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Usha's Blog – November 2019 Archive (6)

उल्फत या कि नफ़रत। (अतुकांत कविता)

सुना था मसले,
दो तरफा हुआ करते हैं,
पर हैरानगी का आलम तब हुआ कि,
जब वे अकेले ही ख़फा हो, बैठ गए।
हमने भी यह सोच कर,
ज़िक्र न छेड़ा कि,
ख़ामोशी कई मर्तबा,
लौटा ही लाती है, मुहब्बते-इज़हार,
पर अफसोस कि,
पासा ही पलट गया,
अपना तो मजमा लग गया,
और वे जो उल्फ़तों के किस्से गढ़ा करते थे,
नफ़रतों की मीनारें खड़ी करते चले गए।

मौलिक व् अप्रकाशित।

Added by Usha on November 26, 2019 at 9:00am — 14 Comments

क्षणिकाएं।

क्षणिकाएं।



इतने बड़े जहां में,

क्यों तू ही नहीं छिप सका,

ऐसा क्या खास तुझमें हुआ किया,

कि, हर नए ज़ख्म पर,

नाम तेरा ही छपा पाया।............. 1



सुना-सुना सा लगता है,

वो सदा है उसके वास्ते,

जीया-जीया सा सच है,

वो खुद ही है खुद के वास्ते,

हाँ, और कोई नहीं, कोई नहीं।............. 2



कहते…

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Added by Usha on November 24, 2019 at 10:18am — 14 Comments

क्षणिकाएँ

दिन ढलते, शाम चढ़ते,

उसका डर बढ़ने लगता है,

क़िस्मत, दस्तक भी देगी और

भीनी यादें तूफान भी उठायेंगी ,

फिर भी होगा कुछ भी नया नहीं,

बस यह अहसास कराते हुए

कि वो किसी और पर मेहरबान है,

उसके पास से धीरे से सरक जाएगी

और चूम लेगी किसी और को।.............1

अटपटा दीवानापन सा,

महसूस तू करवाता है,

हर नए दिन,

हर नई शाम,

यकीन दिलाकर,

तू सिर्फ उसका है,

बाहों में किसी और की,

चला जाता है ।............…

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Added by Usha on November 18, 2019 at 8:30am — 5 Comments

कैसा घर-संसार?

दोनों पति-पत्नि अपने लव-कुश के साथ खुश थे। माताजी और पिताजी इस छोटे से परिवार में खुश तो थे लेकिन और पैसा कमाने के लिए बेटे समीर को दिन-रात औरों के बेटों की कहानियाँ सुना-सुना ताना देते रहते। रोज़ सुबह और शाम डायनिंग टेबल पर बैठ, एक बयौरा सा देते हुए बताया करते कि फलां के बेटे की तनख़्वाह इतनी हो गयी, फलां के बेटे ने फलैट बुक करवा दिया और फलाने ने तो कैश पेमैंट पर बड़ी गाड़ी खरीद ली।

ये सब सुन-सुनकर समीर परेशान हो गया और अपने ही घर में बेइज्जत होने से थककर बाहर जाने की तैयारी करने…

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Added by Usha on November 15, 2019 at 9:00am — 4 Comments

क्षणिकाएँ।

करके वादा,
किसी से न कहेंगे,
दिल का दर्द मेरे जान लिया।
ढोंग था सब,
तब समझे हम कि,
महफ़िल में सरे-आम बदनाम हो गए।...........1

पहली नज़र में ही उनपर,
हम दिल अपना हार बैठे,
कहना कुछ चाहा था,
कह कुछ और गए।.......... 2

अक्सर देखा है हमने,
उनको रंग बदलते हुए,
पर हैरान हैं कि,
कोई तो पक्का होता।.......... 3


मौलिक व् अप्रकाशित।

Added by Usha on November 13, 2019 at 7:09pm — 13 Comments

कहो, तुम पुरुष कौन?

काव्य-रुपी शब्दों का विनम्र समर्पण कविवर सुमित्रानंदन प॔त जी की कविता "कहो, तुम रूपसी कौन?" से प्रेरित हो मेरे द्वारा उनके सम्मान में किया गया एक प्रयास।

कहो, तुम पुरुष कौन?

निशक्त बतलाओ तो, क्या नाम दूँ तुम्हें ?

जान लो, पहचान लो, स्मरण कर लो,

प्रभावशाली, विराट, अखंडित,

अजेय एवं समृद्ध तुम।

हर क्षण रहे सुदृढ़, मजबूत और कर्मठ,

कुछ नहीं नामुमकिन, कठिन, दुष्कर।

प्रत्येक क्षण, रहे करनी सुदृढ़ व मजबूत,

कुछ नहीं नामुमकिन, कठिन, दुष्कर…

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Added by Usha on November 2, 2019 at 11:16am — 7 Comments

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