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Manoj kumar shrivastava's Blog – November 2017 Archive (10)

बदनाम इतिहास

आकाओं की आवाज़
मौनी हो गई है,
इस शहर की सियासत
बौनी हो गई है,
सोच के साथ-साथ,
कर्मों में भी दरख़्त है,
मेरे मसीहा का पेशाना,
पिंडारियों सा सख्त है,
शायद उसे याद नहीं कि
आदमी केवल हाड़-मास है,
कल का चर्चित रहा डाकू,
आज का बदनाम इतिहास है....

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manoj kumar shrivastava on November 30, 2017 at 11:07pm — 5 Comments

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

विद्यालय का प्यारा आॅंगन,

साथी-संगियों से वह अनबन,

गुरू के भय का अद्भुत कंपन,

इन्हीं विचारों के घेरे में,

मन को अपने सेंक रहा हूॅं,

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

निष्छल मन का था सागर,

पर्वत-नदियों में था घर,

उछल-कूद कर जाता था मैं,

गलती पर डर जाता था मैं,

लेकिन आज यहाॅं पर फिर से,

गल्तियों का आलेख रहा हूॅं,

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

चिर लक्ष्य का स्वप्न संजोया,

भावों का मैं हार पिरोया,

मेहनत की फिर कड़ी…

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Added by Manoj kumar shrivastava on November 27, 2017 at 9:47pm — 8 Comments

मेरी माॅं का है

सागर जैसी आॅंखों में,
बहते हुए हीरे मेरी माॅं के हैं,
होठों के चमन में,
झड़ते हुए फूल, मेरी माॅं के हैं,
काॅंटों की पगडंडियों में,
दामन के सहारे मेरी माॅं के हैं,
गोदी के बिस्तर में,
प्यार की चादर मेरी माॅं की हैं,
प्यासे कपोलों,
पर छलकते ये चुंबन मेरी माॅं के हैं,
ईश्वर से मेरी,
कुशलता की कामना मेरी माॅं की हैं,
इतराता हूॅं इतना,
पाकर यह जीवन,
मेरी माॅं का है।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manoj kumar shrivastava on November 25, 2017 at 9:30pm — 10 Comments

ओ निश्छलता!

ओ निश्छलता!

क्यों नहीं हो मेरे मन में?

रहती क्यों,

नवजात शिशु के,

मुखमंडल में,

तुम क्यों रहती!

स्वच्छाकाश,

चंद्र-तारे

और धरातल में,

तुम क्यों रहती!

हवा के झोंकों,गिरि की सुंदरता,

उन्मुक्त गगन में,

क्यों नहीं हो मेरे मन में?

तुम क्यों रहती!

नदी की लहरों,

फूलों के चेहरों और हरियाली में,

क्यों रहती तुम!

माॅं की ममता,

दुआओं और खुशहाली में,

हर वक्त हर घड़ी,

दे रही हो साथ,

प्रभु के दिये,

इस… Continue

Added by Manoj kumar shrivastava on November 25, 2017 at 12:18pm — 10 Comments

प्रश्न तुमसे है

ओ साहब!!!

क्या तुम आधुनिक लोकतंत्र को

लूटने वाले नेता हो!

या रईसी के दम पर बिकने वाले

अभिनेता हो!

क्या तुम वास्तविकता से अंजान

बड़े पद पर बैठे अधिकारी हो!

या मानवता की दलाली करने वाले

शिकारी हो!

क्या तुम भ्रष्टाचार में सिंके हुए

गुर्दे हो!

या विधानालय में वास करने वाले

मुर्दे हो!

तुम जो भी हो !!

मेरा प्रश्न है कि

अपनी बेटी की आबरू लूटने वाले के प्रति

तुम क्या सोचते?

तुम मौन हो!

पर मुझे मालूम है…

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Added by Manoj kumar shrivastava on November 22, 2017 at 10:30pm — 8 Comments

क्यों की तुमने आत्महत्या

जब तुमने की होगी आत्महत्या,

तब कितना कठोर किया होगा मन,

कितनी सही होगी वेदना,

संभवतः तुम्हारे अंगों ने भी,

तुमसे कहा होगा कि,

‘एक बार फिर सोच लो‘,

परंतु तुमने निष्ठुरता का

प्रमाण देते हुए,

अनदेखा कर दिया होगा,

कदाचित तुमने यह भी

नहीं सोचा होगा कि,

तुम्हारे मृत शरीर को

देखकर अवस्थाहीन

हो जाएगी तुम्हारी ‘जननी‘,

जिसका अंश है तुम्हारा शरीर,

तब, चहुंदिशि होगी,

करूणा और क्रंदन

जो चीख-चीख कर

कह रहे होंगे-‘‘आखिर

क्यों की…

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Added by Manoj kumar shrivastava on November 22, 2017 at 7:30am — 4 Comments

खामोश आखें

खामोश आखें

होली आयी और चली गयी,
पिछले साल से भली गयी,
पर किसी ने देखा!
किसका क्या जला?
मैंने देखा,
’उसकी डूबती खामोश आॅंखें’
और भीगी पलकों को,
और वह खड़ा,
एकटक देख रहा था,
’होली को जलते’
जैसे उसे मालूम न हो,
अपनी ‘आॅंखों ’ के कारनामे

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manoj kumar shrivastava on November 20, 2017 at 10:00pm — 5 Comments

चरित्र गिर रहा है

मन में आत्मा में आॅंखों में,

मीठी-मीठी बातों में,

चरित्र गिर रहा है,

मत गिरने दो।

स्नेह में ममत्व में भावनाओं में,

मूल्यों में सम्मान में दुआओं में,

हर क्षेत्र हर दिशाओं में,

चरित्र गिर रहा है,

मत गिरने दो।

वादों में इरादों पनाह में,

विश्वास में परवाह में,

वांछितों की चाह में,

चरित्र गिर रहा है,

मत गिरने दो।

आवाज में अंदाज में,

प्रजा में सरताज में,

कल में आज में,

हर रूप में हर राज में,

चरित्र गिर रहा…

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Added by Manoj kumar shrivastava on November 19, 2017 at 9:30pm — 14 Comments

महफिल का भार

शादी की महफिल में,

हाइलोजन के भार से,

दबा कंधा,

ताशे और ढोल का,

वजन उठाये हर बंदा,

हाइड्रोजन भरे गुब्बारे,

सजाने वालों का पसीना,

स्टेज बनाने गड्ढे खोदने का,

तनाव लिये युवक,

चूड़ीदार परदों पर,

कील ठोंकता शख्श,

पूड़ी बेलती कामगर,

महिलाओं की एकाग्रता,

कुर्सियाॅं सजाते,

युवकों का समर्पण,

कैमरा फलैश में,

चमकते लोगों की शान,

कहीं न कहीं,

इन सबका होना जरूरी है,

किसी की खुशी,

किसी की मजबूरी है,

ये…

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Added by Manoj kumar shrivastava on November 16, 2017 at 10:00pm — 8 Comments

बने-बनाये शब्दों पर

बने-बनाये शब्दों पर
तू क्यों फंदे!
कलम सलामत है तेरी,
तू लिख बंदे,
उम्मीद मत कर कि कोई,
आयेगा तुझे,
तेरे दर पे सिखाने,
इंसां को देख,
तू खुद सीख बंदे,
बुराई लाख चाहे भी,
तुझे फॅंसाना,
अच्छाई को पूज,
खुद मिट जाएंगे,
विचार गंदे।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Manoj kumar shrivastava on November 16, 2017 at 9:30pm — 4 Comments

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