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All Blog Posts Tagged 'अतुकांत' (257)


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत - दवा स्वाद में मीठी जो है ( गिरिराज भंडारी )

अतुकांत - दवा स्वाद में मीठी जो है

********************************* 

मोमबत्तियाँ उजाला देतीं है

अगर एक साथ जलाईं जायें बहुत सी

तो , आनुपातिक ज़ियादा उजाला देतीं हैं

कभी इतना कि आपकी सूरत भी दिखाई देने लगे

दुनिया को

 

लेकिन आपको ये जानना चाहिये कि ,

इस उजाले की पहुँच बाहरी है

किसी के अन्दर फैले अन्धेरों तक पहुँच नही है इनकी

भ्रम में न रहें

 

कानून अगर सही सही पाले जायें

तो, ये व्यवस्था देते…

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Added by गिरिराज भंडारी on April 28, 2015 at 11:30am — 27 Comments

कलियुग में सतयुग चाहते हैं---- डॉo विजय शंकर

किस युग में रहते हैं हम ,

समय के साथ नहीं चलते हैं ,

सतयुग और द्वापर की बात

कलियुग में करतें हैं हम ,

सुदूर अतीत को वर्तमान में लाते हैं

सतयुग को कलियुग में मिलाते हैं

अपने समसामयिक युग को

समझ नहीं पाते हैं हम ,

महापाप करते हैं हम ,

समय की गति और दिशा

कुछ भी नहीं पहचानते हैं ,

गिरती दीवार थामते हैं हम।

गया वक़्त लौट के नहीं आता

जानते हैं , मानते नहीं हैं हम ।



रावणों के बीच कलियुग में रहते हैं ,

रावण के पुतले जलाते… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 19, 2015 at 9:57am — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
अतुकांत - हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क - ( गिरिराज भंडारी )

हार जाने के डर से छिपाये हुये तर्क

*******************************

कोरी बातों से या आधे अधूरे समर्पण से  

किसी भी परिवर्तन की आशायें व्यर्थ है

जब तक आत्मसमर्पण न कर दें आप

तमाम अपने छुपाये हुये हथियारों के साथ

अंदर तक कंगाल हो के

सद्यः पैदा हुये बालक जैसे , नंगा, निरीह और सरल हो के

सत्य के सामने या

वांछित बदलाव के सामने 

 

आपके सारे अब तक के अर्जित ज्ञान ही तो

हथियार हैं आपके

वही तो सुझाते हैं आपको…

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Added by गिरिराज भंडारी on April 17, 2015 at 9:00am — 23 Comments

हादसे --- डॉo विजय शंकर

हादसे होते रहते हैं ,

कवरेज होते रहते हैं,

लोग देखते रहते हैं ,

चि ची ची करते रहते हैं ,

बयान होते रहते हैं ,

बहस के शो होते रहते हैं,

संवेदनाओं के लिए

दौरे होते रहते हैं ,

आंसू पोछे जाते हैं ,

आंसू बहाये जाते हैं ,

आंकड़े दिखाए जाते हैं ,

कितने कम हो रहे हैं ,

बताये , गिनाये जाते हैं ,

कितने गुहार नहीं होते ,

वो , नहीं गिनाये जाते हैं ,

अदालतों में पड़े , बढ़ते केस

कभी नहीं बताये जाते हैं ,

फैसले भी कब होते… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 15, 2015 at 10:24am — 20 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : मुक्ति (गणेश जी बागी)

मुख पर स्थाई भाव

न राग न द्वेष

शांत और निच्छल

पूर्णता को प्राप्त



जिन्दगी की भाग-दौड़

बहू की भुन-भुन

बेटे की झिड़की 

पत्नि की देखभाल



और ....



महंगी दवाइयों से

मिल गयी मुक्ति

 



चल पड़ा वो

सब कुछ त्याग

महा-यात्रा…

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Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on April 14, 2015 at 3:47pm — 23 Comments

बात गज़ब की करते हो -- डॉo विजय शंकर

हालात बदलने की बात करते हो

आदमी बदल देते हो

हालात बदल नहीं पाते ,

या बदलना नहीं चाहते हो।

खुद को तरक्की पसंद कहते हो

तरक्की की बात करते हो

काम करने के पुराने तरीके

नहीं बदलते हो ,

आदमी बदल देते हो ।

उसने बहुत सहा , अब तुम सहो ,

इसी को सामाजिक न्याय कहते हो ,

गज़ब करते हो बिना हींग फिटकरी के

रंग चोखा करते हो ॥

तरक्की की बात करते हो

खुद को तरक्की पसंद कहते हो ॥

अच्छा करते हो कि बुरा, पता नहीं

पर बात गज़ब की करते हो… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 8, 2015 at 9:42am — 27 Comments

शिक्षा और अंगूठा -- डॉo विजय शंकर

द्रोणाचार्य

एक युग प्रवर्तक शिक्षक ,

राजकीय सरंक्षण के शिक्षक ,

सरकारी व्यवस्था के आधीन ,

शिक्षक और वह भी पराधीन ,

एकलव्य से अंगूठा मांगने को विवश ,

शिक्षा को सीमित करने को लाचार।

राज्य के राजकीय गुरु थे द्रोण ,

सरकारी अध्यापक से थे द्रोण ,

राजपुत्रों को पढ़ाते थे द्रोण

राजहित में पढ़ाते थे द्रोण ,

जनहित नहीं जानते थे द्रोण ,

राजहित में ही एकलव्य से अंगूठा

मांग बैठे थे बिचारे द्रोण ………



एक परम्परा छोड़ गए द्रोण… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 4, 2015 at 10:37am — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आपने नहीं पहचाना शायद -- अतुकांत - गिरिराज भंडारी

उड़ानें उसकी बहुत ऊँची हो चुकी हैं

बेशक ,  बहुत ऊँची

खुशी होती है देख कर

अर्श से फर्श तक पर फड़फड़ाते

बेरोक , बिला झिझक, स्वछंद उड़ते देख कर उसे

जिसके नन्हें परों को

कमज़ोर शरीर में उगते हुए देखा है

छोटे-छोटे कमज़ोर परों को मज़बूतियाँ दीं थीं

अपने इन्हीं विशाल डैनों से दिया है सहारा उसे

परों को फड़फड़ाने का हुनर बताया था  

दिया था हौसला, उसकी शुरुआती स्वाभाविक लड़खड़ाहट को

खुशी तब भी बहुत होती थी

नवांकुरों की कोशिशें…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on April 2, 2015 at 9:30pm — 23 Comments

अक़्ल पे यकीन नहीं रह गया दोस्तों ---डा० विजय शंकर

पहली अप्रेल की भेंट



अब तो अक़्ल पे यकीन नहीं रह गया दोस्तों ,

आप ही बताएं अक़्ल बड़ी या भैंस दोस्तों ॥

आप कहेंगें अक़्ल बड़े काम की चीज है

मैं कहूँगा, अक़्ल से काम लो , अक़्ल

किसी काम की चीज नहीं है दोस्तों ॥

अक़्ल हमेशा भैंस से मात खा जाती है ,

सामना भैंस से हो तो गुम हो जाती है ॥

अक़्ल अपनी हिफाज़त ही नहीं कर पाती है

भैंस उसे देखते देखते ही चर जाती है ॥

अक़्ल कुछ देती है , पक्का मालूम नहीं ,

भैंस अक्सर दूध देती तो है दोस्तों… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 1, 2015 at 10:10am — 14 Comments

गलत करने का हक़ -- डा० विजय शंकर

सही होने ,

सही कहने ,

सही करने का

अधिकार किसको चाहिए ॥

किसी को थोड़ा ,

किसी को ज्यादा ,

गलत कर लेने का

हक़ सबको चाहिए ॥

किसी-किसी को तो

गुनाह करने का अख्तियार ,

भी बेइंतिहा चाहिए ॥



दुनियाँ को अच्छा होना चाहिए ।

हमारे गुनाहों पे पर्दा होना चाहिए ।

हमारे गलत कामों पर चुप,

निगाह नीची , और चर्चा पर

कठोर प्रतिबंध होना चाहिए ।

दुनियाँ में कुछ तो

शर्म-औ-हया होनी चाहिए ।

हम हैं तो ये जहांन है, ज़माना… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 29, 2015 at 4:54pm — 20 Comments

तुमसे अकेले में मुलाक़ात

आज झुरमुट से उजास में

शुभ्र नूतन सा गुलाबी प्रभात

तुम से की, शरमाते हुए ,

आज कितने दिनों के बाद

तुमसे अकेले में की मुलाक़ात

 

और अपलक रही थी निहार…

Continue

Added by kalpna mishra bajpai on March 28, 2015 at 9:30am — 6 Comments

इच्छायें और चाहतें -- डॉo विजय शंकर

चाहतें इतनी ,

ये मिल जाता ,

वो मिल जाता ,

जो चाहा वो मिल जाता ,

कितना अच्छा हो जाता ।

चाहतें ही चाहतें

इच्छाओं की क्या कहें ,

पनपती ही नहीं ,

चाहतें हैं कि कम होती ही नहीं ,

इच्छायें है कि जनम लेतीं ही नहीं ,

इच्छा को इच्छा - शक्ति चाहिये ,

तभी फलीभूत होती है ,

चाहतें स्वयं सशक्त होती हैं।

बढ़ती हैं, अपने आप ,

देख के दूसरों को बढ़ती हैं ,

इच्छाएं नहीं बढ़ती हैं ,

स्वयं तो बिकुल नहीं ,

इच्छा को वहां भी शक्ति… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 24, 2015 at 9:31am — 16 Comments

हम तन्हा कहाँ होते हैं --डा० विजय शंकर

हम जब तन्हा होते हैं ?

तुम्हारे साथ होते हैं

तुमसे बातें करते हैं

तुमको देखा करते हैं

तुम्हारी मुस्कुराहटों में

हँसते हैं , जी लेते हैं

तुमसे सवाल करते हैं

तुम्हारे जवाब देते हैं

तुम्हारे हरेक सवाल के

सौ सौ जवाब देते हैं

कितनी बार पूछती हो

जब आप तन्हा होते हैं

तब आप क्या करते हैं ?

हम तन्हा कहाँ होते हैं

हम जहां भी होते हैं

तुम्हारे साथ होते हैं

हर बात मान लेती हो

इस पर यकीं नहीं करतीं

जब हम प्यार में होते… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 21, 2015 at 9:17pm — 10 Comments

कराहती है माँ गंगा

व्यथित है पतितपावनी

अपनी दशा पर आज

प्रश्न पूछती यही सबसे हजार बार

की है किसने दुर्गति ये

कौन है इसका जिम्मेदार ?



राजा, रंक हो या संत

दिया सबको समान अधिकार

सिंचित कर धरा को

भरा संपदा जिसने अपार

विष भर उसकी रगों में फिर

धकेला किसने उसे मृत्यु के द्वार ?



स्नान आचमन से जिसके देव प्रशन्न होते हैं

मुख में इक बूँद ले लोग

स्वर्ग गमन करते हैं

आँचल में उसी के शवों को छुपा

ढेरों मैल बहाया है

दामन पर…

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Added by Meena Pathak on March 20, 2015 at 3:24pm — 18 Comments

वो आगे जाते रहे, हम पीछे जाते रहे - डॉo विजय शंकर

दुनियाँ में लोग

मन की गति से

अरमान पूरे करते रहे ,

जो चाहा उसे

हासिल करते रहे ,

हम हसरतों को

दबाने , मन मारने ,

के हुनर सिखाते रहे।

जो है उसे पाने में

वो जिंदगी पाते रहे ,

हम उसी को मिथ्या

और भ्रम बताते रहे।

वो गति औ प्रगति गाते रहे

हम सद्गति को गुनगुनाते रहे ,

वो आगे जाते रहे ,

हम पीछे जाते रहे ,

वो देश को सोने

जैसा बनाते रहे ,

हम देश को सोने की

चिड़िया बताते रहे ,

लोग उल्लुओं को

पास आने… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 19, 2015 at 9:43am — 19 Comments

कोकून :हरि प्रकाश दुबे

अपने कोकून को

तोड़ दिया है मैंने अब

जिसमे कैद था, मैं एक वक़्त से

और समेट लिया था अपने आप को

इस काराग्रह में ,एक बंदी की तरह !

निकल आया हूँ बाहर , उड़ने की चाह लिए

अब बस कुछ ही दिनों में, पंख भी निकल आयेंगे

उड़ जाऊंगा दूर गगन में कहीं , इससे पहले की लोग

मुझे फिर से ना उबाल डालें , एक रेशम का धागा बनाने के लिए

और उस धागे से अपनी , सतरंगी साड़ियाँ और धोतियाँ बनाने के लिए !!

 

© हरि प्रकाश दुबे

“मौलिक व अप्रकाशित…

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Added by Hari Prakash Dubey on March 12, 2015 at 3:30pm — 26 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
' एक सवाल पूछूँगा ज़रूर ' -- अतुकांत ( गिरिराज भंडारी )

ऐ ज़िन्दगी !

सांसे चल रहीं है मेरी , इसलिये

मरा हुआ तो नहीं कह सकता खुद को

जी ही रहा होऊँगा ज़रूर, किसी तरह , ये मैं जानता हूँ

पर एक सवाल पूछूँगा ज़रूर

 

क्या सच में तू मेरे अंदर कहीं जी रही है ?

जैसे ज़िन्दगी जिया करती है

इस तरह कि  , मै भी कह सकूँ जीना जिसे

उत्साहों से भरी

उत्सवों से भरी

उमंगों से सराबोर सोच के साथ , निर्बन्ध  

चमक दार आईने की तरह साफ मन

प्रतिबिम्बित हो सके  जिसमें शक्ल आपकी , खुद की भी…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 12, 2015 at 7:40am — 26 Comments

हिम्मत बढ़ाईये , जीते जाइए --डॉ o विजय शंकर

सच बोलने के लिए

गर मासूमियत नहीं,

हिम्मत औ जिगर की

जरूरत पड़ने लग जाए ,

तो समझ लीजिये कि

मासूमियत तो गई ,

बिलकुल चली गई ,

आपकी जिंदगी से ,

आपके आस-पास से ,

आप तो बस जी लीजिये

जिगर से , हिम्मत से।

जिंदगी एक प्यार का नगमा ,

एक मधुर गीत है ,

भूल जाइए , आपके लिए तो ,

बस एक संघर्ष है,

हिम्मत बढ़ाते जाइए ,

और जीते जाइए ,

जीते जाइए |

जब सच के लिए

हिम्मत की जरूरत

पड़ने लग जाए तो समझ जाइए ,

वो दिन… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 11, 2015 at 6:29pm — 20 Comments


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मिटा दूँ या मिट जाऊँ -- अतुकांत ( गिरिराज भण्डारी )

मिटा दूँ या मिट जाऊँ

-----------------------

कब से भटक रहा हूँ

कभी पानी हुये

तो कभी खुद को नमक किये 

कोई तो मिले घुलनशील

या घोलक

घोल लूँ या घुल जाऊँ ,

समेट लूँ

अपने अस्तित्व में या

एक सार हो जाऊँ , किसी के अस्तित्व संग

विलीन कर दूँ ,

खुद को उसमें

या कर लूँ ,

उसको खुद में

भूल कर अपने होने का अहम

और भुला पाऊँ किसी को

उसके होने को   

ख़त्म हो जाये दोनों का ठोस…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on March 10, 2015 at 10:44am — 23 Comments

क्यों कहते हो कुछ नहीं हो सकता है--- डॉo विजय शंकर

तुम बता रहे हो ,

मैं जानता हूँ , कुछ नहीं हो सकता ,

सदियों से झेलते आ रहे हैं ,

कुछ हुआ , अचानक अब क्या हो जाएगा।

पर , आओ हम कहें , तुम कहो , सब कहें कि

कुछ नहीं हो सकता , तय तो कर लें कि

क्या कुछ हो नहीं सकता।

वो जो पुरोधा बन के बैठे हैं ,

वह भी यही कह रहें हैं ,

वैसे वो जो चाहतें हैं , वह सब हो जाता है,

भाव बढ़ जाते हैं , मंहगाई बढ़ जाती है ,

उनकीं तारीफ़ , यशोगान हो जाता है ,

बस यही नहीं हो पाता है ,

हम ही दुनिया में अनूठे… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on March 9, 2015 at 8:43pm — 26 Comments

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