For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

July 2014 Blog Posts (174)

बड़े भाई का अंतिम पत्र

 (कल्पना करे कि यह पत्र  छोटे भाई को तब मिला  जब  बड़े भाई की मृत्यु हो चुकी थी  i

प्रिय जी. एन.

      मै तुमसे कुछ मन की बाते करना चाहता था i पर तुम नहीं आये I तुम अगर मेरे मन की हालत समझ पाते तो शायद ऐसा नहीं करते I अब तुम्हारे आने की उम्मीद मुझे नहीं जान पड़ती  I इसीलिये यह पत्र लिख रहा हूँ I अगर कोई बात अनुचित लगे तो मुझे क्षमा कर देना  I

मेरे भाई, आज हम जीवन के उस मोड़ पर पहुँच चुके हैं, जहा से आगे का जीवन उतना भी बाकी नहीं है जितना हम अब तक भोग आये हैं I इस…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 26, 2014 at 5:00pm — 15 Comments

कर्तव्य...(लघुकथा)

“ अरे! बेटा..तैयार हो रहे हो. अगर बाहर तक  जा रहे हो तो अपने पिता कि दवाई ले आओ, कल कि ख़त्म हुई है”

“ अरे! यार मम्मी!!   मैं जब भी बाहर निकलता हूँ , आप टोंक देती हो. आपको  पता है न, हमारी पूरी एन.जी.ओ. की टीम पिछले हफ्ते से गरीब और असहाय लोगों कि सहायता के लिए गाँव-गाँव घूम रही है. शायद ! आप जानती  नही हो, अभी  मेरी  सबसे बढ़िया प्रोग्रेस  है पूरी टीम में ”

 

        

जितेन्द्र ‘गीत’

 (मौलिक व् अप्रकाशित)    

Added by जितेन्द्र पस्टारिया on July 26, 2014 at 1:30pm — 26 Comments

इक ज़माना हो जाता है …

इक ज़माना हो जाता है …

आदमी

कितना छोटा हो जाता है

जब वो पहाड़ की

ऊंचाई को छू जाता है

हर शै उसे

बौनी नज़र आती है

मगर

पाँव से ज़मीं

दूर हो जाती है

उसके कहकहे

तन्हा हो जाते हैं

लफ्ज़ हवाओं में खो जाते हैं

हर अपना बेगाना हो जाता है

ऊंचाई पर उसकी जीत

अक्सर हार जाती है

वो बुलंदी पर होकर भी

खुद से अंजाना हो…

Continue

Added by Sushil Sarna on July 26, 2014 at 1:00pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
कँपकपी - एक अतुकांत चिंतन ( गिरिराज भंडारी )

कँपकपी

********

तुम कौन हो भाई ?

जो शीत से कँपकपाती मेरी देह की कँपकपी को झूठी बता रहे हो

शीत एक सत्य की तरह है

और कंपकपी मेरी देह पर होने वाला असर है

शीत-सत्य पर मेरा अर्जित अनुभव , व्यक्तिगत  , सार्वभौमिक तो नहीं न

 

क्या तुम्हारे माथे पर उभर आयीं पसीने की बून्दें भी झूठी है

क्या मैने ऐसा कहा कभी ?

ये तुम्हारा व्यक्तिगत अनुभव है , इस मौसमी सच की आपकी अपनी अनुभूति

तुम्हारी देह की प्रतिक्रिया पसीना है , तो है , इसमे…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on July 26, 2014 at 12:00pm — 9 Comments

खेती - किसानी -दोहे //प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //

खेती - किसानी -दोहे //प्रदीप कुमार सिंह कुशवाहा //

-----------------------------------------------------

मौसम फसल खरीफ का पानी की दरकार

खेतों में पानी नही सोती है सरकार



खेती खुद करना भली जानत है सब कोय

बटाई में जबहि दिये फल मीठा नहि होय



फसल समय से बोइये ध्यान से सुने बात

बढ़िया फसल होय सदा सुखी रहो दिन रात



खाद संतुलित डालिये मिट्टी जाँच कराय

बंजर भूमि नही बने इसका यही उपाय



खेत सुरक्षित रहे सदा चिंता करें न…

Continue

Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on July 25, 2014 at 1:30pm — 4 Comments

भाषण

गाड़ी रुकते ही सामने से एक छोटी बच्ची अपने पीठ पर भाई को टांगे हुए लपकी । "बाबूजी , कुछ दे दो ना , भाई को भूख लगी है" , सुनते ही एक पल को तो दया आई लेकिन फिर न जाने क्यों क्रोध आ गया । "तुम लोग भी , इतनी कम उम्र में भीख मांगने लगते हो , पता नहीं कैसे माँ बाप हैं जो पैदा करके इनको सड़क पर छोड़ देते हैं"।
" चल बाबू , ये साहब भी भाषण ही देंगे , कुछ और नहीं दे सकते" और वो दूसरे गाड़ी की ओर बढ़ गयी ।

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on July 25, 2014 at 1:41am — 5 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़ी

ये  तो गूंगों की नगरी है भैया जी

सरकार हमारी बहरी है भैया जी

 

दंगों में दोस्त दोस्त क्यों मरते हैं

प्यार मुहब्बत भी बकरी है भैया जी

 

राजा को वनवास कहाँ अब मिलता है

आस लगाये अब शबरी है भैया जी

 

दिखावटी का अफ़सोस जताता है वो

वो शख्स बड़ा ही शहरी है भैया जी

 

कुछ खत जले कहीं जब शहनाई गूँजी

आशिक की डूबी गगरी है भैया जी

मौलिक व अप्रकाशित

गुमनाम पिथौरागढ़ी

Added by gumnaam pithoragarhi on July 24, 2014 at 10:00pm — 8 Comments

गीत

क्यों होती बेटियाँ

थोड़ी पराईं सी ?

होती हैं बेटियाँ

माँ की परछाईं सी।  

 

घर से वो निकलें जब

थोड़ा सा सहम-सहम

करती वो गलती बुरे

लोगों पर रहम कर

क्यों होती बेटियाँ

थोड़ी पछताईं सी?

 

जग करता मुश्किल

उनकी हर राहें

करतीं हैं पीछा शातिर निगाहें

क्यों होतीं बेटियाँ

तोड़ीं घबराईं सी ?

 

पैरों में उनके रिश्तों की पायल

तानें देके सभी करते हैं घायल

क्यों होती…

Continue

Added by kalpna mishra bajpai on July 24, 2014 at 8:30pm — 4 Comments

धूप -कविता

धूप 



 

जिधर देखो आज

धुन्धलाइ सी है धूप. 

 

न जाने आज क्यों?

कुम्हलाई सी है धूप. 

 

आसमाँ के बादलों से

भरमाई सी है धूप. 

 

पखेरूओं की चहचाहट से

क्यों बौराई सी है धूप? 

 

पेड़ों की छाँव तले

क्यों अलसाई सी है धूप? 

चैत के माह में भी

बेहद तमतामाई सी है धूप. 

 

हवाओं की कश्ती पर सवार

क्यों आज लरज़ाई सी है धूप?

"मौलिक व…

Continue

Added by Veena Sethi on July 24, 2014 at 5:30pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - कभी दोश अश्कों से तर रहा ( गिरिराज भंडारी )

11212     11212      11212       11212  

न तो आँधियाँ ही डरा सकीं , न ही ज़लजलों का वो डर रहा

तेरे नाम का लिये आसरा , सभी मुश्किलों से गुजर रहा

 

न तो एक सा रहा वक़्त ही , न ही एक सी रही क़िस्मतें

कभी कहकहे मिले राह में , कभी दोश अश्कों से तर रहा

 

कोई अर्श पे जिये शान से , कहीं फर्श भी न नसीब हो 

कहीं फूल फूल हैं पाँव में , कोई आग से है गुज़र रहा

 

तेरी ज़िन्दगी मेरी ज़िन्दगी , हुआ मौत से जहाँ सामना

हुआ हासिलों…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on July 24, 2014 at 2:30pm — 22 Comments

वह राज तंत्र था --डा० विजय शंकर

वह एक राजतंत्र था

एक द्रौपदी थी , एक ही ,

वह भी थी उसी कुल की .

पिता तुल्य राजा था वह ,

सचमुच पूरा अंधा था वह .

पितामह भी थे, अंध नहीं

पर अंध स्वामिभक्त थे,

सत्ता नहीं सत्ताधारियों के

प्रति समर्पित, आसक्त थे .

चीर हरण था , वह भी

संकेतात्मक , विफल .

पर ले डूबा कुल वंश ,

अंध स्वामिभक्त बड़े

अधिष्ठाता भी नहीं बचे ,

बड़े कष्ट से मुक्त हुए .

हुए नष्ट पाप के सब सहभागी

सती जस माता रही अभागी .

बचा संग अंधा राजा ,… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on July 24, 2014 at 10:55am — 14 Comments

सावन के झूलों ने मुझको बुलाया

सावन के झूलों ने मुझको बुलाया

डॉ० ह्रदेश चौधरी

मदमस्त चलती हवाएँ, और कार में एफएम पर मल्हार सुनकर पास बैठी मेरी सखी साथ में गाने लगती है “सावन के झूलों ने मुझको बुलाया, मैं परदेशी घर वापिस आया”। गाते गाते उसका स्वर धीमा होता गया और फिर अचानक वो खामोश हो गयी, उसको खामोश देखकर मुझसे पूछे बिना नहीं रहा गया। वो पुरानी यादों में खोयी हुयी सी मुझसे कहती है कहाँ गुम हो गए सावन में पड़ने वाले झूले, एक…

Continue

Added by DR. HIRDESH CHAUDHARY on July 23, 2014 at 7:30pm — 8 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
चुभें ये अगर साफ़ बातें मेरी (ग़ज़ल 'राज')

१२२  १२२  १२२  १२

 

जहाँ  गलतियाँ हों बता दें मेरी

चुभें  ये  अगर साफ़ बातें मेरी

 

तुम्हें जिन्दगी दी तो हक़ भी मिला

तुम्हारे कदम पे निगाहें  मेरी

 

हर इक मोड़ पर तुम मुझे पाओगे

नहीं हैं जुदा तुमसे राहें  मेरी

 

तुम्हें नींद आती नहीं है अगर

कहाँ फिर कटेंगी ये रातें मेरी

 

छुपा क्या सकोगे जबीं की शिकन

हमेशा पढ़ेंगी ये आँखें मेरी

 

तुम्हारी हिफ़ाज़त करूँ जब तलक

चलेंगी तभी तक…

Continue

Added by rajesh kumari on July 23, 2014 at 11:30am — 17 Comments


मुख्य प्रबंधक
लघुकथा : महाचोर

"अरे जरा पता तो कर, इस एरिआ में स्साला कौन पैदा हो गया जो मेरे घर में चोरी कर गया." नेताजी गरजते हुए बोले । 
"भईया जी, पता चल गया है, इ काम कल्लुआ गिरोह का है, चोरी के माल के साथ बड़का गाँव में छुपा हुआ है, आप कहें तो पुलिस भेज कर उसे चोरी के माल के साथ गिरफ्तार करवा दें ?"
"अबे पगला गया है क्या ? जीते जी मरवायेगा !!! उ कल्लुआ को खबर करवा दे,…
Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on July 23, 2014 at 9:30am — 18 Comments

स्वाद

"ये क्या मम्मी , फिर आपने इस ठेले वाले से सब्ज़ी खरीद ली । कितनी बार कहा है की सामने वाले शॉपिंग माल से ले लिया करो । सब्ज़ियाँ ताज़ी भी मिलती हैं और अच्छी भी । क्या मिलता है आपको इसके पास"।

"बेटा , इसकी सब्ज़ी में अपनापन है और उसमे जो स्वाद मिलता है न वो और कहीं नहीं मिलता"।

मौलिक एवँ अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on July 23, 2014 at 3:00am — 12 Comments

वह लड़की

वह लड़की!

मैं उसे बदलना चाहती थी

उसे पुराने खोह से निकालकर

पहनाना चाहती थी एक नया आवरण.

उसके बाल लम्बे होते थे

अरण्डी के तेल से चुपड़ी

भारी गंध से बोझिल

वह ढीली-ढाली सलवार पहनती थी

वह उस में नाड़ा लगाती थी

उसके नाखून होते थे मेँहदी से काले

एकाध बार सफ़ेद किनारा भी दिख जाता.

वह चलती थी सर झुकाये.

वह चुप रहती

मगर....उसके मन में सागर की लहरों

का सा होता घोर गर्जन.

आँखों में हरदम एक तूफ़ान लरजता

उसकी…

Continue

Added by coontee mukerji on July 22, 2014 at 9:12pm — 10 Comments

ग़ज़ल ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,गुमनाम पिथौरागढ़

२१२२  १२२२   २

झोपड़ी को डुबाने निकले
सारे बादल दिवाने   निकले

खेत घर हो गए बंजर से
बच्चे बाहर कमाने  निकले

द्रोपदी सी प्रजा है बेबस
जब से राजा ये काने  निकले

आदमी भूल आदम की पर
पाक खुद को बताने  निकले

जब्त गम को किया तब हम भी
इस जहां को हँसाने  निकले

माँ को खोया तो समझा मैंने
हाथ से जो खजाने  निकले

मौलिक व अप्रकाशित

गुमनाम पिथौरागढ़ी

Added by gumnaam pithoragarhi on July 22, 2014 at 7:00pm — 10 Comments

बैसाखियाँ- डा० विजय शंकर

बैसाखियाँ बैसाखियाँ बैसाखियाँ ,

हर तरफ बैसाखियाँ ,

उनके लिए जिन्हें जरुरत है ,

उनकें लिए भी , जिन्हें जरुरत नहीं है .

लोगों को बैसाखियों की जरुरत हो न हो

बैसाखियों को तो सबकी जरुरत है.

सब उन्हें लें , उनके सहारे आगे बढ़ें ,

अन्यथा बिलकुल न बढ़ें , नहीं तो ,

बढ़ना क्या , चलने लायक नहीं रह जायेगें .

फिर हमारे पास , हमको लेने आयेंगें .

हमें समझें , हमारा महत्व समझें ,

क्यों हमारा धंधा खराब करते हैं



मौलिक एवं अप्रकाशित.

डा० विजय… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on July 22, 2014 at 1:16pm — 14 Comments

रीतिरात्मा काव्यस्य - डा0 गोपाल नारायन श्रीवास्तव

रीति संप्रदाय पर चर्चा करने से पूर्व  यह स्पष्ट कर देना समीचीन होगा कि भारतीय हिन्दी साहित्य के रीति-काल में प्रयुक्त ‘रीति’ शब्द से इसका कोई प्रयोजन नहीं है I रीति-काल में लक्षण ग्रंथो के लिखने की एक बाढ़ सी आयी, जिसके महानायक केशव थे और इस स्पर्धा में कवियों के बीच आचार्य बनने की होड़ सी लग गयी I परिणाम यह हुआ कि अधिकांश कवि स्वयंसिद्ध आचार्य बने और कोई –कोई कवि न शुद्ध आचार्य रह पाए और न कवि I इस समय ‘रीति ‘ शब्द का प्रयोग काव्य शास्त्रीय लक्षणों के लिए हुआ I  किन्तु, जिस रीति संप्रदाय की…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 22, 2014 at 11:30am — 17 Comments

आग्रही नयी पीढ़ी

सामाजिक सुरक्षा को तरसे

एकल परिवारों में जो पले,

आर्थिक सुरक्षा और -

स्नेह भाव मिले

संयुक्त परिवार की ही

छाया तले |

घर परिवार में

हर सदस्य का सीर  

बुजुर्ग भी होते भागीदार,

बच्चो की परवरिश हो,

संस्कार या व्यवहार |

 

अभिभावक व माता पिता

जताकर समय का अभाव

नहीं बने

अपराध बोध के शिकार,

संयुक्त परिवार तभी

रहे और चले |

प्रतिस्पर्था से भरी

सुरसा सामान…

Continue

Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on July 22, 2014 at 10:30am — 10 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"तकनीकी कारणों से साइट खुलने में व्यवधान को देखते हुए आयोजन अवधि आज दिनांक 15.04.24 को रात्रि 12 बजे…"
23 hours ago

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय चेतन प्रकाश जी, बहुत बढ़िया प्रस्तुति। इस प्रस्तुति हेतु हार्दिक बधाई। सादर।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"आदरणीय समर कबीर जी हार्दिक धन्यवाद आपका। बहुत बहुत आभार।"
yesterday
Chetan Prakash replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जय- पराजय ः गीतिका छंद जय पराजय कुछ नहीं बस, आँकड़ो का मेल है । आड़ ..लेकर ..दूसरों.. की़, जीतने…"
yesterday
Samar kabeer replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"जनाब मिथिलेश वामनकर जी आदाब, उम्द: रचना हुई है, बधाई स्वीकार करें ।"
yesterday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर posted a blog post

ग़ज़ल: उम्र भर हम सीखते चौकोर करना

याद कर इतना न दिल कमजोर करनाआऊंगा तब खूब जी भर बोर करना।मुख्तसर सी बात है लेकिन जरूरीकह दूं मैं, बस…See More
Saturday

सदस्य कार्यकारिणी
मिथिलेश वामनकर replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"मन की तख्ती पर सदा, खींचो सत्य सुरेख। जय की होगी शृंखला  एक पराजय देख। - आयेंगे कुछ मौन…"
Saturday
Admin replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव महा उत्सव" अंक-162
"स्वागतम"
Saturday
PHOOL SINGH added a discussion to the group धार्मिक साहित्य
Thumbnail

महर्षि वाल्मीकि

महर्षि वाल्मीकिमहर्षि वाल्मीकि का जन्ममहर्षि वाल्मीकि के जन्म के बारे में बहुत भ्रांतियाँ मिलती है…See More
Wednesday
Aazi Tamaam posted a blog post

ग़ज़ल: ग़मज़दा आँखों का पानी

२१२२ २१२२ग़मज़दा आँखों का पानीबोलता है बे-ज़बानीमार ही डालेगी हमकोआज उनकी सरगिरानीआपकी हर बात…See More
Wednesday
Chetan Prakash commented on Samar kabeer's blog post "ओबीओ की 14वीं सालगिरह का तुहफ़ा"
"आदाब,  समर कबीर साहब ! ओ.बी.ओ की सालगिरह पर , आपकी ग़ज़ल-प्रस्तुति, आदरणीय ,  मंच के…"
Apr 10
Ashok Kumar Raktale commented on Ashok Kumar Raktale's blog post कैसे खैर मनाएँ
"आदरणीय सुशील सरना साहब सादर, प्रस्तूत रचना पर उत्साहवर्धन के लिये आपका बहुत-बहुत आभार। सादर "
Apr 9

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service