपने हिसाब से जीने की चाहत लिये मैं, भैया से जायदाद का हिस्सा ले बच्चों सहित शहर चला गया था। उसके बाद आपसी रिश्ते कब कम होते-होते एक अंतहीन चुप्पी में बदल गए थे, पता ही नहीं चला। आज किसी काम से इधर आया तो अनायास ही घर की ओर कदम उठ गए। लेकिन ढलती… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on May 9, 2018 at 7:21pm — 12 Comments

डूब गए ...

डूब गए ...

तिमिर
गहराने लगा
एक ख़ामोशी
सांसें लेने लगी
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी


तैर रहे थे
निष्पंद से
कुछ स्पर्श
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी


सुलग रहे थे
कुछ अलाव
चाहतों की
अदृश्य मुंडेरों पर
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी


डूब गए
कई जज़ीरे
ख़्वाबों के
खामोश से तूफ़ान में
तेरे अंदर भी
मेरे अंदर भी

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 3:21pm — 2 Comments

ग़ज़ल(हुस्न और इश्क़ की कहानी है)

(फ़ा इलातुन--मफाइलुन--फ़ेलुन)

हुस्न और इश्क़ की कहानी है।

एक है आग एक पानी है।

कह रही है वफ़ा जिसे दुनिया

उसको पाने की मैं ने ठानी है।

बन के आए हैं वो तमाशाई

आग घर की किसे बुझानी है।

सोच कर कीजियेगा तर्के वफ़ा

अपनी यारी बहुत पुरानी है।

घिर गए मुश्किलों में और भी हम

आप की बात जब से मानी है।

वो अदावत से काम लेते हैं

हम को जिन से वफ़ा निभानी है।

प्यार को क्या…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on May 9, 2018 at 3:00pm — 17 Comments

ग़ज़ल(चरागे उम्मीद जल गया है)

(मफा इलातुन---मफा इलातुन)

किसी का लहजा बदल गया है।

चरागे उम्मीद जल गया है।

मैं क्यूँ न समझूँ इसे मुहब्बत

वह मेरा शाना मसल गया है

भला खफ़ा क्यूँ हैं आइने पर

था हुस्न दो दिन का ढल गया है।

ख़ुदा मुहाफ़िज़ है अब तो दिल का

निगाह से तीर चल गया है।

वो मिल गए तो लगा है ऐसा

जो वक़्ते गर्दिश था टल गया है।

जो बीच अपने था भाई चारा

उसे त अस्सुब निगल गया है।

मिली है तस्दीक़…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on May 9, 2018 at 3:00pm — 15 Comments

संग दीप के .....

संग दीप के  ... 

जलने दो

कुछ देर तो

जलने दो मुझे

मैं साक्षी हूँ

तम में विलीन होती

सिसकियों की

जो उभरी थी

अपने परायों के अंतर से

किसी की अंतिम

हिचकी पर

मैं साक्षी हूँ

उन मौन पलों की

जब एक तन ने

दुसरे तन को

छलनी किया था

मैं

बहुत जली थी उस रात

जब छलनी तन

मेरी तरह एकांत में

देर तक

जलता रहा

मैं साक्षी हूँ

उस व्यथा की

जो…

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Added by Sushil Sarna on May 9, 2018 at 2:30pm — 4 Comments

आग नई फिर बुन लो ना ( गीत)

क्यों बुझे बुझे से बैठे हो ,

आग नई फिर बुन लो ना |

भटक गए गर राह कहीं तुम ,

राह नई फिर चुन लो ना |

बुझे बुझे से ...........

दुःख सुख तो हैं आते जाते  ,

बात सभी हैं ये ही कहते …

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Added by Maheshwari Kaneri on May 9, 2018 at 1:30pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की - याद आया है गुज़रा पल कोई

याद आया है गुज़रा पल कोई
लेगी अँगड़ाई फिर ग़ज़ल कोई.
.
कोशिशें और कोई करता है
और हो जाता है सफल कोई.
.
ज़िन्दगी एक ऐसी उलझन है
जिस का चारा नहीं न हल कोई.
.
इश्क़ में हम तो हो चुके रुसवा
वो करें तो करें पहल कोई.
.
हिज्र में आँसुओं का काम नहीं   
ये इबादत में है ख़लल कोई.
.
इक सिकंदर था और इक हिटलर
आज तू है तो होगा कल कोई.
.
निलेश "नूर"
मौलिक/ अप्रकाशित  

Added by Nilesh Shevgaonkar on May 9, 2018 at 7:54am — 11 Comments

ग़ज़ल - हम अपने हिस्से का ही आसमान दे बैठे

बह्र - मफाइलुन फइलातुन मफाइलुन फैलुन

वो किस तरह से मुकरते ज़ुबान दे बैठे।

तभी कचहरी मे झूठा बयान दे बैठे।

तमाम दाग थे दामन में जिसके उसको ही

टिकट चुनाव का आला कमान दे बैठे।

दिखाया स्वर्ग का सपना हमें जो ब्राह्मण ने

तो दान में उसे अपना मकान दे बैठे।

जो बात करते थे कल राष्ट्र भक्ति का साहब,

वो चन्द सिक्कों में अपना ईमान दे बैठे।

जब उनके प्यार को माँ बाप ने नकार दिया,

नदी में डूब के वो अपनी जान दे…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on May 9, 2018 at 5:42am — 10 Comments

आलू सरीखे (लघुकथा)

भीड़-भाड़ वाले सार्वजनिक स्थान के पास सड़क के किनारे दो पानी टिक्की के ठेले वाले सामने की साऊथ-इंडियन होटल में बढ़ती भीड़ से जलते हुए बातचीत में मशगूल थे।



"तू तो अच्छा मुंह चला लेता है! लम्बे भाषण भी दे सकता है! किसी बड़े राजनीतिक दल में शामिल हो जा, पता नहीं कब तेरे भी दिन फिर जायें!" ठेले में चार-पांच तरह के चटपटे पानी की बरनी संभालते पानी-टिक्की वाले ने दूसरे से कहा।



"ऐसी ही बात मैं तेरे लिए कहूं, तो? तू भी तो चतुराई से फूली हुई टिक्की में इतनी तरह के पानी…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 9, 2018 at 2:30am — 7 Comments

ग़ज़ल

212 212 212 212

हो गईं इश्क में कैसी दुश्वारियां ।

हाथ आती गयीं सिर्फ बेचैनियां ।।1

क्यों हुई ही नहीं तुमसे नजदीकियां ।

हम समझने लगे थोड़ी बारीकियाँ ।।2

इस तरह मुझपे इल्जाम मत दीजिये ।

कब छुपीं आप से मेरी लाचारियां ।।3

उनकी तारीफ़ करती रहीं चाहतें ।

वो गिनाते रहे बस मेरी खामियां ।।4

दिल चुरा ले गई आपकी इक नजर ।

कर गए आप कैसे ये गुस्ताखियां ।5

दिल जलाने की साजिश से क्या फायदा ।

दे गया कोई…

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Added by Naveen Mani Tripathi on May 9, 2018 at 1:57am — 5 Comments

**प्रतिबिंब** (लघुकथा)राहिला

" पापा कह रहे थे कि आपने अपना व्यवसाय जमाने के चक्कर में अब तक शादी नहीं की , यही कारण रहा था या और कुछ ?" उस एकांत मुलाकात में मोना ने रवि से पूछा। " आपके मन में ये सवाल आया , मतलब आपको लगता है कि कोई और भी कारण हो सकता है ?" "जी... , बस ऐसे ही शंका हुई ।" उसके प्रतिप्रश्न पर वह तनिक सकपका गयी। "हम्म..., मुझे भी माँ ने ऐसा ही कुछ आपके बारे में बताया था।" "क्या...?" "यही कि आपने भी अपने कैरियर को सँवारने के लिए काफी अच्छे- अच्छे रिश्ते ठुकराये हैं? कारण यही था, या कुछ और? " प्रतिध्वनि के…

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Added by Rahila on May 9, 2018 at 12:02am — 4 Comments

मुझको गले लगाती है(ग़ज़ल)

 मुझको गले लगाती है।

 तब जाकर फुसलाती है।।

 कितने मरते होंगे जब।

 होठ चबा मुस्काती है।।

 चूम चूमकर आँखों से।

 मेरा दर्द बढ़ाती है।।

 जलन चाँद को होती है।

 वो छत पे जब आती है।।

 छिपकर देखा करती है।

 मैं देखूँ छिप जाती है।।

 2222222

मौलिक अप्रकाशित

 राम शिरोमणि पाठक

Added by ram shiromani pathak on May 8, 2018 at 10:02pm — 9 Comments

क्षणिकाएं : ....


क्षणिकाएं : ....

१,
मौत
देती है
ज़िंदगी
मौत को

२.
शूल के
प्रतिबन्ध से
पुष्प
वंचित रहा
स्पर्श से

३.

मयंक
आधी खाई रोटी से
लुभा रहा था
अन्धकार को

सुशील सरना

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 8, 2018 at 12:27pm — 2 Comments

नारी मन (कविता)



नारी का मन

न जाने कोई

जाने गर तो

न पहचाने कोई

एक पहेली बनती नारी

हास परिहास की शिकार है नारी

नव रसों में डूबी हुई

अनोखी पर सशक्त है नारी

कौन जाने कब हुआ जन्म

श्रुष्टि रचयिता में सहभागी है नारी

हर रिश्ते में बाँधा है इसको

माँ, बहन, चाची औ मासी

पूर्ण होता संसार है इससे

अर्धनारीश्वर का रूप धरा शिव ने

नारी का सम्मान बढ़ाया

युग बदला

बदली है नारी

परम्परा से आधुनिकता की राह पर

आज देखो चल पड़ी है नारी

कदम कदम पर…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on May 8, 2018 at 11:07am — 11 Comments

लालटेन(लघुकथा)

स्कूटर फर्राटे से थाने के सामने निकला।यह बात थाने को नागवार गुजरी।एक सिपाही ने हाथ दिया।स्कूटर रुक गया।उसने थाने के कंपाउंड में चलने का इशारा किया।अब स्कूटर थाने के मेन गेट पर खड़े इंचार्ज के सामने खड़ा था।सवार बगल में थे।इंचार्ज ने गाड़ी के कागज की माँग की,जो दिखा दिए गए।उसे गाड़ी का नंबर पढ़ने में दिक्कत हो रही थी।बार बार बताने के बावजूद वह अटक रहा था।अंत में स्कूटर सवार बुजुर्ग ने ध्यान दिलाया कि नंबर तो ठीक ही लिखा हुआ है।हाँ, लिखावट थोड़ी फीकी हो गयी है।लजाया-सा इंचार्ज झिझक भरे लहजे में…

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Added by Manan Kumar singh on May 8, 2018 at 7:23am — 13 Comments

श्रमिकों के जीवन पर आधारित मेरे 21 दोहे

कहीं बनाते हैं सड़क, कहीं तोड़ते शैल

करते श्रम वे रात दिन, बन कोल्हू के बैल।1।

नाले देते गन्ध हैं, उसमें इनकी पैठ

हवा प्रवेश न कर सके, पर ये जाएँ बैठ।2।

काम असम्भव बोलना, सम्भव नहीं जनाब

पलक झपकते शैल को, दें मुट्ठी में दाब।3।

चना चबेना साथ ले, थोड़ा और पिसान

निकलें वे परदेश को, पाले कुछ अरमान।4।

सुबह निकलते काम पर, घर से कोसों दूर

भूमि शयन हो शाम को, होकर श्रम से चूर।5।

ईंट जोड़…

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Added by नाथ सोनांचली on May 7, 2018 at 5:30pm — 24 Comments

सुलगन :....

सुलगन :

तुम
अपना तमाम धुआँ
मुझे सौंप
चले गए
मुझे अकेला छोड़

मेरी देह
तुम्हारे धुएँ की गर्मी से
देर तक
ऐसे सुलगती रही
जैसे
गरम सिगरेट की
झड़ी हुई राख से
सुलगती है
कोई
ऐश -ट्रे
देर तक

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on May 7, 2018 at 4:21pm — 8 Comments

रेशमी जाले (लघुकथा)

"अरे पप्पा! यह तो आपकी प्रिय हीरोइन है न! मोबाइल के इस नये विज्ञापन में यह क्यों कह रही है कि 'पूरा भारत यूं घूम रहा है' !" - इतना कह कर 'बड़े से घेरे वाली नई मिनी फ्रॉक' पहने आठवीं कक्षा की छात्रा अपने युवा देशभक्त-नेता पिता का हाथ थाम उनके चारों तरफ़ चक्कर लगाने लगी!



"यह तो 'मोबाइल नेटवर्क' का विज्ञापन सा लग रहा है! अपने देश का 'व्यापारिक नेटवर्क' इस वैश्वीकरण में 'घूमने' से ही बेहतरीन हो रहा है न!" युवा पिता ने अपनी बेटी की…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 7, 2018 at 2:58pm — 8 Comments

'ग़ज़ल कहने जो बैठोगे तो नानी याद आएगी'

(चौथे शैर में तक़ाबल-ए-रदीफ़ नज़र अंदाज़ करे)

नसीहत जो बुज़ुर्गों की न मानी याद आएगी

हमें ता उम्र उनकी सरगरानी याद आएगी

मियाँ मश्क़-ए-सुख़न कर लो नहीं ये खेल बच्चों का

ग़ज़ल कहने जो बैठोगे तो नानी याद आएगी

ज़माने भर की आसाइश के जब सामाँ बहम होंगे

तुझे माँ-बाप की क्या जाँ फ़िशानी याद आएगी

जुड़ी होंगी मज़ालिम की बहुत सी दास्तानें भी

हवेली गाँव की जब ख़ानदानी याद…

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Added by Samar kabeer on May 7, 2018 at 12:00pm — 34 Comments

समाज सेवा - लघुकथा –

समाज सेवा - लघुकथा –

दद्दू नब्बे का आंकड़ा पार कर चुके थे। पूरा परिवार शहर में बस गया था लेकिन दद्दू गाँव में अपनी पुस्तैनी हवेली में ही पड़े थे। उनकी देखभाल और तीमारदारी के लिये बड़ी बहू साथ में थी। खाने पीने से ज्यादा दद्दू की दवाईयों का ख्याल रखना पड़ता था। यूं कहो कि दद्दू दवाओं के सहारे ही जीवित थे। दद्दू की दुनियाँ एक बिस्तर पर सिमट चुकी थी।

"दद्दू, मुँह खोलो, दवा खालो"?

"बहू, अब ये दवाओं का सिलसिला खत्म कर दो। एक बार बस छुट्टन को बुलादो। उससे मिलकर अलविदा कह…

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Added by TEJ VEER SINGH on May 7, 2018 at 11:50am — 14 Comments

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