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योगराज प्रभाकर's Blog (62)

2 घनाक्षरी छंद

(माँ-बाप)



घर बूढ़े माता पिता, भूख से बेहाल दोनों,

बेटा पत्नी को लेकर, पार्टी उडाय रहा !



पीठ संग लग चुका, पेट बूढ़े बुढिया का

साथ गया टौमी कुत्ता, मुर्गी चबाय रहा !



आधी रात बीत गई, आए नहीं बेटा बहू

बुरा बुरा सोच कर, जी घबराय रहा !



हाथ उसका पकड़, बापू समझाए माँ को

धीरज धरो तनिक, बेटवा आय रहा !

------------------------------------------------

(विकास)



जंगलों का खून हुआ, घोसले उजड़ गए,

पंछियों के भाग्य आया, केवल… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on June 4, 2011 at 8:30am — 5 Comments

घनाक्षरी छंद

(1)

 

(भ्रूण हत्या)

 

जैसे बेटा पैदा होना, इक वरदान कहा,

घर में न बेटी होना, एक बड़ा श्राप है !

 

होती न जो बेटियां तो, होते कैसे बेटे भला

इन्ही की वजह से तो, शिवा है - प्रताप है !

 

पैदा ही न होने देना, कोख में ही मार देना,

हर मज़हब में ये, घोर महापाप है !

 

महामृत्युंजय सम, वंश के लिए जो बेटा,

उसी तरह कन्या भी, गायत्री का जाप है…

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Added by योगराज प्रभाकर on May 30, 2011 at 9:20pm — 20 Comments

बलात्कार (लघुकथा)

"क्या यह बात सच है कि कल तुम्हारी बेटी से बलात्कार किया गया ?"
"हाँ साहब, कल शाम खेतों से लौटते हुए मेरी बेटी की इज्ज़त लूटी गई !"
"क्या तुम जानते हो कि दोषी कौन है !?"
"मैं ही नही साहब, सारा गाँव जानता है उस पापी को जिसने मेरी बेटी को बर्बाद किया है !"
"मगर इतनी बड़ी बात होने के बावजूद भी तुमने थाने जाकर रिपोर्ट क्यों नहीं लिखवाई ?"
"क्योंकि मैं अपनी बेटी का सामूहिक बलात्कार नही चाहता था ! "

Added by योगराज प्रभाकर on December 21, 2010 at 4:30pm — 24 Comments

संतान (लघुकथा)

मैं तकरीबन २० साल के बाद विदेश से अपने शहर लौटा था ! बाज़ार में घूमते हुए सहसा मेरी नज़रें सब्जी का ठेला लगाये एक बूढे पर जा टिकीं, बहुत कोशिश के बावजूद भी मैं उसको पहचान नहीं पा रहा था ! लेकिन न जाने बार बार ऐसा क्यों लग रहा था की मैं उसे बड़ी अच्छी तरह से जनता हूँ ! मेरी उत्सुकता उस बूढ़े से भी छुपी न रही , उसके चेहरे पर आई अचानक मुस्कान से मैं समझ गया था कि उसने मुझे पहचान लिया था ! काफी देर की जेहनी कशमकश के बाद जब मैंने उसे पहचाना तो मेरे पाँव के नीचे से मानो ज़मीन खिसक गई ! जब मैं विदेश गया… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on November 19, 2010 at 2:49pm — 35 Comments

सलाम (लघुकथा)

सूरज ने फक्कड़ से कहा:

"मुझे झुक कर सलाम कर !"

"तुझे सलाम करूं ? मगर क्यों?"

"ये दुनिया का दस्तूर है, चढ़ते सूरज को सभी सलाम करते हैं !"

"करते होंगे, मगर मैं तेरे आगे सिर नहीं झुकऊँगा !"

"मगर क्यों ?"

"क्योंकि तू बहुत कमज़ोर और निर्बल है, जिस दिन सबल हो जाएगा मैं तेरे आगे सर ज़रूर झुकाऊंगा !"

"कमज़ोर और निर्बल ? और वो भी मैं ?"

"हाँ !"

"तो अगर मैं ये साबित कर दूं कि मैं सबल हूँ, तो क्या तुम मुझे सलाम करोगे?"

"एक बार नही सौ सौ बार सिर झुकाकर सलाम…

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Added by योगराज प्रभाकर on October 28, 2010 at 9:30am — 42 Comments

वो भारत (लघुकथा)

आज वह अखबार पढते हुए ना जाने क्यों इतना उदास था ! इसी बीच उसकी नन्ही बच्ची ग्लोब लेकर उसके पास आ गई और कहने लगी:

"पापा, आज क्लास में बता रहे थे कि भारत ऋषि मुनियों और पीर फकीरों की धरती है, और उसको सोने की चिड़िया भी कहा जाता है ! आप ग्लोब देख कर बताईये कि भारत कहाँ हैं ?"

उसकी नज़र सहसा अखबार के उस पन्ने पर जा टिकी जो कि हत्या, लूटपाट,आगज़नी, दंगा फसाद, आतंकवाद, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार, भूख से होने वाली मौतों,धार्मिक झगड़ों और मंदिर-मस्जिद विवादों से भरा पड़ा था ! उसकी बेटी ने एक बार फिर… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on October 16, 2010 at 7:20pm — 18 Comments

बेग़ैरत (लघुकथा)

महाभारत का घटनाचक्र एक बार फिर से दोहराया गया ! लेकिन इस बार जुआ युधिष्ठिर नहीं बल्कि द्रौपदी खेल रही थी! देखते ही देखते वह भी शकुनी के चंगुल में फँसकर अपना सब कुछ हार बैठी ! सब कुछ गंवाने के बाद द्रौपदी जब उठ खडी हुई तो कौरव दल में से किसी ने पूछा:

"क्या हुआ पांचाली, उठ क्यों गईं?"

"अब मेरे पास दाँव पर लगाने के लिए कुछ नहीं बचा " द्रौपदी ने जवाब दिया !

तो उधर से एक और आवाज़ आई:

"अभी तो तुम्हारे पाँचों पति मौजूद है, इनको दाँव पर क्यों नहीं लगा देती ?"

द्रौपदी ने शर्म से… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on October 16, 2010 at 7:00pm — 23 Comments

मुलजिम (लघुकथा)

मुलजिम को संबोधित करते हुए न्यायधीश ने कहा:

"तुम पर आरोप है कि तुम सीमा पार से ५ लाख रुपये की जाली करंसी, १० लाख रुपये ने नशीले पदार्थ और भारी मात्रा में गोला बारूद लाते हुए रंगे हाथों गिरफ्तार किए गए हो ! इस से पहले कि अदालत कोई निर्णय सुनाये, क्या तुम अपनी सफाई में कुछ कहना चाहोगे?"

दोनों हाथ जोड़ कर मुलजिम ने जवाब दिया,

"केवल एक सवाल पूछने की इजाज़त चाहूँगा हुज़ूर !"

"इजाज़त है", न्यायधीश ने कहा

"जाली करंसी, नशीले पदार्थ और हथियारों का ज़िक्र तो आपने कर दिया, मगर मुझ से…

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Added by योगराज प्रभाकर on October 16, 2010 at 7:00pm — 7 Comments

OBO लाईव तरही मुशायरा-४ में पेश की गई ग़ज़लें

जनाब नवीन चतुर्वेदी जी



खारों के पास ही नाज़ुक गुलों का घर क्यूँ है|

मुद्दतों से वही मसला, वही उत्तर क्यूँ है|१|



पेट भरता चला आया युगों से जो सब का|

भाग्य में उस अभागे के, फकत ठोकर क्यूँ है|२|



सालहासाल जिसके वोट खींच रहे - संसद|

'थेगरों' से पटी उसकी शफ़क चद्दर क्यूँ है|३|



और कितनी बढ़ाएगा बता कीमत इसकी|

दृष्‍टि में तेरी, मेरे भाग की शक्कर क्यूँ है|४|



जो कि अल्लाह औ भगवान दोनो हैं इक ही|

फिर जमीँ पे कहीं… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on October 8, 2010 at 10:30am — 1 Comment

"OBO लाईव तरही मुशायरा 3"- एक रपट !

"ओपन बुक्स ऑनलाइन" के मंच से हमारे अजीज़ दोस्त राणा प्रताप सिंह द्वारा आयोजित तीसरे तरही मुशायरे में इस बार का मिसरा 'बशीर बद्र' साहब की ग़ज़ल से लिया गया था :



"ज़िंदगी में तुम्हारी कमी रह गई"



मुशायरे का आगाज़ मोहतरमा मुमताज़ नाज़ा साहिबा कि खुबसूरत गज़ल के साथ हुआ ! यूं तो मुमताज़ नाज़ा साहिबा की गज़ल का हर शेअर ही काबिल-ए-दाद और काबिल-ए-दीद था, लेकिन इन आशार ने सब का दिल जीत लिया :



//कारवां तो गुबारों में गुम हो गया

एक निगह रास्ते पर जमी रह गई

मिट गई… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 11 Comments

"OBO लाईव तरही मुशायरा 2" की सभी ग़ज़लें एक ही जगह

ओपन बुक्स ऑनलाइन पर जनाब राणा प्रताप सिंह जी द्वारा (११-१५ सितम्बर-२०१०) मुनाक्किद "OBO लाईव तरही मुशायरा 2" में तरही मिसरा था :



"उन्ही के कदमों में ही जा गिरा जमाना है"

(वज्न: १२१ २१२ १२१ २१२ २२)



उस मुशायरे में पढ़ी गईं सब ग़ज़लों को उनकी आमद के क्रम से पाठकों की सुविधा के लिए एक स्थान पर इकठ्ठा कर पेश किया जा रहा है !



// जनाब नवीन चतुर्वेदी जी //



(ग़जल-१)



फितूर जिनका लोगों को धता बताना है|

उन्हीं के कदमों में ही जा गिरा जमाना… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 23, 2010 at 10:30am — 2 Comments

जनाब हिलाल अहमद "हिलाल" के 5 कत'आत

//अर्ज़-ए-हाल//

हम अपनी जान किसी पर निसार कैसे करें,

तुझे भुला के किसी और से प्यार कैसे करें ,

तेरे बिछड़ने से दुनिया उजड़ गई दिल की,

इस उजड़े दिल को अब हम खुशगवार कैसे करें !



//सुराग़//

शब् भर हमारी याद में ऐसे जगे हो तुम,

आराम तर्क करके टहलते रहे हो तुम,

बिस्तर की सिलवटों से महसूस हो गया,

कुछ देर पहले उठ के यहाँ से गए ही तुम !



//माँ//

मेहनत के बावजूद जो पंहुचा मै अपने घर ,

वालिद का ये सवाल कमाया है तुने कुछ .

बीवी को… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:30pm — 1 Comment

जनाब हिलाल अहमद "हिलाल" के 7 कत'आत

//मशविरा//

हरगिज़ ना करना चाहिए इन्सान को गुरूर

दनिश्वरी के जौम में हो जाते हैं कुसूर

मैंने तमाम उम्र किया है सफ़र मगर

अब तक ज़मीं पे चलने का आया नहीं श'ऊर



//वाबस्तगी//

निगाह मिलते ही तुझको सलाम करता हूँ

तेरी नज़र का बड़ा एहतराम करता हूँ ,

मेरी ज़ुबां तेरी गुफ्तार से है वाबस्ता,

ये कौन कहता है सबसे कलाम करता हूँ !



//बदकिस्मती//

वो है मेरा रफीक मैं उसका रकीब हूँ

दुनिया समझ रही मैं उसके करीब हूँ

चाहा था जिसने मुझको मैं उसका… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 22, 2010 at 12:29pm — 2 Comments

ग़ज़ल - 8 (योगराज प्रभाकर)

रेशम के शहर आ बसा हूँ इस यकीन से

कोई तो मिले इश्क जिसे पापलीन से !



मैं चाँद सितारों के ज़िक्र में हूँ अनाड़ी,

इन्सान हूँ जुड़ा हुआ अपनी ज़मीन से !.



सच्चाई की तासीर तो कड़वी ही रहेगी,

आएगी न मिठास कभी भी कुनीन से !



मजबूरी-ए-हालात है कुछ और नहीं है,

जो मस्त लगा नाग सपेरे की बीन से !



बंगले मकान तो यहाँ लाखो ही मिलेंगे

घर ढूँढना पड़ेगा मगर दूरबीन से !



सर को उठाऊँ ग़र तो चूल्हा रहे ठंडा,

सर को झुकाऊँ गर तो गिरता हूँ… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on September 7, 2010 at 10:00am — 21 Comments

एक भाई के दिल की पुकार ... ओ मेरी लाडली बहन

ओ मेरी लाडली बहन, ओ मेरी माँ जाई,

तुझ पे कुर्बान है सदा, तुम्हारा ये भाई !



जहाँ में चाँद सितारे हैं कायम जब तक,

तेरा सुहाग भी अमर रहे सदा तब तक !



तुम्हारे गाँव से बस ठंडी हवा आती रहे,

जिंदगानी तुम्हारी यूँ ही मुस्कुराती रहे !



मेरे बाबा की मेरी माँ की निशानी तू है

मेरे कुनबे की शर्म-ओ-लाज की बानी तू है !



दिल ये कहता है कि मैं फिर से मनाऊँ तुझको ,

अपने कन्धों पे बिठा फिर से घुमाऊँ तुझको !



तुम्हारी कपडे की गुडिया बहुत… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on August 23, 2010 at 11:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल-7 (योगराज प्रभाकर)

कत्ल पेड़ों का हुआ तो, हो गया प्यासा कुआँ !

तिश्नगी अब क्या बुझाएगा भला तिश्ना कुआँ !



पनघटों पर ढूँढती फिरती सभी पनिहारियाँ,

एक दिन ये लौट कर आयेगा बंजारा कुआँ !



बस किताबों में नजर आएगा, ये अफ़सोस है

हो गया इतिहास अब ये भूला बिसरा सा कुआँ !



एक दिन बेटी को जिसकी खा गया था रात में,

उसको तो ख़ूनी लगे उसदिन से ही अँधा कुआँ !



मौत शायद टल ही जाये धान की इंसान की,

गर किसी सूरत कहीं ये हो सके ज़िन्दा कुआँ…
Continue

Added by योगराज प्रभाकर on August 12, 2010 at 12:30am — 11 Comments

ग़ज़ल-6 (योगराज प्रभाकर)

कई बरसों के बाद घर मेरे चिड़ियाँ आईं

बाद मुद्दत ज्यों पीहर में बेटियाँ आईं !



ज़मीं वालों के तो हिस्से में कोठियाँ आईं,

बैल वालों के नसीबों में झुग्गियाँ आईं !



जाल दिलकश बड़े ले ले के मकड़ियां आईं

कत्ल हों जाएँगी यहाँ जो तितलियाँ आईं !



झोपडी कांप उठी रूह तलक सावन में,

ज्योंही आकाश पे काली सी बदलियाँ आईं !



ऐसे महसूस हुआ लौट के बचपन आया,

कल बड़ी याद मुझे माँ की झिड़कियां आईं !



बेटियों के लिए पीहर में पड़ गए ताले

हाथ… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on August 2, 2010 at 9:00pm — 7 Comments

ग़ज़ल - 5 (योगराज प्रभाकर)

उसका हर गीत ही अखबार हुआ जाता है,
क्यों ये फनकार पत्रकार हुआ जाता है !

जबसे आशार का मौजू बना लिया सच को,
बेवजन शेअर भी शाहकार हुआ जाता है !

अपने बच्चों को जो बाँट के खाते देखा ,
दौर ग़ुरबत का भी त्यौहार हुआ जाता है !

बेल बेख़ौफ़ हो गले से क्या लगी उसके
बूढा पीपल तो शर्मसार हुआ जाता है !

हरेक दीवार फासलों की गिरा दी जब से
सारा संसार भी परिवार हुआ जाता है !

Added by योगराज प्रभाकर on July 16, 2010 at 9:00pm — 5 Comments

ग़ज़ल - 4 (योगराज प्रभाकर)

मेरे बच्चों को खाना मिल गया है,

मुझे सारा ज़माना मिल गया है !



जबसे तेरा ये शाना मिल गया है,

आंसुयों को ठिकाना मिल गया है !



मेरा पडौस परेशान है यही सुनकर

मुझे क्यों आब-ओ-दाना मिल गया है!



तेरे आशार और मुझको मुखातिब,

मुझे मानो खजाना मिल गया है !



कलम उगलेगी आग अब यकीनन,

जख्म दिल का पुराना मिल गया है !



मेरे आशार और है ज़िक्र उनका,

दीवाने को दीवाना मिल गया है !



लुटेंगीं अस्मतें बहुओं की अब तो,

मेरे… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on July 4, 2010 at 11:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल नo- ३ (योगराज प्रभाकर)

ये काग़ज़ पे लिखी तरक्कियां, कुछ और कहती हैं

मगर लाखों करोड़ों झुग्गियां, कुछ और कहती हैं !



बड़ा फराख दिल है शहर तेरा शक नहीं मुझ को ,

ये हर-सू बंद पड़ी खिड़कियाँ, कुछ और कहती हैं !



तेरा दा'वा है कि अमन-ओ-सकूं है शहर में सारे,

मगर अख़बार की ये सुर्खियाँ, कुछ और कहती हैं !



मुझे यकीं नहीं आता बहार आ गयी, क्यों कि

उदास चेहरे लिए तितलियाँ, कुछ और कहती हैं !



मुझे गुमान था कि मैं बना हूँ खुद के ही दम से,

मेरे बापू की बूढी हड्डियाँ,… Continue

Added by योगराज प्रभाकर on May 10, 2010 at 10:30am — 13 Comments

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