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Nilesh Shevgaonkar's Blog – May 2016 Archive (5)

ग़ैर मुरद्दफ़ ग़ज़ल-नूर

२१२२/२१२२/२१२१२ 

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ज़िन्दगी क़दमों पे थी तब शूल थे गड़े,

जब चले कांधो पे, पीछे... फूल थे पड़े.

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काम तो छोटे ही आये.. वक़्त जब पडा,

लिस्ट में कितने अगरचे नाम थे बड़े. 

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एक है अल्लाह ये कह कर गये रसूल,…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 29, 2016 at 7:47pm — 19 Comments

ग़ज़ल -नूर- ख़ुदाया आज फिर धडकन थमी है

१२२२/१२२२/१२२ 



ख़ुदाया आज फिर धडकन थमी है,

किसी की याद दिल में चुभ रही है.

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मसीहा को मसीहाई चढ़ी है,

मसीहा को हमारी क्या पड़ी है.

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कहीं पर अश्क मिट्टी हो रहे हैं

कहीं प्यासी तड़पती ज़िन्दगी है.

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कई जुगनू चमक उट्ठे हैं

लेकिन कमी सूरज की रातों में खली है.

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मेरी नज़रें जमी हैं आसमां पर,

न जानें क्यूँ वहाँ भी ख़लबली है.

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रगड़ता है हर इक साहिल पे माथा,

समुन्दर की ये कैसी बे-बसी है.

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गुनाहों में गिनीं जाएगी…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 10, 2016 at 8:23am — 8 Comments

ग़ज़ल-नूर-अश्क आँखों से फिर बहा जाये,

२१२२/१२१२/२२ (११२)

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अश्क आँखों से फिर बहा जाये,

अपना जाये, किसी का क्या जाये.

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तुम अगर चश्म-ए-तर में आ जाओ,

झील में चाँद झिलमिला जाये.
 

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ढ़लती उम्रों के मोजज़े हैं मियाँ

इक बुझा जाए, इक जला जाये.

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याद माज़ी को कर के जी लूँगा, 

फिर जहाँ तक ये सिलसिला जाये.

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ज़ह’न कहता है, कर ले सब्र ज़रा,

और दिल है कि बस…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2016 at 7:00am — 20 Comments

ग़ज़ल -नूर- नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,

१२१२/११२२/१२१२/२२ (११२)

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नए मिज़ाज के लोगों में तल्खियाँ हैं बहुत,

कई ख़ुदा से, कई ख़ुद से सरगिराँ हैं बहुत.

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किसी के मिलने मिलाने का पालिये न भरम,

ज़मीं-फ़लक में उफ़ुक़ पर भी दूरियाँ हैं बहुत.

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अभी ग़ज़ल में कई रँग और भरने हैं,

अभी ख़याल की शाख़ों पे तितलियाँ हैं बहुत.

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सियासी चाल है हिन्दी की जंग उर्दू से,

सहेलियाँ हैं ये बचपन की; हमज़बाँ हैं बहुत.

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परिंदे यादों के, आ बैठते हैं ताक़ों पर,

उजाड़ माज़ी के खंडर में खिड़कियाँ…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2016 at 5:42pm — 21 Comments

ग़ज़ल -नूर- कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो

१२१२ /११२२ /१२१२ /२२ (११२)

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कोई चराग़ जला कर खुली हवा में रखो,

जो कश्तियाँ नहीं लौटीं उन्हें दुआ में रखो.

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ग़ज़ब सितम है इसे यूँ अलग थलग रखना,

शराब ज़ह’र नहीं है इसे दवा में रखो.

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इधर हैं बाढ़ के हालात और उधर सूखा,

हमारी दीदएतर अब, उधर फ़ज़ा में रखो.

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शबाब हुस्न पे आया तो है मगर कम कम,

है मशविरा कि हया भी हर इक अदा में रखो.

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तमाम फ़ैसले मेरे तुम्हे लगेंगे सही,

अगर जो ख़ुद को कभी तुम मेरी क़बा में रखो.  

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ज़बां…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 1, 2016 at 12:28pm — 20 Comments

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